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ऐसे ही एक पहलवानी भरा इतवार…
By फ़ुरसतिया on October 9, 2011
इतवार का दिन
नौकरी पेशा वालों के लिये आराम का दिन माना जाता है। कुछ इसे बचे काम
निपटाने का दिन भी मानते हैं। लेकिन यह वैचारिक मतभेद हर इतवार को खतम हो
जाता है क्योंकि बचे काम निपटाने वाले भी अपने काम निपटाने का काम अक्सर
अगले इतवार तक के लिये स्थगित कर देते हैं। नतीजतन इतवार का दिन आराम का
दिन ही होकर रह जाता है।
किसी नियम सिद्धि के लिये अपवाद की आवश्यकता का भी नियम है। इसी जालिम नियम का पालन करते हुये आज सुबह-सुबह बच्चे को लेकर ’राष्ट्रीय विज्ञान मेधा खोज परीक्षा’ के अखाड़े में जाना पड़ा। अखाड़ा से अगर आप थोड़ा चकित होना चाहें तो हो लें। कुछ देर की बात है। आगे आप शायद सहमत हो जायें।
घर से वाया गुमटी होते हुये परीक्षा केन्द्र वाले स्कूल जाना हुआ। सड़क फ़ुल वात्सल्य से हमारी गाड़ी को उछालती, संभालती रही। पहली बार मुझे इस बात का एहसास हुआ कि सड़क की चौड़ाई आमतौर पर गाड़ियों की चौड़ाई से ज्यादा क्यों रखी जाती है। ऐसा इसलिये होता है ताकि गाड़ी जब किसी गढ्ढे में पड़कर उछले तो वापस आकर सड़क पर ही गिर सके। गुमटी शहर का कभी सबसे अच्छा बाजार माना जाता था। आज यह शहर के अन्य सभी बाजारों की लुटा-पिटा सा दीखता है। कहीं सड़क खुदी है,कहीं सड़क के नीचे का नाला परदा प्रथा का विरोध करते हुये अपने मुखड़े से सड़क का घूंघट हटाकर निर्द्वंद बहता है। बेहया सा। गढ्ढों में पड़कर उछलने से दिमाग में फ़ंसा निदा फ़ाजली जी शेर झटके से याद आ गया:
यूं जिंदगी से टूटता रहा, जुड़ता रहा मैं,
जैसे कोई मां बच्चा खिलाये उछाल के।
सड़क को देखकर यह भी लगा कि आने वाले कुछ दिनों में कहीं यह सरस्वती नदी की तरह लुप्त न हो जाये। पूरी सड़क पर गाड़ियां तितर-बितर देश के घपलो घोटालों सी पसरी थी। जानवर दिखे नहीं सुबह। शायद वे भी इतवार मना रहे हों।
स्कूल पहुंचकर गेट के खुलने का इंतजार किया। बच्चे का रोल नंबर और परीक्षा केन्द्र रात में ही घंटों फ़ोनियाने के बाद रात बारह बजने से कुछ मिनट पहले ही बता दिया गया। हमने प्रतिभा खोजने वालों की प्रतिभा और इंतजाम को नमन किया कि उन्होंने परीक्षा शुरु होने के कुछ घंटे पहले ही बच्चों का परीक्षा केन्द्र तय कर दिया।
केंद्र का फ़ाटक जब खुला तो बच्चे और अभिभावक नोटिस बोर्ड की तरफ़ लपके ताकि कमरा नंबर पता कर सकें। लोग ज्यादा थे और नोटिस बोर्ड एक ही इसलिये वहां मांग और आपूर्ति का नियम लागू हो गया। नोटिस बोर्ड के सामने वह चीज जमा हो गयी जिसे अपने यहां भीड़ के नाम से जाना जाता था। उसके बाद वह हुआ जिसे भीड़ का सहज व्यवहार माना जाता है और जिसे आम जनता धक्कममुक्का के नाम से जानती है। पहले भीड़ आपस में धक्कममुक्का करती रही। फ़िर उसने इसमें अपने आसपास के परिवेश को भी शामिल कर लिया। अब परिवेश के नाम पर सबसे नजदीक नोटिस बोर्ड ही था सो वह ही इस प्रक्रिया का शिकार बना।
धक्कममुक्का का शिकार बने नोटिस बोर्ड पर अचानक गति विज्ञान के नियम ने हमला बोल दिया और वह परिणामी बल की दिशा में विस्थापित होने लगा। जैसे ही एक तरफ़ थोड़ा सा विस्थापन हुआ वैसे ही न्यूटन जी का तीसरा नियम भी ताल ठोंक कर मैदान में आ गया। बोर्ड दूसरी तरफ़ विस्थापित होने लगा। इसके बाद तीसरी तरफ़ और अंतत: सब तरफ़ विस्थापित होने लगा। आखिर में नोटिस बोर्ड की हालत निर्दलीय विधायक सरीखी हो गयी। वह उधर ही विस्थापित हो जाता जिधर बल-बहुमत होता।
लेकिन बात केवल बोर्ड के विस्थापन तक ही सीमित न रही। इस बीच बल प्रयोग की अधिकता के चलते नोटिस बोर्ड का रूप परिवर्तन भी होने लगा। बोर्ड और स्टैंड में पहले मतभेद हुआ। फ़िर मनभेद हुआ। स्टैंड एक तरफ़ जाना चाहता तो बोर्ड दूसरी तरफ़। मतभेद/मनभेद के बाद दोनों के बीच दरार पड़ गयी। फ़िर वह दरार बढ़ भी गयी। अंतत: हुआ यह कि नोटिस बोर्ड और उसके स्टैंड का गठबंधन टूट गया। दोनों पाकिस्तान और बांगलादेश की तरह अलग-अलग हो गये। जनता स्टैंड को नीचे छोड़कर बोर्ड की तरफ़ लपक ली। इससे उपयोगिता के सिद्धांत की भी खड़े-खड़े पुष्टि हो गयी। अब मामला नोटिस बोर्ड तक ही केन्द्रित होकर रह गया।
हमने बहुत मेहनत से भीड़ के अन्दर घुसकर नोटिस बोर्ड के नजदीक पहुंचने की बहुत कोशिश की। लेकिन बहुत देर तक असफ़ल रहे। रह-रहकर अपना मोबाइल भी देखते रहे। यह विचारते हुये कि कहीं कोई इसे पार न कर दे। लेकिन मोबाइल मेरे पास आखिर तक बना रहा। इससे पुष्टि हुई कि मोबाइल चोर या तो आराम तलब होते हैं या फ़िर वहां जाना पसंद नहीं करते जहां प्रतिभा की खोज होती हो!
