Sunday, December 24, 2006

उभरते हुये चिट्ठाकार

http://web.archive.org/web/20110926112601/http://hindini.com/fursatiya/archives/220

उभरते हुये चिट्ठाकार

हमने राग दरबारी का अगला भाग पोस्ट करके आराम की सांस लेना शुरू ही किया था कि तरकश के इस तीर ने हमारे आराम का ‘हे राम!’ कर दिया। हम ‘सर्वश्रेष्ठ उभरता हुआ चिट्ठाकार – 2006′ के चुनाव के जज बना दिये गये। बनाये तो हम मुख्य जज गये थे लेकिन जब हमने बताया कि हमने आज तक चिट्ठा जगत में जो कुछ भी गलत-सही किया उसके लिये दोषी रवि रतलामी हैं। वे हमसे ज्यादा वसंत भी देखें हैं। इसलिये हमारी सजा उनसे अगर कम न कर सकें तो कम से कम बराबर तो कर दें। पता नहीं कैसे पंकज बेंगाणी को यह बात तुरंत समझ में आ गयी और उन्होंने रवि रतलामी को शिखर पर बैठा दिया। इससे लगा कि ईश्वर के यहां देर है अंधेर नहीं है।
जब मेरे जज बनने की बात आई तो यह मामला ‘पोयटिक जस्टिस’ बोले तो नैसर्गिक न्याय का लगता है। हम चूंकि आज तक कभी कोई इनाम पाये नहीं लिहाजा जज बनने के सर्वथा अनुकूल हैं। जैसे कि असफल लेखक श्रेष्ठ आलोचक की कुर्सी हथिया लेता है वैसे ही कभी इनाम न पाया हुआ व्यक्ति हमेशा बढ़िया तरह से बंटबारा कर सकता है। हमें कभी कोई इनाम मिला नहीं आज तक तो इसलिये हम पुरस्कारोत्सुक साथियों के मन की बातें बहुत अच्छी तरह से समझ सकते हैं। उनका दर्द हमारे अंदर ‘ब्रूफेन’ की आवश्यकता महसूस कराता सा लगता है। उनकी छटपटाहट का वर्णन करने में शायद ‘कामायनी’ की ये कुछ पंक्तियां समर्थ हों:-

मानस सागर के तट पर क्यों लोल लहर की घातें
टकराती, बलखाती सी ,पगली सी देती फेरीं।
[चिट्ठाकारों के मन समुद्र के किनारे तेज हंसी (लोल -लाफ आफ लाउडली) की लहरें मचल रहीं हैं। वे तट ( की बोर्ड ) से टकरा रहीं हैं, बल खा रहीं हैं(अकड़कर घोषणा पत्र जारी कर रहीं हैं) और पागलों की तरह फेरी लगा रहीं हैं (अपना माल बेचने के लिये)।]
जो चिट्ठाकार इनाम के लिये नामांकित हो चुके हैं वह अपने लिये मन में कोमल कल्पनाऒं के थान पर थान बुने चले जा रहें। वे यह सोच-सोचकर अपना जी हलकान किये हुयें हैं:-

” चूंकि जज लोग काबिल और पक्षपात रहित हैं लिहाजा काबिलियत ही पुरस्कार का मापदंड होगा। इसलिये पहला इनाम तो मुझे ही मिलना है लेकिन दूसरा व तीसरा इनाम कहीं किसी अयोग्य को न मिल जाये। क्या होता है न कि लोग यही देखते हैं कि जब दूसरा और तीसरा इनाम ऐसे अयोग्य को मिला तो पहला भी ऐसाइच कुछ होगा।”
कल्प्नालोक में पहला पुरस्कार पाने वाला दुआयें मांगता है-

