By फ़ुरसतिया on June 30, 2005
मैं सन् २०२० तक भारत को विकसित राष्ट्र के रुप में देखना
चाहता हूं।अपनी क्षमताओं का समुचित उपयोग करके हम यह लक्ष्य हासिल कर सकते
हैं।*डा.ए.पी.जे.अब्दुल कलाम
भारतवर्ष में अराजकता और अस्तव्यस्तता को झेलने की असाधारण क्षमता रही है। इसी तर्ज पर आप कह सकते हैं कि देश में लोकतंत्र का जो वर्तमान है वही भविष्य है। निकट भविष्य में मुझे किसी खास बदलाव के आसार नजर नहीं आते।*श्रीलाल शुक्ल
जब से मैं अनुगूँज में लिखने की सोच रहा हूँ तबसे उपरोक्त दोनों कथन मेरे सामने जमें हुये हैं। किसको सही मानूँ । दोनों के तर्क हैं। दोनों अपने-अपने क्षेत्र के महारथी हैं। अनुभव-समृद्ध हैं।महामहिम राष्टपति जी ने तो विकसित बनने का पूरा ‘ब्लू-प्रिंट’ तक बनाया है तथा अपने कार्यकलाप में इसके प्रति अपनी आशा व प्रतिबद्धता दिखाते रहते हैं। पर जो लोग भारतीय जनमानस के चितेरे है वे महामहिम के सभी तर्कों से सहमत होने के बावजूद श्रीलाल शुक्ल जी के विचार से इत्तफाक रखते हैं।समझ में नहीं आता —माज़रा क्या है?
महामहिम जी से तो मिलना संभव न हुआ पर सोचा कि श्रीलाल शुक्ल जी से पूछा जाये कि ऐसा कैसे कहते हैं कि देश में अराजकता और अस्तव्यस्तता को झेलने की असाधारण क्षमता है तथा भविष्य में किसी बदलाव के आसार नजर नहीं आते। पूछने पर शुक्लजी ने अपनी बात साफ की- देश में आठवीं सदी के बाद हर्षवर्धन के बाद से लेकर अकबर के समय तक (लगभग ६ शताब्दी) पूरे देश में अफरा-तफरी मची रही। लोग आते-जाते ,लूट-पाट करते रहे। बसते-उजड़ते रहे।छोटे-छोटे राजा,रजवाड़े जिनकी कभी भी समन्वयक दृष्टि नहीं रही।फिर अकबर ,जहाँगीर,शाहजहाँ,औरंगजेब के बाद से आजादी की पहली लड़ाई तक भी(लगभग २ शताब्दी) पूरे देश में किसी का अखंड राज्य नहीं रहा। जनता भगवान भरोसे जीती रही। तमाम दैवीय मानवीय आपदायें झेलती रहीं । कहीं किसी जगह से बदलाव के सामूहिम सार्थक प्रयास नहीं हुये। इसीलिये मेरा मानना है कि हमारे देश में अराजकता और अस्तव्यस्तता को झेलने की असाधारण क्षमता है तथा भविष्य में किसी बदलाव के आसार नजर नहीं आते।
अतीत की बात प्रथम दृश्ट्या सच लगते हुये भी भविष्य भी अतीत जैसा ही मानने का मन नहीं होता। पर विसंगतियां हैं कि मुँह बिराती हैं। कहती है कि कहाँ तक मुंह चुराओगे सच से। देखा जाये तो विसंगतियां हर समाज का हिस्सा होती हैं। सन् ३० के दशक में शायद बालकृण्ण शर्मा ‘नवीन’ ने लिखा था:-
श्वानों को मिलता दूध भात,भूखे बच्चे अकुलाते हैं,
माँ की छाती से चिपक,ठिठुर जाड़े की रात बिताते हैं।
उस समय के कवि की कूवत रही होगी की वह यह देखकर दुनिया में आग लगाने की सोचने लगता था। समय के साथ यह कूवत कम होती गयी तथा कवि गीत-फ़रोश बनने पर मजबूर हो गया:-
यह गीत भूख और प्यास भगाता है,
जी यह मसान में भूत जगाता है,
यह गीत भुवाली की है हवा हुजूर,
यह गीत तपेदिक की है दवा हुजूर,
जी और गीत भी हैं दिखलाता हूँ,
जी सुनना चाहें आप तो गाता हूँ।
समाज में विसंगतियां बढ़ती जा बढ़ती जा रही हैं। अनगिनत उदाहरण हैं। हम भूखे नंगे देश हैं। खाये-पिये-अघाये का अनुकरण कर रहे हैं। जब मै ‘हम’ की बात कर रहा हूं तो उसमें देश का बहुसंख्यक तबका शामिल है जिसके खाने-पीने-जीने की स्थितियां दिन पर दिन भयावह होती जा रही हैं।