अंतत: हम हिम्मत करने वालों की हार नहीं होती के नियम का पालन करते हुये बोर्ड के एकदम पास पहुंचे। लोग उसके ऊपर थे। दायें थे। बायें थे। इधर थे। उधर थे। मतलब सब तरफ़ थे। उसकी हालत गुंडों के बीच फ़ंसी रजिया सी हो गयी थी। हल्का हो जाने के कारण उसे लपक कोई उठा लेता जैसे चील चूहा पंजे में ले जाती है। लेकिन उसी समय कोई दूसरा उसे बाज की तरह झपटकर वापस वहीं ले आता। उसका परिणामी विस्थापन शून्य ही रहा।
जब अपने बच्चे का कमरा नंबर पता करके हम निकलने लगे तो जनता ने निकलने नहीं दिया। हम पीछे निकलने की कोशिश करते-जनता धकिया के आगे कर देती। हमारी हालत ब्लागर की सी हो गयी जो आता तो अपने से है लेकिन अगर वह बताकर वापस जाना चाहे तो लोग उसे जाने नहीं देते। फ़िर हमने नीचे झुककर निकलने की सोची तो जनता सहयोग देकर और नीचे करने लगी। एक बारगी लगा हम फ़र्श के गले लग जायेंगे। लेकिन हम झटके से एक तरफ़ निकले लेकिन वहां खड़ी मोटर साइकिल ने रास्ता रोक लिया। शायद वह भी किसी का कमरा नम्बर देखने में लगी थी।
जब कमरे पहुंचे तो देखा कि वह अन्ना मय था। हर कमरे में ’अन्ना नहीं ये आंधी है’ वाले पोस्टर लगे थे। उन आंधी वाले कमरों में पंखे मंथर गति से चल रहे थे। एक हाल नुमा कमरे में 20 वाट का सीएफ़एल जल रहा था। रोशनी इतनी पर्याप्त थी कि अगर किसी का मन करे तो रोशनी के सहारे यह विश्वास के साथ कह सकता था कि उस कमरे में एक बल्ब जल रहा था। न सिर्फ़ इतना बल्कि कोशिश करके यह भी बता सकता था कि बल्ब कमरे में किधर लगा हुआ था। कमरे की मेज-कुर्सी ऐसी थीं जैसे किसी अनगढ़ स्केचिये बच्चे ने जो मेज-कुर्सी बनाई उसई को लकड़ी पहना के वहां धर दिया गया।
जो कमरा बताया गया बच्चे की सीट उसमें थी नहीं। ’ जिन खोजा-तिन पाइयां’ के जीपीआरएस की पूंछ पकड़कर जब हम मेज तक पहुंचे तो वह कमरा बताये कमरे से तीन कमरे दूरी पर था।
इस बीच हमने जल्दी-जल्दी आसपास का माहौल देखा। बहुत दिन बाद तीन मंजिले से किसी की छत पर पड़ी खटिया देखी। मोहल्ला देखा। खटिया देखते ही ’सरकाई लेव खटिया जाड़ा लगे’ गाना याद आया लेकिन फ़िर हमने गाने से कहा यहां उचित नहीं है तुमसे और ज्यादा हेल-मेल। बाद में मिलेंगे।
और ज्यादा कुछ देखते-करते तब तक स्कूल वालों ने कुछ अनाउंस करना शुरू कर दिया। शोर में कुछ सुनाई नहीं दिया लेकिन जिस तरह लोग बाहर जाने लगे उससे लगा कि उन सबको बाहर कर दिया गया है जो बच्चों की मेधा परीक्षा में विघ्न पहुंचा सकते हैं। महाजनो एन गत: स: पन्था का अनुसरण करते हुये हम भी बाहर आ गये।
हम इतने में ही पसीने-पसीने हो लिये। जो बच्चे वहां वहां अपनी मेधा की जांच करवाने आये होंगे उनका क्या हाल हुआ होगा। कल्पना की जा सकती है।
यह तो एक दिन की बात है। ऐसे न जाने कितने वाकये होते हैं जब बच्चों की मेधा की परीक्षायें होती रहती हैं। इनमें सफ़ल होना भले मेधा की बात होती हो लेकिन इसमें सम्म्लित होने में मेधा का कम पहलवानी का रोल ज्यादा होता है।
इसके बाद भी जब अगर नारायणमूर्ति जी कहें कि मेधा के स्तर में गिरावट आयी है तो किसी को भी बुरा लग सकता है। शायद ऐसा हुआ हो कुछ मेधा पहलवानी में खर्च हो गयी हो।
लौटते समय देखा कि गुमटी चौराहे पर किसी भी तरह की मेधा परीक्षा के झांसे से दूर दिहाड़ी मजूर अपने-अपने औजार लिये अपने आज के खरीदार के इंतजार में खड़े थे।
किसी नियम सिद्धि के लिये अपवाद की आवश्यकता का भी नियम है। इसी जालिम नियम का पालन करते हुये आज सुबह-सुबह बच्चे को लेकर ’राष्ट्रीय विज्ञान मेधा खोज परीक्षा’ के अखाड़े में जाना पड़ा। अखाड़ा से अगर आप थोड़ा चकित होना चाहें तो हो लें। कुछ देर की बात है। आगे आप शायद सहमत हो जायें।
घर से वाया गुमटी होते हुये परीक्षा केन्द्र वाले स्कूल जाना हुआ। सड़क फ़ुल वात्सल्य से हमारी गाड़ी को उछालती, संभालती रही। पहली बार मुझे इस बात का एहसास हुआ कि सड़क की चौड़ाई आमतौर पर गाड़ियों की चौड़ाई से ज्यादा क्यों रखी जाती है। ऐसा इसलिये होता है ताकि गाड़ी जब किसी गढ्ढे में पड़कर उछले तो वापस आकर सड़क पर ही गिर सके। गुमटी शहर का कभी सबसे अच्छा बाजार माना जाता था। आज यह शहर के अन्य सभी बाजारों की लुटा-पिटा सा दीखता है। कहीं सड़क खुदी है,कहीं सड़क के नीचे का नाला परदा प्रथा का विरोध करते हुये अपने मुखड़े से सड़क का घूंघट हटाकर निर्द्वंद बहता है। बेहया सा। गढ्ढों में पड़कर उछलने से दिमाग में फ़ंसा निदा फ़ाजली जी शेर झटके से याद आ गया:
यूं जिंदगी से टूटता रहा, जुड़ता रहा मैं,
जैसे कोई मां बच्चा खिलाये उछाल के।
सड़क को देखकर यह भी लगा कि आने वाले कुछ दिनों में कहीं यह सरस्वती नदी की तरह लुप्त न हो जाये। पूरी सड़क पर गाड़ियां तितर-बितर देश के घपलो घोटालों सी पसरी थी। जानवर दिखे नहीं सुबह। शायद वे भी इतवार मना रहे हों।
