और हम श्रेष्ठ आलोचक की गति को प्राप्त हुये।
अतुल ने हमारे साथ खड़ा किया स्वामीजी को।हम दोनों हिंदी के साठ ब्लागों का तियां-पांचा करते रहेंगे। बहरहाल!
चिट्ठीकहानी मैंने कई बार पढ़ी थी। उसके पढ़ने के बाद अखिलेशजी से बहुत बार बातचीत हुई।मुलाकातभी। एक बेहतरीन कथाकार के अलावा अखिलेशजी हिंदी साहित्य की सबसे ज्यादा पसंद की जाने वाली पत्रिकाओं में से एक- तद्भवके संपादक है। वो बीहड़ संपादक माने जाते है,जो नामी लेखकों से रचनायें लिखवा लेते हैं पर उनकी प्रकाशन की कसौटी रचना का स्तरीय होना है न कि लेखक का प्रभामंडल।
हमने जब बताया उनको उनकी कहानी पर लोगों की प्रतिक्रयाओं के बारे में तो उन्होंने खुशी जाहिर कि लोगों को कहानी पसंद आयी।मैंने उनको स्वामीजी की प्रतिक्रिया पढ़कर सुनाई । उनका कहना था कि हां ,यह भी कहानी का एक अंग था। स्वामीने उसे ‘भदेस’ (एकदम खुले)अंदाज में रेखांकित किया। हमारे दोहरे मापदंड होते है। हम बच्चों को एकतरफ दीन दुनिया से काटकर अपने तक सीमित रखकर खुद की उन्नति में लगाकर उन्हें उदात्त गुणों-सामाजिकता आदि से विमुख कर देते हैं। बाद में
शिकायत कि बच्चे हमारा ख्याल नहीं रखते। बिगड़ गये हैं। उनके निर्माण प्रकिया के दौरान हम उदासीन रहते हैं बाद में अपेक्षायें ढेर सारी रखते हैं । इसी घालमेल में कहीं आक्रमण होता है यथार्थ का।कुल मिलाकर वे संतुष्ट दिखे स्वामीजी की प्रतिकिया से तथा इस प्रतिक्रिया पर हुई प्रतिक्रियाओं से।
आजकल हिंदी साहित्य में जिन कुछ कथाकारों की चर्चा है उनमें युवा लेखिका नीलाक्षी सिंह प्रमुख है। उनकी कहानी सूत्र लगता है कि चिट्ठी कहानी का विस्तार है जिसमें असफलता के पाले में फंसे नौजवान से कहा जाता है-मेरे बच्चे! अगर तुमने उसी बच्चे वाले जुनून और एकाग्रचित्तता से ज़िन्दगी को पकड़ा होता तो आज तुम्हारी मुट्ठी खाली नहीं होती।’
कहानियों के अलावा नीलाक्षी सिंह के व्यक्तित्व की एक और खासियत दिखी। दुनिया में सफलता का आम रास्ता गाँव से नगर ,नगर से महानगर तक जाता है। इसके उलट नीलाक्षी सिंह काशी हिंदू विश्विद्यालय से बी.ए. के बाद एम.ए. की प्रवेश परीक्षा में चौथे स्थान पर रहने के बावजूद वापस अपनेगाँव लौट गई तथा वहां दिया-बत्ती-लालटेन में अपना अध्ययन ,लेखन जारी रखा:-
