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कविता,गिरगिट और समय
By फ़ुरसतिया on November 18, 2008
आज सुबह-सुबह नीरज गोस्वामी जी की गजल पढ़ रहा था। इस बेहतरीन गजल का शुरुआती शेर है :
वैसे भी जैसे दुपहिया वाहन चलाते समय सुरक्षा के लिहाज से हेलमेट जरूरी है वैसे ही किसी के बारे में बात करते समय उसकी तारीफ़ से शुरुआत करना हमेशा सुरक्षित रहता है। यही नियम कविता के बारे में लागू होता है।
तो बात नीरज जी की इस बेहतरीन गजल की हो रही थी। यहां बताया गया है कि इंसान अजीब टाइप का जीव होता है। कभी देवता और कभी शैतान टाइप का। फ़िर बता दिया कि इंसान गिरगिट टाइप का होता है।
अब आप देखिये कि कवि एक अजब टाइप के इंसान की तुलना गिरगिट से करता है। गिरगिट का रंग बदलना शायद उसकी क्षमता हो। समय के अनुसार अपने को बदलने का हुनर। शायद यह बहुत बड़ी कलाकारी की बात हो। उसकी इस कलाकारी को जब हम ऐसे इंसान से तुलना करते हैं जो कि मतलब परस्त होता है, दलबदलू टाइप का होता है तो लगता है कि गिरगिट की रंग बदलने की अदा कोई नीच हरकत है। धोखेबाज के साथ तुलना करके कहीं न कहीं यह धारणा बनती है कि गिरगिट एक नीच किसिम का प्राणी होता है।
फ़ौज में ’कैमाफ़्लाजिंग’ के लिये ’डिसरप्टिव’ कपड़े पहने जाते हैं। डिसरप्टिव माने धोखा देने वाले। कपड़ों पर फ़ूल-पत्ती बनी होती हैं। पेड़-पौधों के बीच छिपने से पता नहीं चलता कि कौन खड़ा है। यह भी रंग बदलना ही हुआ। इसको बहादुरी के साथ जोड़ा जाता है। गिरगिट की हरकत की निंदा होती है। फ़ौजी की वाह-वाही। हो सकता है कि गिरगिट अपने जीव समुदाय का सिपाही हो और अपने को छिपाने के लिये रंग बदलता हो।
प्रकृति अपने-आप में गिरगिटी होती है। पल-छिन रूप बदलती है। सुंदरता का उपमान इंद्रधनुष सात रंग वाला होता है। उसकी तो बड़ी बल्ले-बल्ले होती है। हमें अच्छा लगता है। गिरगिट के रंग कित्ते तो मनमोहक होते हैं लेकिन उसकी इमेज ऐसी बना दी है आदमी ने कि बेचारा धोखेबाजों के साथ बैठा दिया गया।
काश कि गिरगिट भी एक ब्लाग लिख सकता तो अपनी आवाज उठाता -दुनिया के सारे गिरगिटों एक हो। शायद अपनी कोई सभा बुलाता। अपना ग्रुप ब्लाग बनाता। इंसान द्वारा अपने ऊपर किये जा रहे अत्याचारों का बखान करते हुये इंसान से बराबरी की मांग करता। इतना तो वह करवा ही लेता कि मौका परस्त लोगों से हमारा कोई संबंध नहीं है।
