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By फ़ुरसतिया on January 13, 2008
साल बीत गया। नया लग गया। साल जब बीत रहा था तो साथी लोग हिसाब लगा रहे
थे उपलब्धियों का, खास घटनाओं का। हम भी सोचे कि कुछ मौज ली जाये। सो
तुकबंदी का मजनून बना। शुरुआत करते हुये सोचा- साल गया , बवाल गया।
फिर जैसा होता है हमेशा, आलस्य हावी हो गया। फ़ैक्ट्री बदली तो फोन बदला और पुराने फोन के साथ ब्राड बैंड कनेक्शन भी चला गया। अब नये फोन पर ब्राड बैंड कनेक्शन का इंजतार है।
पिछले साल दफ़्तर में तमाम झंझट रहे। नयी जगह पर सुकून से काम करने शुरुआत हुयी थी। इसीलिये लिखना शुरू किया था -साल गया बवाल गया।
लेकिन नये साल की शुरुआत और भयावह रही। साल की शुरुआत हुयी ही थी कि बवाली चले गये।
हां, यह अभी-अभी याद आया कि हमारे बड़े , सबसे बड़े भाई को बचपन में गांधीनगर मोहल्ले में लोग , उनके हम उमर दोस्त बवाली कहते थे। उनका एक सड़क दुर्घटना में अचानक नौ जनवरी को निधन हो गया।
हम तीन भाई थे, दो रह गये।
बड़े भाई जिनका नाम अशोक था, असमय हमें शोकाकुल करके चले गये।
एक के बाद एक घटनायें होती रहीं जिससे लगता है कि कन्हैयालाल बाजपेयी की ये पंक्तियां हमारे घर वालों के लिये खासकर लिखीं गयीं हैं-
बड़े भाई का पढ़ने-लिखने में मन कम लगता था। दो बार हाई-स्कूल का इम्तहान देकर पढ़ाई छोड़ दी। कमाई में सहयोग देने के लिये अठारह-उन्नीस साल की उमर में नौकरी करने लगे। मुझे याद है कि वे संगीत टाकीज के पास एक जिब बनाने के कारखाने में कारीगर की तरह काम करने लगे थे। मैं खाना लेकर जाता दोपहर को।
इसके बाद न जाने कितने काम बदले, छोड़े। कपड़ा बाजार, गांव में खेती, लाटरी का व्यापार , कपड़े की फ़ेरी और न जाने क्या-क्या। गांव में पहला ट्रैक्टर शायद हमारे यहां ही लिया गया था लोन पर उनके लिये । खेती करने के उनके इरादे भी बहुत जल्द खेत रहे।
इस बीच उनकी शादी हुयी। मैं हाईस्कूल में पढ़ता था। इम्तहान के कारण बारात में दूसरे दिन पहुंचा। दो दिन और रहकर खैरनगर, तिर्वा से वापस कानपुर आये।
दो साल बाद मैं इंजीनियरिंग में पढ़ने के लिये इलाहाबाद चला गया। मुझे याद है कि घर से लेकर संगीत टाकीज तक वे रिक्शे के साथ-साथ भागते आये थे। हम दोनों भाई रोते रहे। मैं रिक्शे पर और वे भागते हुये।
वे बचपन में मुझे बहुत प्यार करते थे। लड़ाई-झगड़े उनके अक्सर हो जाते लोगों से। एक बार किसी बात पर नाराज होकर घर से बाहर जाने लगे। मैं साथ भागता चला गया। वे मुझे मारते हुये चलते गये। लेकिन मैं मार खाता उनके साथ ही चलता गया। वापस उनको साथ लेकर ही लौटा। यह बात वे अक्सर याद करके बताते रहते अभी हाल के दिनों तक।
सन १९९० तक हम सभी एक साथ एक ही घर में रहे। ८२-८३ तक एक कमरे के घर में गांधीनगर में और फिर किदवई नगर में। इसके बाद अलग-अलग होना शुरु हुये। मैं पहले ही बाहर चला गया था। दोनों बड़े भाई भी अलग-अलग किराये के मकान में।
