http://web.archive.org/web/20140419215530/http://hindini.com/fursatiya/archives/2172
अक्सर मैं ऐसी-ऐसी बातें सोचता हूं कि उनको बेसिर-पैर की बातें ही कहा
जा सकता है। इन बातों में कुछ सामाजिक जीवन के मुद्दे होते हैं और कुछ
विज्ञान से। और न जाने कित्ते इधर-उधर से। कोई सिलसिला नहीं इनका। लेकिन इस
तरह की बातें आती अक्सर रहती हैं दिमाग में।
जैसे कि जब से मैंने स्थितिज ऊर्जा, गतिज ऊर्जा और ऊर्जा रूपान्तरण के बारे में जाना तब से अक्सर इसका अमल सड़क पर होने वाली दुर्घटनाओं के समय सोचता। आमने-सामने की गाड़ियों की भिड़ंत के समाचार देखकर सोचता कि ऐसी कोई व्यवस्था होती कि भिड़ंत होते ही दोनों गाडियों की गतिज ऊर्जा स्थितिज ऊर्जा में बदल जातीं। गाड़ियां अपनी-अपनी गतिज ऊर्जा के हिसाब से ऊपर उचक जातीं और बाद में आहिस्ते-आहिस्ते लिफ़्ट की तरह नीचे आ जातीं। इस तरह हादसे में मरने वाले लोग बच जाते। इस सोच में तमाम लोचे दिखते लेकिन उस सब के बारे में मैं ज्यादा नहीं सोचता।
आजकल सुना है कि गाड़ियों में सीट बेल्ट में बैलून लगे होते हैं। दुर्घटना होने पर बैलून खुल जाता है और यात्री/चालक की जान बच जाती है।
विज्ञान में होने वाले नित-नये चमत्कारों के बारों में सोचते-सोचते भी तमाम अटपटी बातें सोचता हूं।
यह तो अक्सर ही कि कल को कोई ऐसी जुगत बनेगी जब अणुओं/परमाणुओं को आम आदमी जोड़-तोड़कर आम जीवन में प्रयोग करने लगेगा। आक्सीजन की कमी की बात सोचते हुये तमाम ख्याल आये। जब किसी को आक्सीजन की जरूरत हुई तो पानी के अणु (H2O) को छीलकर आक्सीजन और हाइड्रोजन अलग-अलग कर लिये। आक्सीकन प्रयोग कर ली। हाइड़्रोजन अलग धर ली। बाद में जब पानी की जरूरत हुई तो हवा से आक्सीजन निकालकर उसको हाइडोजन में मिलाकर पी लिया।
पानी के अणुओं से आक्सीजन निकाल लेने की विधि सोचते हुये मैं यह सोचता कि ऐसा पानी के अणुओं को पटककर तोड़ा जा सकता। जैसे समय में नमक के बड़े ढेले या फ़िर गुण की भेली तोड़ी जाती है। हो सकता है इसके लिये कोई खास तकनीक बन जाये जिसको शायद माउंटबेटन तकनीक के नाम से जाना जाये।
उधर जो पानी को छीलकर हाइड़्रोजन निकाली थी उसको संलयन करके ऊर्जा संकट को दूर करने की बात भी सोचता हूं। हवा में कार्बन डाईआक्साइड की बढ़ती मात्रा का उपयोग आक्सीजन और कार्बन को अलग-अलग करके किया जा सकता। आक्सीजन सांस लेने के लिये प्रयोग होती। कार्बन को फ़िर से सुलगाकर ऊर्जा निकलती और फ़िर से कार्बन डाईआक्साइड बन जाती। हवा से नाइट्रोजन और इधर-उधर की चीजें भी निकालकर जरूरत के हिसाब से उपयोग कर लेता।
इस सबके अमल में व्यवहारिक कठिनाइयां हैं लेकिन हम व्यवहार की बात कहां कर रहे हैं। हम तो अपने अटपटे विचार बता रहे हैं।
शरीर का रिपेयर भी एकदम गाड़ियों की तरह होने लगे तो कित्ता मजेदार हो हाथ-पैर-आंख-नाक-कान जो खराब हुआ उसे बदल दिया। दिल खराब हुआ , गाड़ी के इंजन की तरह बदल दिया। दिमाग खराब हुआ स्पेयर दिमाग लगाकर चालू कर दिया। कोई अंग-भंग हुआ उस पर मांस-त्वचा का प्लास्टर कर दिया। इनमें से कई तो अब होने भी लगी हैं।
सामाजिक मोर्चे पर समृद्धि का असमान वितरण अक्सर परेशान करता है। इस बारे में मैं अक्सर सोचता हूं कि कोई ऐसी जुगत होती कि दुनिया भर की संपत्ति हर चार-पांच साल में बराबर बंट जाती। पंद्रह प्रतिशत लोगों के पास पच्चासी प्रतिशत और पच्चासी प्रतिशत के पास पंद्रह प्रतिशत संपदा न रहती। नियमित अंतराल के बाद अगर ऐसा हो सकता तो फ़िर दुनिया भर के तमाम लफ़ड़े सुलट जाते। तब शायद ऐसा नहीं होता कि एक ही मुंबई में कोई ऐसे घर में रहता जिसमें सैकड़ों कारों की पार्किंग की व्यवस्था है, हेलीकाप्टर उतरने का जुगाड़ है वहीं उसी शहर में लाखों लोग झोपड़पट्टियों में नारकीय जीवन बिताते हैं।
संपत्ति और सुविधा के समान वितरण की बात सोचते समय मैं अपनी सुविधायें कम होने की बातें सोचता लेकिन उनको मानने में मुझे कोई हिचक नहीं होती। अगर कहीं ऐसा होता तो क्या होता!
ऐसी ही न जाने और कितनी बात सोचता हूं। लेकिन उनके बारे में फ़िर कभी।
आप भी कुछ तो अटपटा सोचते होंगे। बतायेंगे!