यह भी संभव है कि पेड़ की कटी हुई डाली का माइक सरीखा उपयोग करते हुये यह गिरगिट अपना यही भाषण दे हो रहा हो- प्यारे गिरगिट और गिरगिटानियों। लेकिन वह हमें समझ में न आ रही हो। ऐसा होना सहज-संभाव्य है। जब अपने समान बोली-बानी वाले बहुसंख्यकों की बात उनके कल्याण के लिये प्रतिबद्ध लोगों तक नहीं पहुंच पातीं और अगर पहुंचती भी हैं तो वे उसे समझ नहीं पाते तो गिरगिट की बातें समझ न पाना हमारे लिये सहज-संभाव्य है।
जिन साथियों की समझ-गाड़ी सहज-संभाव्य के स्पीड-ब्रेकर पर रुकी हो वे इसके स्थान पर ’क्वाइट नेचुरल’ या ’क्वाइट पासिबल’ पढ़ लें(इन ’शब्द युग्मों” को रोमन में इसलिये नहीं लिखा क्योंकि स्पेलिंग में हमारा हाथ जाड़े के कारण थोड़ा सिकुड़ा हुआ है बोले तो तंग है।)
नीरज जी की शानदार गजल से गिरगिट का जिक्र उठाने के पीछे उनकी गजल को खराब बताना या उसकी खिल्ली उड़ाना मेरा मंतव्य नहीं है। उसके लिये बहाने की क्या जरूरत ? मैं सिर्फ़ यही कहना चाहता हूं कि हम सदियों से अपने संजोये उपमानों से अपना काम चला रहे हैं। केवल कविता के मामले में ही नहीं, जीवन के लगभग हर मामले में। यह सुरक्षित भी लगता है।
कवितायें हमारे ब्लाग जगत में बहुत लिखी जाती हैं। शायद दुनिया भर में अभिव्यक्ति के जितने भी तरीके हैं उनमें सबसे अधिक में कवितायें ही लिखीं गयीं होगी। दुनिया के सारे साहित्यकार ,वे चाहे जिस विधा के हों , कविता से ही बिसमिल्ला किये होंगे। कविता लिखना सबसे आसान काम लगता है, होता है। माना जाता है। एक बार आदमी जब कवि बन जाता है तो जो वह कह देता है वही कविता बन जाता है।
शुरुआत में हमने भी कभी कुछ लिखा था। पता था नहीं सो उसे कविता के खाने में रख दिया। देखिये एक नमूना:-
बाद में हमने सोचा कि दोष बेचारे श्रोताओं का नहीं है, न बेचारी कविता का है। जो मैंने कविता में लिखा उसे ऐसे भी लिख सकता था:-
मुझे लगता है कि दुनिया की तमाम कवितायें अल्पविराम, पूर्णविराम का सही प्रयोग न जानने वालों की अक्षमता के नमूने हैं। व्याकरण की जानकारी के अभाव में लोग शब्दों कॊ ऊपर-नीचे सजाते रहे। लोगों के पास इफ़रात में कागज रहा होगा। पड़ी-पड़ी तीन लाइनों में कही जाने वाली बात को खड़ी-खड़ी तीस लाइनों में कहने के चक्कर में कित्ता कागज बरबाद किया होगा उन्होंने शायद इसका अंदाज भी न हो उनको। कित्ते पेड़ कटे होंगे कविताओं के चक्कर में यह पेड़, फ़ूल, पत्तियों पर कविता लिखने वालों को पता भी न होगा।
तो क्या कविता अपने कहे को बचाये रहने की कोशिश है?
पता नहीं क्या है कविता लेकिन आलोक पुराणिक का कहना है कि अगर ओबामा उसके लिये पांच किलो आलू न खरीद के लाया तो वे ब्लाग जगत की सारी कवितायें उसको पढ़वायेंगे।
आपका क्या विचार है? आपै कुछ बताओ कि कविता क्या है?