आर्थिक स्थिति के हिसाब से हमारे बड़े भाई सबसे कम मजबूत थे। अम्मा के मन में उनकी चिंता हमेशा रही। इसीलिये जब वे हमारे साथ रहने लगीं तो उनकी सबसे बड़ी बिटिया स्वाति को साथ लाईं। वो छुटपन से हमारे साथ रही। उसकी पिछले साल ही हमने शादी की। बाली उमर में ससुर बनने का सुख मिला। इसके बाद दूसरी भतीजी के लिये संबंध करने की योजनायें बनने लगीं थीं।
इस बीच बड़े भाई तमाम धंधे बदलते रहे और हम एक में शुरुआती सफ़लता के बाद असफ़ल होते गये। वे कहीं न कहीं झटके से अमीर बनने की सोचते थे लेकिन काम हमेशा जज्बात से लेते थे। पास में चवन्नी होने पर जिस किसी के लिये भी शरणागतवत्सल बन जाते और अठन्नी लुटा देते। धीरे-धीरे लोग उनसे कटते लगे, बचने लगे।
लम्बी कहानी है न जाने कितने सिलसिले हैं। लेकिन वे धीरे-धीरे अकेले पड़ते गये। अकेलेपन के बावजूद उनके मन में अपने परिवार के लिये जान देने का जज्बा हमेशा बना रहा। कमजोरी के बावजूद ऐसा हो नहीं सकता था कि कोई मजबूत से मजबूत आदमी उनसे जुड़े किसी व्यक्ति को कुछ कहकर निरापद चला जाये। वे भिड़ जाते थे, भले ही पिट जायें।
बीच वाले भाईसाहब के मुकाबले मेरे लिये उनके मन में खास लगाव था। हम लोग साथ-साथ रहे भी बहुत। अभावों के जो दिन हमने साथ बिताये उन दिनों न जाने किससे सुनकर वे आये थे और हम अकसर कहते – दम बनी रहे , घर चूता है तो चूने दो।
बाद में वे किसी बात पर या बिना बात के अपने बच्चों या भाभी के लिये अपने व्यवहार परेशानी खड़ी करते तो हमें बुलाया जाता। हमें देखते ही या तो वे बमकने लगते या शान्त हो जाते। मैं कुछ देर शान्त रहता फिर कहता -अच्छा , अब शान्त हो जाओ। वे शान्त हो जाते। मैं समझाते-समझाते मौज लेने लगता। वे हंसने लगते या कभी -कभी भावुक होकर रोने लगते। शान्त हो जाते।
बाद के दिनों में रोना बढ़ गया था। मेरी तकलीफ़ भी। मैं यह सोच-सोचकर उदास भी होता जाता कि वे मन से इतने कमजोर और अकेले कैसे होते जा रहे हैं।
हम भाई-बहनों में सबसे खूबसूरत रहे मेरे भाई धीरे-धीरे सबसे कम आकर्षक होते गये। तमाम झंझटों में अपने आप को घेरते गये। एक से मुक्त होते दूसरे से लड़ियाने लगते।
अम्मा रहती हमारे साथ थीं लेकिन उनका मन अपने बड़े लड़के की चिंता में परेशान रहता। उनके बारे में चिंता करतीं रहती। तबियत कैसी होगी, ड्यूटी जा रहे हैं कि नहीं, बच्चों के साथ ठीक से सलूक कर रहे हैं या अपने अंदाज में हैं।
कभी फोन करते तो कुछ ऐसी बातें करते जिनको सुनकर अम्मा दुखी हो जातीं। बीपी बढ़ जाता। मैं उनको हड़काता -अम्मा को सही में प्यार करते हो उनको फोन पर परेशान न किया करो। वे चुप हो जाते या कहते अच्छा अनूप बाबू, तुम जैसा कहते हो वैसा ही होगा। अब कभी फोन नहीं करूंगा। लेकिन ऐसा कभी हुआ नहीं। एकाध दिन बाद फोन बजता। अपने मोबाइल से फोन करते- फोन मिलाओ जरा उधर से। हम फिर बतियाते। कभी-कभी झुंझलाते और कभी लड़ियाते हुये।