साहित्यिक सोंदर्य
१- आईडिया का सुंदर मानवीकरण किया गया है.
२- कठिन शब्दों का अर्थ स्पष्ट करने के लिए उचित लिंकों का समावेश है.
भाषा – कठिन , अव्याव्हारिक , कानपुरिया खड़ी बोली , आंग्ल भाषा का विचित्र प्रयोग , उर्दू शब्दों की अधिकता
शैली – बकवासात्मक , काव्यात्मकता की सम्भावना
इस तरह का सच कम लोग लिखते हैं। मैं मयंक सिंह का ब्लाग खोज रहा हूं। मजा आयेगा उनको पढ़ते हुये।
सुनील पाटीदार के लेख को लोगों ने बहुत पसंद किया। उन्होंने अपना ब्लाग बनाया है। आप उनके लेख यहां पढ़ सकते हैं। आशा है सुनील नियमित लिखते रहेंगे।
…कुछ बेसिर-पैर की बातें
By फ़ुरसतिया on August 8, 2011
जैसे कि जब से मैंने स्थितिज ऊर्जा, गतिज ऊर्जा और ऊर्जा रूपान्तरण के बारे में जाना तब से अक्सर इसका अमल सड़क पर होने वाली दुर्घटनाओं के समय सोचता। आमने-सामने की गाड़ियों की भिड़ंत के समाचार देखकर सोचता कि ऐसी कोई व्यवस्था होती कि भिड़ंत होते ही दोनों गाडियों की गतिज ऊर्जा स्थितिज ऊर्जा में बदल जातीं। गाड़ियां अपनी-अपनी गतिज ऊर्जा के हिसाब से ऊपर उचक जातीं और बाद में आहिस्ते-आहिस्ते लिफ़्ट की तरह नीचे आ जातीं। इस तरह हादसे में मरने वाले लोग बच जाते। इस सोच में तमाम लोचे दिखते लेकिन उस सब के बारे में मैं ज्यादा नहीं सोचता।
आजकल सुना है कि गाड़ियों में सीट बेल्ट में बैलून लगे होते हैं। दुर्घटना होने पर बैलून खुल जाता है और यात्री/चालक की जान बच जाती है।
विज्ञान में होने वाले नित-नये चमत्कारों के बारों में सोचते-सोचते भी तमाम अटपटी बातें सोचता हूं।
यह तो अक्सर ही कि कल को कोई ऐसी जुगत बनेगी जब अणुओं/परमाणुओं को आम आदमी जोड़-तोड़कर आम जीवन में प्रयोग करने लगेगा। आक्सीजन की कमी की बात सोचते हुये तमाम ख्याल आये। जब किसी को आक्सीजन की जरूरत हुई तो पानी के अणु (H2O) को छीलकर आक्सीजन और हाइड्रोजन अलग-अलग कर लिये। आक्सीकन प्रयोग कर ली। हाइड़्रोजन अलग धर ली। बाद में जब पानी की जरूरत हुई तो हवा से आक्सीजन निकालकर उसको हाइडोजन में मिलाकर पी लिया।
पानी के अणुओं से आक्सीजन निकाल लेने की विधि सोचते हुये मैं यह सोचता कि ऐसा पानी के अणुओं को पटककर तोड़ा जा सकता। जैसे समय में नमक के बड़े ढेले या फ़िर गुण की भेली तोड़ी जाती है। हो सकता है इसके लिये कोई खास तकनीक बन जाये जिसको शायद माउंटबेटन तकनीक के नाम से जाना जाये।
उधर जो पानी को छीलकर हाइड़्रोजन निकाली थी उसको संलयन करके ऊर्जा संकट को दूर करने की बात भी सोचता हूं। हवा में कार्बन डाईआक्साइड की बढ़ती मात्रा का उपयोग आक्सीजन और कार्बन को अलग-अलग करके किया जा सकता। आक्सीजन सांस लेने के लिये प्रयोग होती। कार्बन को फ़िर से सुलगाकर ऊर्जा निकलती और फ़िर से कार्बन डाईआक्साइड बन जाती। हवा से नाइट्रोजन और इधर-उधर की चीजें भी निकालकर जरूरत के हिसाब से उपयोग कर लेता।
इस सबके अमल में व्यवहारिक कठिनाइयां हैं लेकिन हम व्यवहार की बात कहां कर रहे हैं। हम तो अपने अटपटे विचार बता रहे हैं।
शरीर का रिपेयर भी एकदम गाड़ियों की तरह होने लगे तो कित्ता मजेदार हो हाथ-पैर-आंख-नाक-कान जो खराब हुआ उसे बदल दिया। दिल खराब हुआ , गाड़ी के इंजन की तरह बदल दिया। दिमाग खराब हुआ स्पेयर दिमाग लगाकर चालू कर दिया। कोई अंग-भंग हुआ उस पर मांस-त्वचा का प्लास्टर कर दिया। इनमें से कई तो अब होने भी लगी हैं।
सामाजिक मोर्चे पर समृद्धि का असमान वितरण अक्सर परेशान करता है। इस बारे में मैं अक्सर सोचता हूं कि कोई ऐसी जुगत होती कि दुनिया भर की संपत्ति हर चार-पांच साल में बराबर बंट जाती। पंद्रह प्रतिशत लोगों के पास पच्चासी प्रतिशत और पच्चासी प्रतिशत के पास पंद्रह प्रतिशत संपदा न रहती। नियमित अंतराल के बाद अगर ऐसा हो सकता तो फ़िर दुनिया भर के तमाम लफ़ड़े सुलट जाते। तब शायद ऐसा नहीं होता कि एक ही मुंबई में कोई ऐसे घर में रहता जिसमें सैकड़ों कारों की पार्किंग की व्यवस्था है, हेलीकाप्टर उतरने का जुगाड़ है वहीं उसी शहर में लाखों लोग झोपड़पट्टियों में नारकीय जीवन बिताते हैं।
संपत्ति और सुविधा के समान वितरण की बात सोचते समय मैं अपनी सुविधायें कम होने की बातें सोचता लेकिन उनको मानने में मुझे कोई हिचक नहीं होती। अगर कहीं ऐसा होता तो क्या होता!