कभी वो देवता या फिर,कभी शैतान होता हैइस गजल को बेहतरीन लिखा जरूर है लेकिन आप पर कोई बंदिश नहीं है। आपका मन करे तो माने न मन करे तो न माने। तमाम कवितायें ब्लाग पर लिखी जाती हैं। हम सबको बेहतरीन कहते हैं तो एक और सही। कौन अर्थव्यव्स्था को धक्का लग जायेगा एक और कविता को बेहतरीन कह देने से।
बदलता रंग गिरगट सा,अज़ब इंसान होता है
वैसे भी जैसे दुपहिया वाहन चलाते समय सुरक्षा के लिहाज से हेलमेट जरूरी है वैसे ही किसी के बारे में बात करते समय उसकी तारीफ़ से शुरुआत करना हमेशा सुरक्षित रहता है। यही नियम कविता के बारे में लागू होता है।
तो बात नीरज जी की इस बेहतरीन गजल की हो रही थी। यहां बताया गया है कि इंसान अजीब टाइप का जीव होता है। कभी देवता और कभी शैतान टाइप का। फ़िर बता दिया कि इंसान गिरगिट टाइप का होता है।
अब आप देखिये कि कवि एक अजब टाइप के इंसान की तुलना गिरगिट से करता है। गिरगिट का रंग बदलना शायद उसकी क्षमता हो। समय के अनुसार अपने को बदलने का हुनर। शायद यह बहुत बड़ी कलाकारी की बात हो। उसकी इस कलाकारी को जब हम ऐसे इंसान से तुलना करते हैं जो कि मतलब परस्त होता है, दलबदलू टाइप का होता है तो लगता है कि गिरगिट की रंग बदलने की अदा कोई नीच हरकत है। धोखेबाज के साथ तुलना करके कहीं न कहीं यह धारणा बनती है कि गिरगिट एक नीच किसिम का प्राणी होता है।
फ़ौज में ’कैमाफ़्लाजिंग’ के लिये ’डिसरप्टिव’ कपड़े पहने जाते हैं। डिसरप्टिव माने धोखा देने वाले। कपड़ों पर फ़ूल-पत्ती बनी होती हैं। पेड़-पौधों के बीच छिपने से पता नहीं चलता कि कौन खड़ा है। यह भी रंग बदलना ही हुआ। इसको बहादुरी के साथ जोड़ा जाता है। गिरगिट की हरकत की निंदा होती है। फ़ौजी की वाह-वाही। हो सकता है कि गिरगिट अपने जीव समुदाय का सिपाही हो और अपने को छिपाने के लिये रंग बदलता हो।
प्रकृति अपने-आप में गिरगिटी होती है। पल-छिन रूप बदलती है। सुंदरता का उपमान इंद्रधनुष सात रंग वाला होता है। उसकी तो बड़ी बल्ले-बल्ले होती है। हमें अच्छा लगता है। गिरगिट के रंग कित्ते तो मनमोहक होते हैं लेकिन उसकी इमेज ऐसी बना दी है आदमी ने कि बेचारा धोखेबाजों के साथ बैठा दिया गया।
काश कि गिरगिट भी एक ब्लाग लिख सकता तो अपनी आवाज उठाता -दुनिया के सारे गिरगिटों एक हो। शायद अपनी कोई सभा बुलाता। अपना ग्रुप ब्लाग बनाता। इंसान द्वारा अपने ऊपर किये जा रहे अत्याचारों का बखान करते हुये इंसान से बराबरी की मांग करता। इतना तो वह करवा ही लेता कि मौका परस्त लोगों से हमारा कोई संबंध नहीं है।
यह भी संभव है कि पेड़ की कटी हुई डाली का माइक सरीखा उपयोग करते हुये यह गिरगिट अपना यही भाषण दे हो रहा हो- प्यारे गिरगिट और गिरगिटानियों। लेकिन वह हमें समझ में न आ रही हो। ऐसा होना सहज-संभाव्य है। जब अपने समान बोली-बानी वाले बहुसंख्यकों की बात उनके कल्याण के लिये प्रतिबद्ध लोगों तक नहीं पहुंच पातीं और अगर पहुंचती भी हैं तो वे उसे समझ नहीं पाते तो गिरगिट की बातें समझ न पाना हमारे लिये सहज-संभाव्य है।