घर आते। कभी-कभी भरी दोपहर वापस जाने की बात करते। मैं कहता- सो जाओ शाम को जाना। वे चुपचाप सो लेट जाते।
अपने इशारों पर सबको नचाने का जज्बा रखने वाले मेरे भाई चुपचाप बिना किसी प्रतिवाद के बातें चीजें स्वीकार करने लगे थे।
बाद के दिनों में वे होमगार्ड की नौकरी करने लगे। वहीं रात को ड्यूटी पर थे। जब एक डीसीएम ट्रक ने उनको टक्कर मार दी और वे तुरन्त चले गये।
घर में भाभी बता रहीं थीं कि रात को ड्यूटी पर जाते समय कुत्ते ने उनकी टोपी फ़ाड़ दी। वो शायद उनको रोकना चाहता था।
पडो़स के एक बाजपेयीजी बता रहे थे कि शाम को जाते समय उनके भाई साहब कह रहे थे- बाजपेयी, तुम्हारा मोबाइल पुराना, बेकार है। तुमको कल एक अच्छा मोबाइल लाकर देंगे।
एक और बुजुर्ग जिनको वो अक्सर हड़काते रहते थे ने बताया- शुकुलाजी साफ़ दिल के थे। एक दिन हमको बहुत गरियाया। मैं ऊपर घर चला गया। कुछ देर बाद बोले -अरे बुढऊ नीचे आओ, फूल सूख रहे हैं पानी डालो आकर। उनके रहते यहां किसी की हिम्मत नहीं हुयी कि बदमाशी करे किसी से।
९ तारीख को जब फोन सुबह आया तो पता चला कि वे चले गये। भतीजा अखिलेश रोते हुये हमसे चिपट गया। कहते हुये- अंकल मेरा क्या होगा?
मैं आंसूओं से उसे चुप करा रहा था- बेटा, हम हैं न! तुम क्यों चिंता करते हो?
अब हम लोगों के लिये इम्तहान है कि हम लोग अपने भतीजे, भतीजी और भाभी का कितना ख्याल रख पाते हैं।
अब समझ में नहीं आता कि क्या करें, क्या कहें, क्या लिखें।
तमाम यादें गड्ड-मड्ड हो रही हैं आखों के सामने। भारतीय विद्यालय मैदान में पायजामा पहने क्रिकेट खेलते हम तीनों भाई, हमारे ऊपर किसी भी उठने वाले हाथ को तोड़ देने का जज्बा और हिम्मत रखने वाला भाई, पढ़ाई में असफ़ल हो जाने पर परिवार के लिये कमाई करने में जुट जाने वाला भाई, गांव में अनाज के लिये चाचा लोगों से अनुरोध और करने और मना करने पर भिड़ जाने वाला भाई, बच्चों के बड़े होने तक पिताजी से चुपचाप पिट जाने वाला बेटा, खुद परेशान और असहाय होने के बावजूद किसी बीमार रिश्तेदार को देखने के लिये हड़कने वाला भाई। और सबसे ऊपर अपने किसी भी प्रिय की खुशी को शानदार तरीके से जीने का ताना-बाना बनाने के लिये हर संभव कोशिश करने वाला भाई।
उनको डांस करना हम बाकी भाइयों की तरह ही बिल्कुल नहीं आता था। लेकिन मेरी शादी में बारात के संग रास्ते भर नाचते रहे। अपनी पत्नी का ट्रांसफ़र मैं करा नहीं पाया। जगह ही न थी। लेकिन वे जब-तब आते और कहते- बहू, अपना डिटेल दो। फ़लाने से कहकर तुम्हारा काम करवाता हूं।