ऐसी ही न जाने और कितनी बात सोचता हूं। लेकिन उनके बारे में फ़िर कभी।
आप भी कुछ तो अटपटा सोचते होंगे। बतायेंगे!
और अंत में
पिछली पोस्ट पर मयंक सिंह की बड़ी सार्थक टिप्पणी आयी है। उन्होंने लिखा है:साहित्यिक सोंदर्य
१- आईडिया का सुंदर मानवीकरण किया गया है.
२- कठिन शब्दों का अर्थ स्पष्ट करने के लिए उचित लिंकों का समावेश है.
भाषा – कठिन , अव्याव्हारिक , कानपुरिया खड़ी बोली , आंग्ल भाषा का विचित्र प्रयोग , उर्दू शब्दों की अधिकता
शैली – बकवासात्मक , काव्यात्मकता की सम्भावना
इस तरह का सच कम लोग लिखते हैं। मैं मयंक सिंह का ब्लाग खोज रहा हूं। मजा आयेगा उनको पढ़ते हुये।
सुनील पाटीदार के लेख को लोगों ने बहुत पसंद किया। उन्होंने अपना ब्लाग बनाया है। आप उनके लेख यहां पढ़ सकते हैं। आशा है सुनील नियमित लिखते रहेंगे।
Posted in बस यूं ही | 85 Responses
शुक्रिया! आपके बच्चे हमारी ही पार्टी के हैं लगता है! बहुत आगे जायेंगे वे जीवन में! हमारी मंगलकामनायें उनको! आपको भी!
आपने यह बेसिर पैर की पोस्ट ठेलकर टाइम खोटी किया , अपना तो नुस्कान कर ही रहे हो मगर आपके मित्रों की क्या गलती है ?
आपको हार्दिक शुभकामनायें !
satish saxena की हालिया प्रविष्टी..उन्मुक्त हंसी -सतीश सक्सेना
शुक्रिया। आपका टाइम खोटा हुआ तो कम से कम कभी उसका भाव लगेगा ही। इसी बहाने आप सारे समाज की चिंता से बचे इत्ते समय। यह आपके समय खोटे होने का धनात्मक पहलू है। मित्रों की गलती वैसे तो कोई नहीं लेकिन यह तो है ही कि मित्रता देखभाल कर नहीं करते।
भारतीय नागरिक की हालिया प्रविष्टी..सिलीगुड़ी में तेंदुआ
धन्यवाद! वैसे ऐसे न जाने कित्ते आइडिये और हैं कतार में। पीछे से धक्का देकर आगे आने की कोशिश कर रहे हैं। हम उनको कैसे साधे हुये हैं, हम ही समझ सकते हैं।
ऐसे कई अव्यावहारिक अटपटे आइडिया मैं भी बहुत सोचता हूँ.
कई दिनों से सोच रहा हूँ कि – दायें या बाएं मुड़ने के लिए सम्बंधित इंडिकेटर जलाकर संकेत किया जाता है पर सीधे जाने के लिए क्या? इसके लिए कुछ छोटे रॉकेट जैसी व्यवस्था होनी चाहिए ताकि यदि हम सीधे ही जा रहे हों तो सन्न से रॉकेट निकले और ज़रा सा सीधे जाकर टप्प से लुढ़क जाए. इस प्रकार सब जान जायेंगे कि हम सीधे ही जा रहे हैं.
Nishant Mishra की हालिया प्रविष्टी..कौशल
बड़ा सुकून मिला आपकी टिप्पणी से। कम से कम यह तो एहसास हुआ कि हम अकेले नहीं हैं।
सही है। शुक्रिया।
आपका एक नुस्खा समझ में नहीं आया,हालाँकि आप पहले ही ‘अटपटी बातें’ कहकर अपने हाथ झाड़ चुके हैं! गुरूजी,अगर हमने H2O को छिलने की कोशिश की और उसमें ऑक्सीजन अलग हो गयी तो कहीं हमरी ऑक्सीजन भी न सरक ले…इस बात की भी तो आशंका है !
हम तो गलती से ही कभी सही सोच पाते हैं,नहीं तो अटपटा और को लगता होगा,हमरी तो जीवन-शैली ही अटपटी है ! हमारे बारे में हमारे एक बुजुर्ग मित्र (अब इस दुनिया में नहीं हैं ) अकसर कहा करते थे कि तुम लिखते बढ़िया हो,मगर बोलते घटिया हो ! सच में ,यह बात मुझे ज्यादा अटपटी लगती भी नहीं थी !
अब भाई बातों के सर-पैर की बात हमने लिखी तो उत्ते की गारंटी हम लेते हैं। बाकी मुंह का जिम्मा आप संभारौ!
अरविंद मिश्र खुदै आकर जरूरी सूचना दे जायेंगे। वे लुका-छिपी में भरोसा नहीं करते।
H2O को छीलने की बात सोचते समय यह विचार आया था कि जो अणु इधर-उधर छिटकते हैं उनको सहेजने के लिये एक झाडू नुमा व्यवस्था रखी जायेगी। लेकिन जब तक यह विचार तब तक इसको धकियाकर दूसरे आइडिया सामने आ गये। लगता है वे रूपा फ़्रंट लाइन बनियाइन पहने थे।
आपके बुजुर्ग मित्र आपके सच्चे मित्र थे। ऐसे मित्र जो मित्रों को सही बात बता सकें – दुर्लभ हैं।
शुक्रिया। क्या पता इसको पढ़कर ही कोई वैज्ञानिक बन जाये!
