Friday, July 04, 2025

टहलते हुए मास्टर स्ट्रोक

 टहलने निकलते समय हर बार ज़ेहन में सवाल उठता है -'किधर चलें?' हर बार की तरह आज भी उठा यह सवाल। पहले हमने  पार्क में जाकर टहलने की सोची। चल भी दिए उस तरफ़। लेकिन  पार्क की तरफ़ जाने वाले गेट तक पहुंचकर अचानक दूसरी तरफ़ मुड़ गए और सड़क पर आकर टहलने लगे। 


पार्क जाने की जगह सड़क पर आ जाना एक सामान्य इंसान के लिए  सामान्य घटना है। लेकिन किसी असामान्य इंसान के साथ यह घटना होती तो उसके भक्त लोग इसे उसका 'मास्टर स्ट्रोक' बताते। क्या 'मास्टर स्ट्रोक' मारा है कहते हुए उसकी वंदना के स्वरों में अपना सुर मिलाने के आह्वान करते। जो न मानता उसे सामान्य नागरिक के पद  से बर्खास्त करके विधर्मी, देशद्रोही के खाते में डाल देते। 


श्रीलाल शुक्ल जी अपने उपन्यास 'रागदरबारी ' में लिखते हैं : "उत्तम कोटि का सरकारी आदमी, कार्य के अधीन दौरा नहीं करता। वह जिधर निकल जाता है उधर ही उसका दौरा हो जाता है।" इसी तर्ज पर बड़े लोगों से  जो भी काम हो जाता  वह उनका 'मास्टर स्ट्रोक' होता हैं।बड़े लोग किसी के सामने मुर्गा बनते हुए घिघियाते भी हैं तो उनके भक्त लोग कहते हैं -"वाह, क्या मास्टर स्ट्रोक मारा है। अगले के सामने मुर्गा बनकर दिखा दिया और उसकी हिम्मत नहीं हुई कुछ बोल सके। 


सड़क पर लोग आने-जाने लगे थे। बच्चे स्कूल जा रहे थे, बड़े लोग काम पर। हम न स्कूल जाने वालों में, न काम पर जाने वालों में बेमतलब सड़क पर टहल रहे थे। 

पहले ही मोड़ पर नुक्कड़ पर एक पंचर वाले की दुकान पर पंचर के रेट लिखे थे। 'मशरूम पंचर'  दाम   300 रुपए लिखे थे। हमें मशरूम के बारे में पता था, पंचर के बारे में पता था लेकिन  'मशरूम पंचर' के बारे में नहीं पता था। दुकान बंद थी वरना पूछ लेते। अगली बार पूछेंगे अगर याद रहा। 

लेकिन यहाँ 'मशरूम पंचर' रिपेयर रेट  बताकर मुझे डर लग रहा है कि कहीं कोई अगले चुनाव में देश की महँगाई का ठीकरा पंचर बनाने वालों पर न फोड़ दे। कहे -"भाइयों और बहनों, ये पंचर बनाने वाले लोग 300 रुपये में पंचर बनाते हैं। मंहगाई बढ़ने का कारण ये पंचर बनाने वाले हैं।"

सड़क के सामने से जिला अस्पताल का बोर्ड दिख रहा था। 'अस्पताल' के बोर्ड से 'स्प' ग़ायब था। हालांकि यह कोई बड़ी बात नहीं  अस्पताल जब बिना जरूरी दवाओं और मेडिकल स्टाफ के काम कर सकते हैं तो बोर्ड में  डेढ़ अक्षर न होना कोई बड़ी बात नहीं। 

सामने सड़क अभी चलने को काफ़ी उपलब्ध थी लेकिन हम अचानक बिना हाथ दिए बायीं तरफ़ मुड़ गई। इससे एक बार फिर तय हुआ कि आदतें दूर तक पीछा करती हैं।  गाड़ी चलाते अक्सर बिना हाथ/इंडीकेटर  दिए मुड़ जाने वाली आदत पैदल चलते समय भी हावी है। गाड़ी चलाते समय तो अक्सर मुड़ने के बाद हाथ दे देते हैं लेकिन पैदल चलते हुए वह ज़हमत भी नहीं उठाई हमने। मुड़ गए तो मुड़ गए। जो होगा देखा जाएगा। 

आगे एक सीवर सफाई गाड़ी नाली के पानी में पाइप डाले उसको साफ़ कर रही थी। गाड़ी के पीछे रोमन में लिखा था -चकाचक।  हमसे कोई हालचाल पूछता है तो बिना सोचे आदतन कहते हैं -'चकाचक।' हमको लगा कि हमारी बातचीत सुनकर गाड़ी वाले ने नक़ल कर ली है। 