मुझे याद है कि हम दोस्त साइकिल से भारत यात्रा करके वापस लौट थे। भाई ने पूरे मोहल्ले का मजमा इकट्ठा कर लिया था। फोटोग्राफ़र बुलाया। और मोहल्ले के सब लोगों के साथ खूब फोटो खिंचाये। ऊपर फोटो में हम दो साथियों के सबसे पीछे खंबे के पास खड़े भाई की फोटो से अपने भाई की उपलब्धि के प्रति गर्व और प्यार छलका पड़ रहा है।
हमने खाना बनाना अपने बड़े भाई से सीखा और शायद हर हाल में हिम्मत न खोने का हौसला के पीछे भी उनके ही मुंह से सबसे पहले सुने डायलाग ( दम बनी रहे , घर चूता है तो चूने दो) से ही बना होगा।
यह हमारा अपना दुख है। आपको नाहक दुखी करना ठीक नहीं। मैं इसके बारे में शायद न लिखता अगर मामा वुधकरजी अपने ब्लाग में इसका जिक्र न करते। आज मेरे मामा कन्हैयालाल नंदन जी घर आये थे। उनसे मैंने हरिद्वारी मामा और उनके ब्लाग का जिक्र भी किया था। सो उन्होंने फोन पर बात की होगी। मामाओं का भरोसा करना अच्छी बात नहीं।
भाई जब बचपन में घर से गये थे तो उसका अंदेशा मुझे हो गया था। मैं साथ-साथ भागता चला गया था और सारे रास्ते पिटते रहने के बावजूद अपने भाई को वापस लेकर लौटा था।
इस बार ऐसा हुआ कि भाई दुनिया से चला गया बिना किसी सूचना के। हमें मौका भी न मिला कि हम पीछा करते हुये उसको पकड़कर वापस ले आते। सिर्फ़ समय के हाथ पिट रहे हैं। समय शायद को पता है कि हमारे पीटने के लिये उठने वाले किसी भी हाथ को तोड़ देने वाला भाई चला गया है।
हम पिट रहे हैं लेकिन हमें अपने भाई की आवाज साफ़ सुनाई दे रही है - दम बनी रहे , घर चूता है तो चूने दो।
फिर जैसा होता है हमेशा, आलस्य हावी हो गया। फ़ैक्ट्री बदली तो फोन बदला और पुराने फोन के साथ ब्राड बैंड कनेक्शन भी चला गया। अब नये फोन पर ब्राड बैंड कनेक्शन का इंजतार है।
पिछले साल दफ़्तर में तमाम झंझट रहे। नयी जगह पर सुकून से काम करने शुरुआत हुयी थी। इसीलिये लिखना शुरू किया था -साल गया बवाल गया।
लेकिन नये साल की शुरुआत और भयावह रही। साल की शुरुआत हुयी ही थी कि बवाली चले गये।
हां, यह अभी-अभी याद आया कि हमारे बड़े , सबसे बड़े भाई को बचपन में गांधीनगर मोहल्ले में लोग , उनके हम उमर दोस्त बवाली कहते थे। उनका एक सड़क दुर्घटना में अचानक नौ जनवरी को निधन हो गया।
हम तीन भाई थे, दो रह गये।
बड़े भाई जिनका नाम अशोक था, असमय हमें शोकाकुल करके चले गये।
एक के बाद एक घटनायें होती रहीं जिससे लगता है कि कन्हैयालाल बाजपेयी की ये पंक्तियां हमारे घर वालों के लिये खासकर लिखीं गयीं हैं-
हम तीन भाई और एक बहन हजारों-लाखों परिवारों के बच्चों की तरह अभावों में पले-बढ़े। पिताजी गांव से शहर आये थे। रोजी-रोटी के इन्तजाम में लगे रहे। हम तीनों भाई और एक बहन अपने-आप पढ़ते-लिखते, बड़े होते गये।
संबंध सभी ने तोड़े लेकिन,
पीड़ा ने कभी नहीं तोड़े।
सब हाथ जोड़कर चले गये,
चिंता ने कभी नहीं जोड़े॥