विद्यार्थी काल में अपने कैरियर के लिए देखे गए सारे सपने खोकर और सबके खिलाफ होकर मैंने अपने लिए कठिन और शर्तिया रूप से असफल होने वाला रास्ता चुना था। छोटा सा गांव न कस्बा, जो कहें। घर की अवस्थिति कुछ इस प्रकार थी कि उसे चौराहा कहना ज्यादा माकूल जान पड़ता है। कारण घर की सरहदें पड़ोसी (पट्टीदारों) के घर से इस कदर घुली मिली थीं कि उस पार के संवाद सारे, इस मंच से ही आते जान पड़ते थे। नाद तत्त्व की वहां प्रधानता थी। ईर्ष्या, द्वेष, कलह। अपनी पूरी ताकत से चीखते सस्ते फिल्मी गानों की तान। बिजली चोरी के कुख्यात डॉनों की कलाकारी से बिजली आपूर्ति के पांच से सात मिनट के भीतर बस फिलामेंट भर उपस्थिति रह जाती थी रोशनी की। लिहाजा लालटेन ज़िन्दाबाद! ज़मीन बहुत उपजाऊ थी। सांप-बिच्छू तक इतने पैदा कर रखे थे कि वे हर जगह, हर मोड़ पर मिल जाकर चौंका देने को तत्पर। तो पड़ोस के सो चुकने के बाद, सारे दरवाजे बदं करज्ञ् सांप बिच्छुवों के खिलाफ मोर्चाबंदी पक्की हो जाने पर लालटेन की रोशनी के साये में अध्ययन / लेखन परवान चढ़ता। मौसम चाहे कोई भी हो, फर्क नहीं। कहानियां सबसे सहज रूप में तभी मुझ तक आतीं।
शायद यही कारण है कि उनकी कहानियों में नयापन सा है।
अतुल तथा स्वामीजी की बात के बाद जीतेन्दर के बारे में कुछ न लिखा जाये तो वो नाराज हो जायेंगे। भारत भी आना है उनको कुछ दिन में। कुछ दिन पहले जब उन्होंने अपने एक सपने की बात लिखी थी तो अपने एक मित्र की मदद से मैंने उनके सपनों की व्याख्या लिखी थी। तब मुझे भी अन्दाजा नहीं था कि कितनी सही होगी व्याख्या होगी। पर बाद में देखा गया कि अनुभव की तीव्रता से वंचित रह जाने की टीस की बात सही निकली जब जीतू बाबू को लगा कि केवल दो ही लोगों के विचार हैं । जाहिर है बाकी काफी लोगों से लगाई उम्मीद परवान नहीं चढ़ी। सो बालक अनुभव की तीव्रता से वंचितावस्था को प्राप्त हुआ।
उधर ग्याहरवीं अनुगूंज में अभी तक खाता नहीं खुला है। हमेशा विषय देने के पहले ही (?)पोस्ट चिपका देने वाले प्रेमपीयूष भी नदारद हैं।कोई लिख नहीं रहा- माजरा क्या है ?
आज ठेलुहा नरेश का भारत आगमन हुआ। मौंरावाँ नरेश अपने गाँव से फोनियाये -हमारे चरण-कमल कृतार्थ कर चुके हैं भारत भूमि को सो जानना। पहली बातचीत जाहिर है ब्लागजगत के इर्द-गिर्द ही घूमती रही। लगता है कि जल्द ही दो ब्लागरों का मिलन हो के रहेगा और चिट्ठाविश्व में -’क्या आप जानते हैं’ में एक सवाल और जुड़ जायेगा -क्या आप जानते हैं कि हिंदी चिट्ठा जगत में पहली ब्लागर मीट कहां-कब-किसके बीच संपन्न हुई ? जवाब बताना बहुत नाइंसाफी होगी उन तमाम लोगों के साथ जो अभी भी उचक के अपना नाम जवाब में लिखवा सकते हैं।
अतुल ने हमारे साथ खड़ा किया स्वामीजी को।हम दोनों हिंदी के साठ ब्लागों का तियां-पांचा करते रहेंगे। बहरहाल!