अपने स्क्रीन पर जो चीज अच्छी लगे बस हाथ डालकर निकाल लो, अगर असली नहीं तो एक नकली प्रति ही सही :डी |
विवेक रस्तोगी की हालिया प्रविष्टी..आज फ़िर भारतीय बाजारों के लिये काला सोमवार है (Today again a Black Monday for Indian Share Market..)
इंशाअल्लाह आपकी मुरादें तो अमल में आने लायक हो सकती हैं। थोड़े दिनों बाद पहली इच्छा तो पूरी हो ही सकती है।
आशीष ‘झालिया नरेश’ विज्ञान विश्व वाले की हालिया प्रविष्टी..फिल्टर और प्रकाश : हब्बल अंतरिक्ष वेधशाला चित्र कैसे लेती है? : भाग 2
सुनील का लिंक लगा दिया है। उन्होंने इस बीच नई पोस्ट भी लिख डाली है।
मस्त!
सतीश पंचम की हालिया प्रविष्टी..रिस्से-सन…..रिस्से-सन
शुक्रिया। राप्चिक शुक्रिया।
और एक बडा आईडिया है कि एक क्लीनिक खोला जाये जिसमें एक मोटा एक दुबले को साथ लेकर आये और २ घंटे के बाद दोनो मीडियम साईज में बाहर निकलें । हमारी कीमत यहां अमेरिका में सोने के भाव हो जायेगी
बडे दिनों के बाद मौज में पढने को मिला।
विवेक रस्तोगी की हालिया प्रविष्टी..आज फ़िर भारतीय बाजारों के लिये काला सोमवार है (Today again a Black Monday for Indian Share Market..)
“शरीर के अंग अलग हो जायें तो बडा मजा आये, रूममेट बाल कटवाने जा रहा हो तो खुद सोते रहें और अपना सिर निकाल कर उसे दे दें कि जाओ जुल्फ़ें छंटवा लाओ।”
इसमें फ़िर लफ़ड़े भी होंगे। पता चला कि नीरज रोहिल्ला का सर किसी और के यहां चला गया और गलती से नाई की दुकान पर रखा दूसरे किसी का सर नीरज रोहिल्ला के शरीर पर सट गया। नीरज रोहिल्ला फ़िर रपट लिखा रहे हैं -मेरा सर खो गया है। जिस किसी को मिले पहुंचा जाये। पहुंचाने वाले को इनाम दिया जायेगा।
सर लिखवायेगा कि मेरा शरीर खो गया ? या शरीर लिखवायेगा कि मेरा सर खो गया ?
शंका निवारण किया जाये !
आशीष ‘झालिया नरेश’ विज्ञान विश्व वाले की हालिया प्रविष्टी..फिल्टर और प्रकाश : हब्बल अंतरिक्ष वेधशाला चित्र कैसे लेती है? : भाग 2
बढिया कमेंट!
ashish की हालिया प्रविष्टी..असतो माँ सदगमय
शुक्रिया। वैसे नोबल पुरस्कार मिल गया तो आफ़त हो जायेगी। पासपोर्ट वीजा का काम बड़ा झंझटी है भाई ! वो सब भी बनवाना पड़ेगा।
वैसे आपके आख़िरी पैरे के आइडिये को पढ़कर मन भर आया कि और लोग भी हमारी तरह सोचते हैं
aradhana की हालिया प्रविष्टी..इस मोड़ से जाते हैं …
विज्ञानगल्प पर तो वैज्ञानिक चेतना संपन्न मिसिरजी का एकाधिकार है।
आखिरी पैरे वाली बात जैसी बातें तो अक्सर ही सोचते रहते हैं। अफ़सोस भी करते रहते हैं गाहे-बगाहे।
धन्यवाद, अनूप जी संज्ञान में लेने के लिए.
छमाप्रार्थी हूँ की मै “creation business ” में नहीं हूँ.
बहुत से कारण हो सकते हैं.
१- रचनात्मकता का अभाव
२- किसी सार्थक रचना के लिए उचित समय का अभाव
३- रचनाकार होने के लिए पर्याप्त प्रतिभा का अभाव
४- ज्ञान का अभाव
और सबसे महत्वपूर्ण
५-अभाव का अभाव
ये latest कारण है ब्लॉग न होने का
यदि out-standing साहित्यकारों का जीवनी देखी जाय तो कुछ इस प्रकार के तथ्य सामने आते हैं.
१-भारतेंदु हरिश्चंद्र – १० वर्ष की आयु में माता – पिता दोनों के प्रेम से वंचित
कठिन आर्थिक स्थिति , छय रोग
योग्यता –
भाषा ज्ञान- हिंदी , उर्दू , बांग्ला, आंग्ल भाषा
उपाधियाँ – १-आधुनिक हिंदी साहित्य का जनक
२-युग निर्माता साहित्यकार (भारतेंदु युग १८६८ – 1900)
३-आधुनिक हिंदी साहित्य के प्रवर्तक
४- हिंदी साहित्य गगन के इंदु
व्यवसाय – नाटककार , अनुवादक , कवि, कथाकार, इतिहासकार ,
उपसंहार- असाधारण कष्टमय जीवन, असाधारण प्रतिभाशाली रचनाकार
२- चार्ल्स डिकेंस- डिकिंस के पिता मामूली सरकारी क्लर्क थे, वे सदा आमदनी से अधिक, खर्च करते थे और इस कारण आजीवन आर्थिक संकट झेलते रहे. जब वह छोटे थे, उनके पिता ऋणग्रस्त होने के कारण जेल गए और डिकिंस को जूते को पालिश बनानेवाली एक फैक्टरी में नौकरी करनी पड़ी. डिकिंस की माँ उनकी शिक्षा के विरुद्ध थीं.