बड़े भाई का पढ़ने-लिखने में मन कम लगता था। दो बार हाई-स्कूल का इम्तहान देकर पढ़ाई छोड़ दी। कमाई में सहयोग देने के लिये अठारह-उन्नीस साल की उमर में नौकरी करने लगे। मुझे याद है कि वे संगीत टाकीज के पास एक जिब बनाने के कारखाने में कारीगर की तरह काम करने लगे थे। मैं खाना लेकर जाता दोपहर को।
इसके बाद न जाने कितने काम बदले, छोड़े। कपड़ा बाजार, गांव में खेती, लाटरी का व्यापार , कपड़े की फ़ेरी और न जाने क्या-क्या। गांव में पहला ट्रैक्टर शायद हमारे यहां ही लिया गया था लोन पर उनके लिये । खेती करने के उनके इरादे भी बहुत जल्द खेत रहे।
इस बीच उनकी शादी हुयी। मैं हाईस्कूल में पढ़ता था। इम्तहान के कारण बारात में दूसरे दिन पहुंचा। दो दिन और रहकर खैरनगर, तिर्वा से वापस कानपुर आये।
दो साल बाद मैं इंजीनियरिंग में पढ़ने के लिये इलाहाबाद चला गया। मुझे याद है कि घर से लेकर संगीत टाकीज तक वे रिक्शे के साथ-साथ भागते आये थे। हम दोनों भाई रोते रहे। मैं रिक्शे पर और वे भागते हुये।
वे बचपन में मुझे बहुत प्यार करते थे। लड़ाई-झगड़े उनके अक्सर हो जाते लोगों से। एक बार किसी बात पर नाराज होकर घर से बाहर जाने लगे। मैं साथ भागता चला गया। वे मुझे मारते हुये चलते गये। लेकिन मैं मार खाता उनके साथ ही चलता गया। वापस उनको साथ लेकर ही लौटा। यह बात वे अक्सर याद करके बताते रहते अभी हाल के दिनों तक।
सन १९९० तक हम सभी एक साथ एक ही घर में रहे। ८२-८३ तक एक कमरे के घर में गांधीनगर में और फिर किदवई नगर में। इसके बाद अलग-अलग होना शुरु हुये। मैं पहले ही बाहर चला गया था। दोनों बड़े भाई भी अलग-अलग किराये के मकान में।
आर्थिक स्थिति के हिसाब से हमारे बड़े भाई सबसे कम मजबूत थे। अम्मा के मन में उनकी चिंता हमेशा रही। इसीलिये जब वे हमारे साथ रहने लगीं तो उनकी सबसे बड़ी बिटिया स्वाति को साथ लाईं। वो छुटपन से हमारे साथ रही। उसकी पिछले साल ही हमने शादी की। बाली उमर में ससुर बनने का सुख मिला। इसके बाद दूसरी भतीजी के लिये संबंध करने की योजनायें बनने लगीं थीं।
इस बीच बड़े भाई तमाम धंधे बदलते रहे और हम एक में शुरुआती सफ़लता के बाद असफ़ल होते गये। वे कहीं न कहीं झटके से अमीर बनने की सोचते थे लेकिन काम हमेशा जज्बात से लेते थे। पास में चवन्नी होने पर जिस किसी के लिये भी शरणागतवत्सल बन जाते और अठन्नी लुटा देते। धीरे-धीरे लोग उनसे कटते लगे, बचने लगे।
लम्बी कहानी है न जाने कितने सिलसिले हैं। लेकिन वे धीरे-धीरे अकेले पड़ते गये। अकेलेपन के बावजूद उनके मन में अपने परिवार के लिये जान देने का जज्बा हमेशा बना रहा। कमजोरी के बावजूद ऐसा हो नहीं सकता था कि कोई मजबूत से मजबूत आदमी उनसे जुड़े किसी व्यक्ति को कुछ कहकर निरापद चला जाये। वे भिड़ जाते थे, भले ही पिट जायें।
बीच वाले भाईसाहब के मुकाबले मेरे लिये उनके मन में खास लगाव था। हम लोग साथ-साथ रहे भी बहुत। अभावों के जो दिन हमने साथ बिताये उन दिनों न जाने किससे सुनकर वे आये थे और हम अकसर कहते – दम बनी रहे , घर चूता है तो चूने दो।