स्कूल पहुंचकर गेट के खुलने का इंतजार किया। बच्चे का रोल नंबर और परीक्षा केन्द्र रात में ही घंटों फ़ोनियाने के बाद रात बारह बजने से कुछ मिनट पहले ही बता दिया गया। हमने प्रतिभा खोजने वालों की प्रतिभा और इंतजाम को नमन किया कि उन्होंने परीक्षा शुरु होने के कुछ घंटे पहले ही बच्चों का परीक्षा केन्द्र तय कर दिया।
केंद्र का फ़ाटक जब खुला तो बच्चे और अभिभावक नोटिस बोर्ड की तरफ़ लपके ताकि कमरा नंबर पता कर सकें। लोग ज्यादा थे और नोटिस बोर्ड एक ही इसलिये वहां मांग और आपूर्ति का नियम लागू हो गया। नोटिस बोर्ड के सामने वह चीज जमा हो गयी जिसे अपने यहां भीड़ के नाम से जाना जाता था। उसके बाद वह हुआ जिसे भीड़ का सहज व्यवहार माना जाता है और जिसे आम जनता धक्कममुक्का के नाम से जानती है। पहले भीड़ आपस में धक्कममुक्का करती रही। फ़िर उसने इसमें अपने आसपास के परिवेश को भी शामिल कर लिया। अब परिवेश के नाम पर सबसे नजदीक नोटिस बोर्ड ही था सो वह ही इस प्रक्रिया का शिकार बना।
धक्कममुक्का का शिकार बने नोटिस बोर्ड पर अचानक गति विज्ञान के नियम ने हमला बोल दिया और वह परिणामी बल की दिशा में विस्थापित होने लगा। जैसे ही एक तरफ़ थोड़ा सा विस्थापन हुआ वैसे ही न्यूटन जी का तीसरा नियम भी ताल ठोंक कर मैदान में आ गया। बोर्ड दूसरी तरफ़ विस्थापित होने लगा। इसके बाद तीसरी तरफ़ और अंतत: सब तरफ़ विस्थापित होने लगा। आखिर में नोटिस बोर्ड की हालत निर्दलीय विधायक सरीखी हो गयी। वह उधर ही विस्थापित हो जाता जिधर बल-बहुमत होता।
लेकिन बात केवल बोर्ड के विस्थापन तक ही सीमित न रही। इस बीच बल प्रयोग की अधिकता के चलते नोटिस बोर्ड का रूप परिवर्तन भी होने लगा। बोर्ड और स्टैंड में पहले मतभेद हुआ। फ़िर मनभेद हुआ। स्टैंड एक तरफ़ जाना चाहता तो बोर्ड दूसरी तरफ़। मतभेद/मनभेद के बाद दोनों के बीच दरार पड़ गयी। फ़िर वह दरार बढ़ भी गयी। अंतत: हुआ यह कि नोटिस बोर्ड और उसके स्टैंड का गठबंधन टूट गया। दोनों पाकिस्तान और बांगलादेश की तरह अलग-अलग हो गये। जनता स्टैंड को नीचे छोड़कर बोर्ड की तरफ़ लपक ली। इससे उपयोगिता के सिद्धांत की भी खड़े-खड़े पुष्टि हो गयी। अब मामला नोटिस बोर्ड तक ही केन्द्रित होकर रह गया।
हमने बहुत मेहनत से भीड़ के अन्दर घुसकर नोटिस बोर्ड के नजदीक पहुंचने की बहुत कोशिश की। लेकिन बहुत देर तक असफ़ल रहे। रह-रहकर अपना मोबाइल भी देखते रहे। यह विचारते हुये कि कहीं कोई इसे पार न कर दे। लेकिन मोबाइल मेरे पास आखिर तक बना रहा। इससे पुष्टि हुई कि मोबाइल चोर या तो आराम तलब होते हैं या फ़िर वहां जाना पसंद नहीं करते जहां प्रतिभा की खोज होती हो!
अंतत: हम हिम्मत करने वालों की हार नहीं होती के नियम का पालन करते हुये बोर्ड के एकदम पास पहुंचे। लोग उसके ऊपर थे। दायें थे। बायें थे। इधर थे। उधर थे। मतलब सब तरफ़ थे। उसकी हालत गुंडों के बीच फ़ंसी रजिया सी हो गयी थी। हल्का हो जाने के कारण उसे लपक कोई उठा लेता जैसे चील चूहा पंजे में ले जाती है। लेकिन उसी समय कोई दूसरा उसे बाज की तरह झपटकर वापस वहीं ले आता। उसका परिणामी विस्थापन शून्य ही रहा।
जब अपने बच्चे का कमरा नंबर पता करके हम निकलने लगे तो जनता ने निकलने नहीं दिया। हम पीछे निकलने की कोशिश करते-जनता धकिया के आगे कर देती। हमारी हालत ब्लागर की सी हो गयी जो आता तो अपने से है लेकिन अगर वह बताकर वापस जाना चाहे तो लोग उसे जाने नहीं देते। फ़िर हमने नीचे झुककर निकलने की सोची तो जनता सहयोग देकर और नीचे करने लगी। एक बारगी लगा हम फ़र्श के गले लग जायेंगे। लेकिन हम झटके से एक तरफ़ निकले लेकिन वहां खड़ी मोटर साइकिल ने रास्ता रोक लिया। शायद वह भी किसी का कमरा नम्बर देखने में लगी थी।
जब कमरे पहुंचे तो देखा कि वह अन्ना मय था। हर कमरे में ’अन्ना नहीं ये आंधी है’ वाले पोस्टर लगे थे। उन आंधी वाले कमरों में पंखे मंथर गति से चल रहे थे। एक हाल नुमा कमरे में 20 वाट का सीएफ़एल जल रहा था। रोशनी इतनी पर्याप्त थी कि अगर किसी का मन करे तो रोशनी के सहारे यह विश्वास के साथ कह सकता था कि उस कमरे में एक बल्ब जल रहा था। न सिर्फ़ इतना बल्कि कोशिश करके यह भी बता सकता था कि बल्ब कमरे में किधर लगा हुआ था। कमरे की मेज-कुर्सी ऐसी थीं जैसे किसी अनगढ़ स्केचिये बच्चे ने जो मेज-कुर्सी बनाई उसई को लकड़ी पहना के वहां धर दिया गया।
जो कमरा बताया गया बच्चे की सीट उसमें थी नहीं। ’ जिन खोजा-तिन पाइयां’ के जीपीआरएस की पूंछ पकड़कर जब हम मेज तक पहुंचे तो वह कमरा बताये कमरे से तीन कमरे दूरी पर था।
इस बीच हमने जल्दी-जल्दी आसपास का माहौल देखा। बहुत दिन बाद तीन मंजिले से किसी की छत पर पड़ी खटिया देखी। मोहल्ला देखा। खटिया देखते ही ’सरकाई लेव खटिया जाड़ा लगे’ गाना याद आया लेकिन फ़िर हमने गाने से कहा यहां उचित नहीं है तुमसे और ज्यादा हेल-मेल। बाद में मिलेंगे।