“हे भगवान, या खुदा, पाक परवरदिगार, नीली छतरी वाले मौला, कारसाज मालिक, पहला इनाम तो जो आप मुझे दिला रहे हो उसकी मुझे कोई शिकायत नहीं है लेकिन आपसे यह इल्तिज़ा है कि दूसरा तीसरा इनाम किसी काबिल बंदे को ही दिलाना जिससे हमारी बेइज्जती न खराब हो!”
प्रतियोगिता है-‘सर्वश्रेष्ठ उभरता हुआ चिट्ठाकार – 2006′। उभरता मतलब उगता हुआ, निकलता हुआ, सामने आता हुआ। लगता है जो भी ज्यादा उभरता हुआ दिखे उसे चांप के पकड़ लो और थमा दो ताकि वो आगे न उभर सके। कहा जाये- बहुत उभर रहा था, दिया एक इनाम तो सारा उभरना भूल गये। तरकश में खासकर हिंदी वालों के लिये यह प्रतियोगिता पहली बार हो रही है। इसमें जिसको इनाम मिलेगा उसकी हरकतें तो बाद में पता चलेंगी लेकिन इंडीब्लागीस में जो लोग अभी तक इनाम पाये हैं उन लोगों ने इनाम पाने के बाद सबसे पहला काम यह किया है कि लिखना छोड़ दिया या कम कर दिया। आलोक, अतुल, शशिसिंह इसके गवाह हैं। डर यही है कि उभरता हुआ चिट्ठाकार कहीं उखड़ता हुआ चिट्ठाकार न बन जाये! :)
‘सर्वश्रेष्ठ उभरता हुआ चिट्ठाकार’ से लगता है कि यह लैंगिग भेदभाव का शिकार है। उभरते हुये के लिये है उभरती हुयी के लिये नहीं है। लेकिन यह मानते हुये कि चिट्ठाकार उभयलिंगी शब्द है और नर और मादा दोनों का इससे काम चल सकता है इसलिये हमारी इस बात को नैतिक सलाहों की तरह भुला दिया जाये। वैसे भी हमारा मुख्य उद्देश्य यही था कि यह बता दें कि हम कोई कम नुक्तेबाज नहीं हैं। जज को भी अपनी काबिलियत उछालते रहना चाहिये न!
हम यह सब सोच ही रहे थे कि उधर से फुरसतिया जी हांफते-हांफते भागते हुये आये। एकबारगी तो यह लगा कि कहीं यह भी न उभरने लगें लेकिन ऐसी कोई अनहोनी नहीं हुयी। वे आये और शुकुलजी से गुफ्तगू करने लगे।
फुरसतिया:- का गुरूजी, ई का सुन रहे हैं? सुना है चुनाव हो रहा है!
शुकुलजी:- (मन ही मन गुरूजी सुन के गच्च भी हैं कि दुनिया में कोई तो है उनका चेला। लेकिन साथ ही साथ यह सोचकर वे हलकान भी हो गये कल को ये भी वैसी ही हरकतें न करने लगे जैसे समीरलाल के साथ उनका चेला इस्माइली लगाते हुये करता है और वे बेचारे कुछ कह भी नहीं पाते।) हां सुना तो है हमने भी। कुछ न कुछ होते रहना चाहिये। दिल लगा रहता है।
फुरसतिया:- लेकिन गुरू ये तो बड़ा जुलुम है कि केवल उभरते हुये को इनाम मिले। उभर चुके को कुछ नहीं। क्या मजाक है!
शुकुलजी:- (गहरी सांस लेते हुये) अब जमाना युवाऒं का है। जो उभर चुका उसको क्या इनाम! जो उभर चुका वो इस माया मोह से उबर चुका। नये उभरते हुये लोगों को प्रोत्साहित करना सर्वथा उचित है।
फुरसतिया:- गुरू ये बताया जाये कि पंकज बेंगाणी ने अपना नाम वापस क्यों ले लिया?
शुकुलजी:- पंकज मास्साब रह चुका है। दूर तक देखता है। उसको पता है निकलना है ही। जज लोग निकालें या इसके बाद जनता निकाले इससे अच्छा है कि खुद ही निकल लो जिससे शहीदाना सुख तो हासिल हो जाये। उसको जज और जनता की बुद्धि पर पूरा विश्वास था।
फुरसतिया:- ये लोग अपने-अपने प्रचार में क्या-क्या लिख रहे हैं।
शुकुलजी:- ये प्रचार का बुफे सिस्टम है। अपना गाना खुद ही गाऒ। कोई दूसरा तो आपके लिये झूठ बोलेगा नहीं। आप अपने तारीफ खुद ही करो। अपने-मुंह तुम आपनि बरनी। ये अपनी तारीफ में आत्मनिर्भरता की तरफ बढते कदम हैं।
फुरसतिया:- लेकिन समीरलाल और उनका चेला आपने-सामने! ये कैसा जमाना आ गया है गुरुदेव!
शुकुलजी:- ये सब चुनावी चोंचले हैं। गुरु-चेला जोड़ी के लिये तो हिंदी के आदि चिट्ठाकार कबीरदास जी का यह दोहा सटीक है:-