तिराहे पर कबूतर दाना चुगकर शायद अपने-अपने ठीहे पर जा चुके थे। कोई किसी दफ़्तर के मुंडेर पर, कोई किसी धार्मिक स्थल पर, कोई वीराने में, कोई कहीं बाग-बगीचे में। अब कबूतरों की दुनिया का मुझे पता नहीं लेकिन क्या पता वहाँ भी कोई वर्गीकरण होता हो। दफ़्तरों के कोटरों में बैठने वाले कबूतर कामकाजी कबूतर कहलाते होने,  बाग-बग़ीचों , वीरानों में घूमने वाले कबूतर आवारा/ बेरोजगार/मजनू कबूतर, धर्मस्थलों में घूमने वाले धार्मिक कबूतर। और भी तमाम  श्रेणियाँ होंगी। 

क्या पता कबूतरों के यहाँ भी चुनाव होते हों, उनके भी प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति होते हों, उनका भी  कोई 'गुटरगूँ मीडिया' होता हो जो अपने नायक के कसीदे काढ़ता हो, उसके हर स्ट्रोक को 'मास्टर स्ट्रोक' बताता हो। उनके यहाँ भी कबूतरों के दो गुटों में लड़ाई होती हो जिसके रुकने पर कोई तीसरा  कबूतर कहता हो -"हमने सीज फायर करवा दिया।"

आगे और भी तमाम बातें सोचीं कबूतरों के बारे में लेकिन यह सोचकर नहीं लिख रहे कि न जाने कौन कबूतर बुरा मान जाए और मान मानहानि का मुकदमा कर दे। पापुलर मेरठी का शेर भी या आ गया :

"अजब नहीं जो तुक्का भी तीर हो जाए, फटे जो दूध तो पनीर हो जाए

मवालियों को  देखो हिकारत से, न जाने कौन सा गुंडा वजीर हो जाए।"

तुक्का-तीर, दूध-पनीर वाली बातें तो न जाने कब से होती आई हैं। लेकिन गुंडों के वजीर बनने वाली बात जो पहले अपवाद होती थीं अब वे आम होती हैं। हमें डर है कि कहीं इसके लिए भी पापुलर मेरठी साहब को दोषी न ठहरा दिया जाये। 


कबूतर कथा को पीछे छोड़कर आगे बढ़े तो फुटपाथ पर ही गुजारा करने कुछ महिलाएं, बच्चे, पुरुष दिखे। एक महिला अपने बच्चे को सड़क किनारे बैठाये पेशाब करा रहा थी, दूसरी महिला अपने बच्चे की सड़क पर की हुई टट्टी को सड़क पर पड़ी एक पालीथीन से पोंछते हुए साफ़ कर रही थी। उनसे कुछ दूरी पर बना गुलाबी शौचालय (Pink Toilet) शायद उनके लिए नहीं था। आज के समय में  कोई सुविधा   होना लेकिन सबके लिए न होना सभ्य समाज की निशानी हैं। बुनियादी सुविधाएं भी इससे अलग नहीं है।

उन लोगों में से कुछ बच्चे और कुछ बड़े एक बोतल से कोई पेय निकालकर ग्लास में डालकर चुस्की लेते हुए पी रहे थे। पास से गुजरते हुए देखा बोतल पर स्प्राइट लिखा था। कोई इसे भी अपने समाज की संपन्नता से जोड़कर देख सकता है -"हमारे यहाँ बेघर और फुटपाथ पर रहने वाले तक स्प्राइट पीते हैं।" 

स्प्राइट पीने वालों से थोड़ा दूर एक कोने में बैठी बच्ची सर झुकाये एक आम से कुश्ती सी लड़ती हुई आम से गूदा निकालकर खा रही थी। गुठली चूस रही थी। सौ रुपए किलो से ऊपर का आम बच्ची को चूसते देखकर मुझे लगा कि कोई इसके ख़िलाफ़ केस न कर दे कि यह आम बच्ची के पास आया कैसे? पाँच किलो राशन में फल तो शामिल नहीं हैं।

घूमते हुए उसी पार्क की तरफ़ आ गए जहाँ टहलने के लिए जाने की बात हमने सबसे सोची थी। हम पार्क में घुसकर टहलने लगे। टहलते हुए सोचा कि कोई देखेगा तो इसे हमारा यू टर्न बताएगा। कहेगा जहाँ न जाने को हम अपना 'मास्टर स्ट्रोक' बता रहे थे अब उसी जगह पर आकर टहल रहे हैं। लेकिन किसी के कहने से क्या? हमारा 'मास्टर स्ट्रोक' हम तय करेंगे। किसी दूसरे को क्या हक कि हमारा मास्टर स्ट्रोक तय करे? 

यह निर्णय पर पहुंचते ही हमें लगा -"अरे यार यह तो एक और 'मास्टर स्ट्रोक' हो गया।" सुबह-सुबह टहलते हुए तीन मास्टर स्ट्रोक हो जायें इससे ज़्यादा और किसी को क्या चाहिए?  है कि नहीं?