और ज्यादा कुछ देखते-करते तब तक स्कूल वालों ने कुछ अनाउंस करना शुरू कर दिया। शोर में कुछ सुनाई नहीं दिया लेकिन जिस तरह लोग बाहर जाने लगे उससे लगा कि उन सबको बाहर कर दिया गया है जो बच्चों की मेधा परीक्षा में विघ्न पहुंचा सकते हैं। महाजनो एन गत: स: पन्था का अनुसरण करते हुये हम भी बाहर आ गये।
हम इतने में ही पसीने-पसीने हो लिये। जो बच्चे वहां वहां अपनी मेधा की जांच करवाने आये होंगे उनका क्या हाल हुआ होगा। कल्पना की जा सकती है।
यह तो एक दिन की बात है। ऐसे न जाने कितने वाकये होते हैं जब बच्चों की मेधा की परीक्षायें होती रहती हैं। इनमें सफ़ल होना भले मेधा की बात होती हो लेकिन इसमें सम्म्लित होने में मेधा का कम पहलवानी का रोल ज्यादा होता है।
इसके बाद भी जब अगर नारायणमूर्ति जी कहें कि मेधा के स्तर में गिरावट आयी है तो किसी को भी बुरा लग सकता है। शायद ऐसा हुआ हो कुछ मेधा पहलवानी में खर्च हो गयी हो।
लौटते समय देखा कि गुमटी चौराहे पर किसी भी तरह की मेधा परीक्षा के झांसे से दूर दिहाड़ी मजूर अपने-अपने औजार लिये अपने आज के खरीदार के इंतजार में खड़े थे।
Posted in कानपुर, बस यूं ही, लेख, संस्मरण | 94 Responses
इस आलेख को पढ़ने के बाद राहत की सांस ले रहा हूं कि चलो अच्छा हुआ कि हमने कभी मेधा परीक्षा न दी और न ही हमारे बच्चों ने यह जहमत उठाई।
मनोज कुमार की हालिया प्रविष्टी..सफाई अभियान और अकाल कोष
अच्छा हुआ इसी बहाने आपके चेहरे पर मुस्कान तिरती रही। मुस्कान के नाम से अपनी एक तुकबंदी याद आ गयी:
हंसी की एक बच्ची है
जिसका नाम मुस्कान है
अब यह अलग बात है कि
उसमें हंसी से कहीं ज्यादा जान है।
धन्यवाद! शुक्रिया।
shikha varshney की हालिया प्रविष्टी..स्वप्न, परी और प्रेम.
धन्यवाद! तुलनाओं का क्या किया जाये। खुराफ़ाती दिमाग की उपज हैं।
मुंबई में ऐसे भी क्यू का चलन है…अगर सिर्फ चार लोग ही किसी ऑफिस के बाहर खड़े हों फिर भी अपने आप ही क्यू बना लेते हैं…और मुंबई भी किसी भी उत्तर भारत के शहर की तरह ही एक आम शहर है….काफी लोग उत्तर भारत के ही हैं…यहाँ आकर वे, ये सारे नियम-कायदे अपनी मर्जी से अपना लेते हैं…फिर हर जगह शांतिपूर्ण तरीके से कोई काम क्यूँ नहीं निबटा सकते.
इसमें शहर की बात नहीं है! कानपुर में भी हर साल सैकड़ों इम्तहान होते हैं। आराम से। बात एक राष्ट्रीय स्तर के कोचिंग संस्थान की गैरजिम्मेदारी की है। मजे की बात है यह कोचिंग देश के स्तर पर प्रतिभा खोज के लिये ट्रेनिंग देते हैं। परीक्षाओं के कुछ घंटे पहले तक बच्चों का सेंटर नहीं तय कर पाते। ऐसे में आपाधापी होना स्वाभाविक है। अभिभावक कहीं भी स्कूल के अंदर जाने नहीं दिये जाते। यहां एडमिट कार्ड ही वहीं दिये गये। यह भीड़ का व्यवहार है जो कि आम तौर पर एक जैसा ही होता है।
वैसे मुंबई की बात ही कुछ और है।
वैसे हर शहर का एक खास मिजाज होता है। कानपुर का अपना है और मुंबई का अपना। मुंबई में लोकल की भीड़ भी धक्कमुक्का ही करती है। कानपुर में सड़क पर चलने वाला आदमी कभी-कभी मुड़ जाने के बाद हाथ भी दे देता है।
मुंबई में कभी भी वहां की सेना बाहर से आये लोगों को उनकी औकात दिखाते हुये नारे लगाने लगती है। कानून ऐसे में कुछ नहीं कर पाता।
कानपुर और मुंबई में एक समानता है। आसपास के गांव/शहर के लोग अपनी रोजी-रोटी और गुजर-बसर के लिये यहां आते हैं। मुंबई में देश भर से लोग जाते हैं।
वैसे मुंबई की तुलना किसी भी अन्य शहर से करना समीचीन नहीं होगा। वह भारत की औद्यौगिक राजधानी है, (आपराधिक भी)। शायद सबसे बड़ा स्लम भी यहां है।
हम कुच्छो नै कहेंगे.. जे बेसी बोलेंगे तो लोग कहेंगे की बेसिए बोल रहा है.. बस चिंदी चोर जईसन मुस्की मार कर चल जाते हैं हियाँ से..
PD की हालिया प्रविष्टी..हार-जीत : निज़ार कब्बानी
अरे कभी-कभी कुछ कह दिया करो जी!
अच्छा तो यह बात है, हम भी जान लिए। बात तो बाद में। लेकिन रश्मि रविजा जी से कहना है कि चिदम्बरम के बयान में और आपके बयान में कुछ फर्क तो होना चाहिए। वरना मुम्बई के लोग कितने काबिल हैं, इसपर पूरी किताब का इन्तजाम हो सकता है…दूसरा क्यों, हमारे फुरसतिया जी ही काफी हैं…राजनीति के लिए तो आए नहीं हैं हम कि बयान वैसा दे जायँ, वरना कुछ और कह जाते…
अब आप ही बताइए कि बच्चे इस पहलवानी प्रतियोगिता में आपके मोहताज रहें तो उनमें मेधा है?
हर शहर का अपना मिजाज होता है। कानपुर का भी है और मुंबई का भी और दूसरे शहरों का भी।
यह बयान एक मराठी मानुष ने दिया है या एक पाठक ने? साफ शब्दों में कहें तो कुछ तमीज आनी चाहिए…पता चले तो कितने लोग लाठी लेकर दौड़ जाएंगे। किसपर दौड़ेंगे, यह समझिए खुद?