गुरु, कुम्हार सिस कुंभ है, गढ़-गढ़ काढै़ खोट,
अंतर हाथ सहार दे बाहर, बाहै चोट।
[ये गुरु, चेला कुम्हार और घड़े के समान हैं( एक ही थैली के …हैं) । गुरूजी खोज-खोज कर चेले की बुराइयां निकालकर सामने ला रहे हैं (जैसे जाड़े में लोग पुरानी रजाई-कम्बल बक्से से निकाल-निकाल कर धूप में फैला देते हैं) वे अंदर-अंदर तो चेले को सहारा दे रहे हैं उसे सपोर्ट कर रहे हैं लेकिन बाहर-बाहर उस पर हमले का नाटक कर रहे हैं।

फुरसतिया:- और ये जो सागरजी कह रहे हैं कि उनके आदर्श धर्मेंन्दर हैं। ये क्या लफड़ा है? क्या कोई हेमामालिनीजी हैं उनकी निगाह में ?
शुकुलजी:- अरे नहीं भाई! निर्मलाजी(श्रीमती सागर) कोई प्रकाश कौर( धर्मेंन्द्र की पत्नी) हैं कि सागरजी को धर्मेंन्द्र की सारी कारगुजारी करनें दें! वैसे चिट्ठाकार बिरादरी इस पर एहतियातन निगाह रखे हुये है। सुना तो यह भी है कि पंकज ने इसीलिये नाम वापस लिया है ताकि वे सागरजी पर निगाह रख सकें। कहीं ऐसा न हो कि यहां वोटिंग के भभ्भड़ में सागर किसी चबूतरे( टंकी ऊंची होती है न!) पर चढ़ जायें और कहें -ब्लागबालों, हमें अगर बसंती (की टिप्पणी) न मिलीं तो मैं ब्लाग बंद कर दूंगा। फिर मनाते रह जाओगे हमें!
फुरसतिया:- जोशीजी के बारे में क्या कहना है?
शुकुलजी:- जोशीजी ने अभी-अभी रागदरबारी पढ़ना शुरू किया है। उसमें चुनाव जीतने की तरकीबों की से वे इतना प्रभावित हैं कि वे सारा कुछ उसी तरह चाहते हैं जैसा रागदरबारी में हुआ। लिहाजा वे सनीचर की आत्मा को अपने अंदर धारण करके उछलकूद करने लगे हैं।
फुरसतिया:- उन्मुक्तजी के बारे में क्या ख्याल है?
शुकुलजी:- उन्मुक्तजी ज्ञानी हैं, विद्वान हैं, महान हैं। उनके काम भी महान लोगों की तरह हैं। चुनाव के समय को सोचने का समय बताते हैं। अरे भाई, जो सोचेगा वो चुनाव लड़ेगा! जो सोचा उसका तो लग गया लोचा! चुनाव लड़ना तो निठल्लों का काम है। इसके अलावा इनका नाम है उन्मुक्त, रहते हैं गुप्त। अरे भाई, उन्मुक्त तो जितना वो होता है उससे ज्यादा हांकता है। जबकि उन्मुक्तजी बताते कम हैं छिपाते ज्यादा हैं। दूसरे उनकी घरैतिन हैं वे हैं मुन्ने की अम्मा! अब मुन्ने की अम्मा हैं, मुन्ने के बापू हैं लेकिन मुन्ना कहीं दिखता नहीं। ये तो ऐसे ही है कि किसी विकास और शील रहित देश को कोई कहे कि वो विकासशील देश है। जनता चाहती है कि मुन्ने के परिवार के बारे में खुलासा किया जाये!