बाद में वे किसी बात पर या बिना बात के अपने बच्चों या भाभी के लिये अपने व्यवहार परेशानी खड़ी करते तो हमें बुलाया जाता। हमें देखते ही या तो वे बमकने लगते या शान्त हो जाते। मैं कुछ देर शान्त रहता फिर कहता -अच्छा , अब शान्त हो जाओ। वे शान्त हो जाते। मैं समझाते-समझाते मौज लेने लगता। वे हंसने लगते या कभी -कभी भावुक होकर रोने लगते। शान्त हो जाते।
बाद के दिनों में रोना बढ़ गया था। मेरी तकलीफ़ भी। मैं यह सोच-सोचकर उदास भी होता जाता कि वे मन से इतने कमजोर और अकेले कैसे होते जा रहे हैं।
हम भाई-बहनों में सबसे खूबसूरत रहे मेरे भाई धीरे-धीरे सबसे कम आकर्षक होते गये। तमाम झंझटों में अपने आप को घेरते गये। एक से मुक्त होते दूसरे से लड़ियाने लगते।
अम्मा रहती हमारे साथ थीं लेकिन उनका मन अपने बड़े लड़के की चिंता में परेशान रहता। उनके बारे में चिंता करतीं रहती। तबियत कैसी होगी, ड्यूटी जा रहे हैं कि नहीं, बच्चों के साथ ठीक से सलूक कर रहे हैं या अपने अंदाज में हैं।
कभी फोन करते तो कुछ ऐसी बातें करते जिनको सुनकर अम्मा दुखी हो जातीं। बीपी बढ़ जाता। मैं उनको हड़काता -अम्मा को सही में प्यार करते हो उनको फोन पर परेशान न किया करो। वे चुप हो जाते या कहते अच्छा अनूप बाबू, तुम जैसा कहते हो वैसा ही होगा। अब कभी फोन नहीं करूंगा। लेकिन ऐसा कभी हुआ नहीं। एकाध दिन बाद फोन बजता। अपने मोबाइल से फोन करते- फोन मिलाओ जरा उधर से। हम फिर बतियाते। कभी-कभी झुंझलाते और कभी लड़ियाते हुये।
घर आते। कभी-कभी भरी दोपहर वापस जाने की बात करते। मैं कहता- सो जाओ शाम को जाना। वे चुपचाप सो लेट जाते।
अपने इशारों पर सबको नचाने का जज्बा रखने वाले मेरे भाई चुपचाप बिना किसी प्रतिवाद के बातें चीजें स्वीकार करने लगे थे।
बाद के दिनों में वे होमगार्ड की नौकरी करने लगे। वहीं रात को ड्यूटी पर थे। जब एक डीसीएम ट्रक ने उनको टक्कर मार दी और वे तुरन्त चले गये।
घर में भाभी बता रहीं थीं कि रात को ड्यूटी पर जाते समय कुत्ते ने उनकी टोपी फ़ाड़ दी। वो शायद उनको रोकना चाहता था।
पडो़स के एक बाजपेयीजी बता रहे थे कि शाम को जाते समय उनके भाई साहब कह रहे थे- बाजपेयी, तुम्हारा मोबाइल पुराना, बेकार है। तुमको कल एक अच्छा मोबाइल लाकर देंगे।
एक और बुजुर्ग जिनको वो अक्सर हड़काते रहते थे ने बताया- शुकुलाजी साफ़ दिल के थे। एक दिन हमको बहुत गरियाया। मैं ऊपर घर चला गया। कुछ देर बाद बोले -अरे बुढऊ नीचे आओ, फूल सूख रहे हैं पानी डालो आकर। उनके रहते यहां किसी की हिम्मत नहीं हुयी कि बदमाशी करे किसी से।
९ तारीख को जब फोन सुबह आया तो पता चला कि वे चले गये। भतीजा अखिलेश रोते हुये हमसे चिपट गया। कहते हुये- अंकल मेरा क्या होगा?
मैं आंसूओं से उसे चुप करा रहा था- बेटा, हम हैं न! तुम क्यों चिंता करते हो?