इस टिप्पणी को हटाया नहीं जाय, ऐसी फरमाइश कर रहे हैं। अब पूरा करने , न करने का काम तो मालिक का है…
टिप्पणी बनी है। हटाने की बात नहीं है।
“सड़क फ़ुल वात्सल्य से हमारी गाड़ी को उछालती, संभालती रही। पहली बार मुझे इस बात का एहसास हुआ कि सड़क की चौड़ाई आमतौर पर गाड़ियों की चौड़ाई से ज्यादा क्यों रखी जाती है। ऐसा इसलिये होता है ताकि गाड़ी जब किसी गढ्ढे में पड़कर उछले तो वापस आकर सड़क पर ही गिर सके। गुमटी शहर का कभी सबसे अच्छा बाजार माना जाता था। आज यह शहर के अन्य सभी बाजारों की लुटा-पिटा सा दीखता है। कहीं सड़क खुदी है,कहीं सड़क के नीचे का नाला परदा प्रथा का विरोध करते हुये अपने मुखड़े से सड़क का घूंघट हटाकर निर्द्वंद बहता है।
सड़क को देखकर यह भी लगा कि आने वाले कुछ दिनों में कहीं यह सरस्वती नदी की तरह लुप्त न हो जाये। पूरी सड़क पर गाड़ियां तितर-बितर देश के घपलो घोटालों सी पसरी थी। जानवर दिखे नहीं सुबह। शायद वे भी इतवार मना रहे हों।”
शुक्रिया।
आपको पसंद आया गद्य हम निहाल हुये।
पद्मसिंह की हालिया प्रविष्टी..भ्रष्टाचार – कारण और निवारण
धन्यवाद!
कानपुर में नौ नम्बर गुमटी तक हमने सुनी है। सड़क पर तो समाजवाद है- हर सवारी को चलने की बराबर छूट!
विवेक रस्तोगी की हालिया प्रविष्टी..हरी मिर्च वाली धनिये चटनी का स्वाद (Taste of Green Chilli Chutney)
धन्यवाद !
आप हमारी बात से सहमत हुये – क्या बात है!
बिलकुल ललित-कमेंट्री की है आपने !मस्तियाते हुए कइयों को लपेटा भी है,पर सबसे बड़ी बात यह है कि इतवारी-मज़ा पूरा लिहे हैं !
मानना पड़ेगा कि ‘कट्टा’ अब ‘ए.के -४७’ बन चुका है….मजाक-मजाक मा बढ़िया पोस्टियाय हो !
इस ललित कमेंट्री में हम किसी को लपेटे नहीं। अब अगर अपने आप कोई लिपट/निपट जाये तो उसमें हमारा कोई दोष नहीं।
शुभकामनाओं के लिये धन्यवाद!
प्रवीण पाण्डेय की हालिया प्रविष्टी..मैकपुरुष का प्रयाण
यह तो जांच का विषय है कि पसीना किसका टपका।
आपके यहां ईमेल सब्सिक्रिप्शन का प्रसाद नहीं बंटता है क्या ?
भुवनेश शर्मा की हालिया प्रविष्टी..Now Tweet in Hindi
धन्यवाद! ई मेल सब्सक्रिशन है! देखिये।
अब जब मेधा इतनी घिसेगी तो थोडा तो फर्क आयेगा ही…
रसरी आवत जात ते..सिल पर परत निसान…
Devanshu Nigam की हालिया प्रविष्टी..तस्वीर ही सही…
too many cook spoil the curry…
Devanshu Nigam की हालिया प्रविष्टी..मोड़ पे बसा प्यार…
वाह ! क्या बात है। हमारी पोस्टों से तो फ़िर रिफ़ेशिंग कोला को खतरा होना चाहिये।
Devanshu Nigam की हालिया प्रविष्टी..मोड़ पे बसा प्यार…
वरना मुम्बई के लोग कितने काबिल हैं, इसपर पूरी किताब का इन्तजाम हो सकता है…
आप बेशक किताब लिखें….पर जिस सन्दर्भ में मैने अपनी बात कही है…उस पर अभी भी कायम हूँ….क्यंकि मैने ऐसा ही देखा है. और जिंदगी का बड़ा हिस्सा पटना, दिल्ली में ही गुज़ारा है..इसलिए वहाँ के माहौल से भी वाकिफ हूँ. इसीलिए हर बार ये ख्याल आता है….कि वहाँ भी लोग क्यू सिसटम क्यूँ नहीं अपनाते ?
प्रसंगवश बता रही हूँ…मुंबई आने से पहले श्रावण में या शिवरात्रि में मंदिर जाती जरूर थी..पर कभी शिव जी पर जल नहीं चढ़ा पायी..इतनी भीड़ होती थी और सब कुछ बहुत ही अव्यवस्थित होता था. पर यहाँ ..छोटे से मंदिर में भी एक क्यू बना होता है..और हर एक को दो मिनट के लिए ही सही…शिव-लिंग के पास पूजा का समय जरूर मिलता है और कोई पुलिस डंडा लेकर नहीं खड़ी होती है…लोग खुद ही स्व-अनुशासन बनाए रखते हैं.
आपकी यह पंक्ति कुछ समझ नहीं आई….
यह बयान एक मराठी मानुष ने दिया है या एक पाठक ने? साफ शब्दों में कहें तो कुछ तमीज आनी चाहिए…पता चले तो कितने लोग लाठी लेकर दौड़ जाएंगे। किसपर दौड़ेंगे, यह समझिए खुद?
फिर भी इतना कह रही हूँ…ये मुंबई को कोई महिमामंडित करने का प्रयास नहीं है….पर उत्तर-भारत के शहरो में self discipline की कमी बहुत खलती है और सचमुच मेरी हार्दिक इच्छा है कि वहाँ भी लोग दादागिरी दिखा कर सबसे आगे खड़े होने का प्रयास ना करें…बल्कि systematic ढंग से किसी कार्य को अंजाम दें.
rashmi ravija की हालिया प्रविष्टी..घूँघट की आड़ से….