चिट्ठीकहानी मैंने कई बार पढ़ी थी। उसके पढ़ने के बाद अखिलेशजी से बहुत बार बातचीत हुई।मुलाकातभी। एक बेहतरीन कथाकार के अलावा अखिलेशजी हिंदी साहित्य की सबसे ज्यादा पसंद की जाने वाली पत्रिकाओं में से एक- तद्भवके संपादक है। वो बीहड़ संपादक माने जाते है,जो नामी लेखकों से रचनायें लिखवा लेते हैं पर उनकी प्रकाशन की कसौटी रचना का स्तरीय होना है न कि लेखक का प्रभामंडल।
हमने जब बताया उनको उनकी कहानी पर लोगों की प्रतिक्रयाओं के बारे में तो उन्होंने खुशी जाहिर कि लोगों को कहानी पसंद आयी।मैंने उनको स्वामीजी की प्रतिक्रिया पढ़कर सुनाई । उनका कहना था कि हां ,यह भी कहानी का एक अंग था। स्वामीने उसे ‘भदेस’ (एकदम खुले)अंदाज में रेखांकित किया। हमारे दोहरे मापदंड होते है। हम बच्चों को एकतरफ दीन दुनिया से काटकर अपने तक सीमित रखकर खुद की उन्नति में लगाकर उन्हें उदात्त गुणों-सामाजिकता आदि से विमुख कर देते हैं। बाद में
शिकायत कि बच्चे हमारा ख्याल नहीं रखते। बिगड़ गये हैं। उनके निर्माण प्रकिया के दौरान हम उदासीन रहते हैं बाद में अपेक्षायें ढेर सारी रखते हैं । इसी घालमेल में कहीं आक्रमण होता है यथार्थ का।कुल मिलाकर वे संतुष्ट दिखे स्वामीजी की प्रतिकिया से तथा इस प्रतिक्रिया पर हुई प्रतिक्रियाओं से।
आजकल हिंदी साहित्य में जिन कुछ कथाकारों की चर्चा है उनमें युवा लेखिका नीलाक्षी सिंह प्रमुख है। उनकी कहानी सूत्र लगता है कि चिट्ठी कहानी का विस्तार है जिसमें असफलता के पाले में फंसे नौजवान से कहा जाता है-मेरे बच्चे! अगर तुमने उसी बच्चे वाले जुनून और एकाग्रचित्तता से ज़िन्दगी को पकड़ा होता तो आज तुम्हारी मुट्ठी खाली नहीं होती।’
कहानियों के अलावा नीलाक्षी सिंह के व्यक्तित्व की एक और खासियत दिखी। दुनिया में सफलता का आम रास्ता गाँव से नगर ,नगर से महानगर तक जाता है। इसके उलट नीलाक्षी सिंह काशी हिंदू विश्विद्यालय से बी.ए. के बाद एम.ए. की प्रवेश परीक्षा में चौथे स्थान पर रहने के बावजूद वापस अपनेगाँव लौट गई तथा वहां दिया-बत्ती-लालटेन में अपना अध्ययन ,लेखन जारी रखा:-
विद्यार्थी काल में अपने कैरियर के लिए देखे गए सारे सपने खोकर और सबके खिलाफ होकर मैंने अपने लिए कठिन और शर्तिया रूप से असफल होने वाला रास्ता चुना था। छोटा सा गांव न कस्बा, जो कहें। घर की अवस्थिति कुछ इस प्रकार थी कि उसे चौराहा कहना ज्यादा माकूल जान पड़ता है। कारण घर की सरहदें पड़ोसी (पट्टीदारों) के घर से इस कदर घुली मिली थीं कि उस पार के संवाद सारे, इस मंच से ही आते जान पड़ते थे। नाद तत्त्व की वहां प्रधानता थी। ईर्ष्या, द्वेष, कलह। अपनी पूरी ताकत से चीखते सस्ते फिल्मी गानों की तान। बिजली चोरी के कुख्यात डॉनों की कलाकारी से बिजली आपूर्ति के पांच से सात मिनट के भीतर बस फिलामेंट भर उपस्थिति रह जाती थी रोशनी की। लिहाजा लालटेन ज़िन्दाबाद! ज़मीन बहुत उपजाऊ थी। सांप-बिच्छू तक इतने पैदा कर रखे थे कि वे हर जगह, हर मोड़ पर मिल जाकर चौंका देने को तत्पर। तो पड़ोस के सो चुकने के बाद, सारे दरवाजे बदं करज्ञ् सांप बिच्छुवों के खिलाफ मोर्चाबंदी पक्की हो जाने पर लालटेन की रोशनी के साये में अध्ययन / लेखन परवान चढ़ता। मौसम चाहे कोई भी हो, फर्क नहीं। कहानियां सबसे सहज रूप में तभी मुझ तक आतीं।
