आज फिर रूस जाना हुआ। सपने में। इस हफ्ते में दो बार हो गया। पहली बार परसों। दूसरी बार आज। पता नहीं क्या कनेक्शन है।
सपने वैसे बहुत कम आते हैं हमको। आते भी हैं तो गाड़ी छूटने के, स्टेशन पहुचने में भटकने के, बस स्टेशन तक पहुचने में छटपटाने के, इम्तहान की तैयारी न होने के, पर्चा छूट जाने के। मतलब चीजें हाथ से छूटते हुए कोई काम पूरा न होने के एहसास के। लेकिन ये रूस मेरे सपनों में पहली बार दाखिल हुआ है। पता नहीं क्या वजह है।
रूस के बारे में बचपन से पढ़ते आये। वहां के लेखक, क्रांति और वहां का समाज। सौ साल पहले जिस देश में क्रांति हुई । बदलाव के विस्फोट हुए। दुनिया भर में बदलाव की हवाओं, लहरों का उद्गम रहा जो देश वह विखंडित हुआ। अब हाल यह कि वहां पुतिन जी को छोड़कर कोई नेता ही नहीं। खबर पढ़ी कि अगले ने सन 2036 तक खुद के लिए कुर्सी पक्की कर ली।
कैसा क्रांतिधर्मी समाज है कि कोई और नेता नहीं उधर। सिवाय एक के। वैसे ऐसा तो हर समय होता आया है। लगता है इसके बाद कौन ? लेकिन फिर कोई न कोई आ ही जाता जिसके लिए फिर कहा जाता है -'इसके बाद कौन?
हां तो हम दो बार हो आये रूस इस हफ्ते। बिना पैसे। बिना वीजा के। ज्यादा नहीं दस-दस मिनट रहे होंगे। पहली बार रूस के किसी बस स्टेशन पर पहुंचकर बस का इंतजार करते दिखे। दूसरी बार वहां पहुंचकर किसी गाड़ी में बैठकर कहीं जाते। इस बार पत्नी भी साथ में।
पिछले साल दो जगह गए थे घूमने। पहले लेह-लद्दाख फिर अमेरिका। लेह के कई किस्से अभी लिखने को बाकी हैं। अमेरिका के किस्सों की तो किताब भी बन गयी। बस हफ्ते भर में कभी भी मुक्कमल हो सकती है। लेकिन संकोच और आलस्य के रंगा-बिल्ला ने दबोच रखी है किताब फाइनल करने की मंशा को। देखिए कब मुक्त होती है और परवान चढ़ती है यह इच्छा। किताब का नाम भी सुन लीजिए -'कनपुरिया कोलम्बस।' हमारे 'किताब पुरोहित' Alok Puranik ने डेढ़ मिनट में फाइनल कर दिया था यह नाम जब हमने अमेरिका के किसी शहर में चाय पीते हुए उनसे नाम सुझाने की बात कही थी।
पिछले साल अमेरिका यात्रा के बाद दुनिया देखने का चस्का लग गया था। सोचा था इस बार यूरोप नहीं तो कम से कम लंदन तो घूम ही आएंगे। लेकिन मुये कोरोना ने सब चौपट कर दिया।
मजे की बात यह भी सोच रहे कि पिछले साल जहां-जहां गए वहां-वहां अपनी-अपनी तरह के लफड़े हुए। पहले लेह-लद्दाख केंद्र शासित प्रदेश हुए फिर चीन के लफड़े। हम पैंगोंग झील तक गए थे जिसके आगे कहीं झड़प हुई अभी चीन से। हमारे ड्रॉइवर लखपा ने बताया कि उस जगह से आगे ही बवाल हुआ जहां तक हम गए थे।
लेह के बाद अमेरिका गए थे। वहां कोरोना ने जबर लफड़ा मचाया। नवम्बर में हम गए थे वहां। लौटते ही बवाल हुआ। न्यूयार्क में सबसे ज्यादा घूमे हम। वहीं सबसे ज्यादा लोग हताहत हुए। हमको लगा कहीं कोई हम पर इल्जाम न लगा दे कि इनके आने के बाद लफड़ा हुआ -'जँह- जँह चरण पड़े सन्तन के , तंह-तंह बंटाधार।'
देश-दुनिया घूमने का बहुत मन है। देखिये कब पूरा होगा। फिलहाल तो सपनों में ही घूमते हुए काम चल रहा है। आपको भी घुमक्कड़ी के सपने आते हैं क्या ?
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