न जाने कितनी बातें होती हैं किसी शहर/समाज का मिजाज बनने के पीछे। मुंबई और अन्य जगहों में तमाम अंतरों के पीछे कई कारण होते हैं।
अच्छा है चन्दनजी इसी बहाने एक किताब लिख लेंगे।
विवेक रस्तोगी की हालिया प्रविष्टी..हरी मिर्च वाली धनिये चटनी का स्वाद (Taste of Green Chilli Chutney)
सहमति-असहमति की बात करते हुये मुंबई के बारे में संयोग से एक मजेदार पोस्ट देखने को मिली ! सुशील कृष्ण गोरे मुंबई के बारे में लिखते हैं http://adhyayan-sushil.blogspot.com/2011/01/1996.html
” इसलिए मैं बे-भरम होकर कह सकता हूँ कि महानगर का बाज़ारू शिल्प साधारण आदमी की संवेदना के खिलाफ़ गढ़ा गया है। जीवन का तद्भव यहाँ लांछित है और तत्सम अपने सही ठिकाने पर ऐश कर रहा है। दो प्रकार के जीवनानुभवों का द्वंद्व अपने कटुतम शीर्ष पर दिखायी पड़ता है। मुंबई आने से पहले मुझे यह शहर गगनचुंबी इमारतों का शहर बताया गया था, लेकिन इसके ठीक विपरीत यह शहर मुर्गीखाने के दड़बों से भी तंग और छोटे-छोटे पिंजरेनुमा चालों और झोपड़पट्टियों का शहर निकला जिसकी सड़कें रात-दिन धकम-पेल के कारण गतिहीन और जाम पड़ी रहती हैं।
लोकल ट्रेनों को शान से जीवन-रेखा कहा जाता है। लेकिन जो अनुभव लोकल ट्रेनों में यात्रा करने से जुड़ा है वह बिना किसी बात के मुठभेड़ से कम नहीं है। प्लैटफार्म पर लोकल ट्रेन के आते ही चुपचाप शांत दिखते जन-समुद्र में अचानक बड़वानल भभक उठता है। मैत्री सम्मेलन कर हर लोग-बाग एक दूसरे को धकेलते-पछाड़ते रेल के डिब्बों में आक्रमणकारी की तरह घुसने लगते हैं। एकदम ठसाठस भरकर लोग जहां फिट हो सके, जैसे फिट हो सके, उल्टे-सीधे, एक पैर पर, दो पैरों पर, अपने पैरों पर या दूसरों के पैरों पर बस निकल पड़ते हैं अपनी जीवन-रेखा पर। पुराने रहिवाशी बताते हैं कि शुरू-शुरू में हालात इतने खराब नहीं थे। ”
अनुशासन की बात पर उनका बयान है:
“यहां की भीड़ अनियंत्रित नहीं है। यह कहीं भी पंक्तिबद्ध हो जाती है। दिल्ली में यही सलीका नहीं है। बिना भगदड़ के राजधानी में रौनक नहीं दिखती। मुंबई की भीड़ की अपनी एक निविड़ भाषा है जो हर जगह बिना बोले संवाद के किनारे-किनारे सुरक्षित पगडंडियाँ खोज लेती है। इससे एक क्रम बनता है जो कुछ असुविधाजनक स्थितियों को पैदा ही नहीं होने देता। अगर आप मुंबई दर्शन कर चुके हैं तो देख चुके होंगे और अग़र नहीं तो इसका अवसर मिलने पर देखेंगे कि यहाँ पेशाब करने के लिए भी लंबी कतारों में खड़ा होना पड़ता है।”
धन्यवाद जी आपका लेख पसंद करने के लिये।
ashish की हालिया प्रविष्टी..ओ दशकन्धर
मेधा के बारे में आपकी मेधावी सोच चकाचक है। सड़क तो बनती-उखड़ती रहती है। फ़िर बन रही है यह अच्छी बात है।
ये आप के पोस्ट की कमी है…….के….टिपण्णी देने को मजबूर करते हैं…………..
प्रणाम
अब क्या किया जाये। पाठक को भी तो अपने मन की कहने का मौका मिले।
आपकी ब्लॉग्गिंग के प्रति श्रद्धा देख कर हमारा मस्तक झुक जाता है, पहलवानी और प्रतिभा में भी आप ब्लॉग्गिंग को भूलते नहीं…कैसी भी समस्या हो, न हो, कैसे भी हालातों से गुजरें…मन एकदम अर्जुन की तरह मछली की आँख पर निशाना साधे रहता है. आप जैसे ब्लॉगर का ब्लॉग पढ़ कर हम धन्य धन्य हुए जाते हैं. अनूप जी…एकदम फुरसतिया मार्का पोस्ट, लहालोट हुए जा रहे हैं, पृष्ठभूमि में धिनचक, चकाचक जैसे ध्वनि गूँज रही है. जय हो!
तुम्हारी टिप्पणी पढ़कर मजा आ गया। धन्यवाद ग्रहण किया जाये!
मैंने भूत देखे हैं, इसलिए भूत होते हैं। यह वैज्ञानिक रवैया है।
क्षेत्रीयता और अलगाववादी होने की …
अगर ये कहा जाय कि गरीब गन्दे होते हैं तो इसका अर्थ इतना सीधा नहीं कि लोग समझाना शुरू कर दें। अब यह तो मैं नहीं स्वीकारने वाला कि कोई आदमी अकेले कुछ अनुभव करे और उसे इतिहास-भूगोल बना डाले। उत्तर भारत में तो मंदिरों में लगभग आदमी पूजा करता है और इतनी दिक्कत तो तभी हो सकती है जब भीड़ बहुत अधिक हो।
किसी की स्थिति पर समाधान और सुझाव देने से पहले उसके कारणों पर भी ध्यान देना चाहिए न कि अपनी असुविधा देखी और पचास करोड़ लोगों पर आरोप मढ़ दिया जाय। हालांकि ऐसा हो ही जाता है कई बार।
और क्यू तो हम बहुत जगह देखते हैं यहाँ। टिकट कटाते समय, बैंक में लगभग जगह। और बात रही शुक्ल जी वाली परीक्षा की तो भीड़ पूरे मुंबई में नहीं होती होगी? मौका मिलते ही उत्तर भारत पर बयान दे जाना इतना ठीक नहीं। हाँ, कमियाँ हैं, लोगों में कुछ कमी भी है लेकिन मुंबइया लोग १०० फीसदी निर्दोष, अनुशासित, बुद्धिमान हैं ही!
सबसे आगे खड़े होकर काम करवाने की बात में इतना कहना है कि सब लोग तो नहीं हैं ऐसे। जिन इलाकों के लोगों की मेहनत से कुछ इलाके समृद्ध हैं, वे इस बात कहने के अधिकारी बिलकुल नहीं। अनुशासन एक तानाशाही ही है, इसकी व्याख्या नहीं करूंगा यहाँ…बंधुत्व और एकता तो अवश्य है हमारे यहाँ, जो अनुशासन से बहुत ज्यादा कारगर है। आपकी बातें गलत भी नहीं लेकिन अलगाववादी जैसा बयान देना ठीक नहीं लगा। उम्मीद है मुझे समझा जाएगा।
चंदन कुमार मिश्र की हालिया प्रविष्टी..एक बार फ़िर आ जाओ (गाँधी जी पर एक गीत)
“अनुशासन एक तानाशाही ही है ”
पढ़कर मजा आ गया। सालों से मेरे मन में एक पोस्ट का विषय अटका पड़ा है- सामूहिकता का सौंन्दर्य। उसमें कुछ इसई घराने की बातें लिखने की सोची थीं। देखिये कब लिख पाते हैं।
विवेक रस्तोगी की हालिया प्रविष्टी..हरी मिर्च वाली धनिये चटनी का स्वाद (Taste of Green Chilli Chutney)
रही बात गुमटी की, क्या दिन थे वो, घंटों फाटक पर खड़े रहना, ट्रेन के इंतज़ार में सड़क के इधर उधर बेखटके ब्यूटी को निहारना, अचानक उनके वो दिखे तो अखियाँ फेर लेना, लेकिन फिर भी कनखियों से दूरदर्शन करते रहना| दरअसल अखियाँ फेर लेना मुहावरे का मतलब भी तभी समझ में आया था, खैर अब का कर सकते हैं, छोड़ आये हम वो गलियां, सिर्फ सिर्फ शुकुल के लिए, भाई अब तुम वहां पर हो तो परंपरा का निर्वाह करो, और हमें आखों देखा हाल बताते रहो.