फुरसतिया:- और ई-पंडित जी के बारे में क्या कहते हैं आप?
शुकुलजी:- पंडितजी अभी आये हैं। शंख, घड़ियाल अच्छा बजाते हैं। लेकिन अब आगे मंत्रोच्चार भी देखना होगा कैसे करते हैं। देरी से आने के चलते दौड़-दौड़ कर चुनाव प्रचार करना होगा। अभी तो उनके नाम के बारे में ही लोग कन्फुजिया जाते हैं। कोई शिरीष लिखता है, कोई श्रीष, कोई श्रीश। कोई लिखते-लिखते परेशान होकर कहता है -हे ईश! लेकिन चुनाव जीतने के लिये पंडितजी को बहुत टिप्पणियां खर्चा करनी पड़ेंगी। चुनाव आचार संहिता लगने के बाद वह भी काम मुश्किल हो जायेगा।
फुरसतिया:- सुना है आप भी कुछ जज्ज-फज्ज बने हो। आप किसको चुनेंगे?
शुकुलजी:- भैया, हम तो उसी को चुनेंगे जिसने नियमित लिखा। अच्छा लिखा और सबसे ज्यादा क्रिया शील रहा। बैनर टांग के नारियल फोड़कर व्यस्त हो जाने वाले लोग हमसे कोई आशा न रखें?
शुकुलजी अपनी हांकने के पूरे मूड में थे लेकिन तक तक इस बोर- वार्तालाप में व्यवधान पैदा किया टेलीफोन की किर्र-किर्र ने। पता लगा लाइन पर जीतेंदर थे। वार्तालाप का विवरण कुछ ऐसा है:-
जीतेंद्र:- क्या दादा, अब क्या हम इसी काबिल रह गये हैं कि जज बना दिये जायें?
शुकुल:- हां, बात तो सही है। जज किसी कायदे के आदमी को बनाना चाहिये। तुमको बनाने से प्रतियोगिता के स्तर के बारे में लोग सवाल उठायेंगे।
जीतेंद्र:- अबे, कभी तो मजाक को तलाक देकर बात किया करो।
शुकुल:- मजाक क्या पद और गोपनीयता की शपथ है जो हम इसे खाकर भूल जायें। बिना मौज लिये तो हम सांस भी नहीं ले पाते। इहै हमार इस्टाइल बा! खैर बताओ अपने काबिलियत के बारे में कैसे गलतफहमी हुई? क्या कष्ट है?
जीतेंद्र:- गुरू, ये जजगीरी के लिये नाम जब आया तो हमें कुछ ऐसा लग रहा है जैसे हीरोइनों की उमर में हमें मां के रोल दे दिये गये हों।
शुकुल:- अबे, तो देखते नहीं एकता कपूर के सीरियलों में तमाम मायें लड़कियों से ज्यादा हसीन लगती हैं। मां-बच्चियों का ब्यूटी कम्पेटीशन कुछ-कुछ ऐसे ही लगता है यहां गुरू-चेला की चुनावी भिड़ंत। तुम्हें तो खुश होना चाहिये कि तुमको इतना हसीन समझा गया और जजों के केंद्र में रखा गया। तुम बीच की चीज हो गये! क्या जलवे हैं। बल्ले-बल्ले हैं। झाड़े रहो कलट्टरगंज!
जीतेंद्र फोन पटक कर चले गये। हमें आन लाइन दिख रहे हैं। उनके खाते के आगे संदेश लिखा है- जब मैं थक जाता हूं तो दोस्तों से बात करता हूं। मुझे यह समझ में नहीं आ रहा है कि ये कनपुरिया बबुआ फोन कब पटकता है!