शायद यही कारण है कि उनकी कहानियों में नयापन सा है।
अतुल तथा स्वामीजी की बात के बाद जीतेन्दर के बारे में कुछ न लिखा जाये तो वो नाराज हो जायेंगे। भारत भी आना है उनको कुछ दिन में। कुछ दिन पहले जब उन्होंने अपने एक सपने की बात लिखी थी तो अपने एक मित्र की मदद से मैंने उनके सपनों की व्याख्या लिखी थी। तब मुझे भी अन्दाजा नहीं था कि कितनी सही होगी व्याख्या होगी। पर बाद में देखा गया कि अनुभव की तीव्रता से वंचित रह जाने की टीस की बात सही निकली जब जीतू बाबू को लगा कि केवल दो ही लोगों के विचार हैं । जाहिर है बाकी काफी लोगों से लगाई उम्मीद परवान नहीं चढ़ी। सो बालक अनुभव की तीव्रता से वंचितावस्था को प्राप्त हुआ।
उधर ग्याहरवीं अनुगूंज में अभी तक खाता नहीं खुला है। हमेशा विषय देने के पहले ही (?)पोस्ट चिपका देने वाले प्रेमपीयूष भी नदारद हैं।कोई लिख नहीं रहा- माजरा क्या है ?
आज ठेलुहा नरेश का भारत आगमन हुआ। मौंरावाँ नरेश अपने गाँव से फोनियाये -हमारे चरण-कमल कृतार्थ कर चुके हैं भारत भूमि को सो जानना। पहली बातचीत जाहिर है ब्लागजगत के इर्द-गिर्द ही घूमती रही। लगता है कि जल्द ही दो ब्लागरों का मिलन हो के रहेगा और चिट्ठाविश्व में -’क्या आप जानते हैं’ में एक सवाल और जुड़ जायेगा -क्या आप जानते हैं कि हिंदी चिट्ठा जगत में पहली ब्लागर मीट कहां-कब-किसके बीच संपन्न हुई ? जवाब बताना बहुत नाइंसाफी होगी उन तमाम लोगों के साथ जो अभी भी उचक के अपना नाम जवाब में लिखवा सकते हैं।
Posted in बस यूं ही | 12 Responses
आपके हाल ही के इन प्रयासों से ना सिर्फ़ पढनीय हस्ताक्षरों को पढने और ज़रा करीब से जान पाने का अनुभव ही मिला है, बल्की अपना ब्लाग ज़रा तमीज़ से लिखने के वाजिब दबाव मे भी हूं! इसको कहते हैं “Leading by example”!
पंकज
तो फुरसतिया,आशीष और ठलुआ भईया, अपने अपने चेहरे की चमक बरकरार रखो, जुलाई मे मिलना तय है.
और पंकज भाई, प्रतियोगिता की शर्तों के मुताबिक फोटो बिना प्रविष्ठि वैध नही मानी जायेगी, अगर जीतना चाहते हो, फोटो चिपका दो, नही तो फर्स्ट आकर भी जीत नही पाओगें.
पंकज
स्वामीजी,प्रेम पर तो अधिकार है तुम्हारा । बकिया ज्यादा तमीज सीखने के पचड़े में मत पड़ो। अपनी मूल प्रवृत्ति बचा के रखो। कल जो शेर लिखते-लिखते रह गया क्योंकि कहीं फिट नहीं बैठ रहा था वो आज सुना जाये। सबके लिये मौजूं है (मूल प्रवृत्ति बरकरार रहती है)मुनव्वर राना का यह शेर:-
मियाँ मैं शेर हूँ शेरों की गुर्राहट नहीं जाती,
मैं लहजा नर्म भी कर लूँ तो झुँझलाहट नहीं जाती।
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