गुमटी/पीरोड वाले सारे लोग तुम्हारे किस्से सुनाते हैं जो तुम किया करते थे। कुछ लोग तो हिसाब चुकाने के लिये तुम्हारा पता भी पूछते हैं लेकिन हम उनको बताते नहीं।
मस्त कमेंट!
के अवलोकन में किया है वह आपकी रचना को निखारता है और गतिमान बनाता है
आपकी इस लेखनी का आनद वो लोग एक ऊँचे धरातल पर और विस्तृत दृष्टि से ले सकते हैं जिन्होंने
गोपाल talkies मैं ईमानदारी और साहस से आभासी लाइन में लगकर हिट फिल्मो के ticket आज से तक़रीबन ३0 साल पहले ख़रीदे हों.
वहां मांग तो ऊँची थी और आपूर्ति का दोहन उसे और ऊँचा कर देता था. लिहाज़ा अनुभव आपकी रचना में दी गयी भीड़ की मानसिकता से बहुआयामी था.
वहाँ तो देश भर की प्रतिभाएँ जुटती हैं कंपटीशन के पहले और कंपटीशन के बाद भी।
कानपुर अकेले कबाड़ नहीं हुआ। यह हाल लखनऊ को छोड़कर ज्यादातर शहरों का है जहां आजकल सीवर लाइनें पड़ रही हैं।
….और संयोग से वही देश की बड़ी आबादी का सच भी है।
व्यंगकारों पे भी ब्यंग…………..ये कोई विधा है या खालिस स्पिरिट………….
आज-कल हम जैसे अदनों की भी टिप … ‘टाप’ के रख लेते हैं लोग……………..
पिछले दिनों एक ‘शेर’…………ग़ज़ल शब्द से सुरुआत करी थी……………उसमे रद्दोबदल कर फिर से टांक
दे रहे हैं…………”शेर निकले हैं, जब से कानपुरी-कट्टा….
इरशाद करने लगे हैं, अखारे का पट्ठा”
बकिया, आपके पोस्ट का क्या कहना…………बस्स, पूजाजी से सहमत हुए जाते हैं.
प्रणाम.
सही है। पूजा जी से सहमत होने में भलाई है, बरक्कत है।
रश्मि दी की बात सही है. हर महानगर का एक कल्चर होता है और सिविक सेन्स के मामले में मुम्बई, दिल्ली से लाख गुना अच्छा है. उत्तर भारत वालों को उनसे तहजीब सीखनी चाहिए, कहीं से अच्छी बातें सीखना बिलकुल बुरा नहीं है.
aradhana की हालिया प्रविष्टी..दिल्ली पुस्तक मेले से लौटकर
हंसी छूट गयी बुरा हुआ
फ़िर आयेगी पकड़ में जायेगी कहां?
कहीं से अच्छी बातें सीखने में कोई बुराई नहीं है- यह बात तो वे लोग भी मानते हैं जो किसी से कुछ नहीं सीखते।
वैसे यह बात है कि हर शहर का , इलाके का अपना मिजाज होता है कल्चर होता है।
रही बात एक बिजली के बल्ब से पूरे कमरे के प्रकाशमान होने की एक बार मई महीने में कोई परीक्षा देने गया था गाँव। वहां शहर में ही एक स्कूल में सीट मिली थी। क्लास में एक भी बल्ब न ट्यूबलाईट। पंखा तक ससुर खड़र-खड़र करते हांफ रहा था। परीक्षार्थी शर्ट उतार कर बैठे थे, उसी शर्ट से हवा कर रहे थे। एस पी महोदय जांच के लिये आये थे तो कुछ परीक्षार्थी मजाक में ही पूछ बैठे – का हो, अइसे ही तोहूं सेलेक्ट भये रहे का ?
क्लास में जिसकी ड्यूटी लगी थी वे शिक्षक महोदय जब हाजिरी संख्या और हाल टिकट के मिलान के लिये खिड़की छेंक कर खड़े हुए तो एक परीक्षार्थीयों ने डांट दिया – ऐ अजोरचन्न….., हट जाइये खिड़की से….काहे अन्हियार किये हैं
सतीश पंचम की हालिया प्रविष्टी..लेखन विधा में एक बीमारी ऐसी भी……….
http://adhyayan-sushil.blogspot.com/2011/01/1996.html
ये पोस्ट पढिये जरा मुंबई के बारे में मजेदार कमेंट्री!
चंदन कुमार मिश्र की हालिया प्रविष्टी..एक बार फ़िर आ जाओ (गाँधी जी पर एक गीत)
चंदन कुमार मिश्र की हालिया प्रविष्टी..एक बार फ़िर आ जाओ (गाँधी जी पर एक गीत)
अरे नहीं भाई! सिखाने के मामले में उत्तर भारत के लोग पीछे कहां हैं।
विवेक रस्तोगी की हालिया प्रविष्टी..हरी मिर्च वाली धनिये चटनी का स्वाद (Taste of Green Chilli Chutney)
जहां तक सीखने सिखाने की बात है मैं इतना जरूर जानता हूं कि कई मामलों में उत्तर भारत बहुत बड़ा झंडू है। आपको खराब लगे तो लगे लेकिन सच्चाई यही है।
और ऐसा भी नहीं कि दक्षिण एकदम से अलौकिक है। यहां भी बहुत अगड़-तगड़ है, बहुत सारे अहमक भ्रांतियां हैं, टुच्चई है लेकिन फिर भी उत्तर के मुकाबले दक्षिण में एक तरह का ‘गेन’ महसूस होता है।
सतीश पंचम की हालिया प्रविष्टी..लेखन विधा में एक बीमारी ऐसी भी……….
हम आपकी बात से असहमत जैसा कुछ नहीं हैं। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि सहमत हैं। हां यह है कि झंडूपने के मामले में हर एक इलाके की अपनी एक्सपर्टाइज है। कहीं कोई आगे कहीं कोई! लेकिन यही बात तो आप भी कह दिये! फ़िर सहमत होने में क्या बुराई!
चंद्र मौलेश्वर की हालिया प्रविष्टी..नीलम कुलश्रेष्ठ- एक समीक्षा
सत्यवचन है जी!
असर और भी उम्दा है . उत्तर और दक्षिण के समर्थन में लोग बाग़ इकट्ठे होने लगे है .
ऐसा असर तो आपने भी नहीं सोचा होगा लिखते समय …कमाल करते हो आप .
हम भी MP से आकर उत्तर, दक्षिण और पूरब पच्छिम में रह चुके है , चुप कैसे रहे ??