यह वह तबका है जिसे यह पता नहीं कि कैसे हालात सुधरेंगे। जैसे-तैसे दिन काटना ,बस जिये-जिये रहना। इन्ही की बात शायद मेराज़ फैजाबादी कहते हैं जब वे कहते हैं:-
चाँद से कह दो अभी मत निकल,
अभी ईद के लिये तैयार नहीं हैं हम लोग।
तथा
मुझे थकने नहीं देता जरूरत का पहाड़,
मेरे बच्चे मुझे बूढ़ा नहीं होने देते ।
अजब माज़रा है कि हमारी ज़रूरते दूसरे तय कर रहे हैं। वे -जिनको हमारे सुख-दुख से कोई मतलब नहीं। एक विज्ञापन में दिखाया जाता है कि लंबी लाइन लगी है। पी.एस.पी.यू.पंखा खरीदने के लिये। एक नया आदमी पूछता है कि ये पी.एस.पी.यू.क्या होता है ? तो वहीं पहले से लगा आदमी भागता,चिल्लाता हुआ कहता है-ये पी. एस. पी. यू. नहीं जानताऽऽऽ। घबराकर वह आदमी भी लाइन में लग जाता है यह कहते हुये कि मैं तो मजाक कर रहा रहा था। यह बाजार का आतंक है जो आदमी की जरूरते तय कर रहा है। पैसे नहीं हैं कोई बात नहीं लोन तो है ही।ले लो लोन हम तुम्हें खुशहाल बना के ही छोड़ेंगे।
बहुत दिन नहीं हुये जब हमारी बुजुर्ग पीढ़ी अपनी शादी के सूट को बुढ़ापे तक पहनती थी। आज हालात में सुधार आया है। अब हम एक पार्टी में पहनी हुयी शर्ट दूसरी पार्टी में पहन के जाने की हिम्मत नहीं कर पाते। कहा जाता है-पिछली पार्टी में भी तो यही पहनी थी। विकसित देशों में शायद मामला और आगे है -सुना है वहां के लोग हर पार्टी में साथी बदल लेते हैं।
दुनिया का लगभग हर देश कई शताब्दियों में एक साथ जी रहा है। हमारा देश चूंकि ज्यादा विभिन्नतायें समेटे है लिहाजा यहां शताब्दियों का कोलाज ज्यादा बड़ा है। यदि किसी इमरानाको पांच बच्चे जन चुके पति को बेटा मानने का हुक्म पंचायते सुनाती हैं तो वहीं लड़कियां दूल्हे की हरकतों से झुब्ध होकर बारात दरवाजे से लौटाने की हिम्मत भी दिखा रही हैं। दंगों के दौरान अगर चोटी,खतना देखकर मारने तथा धर्म का प्रसार करने की मनोवृत्ति लौट रही है तो वहीं जानपर खेलकर लोगों को बचाने का जुनून भी पीछे नहीं है।अंधेरे बढ़ते जा रहे हैं, हालात बदतर होते जा रहे हैं लेकिन कुछ रोशनियां भी अक्सर दिखाई देती हैं जो सारे अंधेरे की बत्तियां गुल कर देती हैं।
देश की बिडम्बना है कि आम आदमी शिदृत से बदलाव की जरूरत नहीं महसूस करता। तथा जो मध्यवर्ग यह समझ जगा सकता है वह अपने में, बीबी बच्चों में मस्त हैं । उससे भी और बुद्दिमान जो लोग हैं वे इस पचड़े में भी नहीं पड़ते। बहुत ज्यादा बुद्धि अक्सर निष्क्रियता ,अलाली, यथास्थितिवाद की गोद में जा बैठती है।कुछ ऐसे ही बुद्धिमान लोगोंसे राष्ट्रपति महोदय पूछते हैं आप देश के लिये क्या कर रहे हैं?
हर समाज का बहुसंख्यक समुदाय पिछलग्गू होता है। वह देखा-देखी काम करता है। उसे अगर प्रगति के पथ पर चलने वाले लोग दिखेंगे तो वे उधर भी चलेंगे। पर आदर्श प्रस्तुत करते समय खालिस लखनौवे हो जाते हैं-पहले आप,पहले आप।इसी में गाड़ी छूट जाती है।नेता लोकसेवक को दोष दे रहा है,लोकसेवक कहता है कि सारी गड़बड़ी राजनेता करता है देश में,जनता बेचारी समझ नहीं पा रही है माज़रा क्या है?