जिन साथियों की समझ-गाड़ी सहज-संभाव्य के स्पीड-ब्रेकर पर रुकी हो वे इसके स्थान पर ’क्वाइट नेचुरल’ या ’क्वाइट पासिबल’ पढ़ लें(इन ’शब्द युग्मों” को रोमन में इसलिये नहीं लिखा क्योंकि स्पेलिंग में हमारा हाथ जाड़े के कारण थोड़ा सिकुड़ा हुआ है बोले तो तंग है।)
नीरज जी की शानदार गजल से गिरगिट का जिक्र उठाने के पीछे उनकी गजल को खराब बताना या उसकी खिल्ली उड़ाना मेरा मंतव्य नहीं है। उसके लिये बहाने की क्या जरूरत ? मैं सिर्फ़ यही कहना चाहता हूं कि हम सदियों से अपने संजोये उपमानों से अपना काम चला रहे हैं। केवल कविता के मामले में ही नहीं, जीवन के लगभग हर मामले में। यह सुरक्षित भी लगता है।
कवितायें हमारे ब्लाग जगत में बहुत लिखी जाती हैं। शायद दुनिया भर में अभिव्यक्ति के जितने भी तरीके हैं उनमें सबसे अधिक में कवितायें ही लिखीं गयीं होगी। दुनिया के सारे साहित्यकार ,वे चाहे जिस विधा के हों , कविता से ही बिसमिल्ला किये होंगे। कविता लिखना सबसे आसान काम लगता है, होता है। माना जाता है। एक बार आदमी जब कवि बन जाता है तो जो वह कह देता है वही कविता बन जाता है।
शुरुआत में हमने भी कभी कुछ लिखा था। पता था नहीं सो उसे कविता के खाने में रख दिया। देखिये एक नमूना:-
सबेरा अभी हुआ नहीं है,लोगों को इत्ता सुनाकर हम चुप हो जाते। लोग समझते अभी और पत्ते खुलेगे। तब हम उनको बताते कि कविता इत्ती ही है भाई। लोग ताली बजा देते। तालियों में कविता खत्म होने की खुशी और खात्में को पकड़ न सकने का अफ़सोस साफ़ नजर आता। सीली हुई तालियां।
पर लगता है
कि
यह दिन भी सरक गया हाथ से
हथेली में जकड़ी बालू की तरह।
अब फ़िर
सारा दिन इसी एहसास से जूझना होगा।
बाद में हमने सोचा कि दोष बेचारे श्रोताओं का नहीं है, न बेचारी कविता का है। जो मैंने कविता में लिखा उसे ऐसे भी लिख सकता था:-
सबेरा अभी हुआ नहीं है। पर लगता है कि यह दिन भी सरक गया हाथ से-हथेली में जकड़ी बालू की तरह। अब फ़िर सारा दिन इसी एहसास से जूझना होगा।अगर इस तरह लिखता तो यह एक बेहतरीन गद्य का टुकड़ा बन जाता। लेकिन तब इसे सुनता कौन? गद्य टुकड़ों में नहीं फ़ुल में पढ़ा जाता है। पढ़ा ही जाता है। सुना नहीं जाता। और तीन लाइन के इस चिरकुट गद्य से सैकड़ों गुना बेहतर गद्य दुनिया में मौजूद है। कहां बिला जाता यह पता भी न चलता। कविता थीं यह लाइने सो आज तक याद हैं, बचीं हुईं है। गद्य होता तो हड़प्पा हो गया होता।
मुझे लगता है कि दुनिया की तमाम कवितायें अल्पविराम, पूर्णविराम का सही प्रयोग न जानने वालों की अक्षमता के नमूने हैं। व्याकरण की जानकारी के अभाव में लोग शब्दों कॊ ऊपर-नीचे सजाते रहे। लोगों के पास इफ़रात में कागज रहा होगा। पड़ी-पड़ी तीन लाइनों में कही जाने वाली बात को खड़ी-खड़ी तीस लाइनों में कहने के चक्कर में कित्ता कागज बरबाद किया होगा उन्होंने शायद इसका अंदाज भी न हो उनको। कित्ते पेड़ कटे होंगे कविताओं के चक्कर में यह पेड़, फ़ूल, पत्तियों पर कविता लिखने वालों को पता भी न होगा।
तो क्या कविता अपने कहे को बचाये रहने की कोशिश है?