उपाधि – विक्टोरियन युग के सबसे लोकप्रिय अंग्रेजी उपन्यासकार
व्यवसाय – उपन्यासकार , कथाकार , पत्रकार , मजदूर
उपसंहार – कष्टमय जीवन , असाधारण रचनाकार
whole thing is that
सार्थक रचनात्मकता के लिए कुछ अनुभव अवश्यक हैं.
इनके आभाव में कोई भी रचना निर्जीव है.
एक घोषित ब्लॉगर के अनुसार
१.पत्नी घर द्वार से दुखी
ब्लॉग लिख कर खुश
फिर भी कहती है आभासी
दुनिया में हम
रीयल दुनिया से भाग कर नहीं आये हैं
२.वृद्ध , खाली घर में परेशान
बेटा , बेटी विदेश में
नेट पर ब्लॉग परिवार में
इजाफा कर रहे हैं
अपना समय परिवार से दूर
व्यतीत कर रहे हैं पर
कहते हैं हम रीयल दुनिया से
आभासी दुनिया में नहीं आये
३.किसी ब्लोगर की पत्नी ने
उनको नकार दिया था
क्युकी पत्नी का सौन्दर्यबोध
पति के शरीर को स्वीकार नहीं कर पाया
वही ब्लोगर नेट पर रोमांस करता पाया जाता हैं
फिर भी कहता हैं
रीयल लाइफ में सुखी हैं.
http://mypoeticresponse.blogspot.com/2011/06/blog-post_24.html
से साभार
जब एक ब्लॉगर ही सिद्ध करता है.
blogger = loser
L.H.S = R.H.S
तो डर लगता है ब्लॉगर बनने में जी
नोट
१- इस लेख से किसी सर्व सुख संपन्न ब्लॉगर को कष्ट हुआ तो i do not care.
2- मैंने जो उपर किया मेरे गाँव में उसे कहते है लजौनी पचाना (शर्म करो चोल्हे में भसम).
रोचक टिप्पणी!
वैसे आपकी टिप्पणी से लोग यह न समझने लगे कि महान बनने के लिये अभाव/मुफ़लिसी का जीवन जीना आवश्यक शर्त है।
वैसे आपकी सक्रियता से मुझे नहीं लगता कि आप बहुत दिन तक ब्लागिंग से बच पायेंगे।
आपका आइडिया भी आता ही रहता है। क्या पता कल को ऐसे सौर हेलमेट बनें जिनको द्वारा सौर ऊर्जा इकट्ठा करके काम किया जा सके।
इस तरह की गाड़ियां अब बनने लगी हैं शायद! कीमत भले ज्यादा हो!
सही कहा आपने शुक्रिया।
——
ब्लॉग के लिए ज़रूरी चीजें!
क्या भारतीयों तक पहुँचेगी यह नई चेतना ?
Zakir Ali Rajnish की हालिया प्रविष्टी..ब्लॉग के लिए ज़रूरी चीजें… (Blogs Essential)
तक क्या? क्या एक आप ही बेसिर-पैर की हांक पाते हैं?
उतनी ही महत्वपूर्ण टिप्पणी ! शुक्रिया।
यदि व्यक्ति में सोच खत्म हो जाये तो वह जीवित ही न रह पायेगा,
नई सोच लिए इस पोस्ट को भी सलाम.
Dr.ManojMishra की हालिया प्रविष्टी..महामहोपाध्याय प्रो.वाचस्पति उपाध्याय :अश्रुपूरित श्रद्धांजलि .
शुक्रिया कि आपको यह भी पसंद आया।
आप के लेखों में भौतिकी /रसायन विज्ञान के छींटे यदा- कदा नज़र आने लगे हैं.
अनूठे से विषय पर रोचक लेख.
पोस्ट के विषय हेतु यह भी आयडिया खूब रहा .
शुक्रिया आपका कि आपको यह लेख पसंद आया। आपकी पसंद बहुत अच्छी है!
शुक्रिया है जी!
ऐसे ही वाहियात वाहियात विचार मेरे भी कूढ़ मगज में गाहे बगाहे आते रहते हैं ….
सोच नहीं पाता क्या करूं -कभी कभी तो इच्छा होती है सर दीवार पर पटक मारू -मगर अब ब्लॉग पर ही लिख देने का फार्मूला मिल गया है …
यह परसाई और आजिमोव काम्बो बन गया है ….
बिना सर पैर वाली बातें बिन पग चलै सुने बिन काना बिनु कर कर्म करई विध नाना -संतोष त्रिवेदी ठीकै फरमाए हैं ..
ऐसे विचार सृजनात्मकता के उदगम काल हैं !
एक फर्जी टिप्पणी कहाँ से आ गयी बिना कांटेक्स्ट के …..
विज्ञान कथाकारों की छुट्टी क्यों? उनको सहयोग मिलेगा इससे।
आप लिखिये न कोई विज्ञान कथा। जो होगा देखा जायेगा।
‘पिछले २ दिन से ५/२ साल का बालक हर बात का विरोध ………… लेहो..लेहो कर के कर रहा है……………..
बजरिये मयंक जी के सूत्रानुसार……………कल को कोई फटेहाल चिरकुट ………… महानता का सिम-कार्ड
लगा…………अकादमिक जगत में अपने हिस्सेदारी मांग कर सकता है………………….
इत्ती बरी डम-प्लाट दुनिया में जो अनगिनत आईडिया का प्रयोग न कर पाने से अवसान हो रहा है……..उसके
लिए युनिवर्सल आईडिया insurance कंप. खोलने का आईडिया कुलबुला रहा है………….
प्रणाम.
मजेदार टिप्पणी। मयंक सिंह की टिप्पणी रोचक है। आपके और उनके सवाल-जबाब मजेदार!
वंदना अवस्थी दुबे की हालिया प्रविष्टी..न लिखने का बहाना…..
शुक्रिया। अब जब याद आ गया तो अपने किस्से लिखिये न!
ओल्ड फैशन बेबी की तरह लेहो लेहो नहीं.