ऐसा नहीं कि लोग परेशान न हों ।लोग परेशान है मगर आराम के साथ ।बकौल अकबर इलाहाबादी:-
कौन से डर से खाते हैं डिनर हुक्काम के साथ,
रंज लीडर को बहुत है मगर आराम के साथ।
माज़रा यह हैं कि सही स्थिति का अन्दाजा उसे भी नहीं हो रहा है जो इस झमेले में फंसा है,लिहाजा परिवर्तन के लिये कोई आवाज नहीं उठती।बकौल कन्हैयालालनंदन:-
वो जो दिख रही है किश्ती ,इसी झील से गई है,
पानी में आग क्या है, उसे कुछ पता नहीं है।
वही पेड़ ,शाख ,पत्ते, वही गुल -वही परिंदे,
एक हवा सी चल गई है ,कोई बोलता नहीं है।
इतिहास जैसा भी हो लेकिन मेरा यह मानने का मन नहीं करता कि भविष्य भी वैसा ही होगा। कोई गणित नहीं होता प्रगति का।कोई एकिक नियम नहीं होता कि सौ साल में दस कदम चले तो दो सौ साल में बीस कदम चलेंगे। मेधा किसी कौम की बांदी नहीं होती। मेरा मानना है कि लगन तथा मेहनत किसी भी कमी को पूरा कर सकते हैं। मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि दो व्यक्तियों ,कौमों में उन्नीस-बीस,पंद्रह-सोलह का अंतर हो सकता है सौ-दो सौ का अंतर कभी नहीं होता । जो यह मानता है वह मेहनत ,लगन,समर्पण की ताकत से बेवाकिफ है।
मेरा तो मानना है कि हम जहां हैं जिस स्थिति में हैं वहीं से जो ठीक समझते हैं वह करते रहें । बहुत छोटी कोशिशें न जाने कब बड़ी सफलताओं में बदल जायें। काफिले की शुरुआत भी अकेले से ही होती है। सफलता -असफलता का मूल्यांकन आगे आने वाला समय करेगा। अभी न कुछ शुरु किया तो जिंदगी बीत जायेगी सोचते-सोचते -माज़रा क्या है?
मेरी पसंद
आइए,टाइम पास करते हैं
दीवारों से बात करते हैं
सितारों से बात करते हैं
केरल के मछुवारों से बात करते हैं
आप थक गये हैं तो कहिये
दिल्ली के गद्दारों से बात करते हैं।
हावर्ड युनिवर्सिटी से सीखकर आते हैं
कुछ लोग
वतनफरोशी का अर्थशास्त्र
क्यों हो जाती है अचानक रसोई गैस मंहगी
और मोटरकार सस्ती
आइये वित्तमंत्री की भाषा में बात करते हैं।
मैं जानता हूं
आपको नींद नहीं आती
बहुत खतरनाक होती है
नींद की बीमारी
उससे भी ज्यादा
खतरनाक होती है भूख
अगर आपको कोई खास एतराज न हो
आइए,आज भूख पर बात करते हैं।
प्रकृति में कितने रहस्य हैं
और हिंदुस्तान में कितने समाजवाद
इस पर बात करते हैं
पता नहीं
कैसा लगता होगा
कालाहांडी में ढलती शाम का दृश्य
कलकत्ता को सिंगापुर बनाने वाले
अंग्रेजों को फिर से बुलाने वाले
बंगाल के कम्युनिस्टों से बात करते हैं।
बातें करने के लिये बहुत हैं ,मेरे भाई!
वकील साहब की फीस
खजुराहो में कैसीनो
दुबई के फोन
करोड़पति लेखक
न समझ में आने वाली कवितायें
उत्तरप्रदेश के डाकू
बिहार के विधायक
आजादी का जश्न
पसंद आपकी,धीरज आपका
जब तक आप चाहें,बाते करते हैं।
बात ही तो करनी है
खौफ में डूबे हुये शख्स की
कर्ज में डूबे मुल्क की
जितना चाहें,उतनी बात करते हैं
आप चाहें तोदबी जुबान में बात करते हैं
आप चाहें तो इन्टरनेट पर बात करते हैं
आइये ,टाइम पास करते हैं
चलिये अच्छा ईश्वर पर बात करते हैं।
–अक्षय जैन,मुंबई
भारतवर्ष में अराजकता और अस्तव्यस्तता को झेलने की असाधारण क्षमता रही है। इसी तर्ज पर आप कह सकते हैं कि देश में लोकतंत्र का जो वर्तमान है वही भविष्य है। निकट भविष्य में मुझे किसी खास बदलाव के आसार नजर नहीं आते।*श्रीलाल शुक्ल
जब से मैं अनुगूँज में लिखने की सोच रहा हूँ तबसे उपरोक्त दोनों कथन मेरे सामने जमें हुये हैं। किसको सही मानूँ । दोनों के तर्क हैं। दोनों अपने-अपने क्षेत्र के महारथी हैं। अनुभव-समृद्ध हैं।महामहिम राष्टपति जी ने तो विकसित बनने का पूरा ‘ब्लू-प्रिंट’ तक बनाया है तथा अपने कार्यकलाप में इसके प्रति अपनी आशा व प्रतिबद्धता दिखाते रहते हैं। पर जो लोग भारतीय जनमानस के चितेरे है वे महामहिम के सभी तर्कों से सहमत होने के बावजूद श्रीलाल शुक्ल जी के विचार से इत्तफाक रखते हैं।समझ में नहीं आता —माज़रा क्या है?