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

17 responses to “उभरते हुये चिट्ठाकार”

  1. संजय बेंगाणी
    बहुत सुन्दर. गुदगुदी से उपर तथा टहाको से नीचे वाले भावो से विभोर हो गए. अच्छी मौज ली है. रविवार को बहुत सारी पठन सामग्री डकार जाते हैं, शुरूआत आपके लेख से हुई है.
  2. pankaj bengani
    पता नहीं था द्रोण चाचु की मैने इसलिए नाम वापस लिया है। :-)
    यह तो सही सुझाय दिए हो। अन्यथा ना लेते हुए उपर रखी स्माइली पर निशाना लगाया जाए।
  3. श्रीश । ई-पंडित
    हमें कभी कोई इनाम मिला नहीं आज तक तो इसलिये हम पुरस्कारोत्सुक साथियों के मन की बातें बहुत अच्छी तरह से समझ सकते हैं।
    हे-हे, जज साब हम जीत गए तो आपको ‘सर्वश्रेष्ठ जज’ का पुरुस्कार दिलवाने का बंदोबस्त किया जाएगा। ;)
    पंडितजी अभी आये हैं। शंख, घड़ियाल अच्छा बजाते हैं। लेकिन अब आगे मंत्रोच्चार भी देखना होगा कैसे करते हैं।
    मंत्रोच्चार तो हमरा खानदानी काम है जी, मंतर भी पढ़ेगें और हवन भी करेंगे। देखते जाइएगा आप। :)
    भैया, हम तो उसी को चुनेंगे जिसने नियमित लिखा। अच्छा लिखा और सबसे ज्यादा क्रिया शील रहा। बैनर टांग के नारियल फोड़कर व्यस्त हो जाने वाले लोग हमसे कोई आशा न रखें?
    लेकिन हम ‘बैनर टांग के नारियल फोड़कर व्यस्त हो जाने’ खातिर नहीं बल्कि लम्बी तपस्या करने आये हैं। ई चुनाव-वुनाव का चक्कर तो खैर ब्लॉगर भाईयों मा भाईचारा बढ़ाने के खातिर ही है। हमरी दिली इच्छा तो सिर्फ ई है कि जब कहीं पर ब्लॉगरों का नाम लिया जाए तो लोग कहें कि भईया ई पंडित जी, लिखता तो कौनो खास नहीं पर है होनहार आदमी। (इस बार स्माईली नहीं लागाऊंगा सीरियस हूँ)
  4. सागर चन्द नाहर
    बहुत मजेदार लिखा है, हँसते हँसते पेट में बल पड़ गये।
    एक कटु सत्य लिख दिया कि
    हम चूंकि आज तक कभी कोई इनाम पाये नहीं लिहाजा जज बनने के सर्वथा अनुकूल हैं। जैसे कि असफल लेखक श्रेष्ठ आलोचक की कुर्सी हथिया लेता है वैसे ही कभी इनाम न पाया हुआ व्यक्ति हमेशा बढ़िया तरह से बंटबारा कर सकता है।
  5. ratna
    जजी मुबारिक हो। अब इन्तज़ार है आपके जज बनने पर हुए तजुर्बे की मज़ेदार बयानबाज़ी का।
  6. bhuvnesh
    “डर यही है कि उभरता हुआ चिट्ठाकार कहीं उखड़ता हुआ चिट्ठाकार न बन जाये!”
    सौ आने सच कह दिया सरकार
    इसीलिए तो हम अभी तक प्रचार से दूर हैं :-)
  7. SHUAIB
    ख़ुदा के चिट्ठाकार को उखड़ता हुआ चिट्ठाकार कहना अच्छी बात नही ;)
    अच्छा है कि इस वर्ष का उभरता हुआ चिट्ठाकार को निराश नही क्या जाएगा :)
    कृपया समाईली पर ध्यान दें :)
  8. जगदीश भाटिया
    हमेशा की तरह बहुत खूब लिखा :)
    हंसते हंसाते सब कुछ कह दिया ….! :D
  9. शशि सिंह
    बहुत सही गुरुदेव… उभरता हुआ चिट्ठाकार का खिताबवा देने का मतलबे होता है कि जो उभरता हुआ हो उसे खिताबवा देके उभरने से रोका जाये. वइसेही चिट्ठाजगत में बहुत लिखाड़ हैं… यही बहाने एगो कौनो का पकाऊ लेखन पढ़ने से तो छूटकारा मिले. [:)] ई बात हम अपना निजी अनुभव के आधार पर कह रहे हैं.