आज की जेनरेशन एडवांस है. (जापानी तकनीक का कमाल)
लगता है कोई भोला भला बिहारी “करेंट मारे गोरिया ” को मिस कर रहा है.
संयोग से उदाहरण में आर्थिक पछ कामन है.
एक और उदाहरण
मुंशी प्रेम चन्द्र
पिता – पोस्टमास्टर
स्पस्ट है समकालीन आम भारतीय जनता से बेहतर आर्थिक स्थिति
मुंशी प्रेम चन्द्र का बचपन
१- माता की अकाल मृत्यु
2- बहन से वात्सल्य मिला , पर बहन का बाल विवाह होने से फिर एकाकी
३- पिता के बार बार तबादलों से मित्रों का बार बार बिछडना
इन सब कारणों से कोई भी बचपन असामान्य कहा जायेगा.
एसा बचपन बिताने वाले प्रेम चन्द्र बड़े हो कर हिंदी कथा सम्राट बने.
बुरे अनुभवों और creativity में जय वीरू टाइप सम्बन्ध है.
एक सामान्य जीवन बिताने वाले के पास बाटने के लिए अनुभव नहीं होते और न दूसरों
का दुख समझने की छमता.
जे के रोलिंग भी इस का एक उदाहरण हैं.
बुरा समय सबसे बहतर है, कुछ नया करने के लिए.
और ये बहाना है crative न होने का पर सच है.
अगर किसी के पास किसी खुशी खुशी जीवन बिताने वाले किसी महान साहित्यकार का तो मुझे बता केर अनुग्रहित करें.
का दुख समझने की छमता.
आप की ये बात कुछ हद्द तक सही हैं
ब्लॉग लेखन कुछ के लिये टाइम पास हैं तो कुछ के लिये प्रिंट मीडिया का विकल्प , कुछ के लिये ये महज अपने लिये नए संबंधो को खोजने का माध्यम .
लेकिन सब यहाँ जो आये हैं उनके पास कहीं ना कहीं कुछ खाली था , चाहे वो समय ही क्यूँ ना हो , उसको भरने के लिये वो रीयल से आभासी बने
आप ने मेरे ब्लॉग पर लिखी पंक्तियों को यहाँ दिया , उनसे रिजल्ट भी निकाला आप पाठक हैं ये सही हैं पर आप अगर ब्लोग्गर होते तो आप के लिखे को पढ़ कर हम सब भी जजमेंटल बनते
एक तरफ़ा हुई आप से जान पहचान
पाठक से ब्लोग्गर बनने के सफ़र में जो तकलीफ होती हैं बिना उसको जिये कोई निष्कर्ष कैसे निकाल लिया
Rachna की हालिया प्रविष्टी..काश
आपने सवाल किया :
“अगर किसी के पास किसी खुशी खुशी जीवन बिताने वाले किसी महान साहित्यकार का तो मुझे बता केर अनुग्रहित करें.”
अब यह तो इस बात पर निर्भर करता है कि किसी का खुशी नापने का पैमाना क्या है? आमतौर पर सुख-सुविधा से युक्त जीवन को खुशहाल जीवन माना जाता है। इस मायने में दो नाम मुझे याद आ रहे हैं। टालस्टाय और रवीन्द्र नाथ टैगोर काम भर के संपन्न थे। वे ऊंचे साहित्यकार भी माने गये।
बाकी किसी का बचपन बिगड़ा रहा किसी का वैवाहिक जीवन तो यह तो इस बात पर निर्भर करता है कि वह कितना संवेदनशील है अपने साथ घटनाओं के प्रति।
कोई किन परिस्थितियों में जिया इसके साथ या इससे अधिक यह महत्वपूर्ण वह अपने समय के प्रति कितना संवेदनशील रहा और उसकी अभिव्यक्ति क्षमता कैसी थी।
परिस्थितियों के अलावा संवेदनशीलता और अपने विचारों को अभिव्यक्त करने का हुनर भी तो जरूरी है अच्छा साहित्यकार बनने के लिये।
दिमाग सिर मे होता हैं या कभी कभी अकल घुटने मे होती हैं
Rachna की हालिया प्रविष्टी..काश
बेसिर-पैर की बात किस लिये कही यह तो अब याद नहीं । लेकिन आपने अपना अनुभव बताया शायद वही सही हो!
अब भाई बातों के सर-पैर की बात हमने लिखी तो उत्ते की गारंटी हम लेते हैं। बाकी मुंह का जिम्मा आप संभारौ!
आप ने ये जवाब दिया था
और अब मेरे कमेन्ट दो दुबारा पढ़े शायद बेहतर समझ आये
रचना की हालिया प्रविष्टी..कभी कभी बहुत सी बाते बेकार ही दिमाग में कुलबुलाने लगती हैं
कोई भी रचनाकार साहित्य जगत में एक स्थान बनाना चाहता है, ससुरा अकादमिक जगत का होता है,
मेरे आधे अधूरे हिसाब से तीन टाइप की अकादमी होती है.
१- shiksha अकादमी (पढने लिखने के मतलब वाले )
२- पुरस्कार अकादमी ( माडल तामडा बाटने के मतलब की )
३- एक-आदमी जो खुद को अकादमी समझा करे से
पहले शिक्षा अकादमी की बात हो जाये
siksha अकादमी में बहुत माल है तो हो sakta है आप का आईडिया ठीक हो.
पर ये ससुरे कोई भी रचना पब्लिक डोमेन ( कॉपी राईट फ्री )में आने के बाद ही कोर्स में डालते हैं.
फ़ोकट में रचना जाएगी किसी नालायक स्टुडेंट की अंडर वेअर में (एक्साम टाइम में)
दूसरी बात पुरस्कार अकादमी
ये भले लोग उभरते हुए अपने भाई – भतीजों के लिए खर्चा करके टेंट , खाना- पीन और पीना जुगाड़ते हैं.