अब हम लोगों के लिये इम्तहान है कि हम लोग अपने भतीजे, भतीजी और भाभी का कितना ख्याल रख पाते हैं।
अब समझ में नहीं आता कि क्या करें, क्या कहें, क्या लिखें।
तमाम यादें गड्ड-मड्ड हो रही हैं आखों के सामने। भारतीय विद्यालय मैदान में पायजामा पहने क्रिकेट खेलते हम तीनों भाई, हमारे ऊपर किसी भी उठने वाले हाथ को तोड़ देने का जज्बा और हिम्मत रखने वाला भाई, पढ़ाई में असफ़ल हो जाने पर परिवार के लिये कमाई करने में जुट जाने वाला भाई, गांव में अनाज के लिये चाचा लोगों से अनुरोध और करने और मना करने पर भिड़ जाने वाला भाई, बच्चों के बड़े होने तक पिताजी से चुपचाप पिट जाने वाला बेटा, खुद परेशान और असहाय होने के बावजूद किसी बीमार रिश्तेदार को देखने के लिये हड़कने वाला भाई। और सबसे ऊपर अपने किसी भी प्रिय की खुशी को शानदार तरीके से जीने का ताना-बाना बनाने के लिये हर संभव कोशिश करने वाला भाई।
उनको डांस करना हम बाकी भाइयों की तरह ही बिल्कुल नहीं आता था। लेकिन मेरी शादी में बारात के संग रास्ते भर नाचते रहे। अपनी पत्नी का ट्रांसफ़र मैं करा नहीं पाया। जगह ही न थी। लेकिन वे जब-तब आते और कहते- बहू, अपना डिटेल दो। फ़लाने से कहकर तुम्हारा काम करवाता हूं।
मुझे याद है कि हम दोस्त साइकिल से भारत यात्रा करके वापस लौट थे। भाई ने पूरे मोहल्ले का मजमा इकट्ठा कर लिया था। फोटोग्राफ़र बुलाया। और मोहल्ले के सब लोगों के साथ खूब फोटो खिंचाये। ऊपर फोटो में हम दो साथियों के सबसे पीछे खंबे के पास खड़े भाई की फोटो से अपने भाई की उपलब्धि के प्रति गर्व और प्यार छलका पड़ रहा है।
हमने खाना बनाना अपने बड़े भाई से सीखा और शायद हर हाल में हिम्मत न खोने का हौसला के पीछे भी उनके ही मुंह से सबसे पहले सुने डायलाग ( दम बनी रहे , घर चूता है तो चूने दो) से ही बना होगा।
यह हमारा अपना दुख है। आपको नाहक दुखी करना ठीक नहीं। मैं इसके बारे में शायद न लिखता अगर मामा वुधकरजी अपने ब्लाग में इसका जिक्र न करते। आज मेरे मामा कन्हैयालाल नंदन जी घर आये थे। उनसे मैंने हरिद्वारी मामा और उनके ब्लाग का जिक्र भी किया था। सो उन्होंने फोन पर बात की होगी। मामाओं का भरोसा करना अच्छी बात नहीं।
भाई जब बचपन में घर से गये थे तो उसका अंदेशा मुझे हो गया था। मैं साथ-साथ भागता चला गया था और सारे रास्ते पिटते रहने के बावजूद अपने भाई को वापस लेकर लौटा था।
इस बार ऐसा हुआ कि भाई दुनिया से चला गया बिना किसी सूचना के। हमें मौका भी न मिला कि हम पीछा करते हुये उसको पकड़कर वापस ले आते। सिर्फ़ समय के हाथ पिट रहे हैं। समय शायद को पता है कि हमारे पीटने के लिये उठने वाले किसी भी हाथ को तोड़ देने वाला भाई चला गया है।
हम पिट रहे हैं लेकिन हमें अपने भाई की आवाज साफ़ सुनाई दे रही है - दम बनी रहे , घर चूता है तो चूने दो।
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yaad dila gaya kuch gujre hue pal…
दम बनी रहे घर चूता है चूने दो॥
हम पिट रहे हैं लेकिन हमें अपने भाई की आवाज साफ़ सुनाई दे रही है – दम बनी रहे , घर चूता है तो चूने दो।
” uf bdaa dukh hua ye pdh kr…..ab itne dino ke baad kya khen aaj hee pdha hai…. magar mahol gumgeen ho gya hai , kya beete hogee us waqt…”
Regards
मैं बहुत कुछ लिखना चाहता हूं पर लिख नही पा रहा हूं, ईश्वर आपको इस दुख को सहन करने की ताकत दे, और आप अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते रहें, यही ईश्वर से प्रार्थना है.