पता नहीं क्या है कविता लेकिन आलोक पुराणिक का कहना है कि अगर ओबामा उसके लिये पांच किलो आलू न खरीद के लाया तो वे ब्लाग जगत की सारी कवितायें उसको पढ़वायेंगे।
आपका क्या विचार है? आपै कुछ बताओ कि कविता क्या है?
शुक्ल जी क्या कोट करे और क्या छोडे ? ५ बार कापी कर लिया और फ़िर मिटा दिया ! आपका ये पूरा आलेख ही मुझे तो सटीक कविता लग रहा है ! हालांकी मुझे समझ और पात्रता तो नही है पर मैं तो इसे उत्कृष्ट रचना कहूंगा ! बहुत बधाई और शुभकामनाएं !
अब रही “आपका क्या विचार है? आपै कुछ बताओ कि कविता क्या है?”
अभी नींद आ रही है इसलिए इतना ही समझ आ रहा है कि अपने तईं कविता तो मैं ही स्वयं हूँ।
नींद हो ले तो तब दिमाग चले शायद, तब प्रश्न पर विचार हो।
अपने विरोध के प्रथम चरण में हम उद्देश्य है कि दुनियाँ में कविता लिखने में कमी आए. कम से कम साढ़े नौ प्रतिशत की कमी.
दुनियाँ के सारे गिरगिट एक हों.
इन्कलाब जिंदाबाद
“ha ha ha ha ha ha kya sujav diya hai aapne, kya parvee kree hai girgit kee apne, wah chlo kise ko to girgit pr dya aaye…great”
regards
यह हमारे एक मित्र का कथन है, जो बेचारे थे तो कवि, पर अब नहीं रहे। मेरा मतलब अब कवि नहीं रहे। कवियों ने उन्हें इतना झेलाया कि उन्हें कविता से ही नफरत हो गयी है।
वैसे आपका विवेचन लाजवाब है।
नहीं रह गयी हैं अब कविता
कि फुर्सत मे गप से खा जाओ
ग्लोबल हो चली हैं कविता
सो गले मे भी अटकती हैं
हल्के शब्दों से भारी कविता
उफ़ इतनी अभद्रता !!
आंसू भरी होती तो पोछते !!!
आह भरी होती तो समझाते !!!!
लब नयन नक्श होते तो निहारते !!!!!!!!
फुर्सत मे चिंतन से कविता और कवि
पर चिरकुटाई मंथन करते हैं जो
कविता को न समझे हैं ना समझ सकेगे वो !!!!