    “हे भगवान, या खुदा, पाक परवरदिगार, नीली छतरी वाले मौला, कारसाज मालिक, पहला इनाम तो जो आप मुझे दिला रहे हो उसकी मुझे कोई शिकायत नहीं है लेकिन आपसे यह इल्तिज़ा है कि दूसरा तीसरा इनाम किसी काबिल बंदे को ही दिलाना जिससे हमारी बेइज्जती न खराब हो!”
    पिछली बार सच्ची हम इहे दुआ मांगे थे… भगवान ने आपको दूसरा स्थान दिलाकर हमरा बेइज्जती खराब होने से बचा लिया था. [;)]
  10. Jitu
    1) भरता मतलब उगता हुआ, निकलता हुआ, सामने आता हुआ। लगता है जो भी ज्यादा उभरता हुआ दिखे उसे चांप के पकड़ लो और थमा दो ताकि वो आगे न उभर सके
    2) गुरू ये तो बड़ा जुलुम है कि केवल उभरते हुये को इनाम मिले। उभर चुके को कुछ नहीं। क्या मजाक है!
    3) पंडितजी अभी आये हैं। शंख, घड़ियाल अच्छा बजाते हैं। लेकिन अब आगे मंत्रोच्चार भी देखना होगा कैसे करते हैं।
    4)ये प्रचार का बुफे सिस्टम है। अपना गाना खुद ही गाऒ। कोई दूसरा तो आपके लिये झूठ बोलेगा नहीं। आप अपने तारीफ खुद ही करो। अपने-मुंह तुम आपनि बरनी। ये अपनी तारीफ में आत्मनिर्भरता की तरफ बढते कदम हैं।
    5)जज किसी कायदे के आदमी को बनाना चाहिये। तुमको बनाने से प्रतियोगिता के स्तर के बारे में लोग सवाल उठायेंगे।
    Points Noted….. Action to be taken in next post.
  11. उन्मुक्त
    :-) :-)
  12. समीर लाल
    वे अंदर-अंदर तो चेले को सहारा दे रहे हैं उसे सपोर्ट कर रहे हैं लेकिन बाहर-बाहर उस पर हमले का नाटक कर रहे हैं।
    आप तो अंतर्यामी हैं, प्रभु. सब समझते हैं. मेरी दिली इच्छा और शुभकामनायें शिष्य गिरिराज के साथ हैं. (१/३)(१,२,३ में से कौन सा-यह बताऊँगा नहीं, मगर शिष्य काबिल है, सब समझता है). और बाकी अन्य बचे दो स्थानों के लिये भी मेरे दो बहुत खास लोग हैं. अब नाम नहीं लूँगा, वो तो वो दोनों समझ ही जायेंगे, क्यूँ मित्रों, समझ गये न!! :)
    —बाकि, फुरसतिया जी, लिखें हमेशा की तरह जबरदस्त फटाका आईटम हैं, बधाई!!
  13. GIRISH BILLORE MUKUL
    aap to pandit je gazab ke likkhaad hain
  14. anupam agrawal
    आप बहुत अच्छा लिखते हैं | लेकिन ये भी लग रहा है कि सारे हिंदुस्तान की तरह यहाँ भी पहले प्रतियोगिता के जजों के कोई मानक नही तय हैं ….थोड़े लिखे को बहुत समझना .
    बस ये अवश्य तय हो गया कि कम से कम वो तो प्रतियोगिता में दावा नहीं कर पायेगा
  15. anupam agrawal
    आप बहुत अच्छा लिखते हैं |
    एक बात और समझ में आ गयी कि हर प्रतियोगिता की तरह इसमें भी निर्णायक के कोई मानक नहीं तय हैं .
    हाँ यह ज़रूर सुनिश्चित हो गया कि फलां फलां चिट्ठाकार इसमें आगे से भाग नहीं ले पायेगा .
    है ना अच्छा तरीका
  16. फ़ुरसतिया-पुराने लेख
    [...] 5.देश का पहला भारतीय तकनीकी संस्थान 6.उभरते हुये चिट्ठाकार 7.बेल्दा से [...]
  17. : फ़ुरसतिया-पुराने लेखhttp//hindini.com/fursatiya/archives/176
    [...] 5.देश का पहला भारतीय तकनीकी संस्थान 6.उभरते हुये चिट्ठाकार 7.बेल्दा से [...]

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