और थोक में तामडा बाटते हैं. एसे भले लोगों से हिस्सादारी मांग कर कोन अपना इहलोक परलोक
बिगाड़े गा.
तीसरी बात एक-आदमी जो खुद को अकादमी समझता है.
एसे लोगों का इलाज तो हकीम लुकमान और तो और शक्तिमान के पास भी नहीं है.
जादा कूद- खेल होने लगे तो राची का ही उपाय है.
अगर कोई टाइप मिस हो गया तो बताने का कष्ट करें आप की अति कृपा होगी महाज्ञाता .
Abhishek की हालिया प्रविष्टी..तुमने जो देखा-सुना…
अपने काम की चीज निकाल लिये। वाह!
“पाठक से ब्लोग्गर बनने के सफ़र में जो तकलीफ होती हैं बिना उसको जिये कोई निष्कर्ष कैसे निकाल लिया”
आपने ठीक कहा पर इन्टरनेट से पहले भी एक दुनिया थी जिसमें दूरियां बहुत लम्बी होती थीं.
मैंने अपने जीवन में दरियों का मतलब समझा जब पहली बार पिता जी का ट्रान्सफर सिर्फ ८० K.M दूर एक अपरिचित शहर में हुआ. सारे दोस्त, स्कूल , कोचिंग , प्ले ग्राउन्ड तब छूट गये जब पता भी नहीं था की दुबारा मिल पाएंगे या नहीं, नये शहर में दोस्त बनाना आसान नहीं होता जब आपके टोयस और क्रिकेट बैट फालतू का सामान समझकर पुराने घर में छोड़ दिए जाये .पैरंट्स का सुझाव फलां अंकल का बेटा तुम्हारे स्कूल में है उसके साथ खेलो., बिना एक अदद बैट के कोई नहीं पूछता नयी पार्टी को ये, समझाना मुश्किल था , अपने कुछ दिन बुक्स पढ़ कर बिताने के बाद situation अपने हाथ में ले कर बाहर निकला और थोड़े introduction के बाद सुरु की अपनी गप्प अपने पुराने घर , स्कूल की भव्यता की झूठी कहानियाँ , जब आप
एक बच्चे होते हैं और नये लोगों से मिलते हैं , तो कुछ भी कह सकते हैं. मैं प्लेन से स्कूल जाता था, मेरे घर के सामने से मौन्ट एवरेस्ट और पीछे से श्री लंका दिखता था. कुछ समय बाद मेरे पास फलां अंकल के बेटे से
ज्यादा दोस्त थे. मेरे दोस्त पीठ पीछे मुझे गप्पी कहते पर मेरी हर बात सुरु से अंत तक ध्यान से सुनते .
नये मुहल्ले ने मेरे गप्प मारने की प्रतिभा से प्रभावित हो कर मुझे गप्पी का अन-ओफ्फिसिअल नाम दिया और सम्मान के साथ स्वीकार किया .
काफी समय बाद जब टेक्नोलोजी अडवांस हुई तो देखा मैं तो कुछ भी नहीं यहाँ तो बड़े बड़े लोग हैं लाइन में.
इस आखिरी लाइन की दाद देती हूँ
बिना लाग लपेट के कह दिया
आप पाठक हैं और सक्रिय पाठक हैं
वैसे गप , गप्पी और गप्पा + रचना ये सब यहाँ हैं ओफ्फिशियाली
आप अन ओफ्फिशियाली कुछ अपनी कहे किसी ब्लॉग पर
किस किस को कहां कहां चर्या
वो भी बेसिर पैर
जीवन में ‘क्यावाद’ तो लगा ही रहता है…………..मुद्दे बहुत हैं ……………परेशानी बहुत है……..एक-एक
सब्द के सबदार्थ से लेकर भावार्थ तक ………..का………यथार्थ इत्ते रंगों में देखा के………और देखते रहने की भूख बढती ही जा रही है…………….और इंशा-अल्लाह………….खुदा के फज़ल से आप जैसों को यदा-कदा
पढ़ते रहने से सच कहने की गलती भी हो जाती है……………………खैर,……..
१. आप उहाँ से ५/२ साल के बालक को सेक्श्पीअर के नाटक पर परफोर्म करते देखते हैं और हम यहाँ से
उनको २ धार दूध के लिए लहालोट होते देखते हैं…………………
२. अकादमिक जगत से मेरा तात्पर्य…………हिंदी साहित्य अकादमी से ही है………….बकिया, माना की……
वाले फोर्मुले से कोई भी कितना भी रच सकता है…………..
दो गपोर आपस में तकनिकी विकास के बारे बात करते हुए कुछ ऐसे हांक रहे थे ………………….
पहला…..दुसरे से…….भाई, हम ने तो एक ऐसी मशीन बनाया है……………जिसमे एक तरफ से जिन्दा भेर
डालो दुसरे तरफ से तैयार जूते मिलेंगे…………..???????
दूसरा….पहले से …….भाई, ऐसा कर तू हमें सारे तैयार जूते दे……….हम उसे अपनी मशीन में एक तरफ से
डालेंगे तो दुसरे तरफ से जिन्दा भेर तैयार निकलेगा……………..??????????
और अंत में खास आपके लिए ……………
“अक्सर झुन्झुलाते हैं ओ मेरी झूटी कहानी पे….
क्यों के पत्थर के झूठ तैराते हैं बातों के पानी पे….”
प्रणाम.
कल को कोई फटेहाल चिरकुट ………… महानता का सिम-कार्ड
लगा…………अकादमिक जगत में अपने हिस्सेदारी मांग कर सकता है
इस वाहियात लाइन को मेरे जिस कमेन्ट के जवाब में लिखा गया है. उसमे मैंने भारतेंदु हरिश्चंद्र का उदाहरण दिया है,वे हिंदी भाषा के गध्य जनक होने के आलावा वो एक रास्ट्रीयतावादी भी थे.