रामराम.
दारुण अभिव्यक्ति है एक प्रगाढ़ सम्बन्ध की. भगवन उनकी आत्मा को शान्ति दे और आपको शक्ति की आप उनकी छोरी हुई जिमेदारियां निभा सकें.
साथ ही मेरे ब्लॉग पर आपके टिपण्णी के लिए धन्यवाद्. यह मेरा पहला प्रोत्साहन है और याद रहेगा.
कौतुक
कबहुँक भईया है सौदईया, कबहुँक दाहिन बाँह
जिस तरह का चरित्र आपने अपने भईया का बताया उन से कुछ ऐसा ही रिश्ता हो जाता है, कभी कभी बहुत खीझ और कभी बहुत प्यार…..लेकिन मन ये नही कहता कि ये छोड़ कर कहीं जायें, ये अपनी बातें मनवाते रहें और यहीं रहें। लेकिन सारी शर्तें मानने के बावजूद अगर कोई यूँ अचानक हाथ छुड़ा के चल दे, बिना बताये बिना कुछ कहे, तो सिवाय हाथ मलने के रह ही क्या जाता है।
भतीजे से ये हम हैं ना कहते हुए जरूर मन में आया होगा लेकिन मेरे लिये कौन है…! मैं जानती हूँ..! मै समझती हूँ…! आज उनक पुत्री की शादी पर कहीं बहुत खुश होंगे शायद वो भी…!
राज की बात बताएं, ये पूँजी जीवन की,
शोभा आज से है ये आपके आँगन की
और आँखें नम होने लगी…!
ईश्वर करे बिटिया जहाँ जाये वहाँ से सिर्फ खुशियाँ पाये और खुशियाँ लुटाये और हमें भी वहाँ से खुशियाँ लौटाये…!
एक फ़लसफ़ा और मिला..
कुछ और कह नही पाऊगा..
आपने जो लिखा है, वैसी ही लगभग हर घर में एक कहानी है, कम से कम कानपुर या कहें बैसवारे के इलाके में तो है ही। दर्द की शिद्दत हम तक पहुँची तो ये लगा कि अभी इन्सानियत बाक़ी है हम में। अब ये अपनी अपनी सलीबें अपने-अपने काँधे पे लिए – मसीहा बनने की अनचाही कोशिश में, जितनी गुज़र जाए – अच्छा।
आप ने भाई खोने का दर्द जाना है, मगर भाई के होने का सुख भी तो लिया है न!
ज़िन्दगी के इन्सान से खिलवाड़ और हौसले के सहारे इन्सान के जी पाने की इस जद्दोजहद के बयान से प्रेरित हो कर अपनी एक विचारों की गाँठ आज लगता है खोलनी पड़ेगी – जाता हूँ अपने ब्लॉग पर राहत के लिए।
शुभेच्छु,
में नहीं जनता की आप कितने अछे हैं या कितने बुरे लेकिन ऊपर बाले से इतनी दुआ जरुर करना चाहूँगा की हर माँ बाप को आप जेसा बेटा हर भाई बहिन को आप जेसा भाई हर भाभी को आप जेसा देवर हर कर्मचारी को आप जेसा ऑफिसर हर ब0 ऑफिसर को आप जेसा ऑफिसर जरूर मिले
मेरे जीवन के साथ आप के बहुत से सुखद संस्मरण मेरे लिए पूंजी की तरह जुड़े हैं
केवट कुंती द्रौपदी इन जाना कछु मर्म,
दर्द प्रेम का धर्म है प्रेम दर्द का कर्म
धीरेन्द्र पाण्डेय की हालिया प्रविष्टी..चीनी हमला और फिल्म हकीकत का पुनरावलोकन
भाई के bachho के प्रति आपकी उदार भावनाएं इस कलयुग में दुर्लभ है
सादर प्रणाम