” तहजीब का गुणगान , यहाँ भी है वहां भी ,
कुछ लोग पहलवान , यहाँ भी है वहां भी ||
आशीष श्रीवास्तव
” तहजीब का गुणगान , यहाँ भी है वहां भी ,
कुछ लोग पहलवान , यहाँ भी है वहां भी ||
क्या बात है।
चंदन कुमार मिश्र की हालिया प्रविष्टी..गरीबी का हिसाब-किताब और मेरा अर्थशास्त्र
“सड़क को देखकर यह भी लगा कि आने वाले कुछ दिनों में कहीं यह सरस्वती नदी की तरह लुप्त न हो जाये। ”
आखिर में नोटिस बोर्ड की हालत निर्दलीय विधायक सरीखी हो गयी। वह उधर ही विस्थापित हो जाता जिधर बल-बहुमत होता।
भीड़ में से बाहर निकालने की ज़द्दोज़हद बहुत स्वाभाविक है
हर कमरे में ’अन्ना नहीं ये आंधी है’ वाले पोस्टर लगे थे। उन आंधी वाले कमरों में पंखे मंथर गति से चल रहे थे।
वाह!!!
कमरे की मेज-कुर्सी ऐसी थीं जैसे किसी अनगढ़ स्केचिये बच्चे ने जो मेज-कुर्सी बनाई उसई को लकड़ी पहना के वहां धर दिया गया।
क्या बात है!! गज़ब कल्पना.
बहुत बढ़िया पोस्ट है. एकदम चकाचक. पढ़ते हुए हम भी पसीना-पसीना हो गए
वन्दना अवस्थी दुबे की हालिया प्रविष्टी..कोई आहट, कोई हलचल हमें आवाज़ न दे……
चकाचक टिप्पणी है! धन्यवाद!
चंदन कुमार मिश्र की हालिया प्रविष्टी..गरीबी का हिसाब-किताब और मेरा अर्थशास्त्र
विवेक रस्तोगी की हालिया प्रविष्टी..हरी मिर्च वाली धनिये चटनी का स्वाद (Taste of Green Chilli Chutney)
अरे आप मस्त रहिये। आपको तो प्रधानमंत्री बनना है जी! आराम से!
चंदन कुमार मिश्र की हालिया प्रविष्टी..गरीबी का हिसाब-किताब और मेरा अर्थशास्त्र
सही कहा…’हर शहर का अपना मिजाज़ होता है,’ उसे वैसे ही बने रहने देना चाहिए और उसमे रद्दोबदल की कोई गुंजाईश..अपेक्षा…चाहत नहीं होनी चाहिए.
एक्चुअली उसकी चर्चा भी नहीं करनी चाहिए
और मुंबई सिर्फ आपराधिक राजधानी और .सबसे बड़ा स्लम ही नहीं है ..ढूँढने पर इस से बढ़कर और कई कमियाँ मिल जायेंगी…{ ‘सुकेतु मेहता’ की ‘मैक्सिमम सीटी’ इसमें बहुत सहायता करेगी :)}
पर यहाँ सन्दर्भ सिर्फ और सिर्फ लोगो में civic sense और स्व-अनुशासन का था.
खैर जगजीत सिंह यूँ ही नहीं कह गए..’बात निकलेगी तो दूर तलक जायेगी…’ सचमुच दूर तलक गयी…:)
(किसका लिखा है..नहीं मालूम..गाया जगजीत सिंह ने है, बस इतना पता है .)
rashmi ravija की हालिया प्रविष्टी..सुबह से ही आँखों में नमी सी है….
अरे नहीं भाई चर्चा करनी चाहिये! काहे नहीं करनी चाहिये।
जैसे सिविक सेंस की बात आपने बताई वो सबके सीखने की बात है। चाहे जहां कही का रहनेवाला हो। लेकिन यह बात पक्की है कि यह सब सेंस तब तक ही रहते हैं जब तक लोग अनुशासित रहते हैं। भीड़ का व्यवहार आम तौर पर एक सरीखा ही रहता है। वो चाहे जहां की हो!
मुंबई की कोई हीरोइन हैं नाम है मीनाक्षी! खट्टा-मीठा की खूबसूरत अदाकारा बताया अखबार वालों ने। उन्होंने आज अखबार में बयान दिया है: ” जाम से जूझते कनपुरिया धक्के खाने के बाद भी गाली नहीं देते, जबकि मुंबई में तो कान बन्द करना पड़ता है। ”
पता नहीं उनका बयान कित्ता सच्चा है। लेकिन जो बयान दिया उन्होंने वो बताया हमने।
“यह बयान एक मराठी मानुष ने दिया है या एक पाठक ने? साफ शब्दों में कहें तो कुछ तमीज आनी चाहिए…पता चले तो कितने लोग लाठी लेकर दौड़ जाएंगे। किसपर दौड़ेंगे, यह समझिए खुद?”
मराठी मानुष तो मैं हूँ नहीं…बिहार की हूँ,जाहिर है पाठक के तौर पर ही कहा है……पर किसे तमीज आनी चाहिए?? ये कौन लोग लाठी लेकर दौड़े आएँगे??…और किस पर??…एक्सप्लेन प्लीज़
rashmi ravija की हालिया प्रविष्टी..सुबह से ही आँखों में नमी सी है….
चंदन मिश्र की टिप्पणी एक पाठक के तौर पर टिप्पणी है। उनको अच्छा नहीं लगा होगा कि कोई मुंबई वाला उत्तर भारतीय को सिविक सेंस सिखाये। उनको क्या पता कि आप भी बिहार से हैं और अच्छी बातें सिखा रहीं हैं।
ऐसेच ही कुछ लिखा जिया भाई लोगों……………थूकम-फझिहत के लिया बहुत बरी दुनिया है ब्लॉगजगत में.
……….यहाँ मौज-मजे की बात की जाई…………
व्यंग की यही खासियत है के हर कोई इसे अपने से जोरकर देखने लगता है………कुछ जादा हो गया. क्षमा.
प्रणाम.
जगजीत साहब के चलते ही बोल नहीं रहा। शुरू में ही लिख चुका था, खुद समझिए। और वैसे भी आपकी इच्छा नहीं थी दुबारा मुखातिब होने की। माफी चाहते हैं, कष्ट हुआ आपको। फिर से माफी मांगते हैं क्योंकि जिस व्यक्ति को मुखातिब होना ही नहीं था, उसे बोलना पड़ा या उसने कुछ कहा। अब इतनी हिम्मत नहीं कि हम आपकी तौहीन करें और फिर मुखातिब होन पड़े। शुक्रिया।
चंदन कुमार मिश्र की हालिया प्रविष्टी..गरीबी का हिसाब-किताब और मेरा अर्थशास्त्र
वही सड़क,वही गढ्ढे, वही बच्चे ,वही परीक्षा, वही खोज……
टिपण्णी पढ़ने में बहुत समय खोटा हुआ लोग काहे उलझ पड़ते हैं जी.?
बहुत सटीक visleshan. मैं भी एअक वर्ष तक केडीए में तैनात रहा हु तब मोतीझील से रेलवे स्तातों का सफ़र उतना ही समय लेट था जितना कानपूर से लखनऊ.
इया बहतरीन व्याख्या के लिए साधुवाद.e
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