उनके नाटक-भारत दुर्दशा और भाषण-भारतवर्ष -उन्नति कैसे हो सकती है, से समझ सकते हैं की जब इंडियन नेशनल कान्ग्रेस की स्थापना भी नहीं हुई थी तब से वे रास्ट्रीय चेतना अपने पाठकों में भर रहे हैं.
कोई बेहोश (अचेत) भारतीय ही इस बात को भारतेंदु जी के लिए डाइरेक्ट्ली या इन्र-डाइरेक्ट्ली लिख सकता है.
लेकिन फिर मैंने सोचा जितनी ऊर्जा हमें पानी को O2 और H2 में विभक्त करने से मिलेगी अससे कहीं गुना ज्यादा लगा के तो हम पानी को तोड़ेंगे! so, I dropped this ‘हाहाकारी’ idea!
लेकिन इतना आसानी से ये सब होता तो सच्ची मज़ा ही आ जाता! आपके साथ imagine करके ही मज़ा आ गया मुझे तो! फिर आप जब हमारे घर आते तो हम आपको एकदम distilled water पिलाते.. without any अशुद्धि.. लेकिन फिर कोई मिनरल्स भी नहीं होते ना… हे भगवान कितने लूप होल्स हैं अभी इसमें.. भगवान जी की दुनिया में ज़रूर कोई लूप होल्स नहीं.. हम इंसान तो कुछ भी करें, गड़बड़ होती ही है!
और शरीर के अस्थि पंजर तो अभी बदले जा सकते हैं, इसमें लूप होल्स ये ‘ढीले’ लोग पैदा करते हैं! कितनी ही दान की हुई आँखें हर साल सड़ जाती है! जागरूकता फ़ैलाने की देर है वरना आपका आईडिया execute होना असंभव नहीं.
anyways…………… बहुत दिलचस्प पोस्ट सर..
यह जानकर बहुत अच्छा लगा कि आप भी हमारे आइडिया ग्रुप की हैं। शुक्रिया।
मी लोर्ड…………गंभीर न हों……………….इस आभासी जगत में अनेकों ‘स्वयंभू भारतेंदु’ मिलेंगे…………….
जो थे………..जैसे थे……………हम उनको वइसे ही जानते हैं, उनके अब और कुछ बन जाने की सम्भावना
हम कैसे प्रकट कर सकते.
और हाँ, आपके रोष पे विचार करते करते इसी ब्लॉग का पोस्ट ‘कल्पना का घोरा, हिमालय की ऊंचाई और
बिम्ब अधिकार आयोग याद आ गया’ ……………. आपसे विनम्र निवेदन जरूर पढ़ें…………………………
प्रणाम.
भारतेंदु जी के नाख़ून के बराबर भी नहीं हो सकता|
आप की घटिया टिप्पणी के बाद लगता है आप उन्हें बिलकुल नहीं जानते|
मैं तंग आ चुका हूँ , भारत के ही अन्थरोपोलोजिस्ट, अनारकसिस्ट, सेकुलर, कम्युनिस्ट के मुंह से भारत
की एकता , अखंडता, और प्रतीक चिन्हों पर वाहियात टिप्पणियाँ सुन कर ,
बस यही एक देश है जहाँ एक महान रास्ट्रवादी साहित्यकार को ” फटेहाल चिरकुट” कहा जा सकता है.
मास मडरर होने के बाद भी
रुसी लोग स्टालिन , लेनिन को गलियां देने की जगह सिर्फ भूल जाना चाहते हैं
आप से देशभक्ति की तो नहीं पर सोच समझ कर बोलने या चुप रहने की उम्मीद तो की जा सकती है.
कुछ आप भी रचें हम जरूर पढेंगे…………
उनकी छोरिये….
हम आपके भी मुकाबिल नहीं…..
हम जगे हैं नींद में गाफिल नहीं…………..
कहने को मेरे पास भी बहुत बरी-बरी बातें हैं…..
अफ़सोस के उठाने को कंधे में थोरी ताकत है…….
और हाँ………….’फटेहाल चिरकुट “महान” लोग नहीं “अति सामान्य लोग” ही होते हैं……….हमारे जैसे…….
अंत में ‘मेरे किसी उद्धरण से आपको कष्ट’ “खुद के लिए नहीं तो अपने किसी प्रिय के लिए” हुआ हो तो………..
‘आई डू नोट केयर’ नहीं “आई मस्ट केयर” ……………फ्रॉम सॉरी तो एक्स-कुज तक डेअर कर रहे हैं.
प्रणाम.
कितना मुश्किल है ,शायद पाँच कमेन्ट लिखने के बराबर
घनश्याम मौर्य की हालिया प्रविष्टी..बरखा रानी
शुक्रिया! हवा से क्या प्रकाश से भी तेज चलते हैं आइडिये। है न!
अक्सर हम भी काफी बातें सोचते हैं इस तरह की और इनमें से भी कई ।
हम अक्सर सोचते हैं कि रेगिस्तान में दिन में बहुत गर्म और रात को बहुत ठण्डा रहता है । क्यों न एक ऐसा रेसीप्रोकेटिंग इंजन बनाएं जो गैस के संकुचन और विस्तार पर आधारित हो । इंजन का साइकिल 24 घण्टे का होगा । यह इंजन निरंतर बिना डीजल पेट्रोल पिए अपना काम करता रहेगा ।
http://gappi-blog.blogspot.com/2011/08/1.html
आशीष की हालिया प्रविष्टी..आरक्षण फिल्म और समाज में बढती असहिष्णुता
Gyandutt Pandey की हालिया प्रविष्टी..भावी प्रधानमंत्री का इलाहाबाद दौरा
shefali की हालिया प्रविष्टी..ड्राफ्ट के इस क्राफ्ट में एक ड्राफ्ट यह भी ………..