जब इश्क की बात चलती है तो मुझे 'वाली असी' का शेर याद आता है:-
अगर तू इश्क में बरवाद नहीं हो सकता,
जा तुझे कोई सबक याद नहीं हो सकता.
सैकडों उदाहरण मिल जायेंगे जहां प्रेमी ने प्रेमिका की खुशी के लिये बलिदान दिये.बर्बाद हुये.उसने कहा थाके लहनासिंह की प्रेमकथा 'तेरी कुडमाई हो गयी?' के जवाब-'धत्त' में पूरी जाती है.पर इसका निर्वाह लहनासिंह अपनी कुर्बानी देते हुये प्रेमिका के पति की जान बचाकर करता है.
जयशंकर प्रसाद की कहानी 'गुंडा'के बाबू नन्हकू सिंह की बोटी-बोटी कटकर गिरती रहती है पर गंडासा तब तक चलता रहता है जब तक राजा-रानी सकुशल नहीं हो जाते.कारण- वो कभी रानी को चाहते थे(जब वो कुंवारी थीं) .शादी नहीं हो पायी पर प्रेमपरीक्षा में पास हुये-अव्वल.
प्रेम परीक्षा में पतियों का मामला काफी ढीला रहा.चाहे वो राम रहे हों या पांडव.जब उनकी पत्नी को सबसे ज्यादा उनकी जरूरत थी तब ये महान लोग धर्मपालन,नीतिगत आचरण में लगे थे.
गुडिया,आरिफ, तौफीक का मामला कोई अलग नहीं है.शरीयत इस्लाम कानून सब कुछ आरिफ के पक्षमें है.पर बहुत से लोग हैं जो मानते कि शरीयत कानून का पालन कुर्बानी से नहीं रोकता.
मशहूर शायर मुनव्वर राना का भी यही मानना है.अमर उजाला प्रकाशित एक बातचीत में उन्होने बताया है कि
अगर वो आरिफ की जगह होते तो क्या करते.बातचीत जस की तस यहां प्रस्तुत है(काश इसे आरिफ भी पडता):-
"आरिफ होने की सूरत में मैं इस्लाम का सच्चा नुमांइदा होने का सुबूत देता.इस्लाम की बुनियाद है कुर्बानी.जो कुर्बानी से पीछे हट जाये,वह मुसलमान नहीं है.गुडिया तौफीक को सौंपकर मैं इस्लाम का मान बढाता.शरीयत के सच से कोई मुसलमान इंकार नहीं कर सकता .लेकिन ,शरीयत तलाक देने से नहीं रोकती है.इस विवाद की
शुरुआत से पहले ही गुडिया को तलाक देकर दोराहे पर पहंचने वाली स्थिति से बचा लेता.अपने घर की गुडिया को बाजार में तमाशा न बनने देता .मुझे अपना बीस बरस पुराना एक शेर याद आ रहा है:-
वो एक गुडिया जो मेले में कल दुकान पर थी,
दिनों की बात है पहले मेरे मकान पर थी.
मैं अपनी जिंदगी तो नए सिरे से शुरु कर सकता था.लेकिन गुडिया आज जहां है,वहां उसे तौफीक से अलग करना मुझे कभी गवारा न होता.ऐसा करके मैंतलाक की विचारधारा पर उंगली उठाने वालों को करारा जवाब भी देता. तलाक का इस्तेमाल अपने हक में करने वाले तो लाखों मिल जायेंगे.तलाक का इस्तेमाल दूसरे के हक में करके मैं एक अनोखा उदाहरण पेश करने का अवसर कभी न गवांता .गुडिया से जुदा होने को मैं कुछ इस तरह लेता:-
बिछडते वक्त बहुत मुतमइन थे हम दोनों,
किसी ने मुड के किसी की तरफ नहीं देखा.
आरिफ के तौर पर मैं उस जिम्मेंदारी को भी निभाता कि घर की दहलीज के भीतर लिये जाने वाले फैसले को टेलीविजन के स्टूडियो तक न ले जायाजाये.मेरा इससे बडा गुनाह और क्या होता कि जो फैसला मदरसों और खानकाहों में होनाचाहिये,उसे मेरी वजह से टेलीविजन स्टूडियो में तक ले जाया जाये.इस्लाम की प्रतिनिधि संस्थाओं और प्रमुख व्यक्तियों को भी यह चाहिये था कि टेलीविजनस्टूडियो में बहस करने के बजाय सब देवबंद में मिल-जुलकर बैठते और मसले का हल ढूंढते.आज तो सबने पूरे मामले का मजाक बना दिया है.गुडिया का हाल मुस्तफा जैदी के शब्दों में कुछ इस तरह हो गया है:-
और वो नन्हीं सी मासूम सी भोली सी गुडिया,
अपने कुनबे की शराफत के लिये बिक भी गई.
जो समझती है थी कि जश्न-ए-वफा कैसा है,
जिसने लुटकर भी न पूंछा कि खुदा कैसा है.
लखनऊ में एक किस्सा चलता है.दो दोस्त आपस में हंसी-मजाक की बातें कर रहे थे.एक दोस्त दूसरे की बीबी की तारीफ करने लगा दूसरे ने कहा--क्योंकि तुझे पसंद है तो मैं तलाक दिये दे रहा हूं,तुम निकाह कर लो.जो दोस्त को पसंद आ गई ,वह मेरी नहीं रही.
इस वाकये का इस्तेमाल लखनवी तहजीब के हवाले से होता है.लेकिन मैं बतौर आरिफ ,गुडिया को भी दोस्त की हैसियत से देखते हुये,उसे उसकी पसंद-तौफीक को सौंप देता.गुडिया मेरी थी,तौफीक की है वाले सच पर ही यकीन करता.बतौर आरिफ मैं गुडिया के हिस्से से पसंद-नापसंद का अधिकार तो न ही छीनता.साहिरलुधियानवी के शब्दों में कुछ यूं कहता:-
तू मेरी जान मुझे हैरत-ओ-हसरत से न देख,
हममें कोई भी जहांनूर-जहांगीर नहीं.
तू मुझे छोड के ठुकरा के भी जा सकती है,
तेरे हाथों में हाथ है ,जंजीर नहीं."
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हम कभी-कभी सोचते हैं कि प्रेम कहानियों में अगर दम चाहिये तो प्रेमी के चरित्र को ही मुख्य बिंदु होना चाहिये. अगर पति का भी चरित्र - चित्रण उचित तरीके से होने लगे तो शायद कहानी में वह बात न बने.
ReplyDeleteखैर यह बात तो रूमानी कहानियों के बारे में है जैसे कि लखनऊ के दो मित्रों की कहानियाँ, जिसमें एक को दूसरी की बीवी की तारीफ करना ही पर्याप्त होता है पहले को कुरबानी देने के लिये. हमारे यहाँ परंपरा रही है इस तरह की बातों को महिमामंडित करने की. अब की कहानियाँ शायद अकहानी के रूप में हर तरह के स्तर को स्पर्श करती हैं और इस प्रकार व्यर्थ के बलिदान, कुर्बानी इत्यादि झंझटों से मुक्त होती हैं.
का परेसानी है, लिखना काहे बंद कर दिया है?
ReplyDeleteपरेशान हम ये सोच के हुये कि तुम भी सोचने की बीमारी पाल लिये.तुम तो ऐसे न थे.क्या होगा इस देश का?
ReplyDeleteकभी-कभी हम भी मनइधारा मोड में आ जाते हैं, सो लिख गये, खैर तुम दिल से न लगाओ.
ReplyDeleteदिल है कि मानता नहीं
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