गिरगिट की तरह रंग नहीं बदली है कविता
कविता थी कविता हैं और कविता रहेगी कविता
हाथ बढाया मुंह में रखा और गल गई
लोकल कवियों ने अब उसे बनाया ग्लोबल
अब खाओ तो पता चले कि जीभ जल गई
गया ज़माना पहले जब मीठी लगती थी
अब कविता का मीठापन है एक छलावा
हरी मिर्च सी तीखी और इमली सी खट्टी
थोड़ा चख कर देखो तो होगा पछतावा
कवि-कवियित्री जो भी कुछ रचकर देते हैं
उसमें नख और नयननक्श का गया ज़माना
अब बस उसमें आजादी है, और लहू है
जैसे कहती संभलो, मेरे पास न आना
थोड़ी फुरसत और निकालो, कविता लिख दो
आधी भी होगी तो भी वो चल जायेगी
चिरकुटई का रंग चढ़ा हो या बेरंगी
जैसी भी हो, जहाँ कहीं हो, ढल जायेगी
लेकिन क्या उम्मीद करें हम फुरसतिया से
उनकी क्या औकात लिखें और ठेलें कविता
वो तो बस बैठे-ठाले खींचें कवियों को
वो कवि जो हैं बहा रहे कविता की सरिता
वो सरिता जो सनी हुई कीचड़, मिट्टी से
जिसमें भाषा का हो जाता तीया-पांचा
जिसमें देखें छंदों को दम घुटकर मरते
जिसमें रखा रहता उसकी मौत का सांचा
doosari baat kyo hamari blogging band karavaana chahate hai.n??? hamnae aap ka kya bigada hai..??? are le de kar kavita hi to aisi chhej hai jise ham likh pate hai.n us par aise bahas shuru kara de.nge, to ham jo 2 mahine me ek baar khush hote hai tiipadiya.n padh ke vo bhi hamare hath se chala jayega…!:(
नोट : हम इत्ती जयजयकार इसलिये कर रहे हैं – कभी हमारे लिये भी लिख दें वे और झाल कवि वियोगी जन्नाटेदार कवितायें!
कंपनी का सारा प्राफ़िट अमेरीका के शेयर मार्केट मे झोक के आयें हमारे कुवैती धन्ना सेठ जैसे ही हमे पल भर की फ़ुरसत देंगे !!हम इसके विरोध मे पोस्ट लिखेंगे !!
आवाज बुलंद रहे
बाकि काम बंद रहे !! हा हा हा
तो वह विवेक ने पूरी कर ही दी..
मेरे मत उन्हीं टिप्पणियों में निहित हैं
मेरा कविता से गहन नाता है
पठनोपरांत दिल को छूते हुये किसी गद्य का शीर्षक याद रह जाये, तो ठीक
जबकि ऎसी किसी कविता की पंक्तियाँ वर्षों याद रहती हैं
और अपरोक्ष रूप से हमारे व्यक्तित्व व निर्णय क्षमता को प्रभावित करती रहती हैं
हाँ, ब्लागजगत पर दिखने वाली कविताओं में कुछेक ही प्रभावित कर पायी हैं,
क्योंकि वह ताऊ फ़ारमूले से तैयार की हुई सी लगती हैं ।
शेष यत्र कुशलम तत्रास्तु
नीरज
गिरगिट का चित्र है ये कंचन जी इसे हम नेट से ही उडाये हैं…और जानकारी के लिए बता दें की हमने दुनिया के प्रत्येक गिरगिट से माफ़ी भी मांग ली है…आख़िर कौन गिरगिट अपनी तुलना इंसान नाम के प्राणी से करना चाहेगा…???
सड़े हुए अंडे की चाहत
गले टमाटर की अकुलाहट
फ़टे हुए जूते चप्पल की माला के असली अधिकारी
हे नवयुग के कवि, तेरी ही कविता हो तुझ पर बलिहारी
तूने जो लिख दी कविता वह नहीं समझ में बिलकुल आई
“खुद का लिखा खुदा ही समझे” की परंपरा के अनुयायी
तूने पढ़ी हुई हर कविता पर अपना अधिकार जताया
रश्क हुआ गर्दभराजों को, जब तूने आवाज़ उठाई
आपका अहसास भी यूं साथ साथ बजता
पूछते हो विचार मेरा और क्या है कविता
कम हों विचार/रचना तो और कहें कविता
नीरज
पार्शियल मेमोरी लॉस और शोर्ट टर्म मेमोरी लॉस दोनों हो गया है. कुछ याद आएगा तो बताएँगे.
(इन ’शब्द युग्मों” को रोमन में इसलिये नहीं लिखा क्योंकि स्पेलिंग में हमारा हाथ जाड़े के कारण थोड़ा सिकुड़ा हुआ है बोले तो तंग है)
Puja Upadhyay की हालिया प्रविष्टी..सो माय लव- यू गेम