महामहिम जी से तो मिलना संभव न हुआ पर सोचा कि श्रीलाल शुक्ल जी से पूछा जाये कि ऐसा कैसे कहते हैं कि देश में अराजकता और अस्तव्यस्तता को झेलने की असाधारण क्षमता है तथा भविष्य में किसी बदलाव के आसार नजर नहीं आते। पूछने पर शुक्लजी ने अपनी बात साफ की- देश में आठवीं सदी के बाद हर्षवर्धन के बाद से लेकर अकबर के समय तक (लगभग ६ शताब्दी) पूरे देश में अफरा-तफरी मची रही। लोग आते-जाते ,लूट-पाट करते रहे। बसते-उजड़ते रहे।छोटे-छोटे राजा,रजवाड़े जिनकी कभी भी समन्वयक दृष्टि नहीं रही।फिर अकबर ,जहाँगीर,शाहजहाँ,औरंगजेब के बाद से आजादी की पहली लड़ाई तक भी(लगभग २ शताब्दी) पूरे देश में किसी का अखंड राज्य नहीं रहा। जनता भगवान भरोसे जीती रही। तमाम दैवीय मानवीय आपदायें झेलती रहीं । कहीं किसी जगह से बदलाव के सामूहिम सार्थक प्रयास नहीं हुये। इसीलिये मेरा मानना है कि हमारे देश में अराजकता और अस्तव्यस्तता को झेलने की असाधारण क्षमता है तथा भविष्य में किसी बदलाव के आसार नजर नहीं आते।
अतीत की बात प्रथम दृश्ट्या सच लगते हुये भी भविष्य भी अतीत जैसा ही मानने का मन नहीं होता। पर विसंगतियां हैं कि मुँह बिराती हैं। कहती है कि कहाँ तक मुंह चुराओगे सच से। देखा जाये तो विसंगतियां हर समाज का हिस्सा होती हैं। सन् ३० के दशक में शायद बालकृण्ण शर्मा ‘नवीन’ ने लिखा था:-
श्वानों को मिलता दूध भात,भूखे बच्चे अकुलाते हैं,
माँ की छाती से चिपक,ठिठुर जाड़े की रात बिताते हैं।
उस समय के कवि की कूवत रही होगी की वह यह देखकर दुनिया में आग लगाने की सोचने लगता था। समय के साथ यह कूवत कम होती गयी तथा कवि गीत-फ़रोश बनने पर मजबूर हो गया:-
यह गीत भूख और प्यास भगाता है,
जी यह मसान में भूत जगाता है,
यह गीत भुवाली की है हवा हुजूर,
यह गीत तपेदिक की है दवा हुजूर,
जी और गीत भी हैं दिखलाता हूँ,
जी सुनना चाहें आप तो गाता हूँ।
समाज में विसंगतियां बढ़ती जा बढ़ती जा रही हैं। अनगिनत उदाहरण हैं। हम भूखे नंगे देश हैं। खाये-पिये-अघाये का अनुकरण कर रहे हैं। जब मै ‘हम’ की बात कर रहा हूं तो उसमें देश का बहुसंख्यक तबका शामिल है जिसके खाने-पीने-जीने की स्थितियां दिन पर दिन भयावह होती जा रही हैं।
यह वह तबका है जिसे यह पता नहीं कि कैसे हालात सुधरेंगे। जैसे-तैसे दिन काटना ,बस जिये-जिये रहना। इन्ही की बात शायद मेराज़ फैजाबादी कहते हैं जब वे कहते हैं:-
चाँद से कह दो अभी मत निकल,
अभी ईद के लिये तैयार नहीं हैं हम लोग।
तथा
मुझे थकने नहीं देता जरूरत का पहाड़,
मेरे बच्चे मुझे बूढ़ा नहीं होने देते ।
अजब माज़रा है कि हमारी ज़रूरते दूसरे तय कर रहे हैं। वे -जिनको हमारे सुख-दुख से कोई मतलब नहीं। एक विज्ञापन में दिखाया जाता है कि लंबी लाइन लगी है। पी.एस.पी.यू.पंखा खरीदने के लिये। एक नया आदमी पूछता है कि ये पी.एस.पी.यू.क्या होता है ? तो वहीं पहले से लगा आदमी भागता,चिल्लाता हुआ कहता है-ये पी. एस. पी. यू. नहीं जानताऽऽऽ। घबराकर वह आदमी भी लाइन में लग जाता है यह कहते हुये कि मैं तो मजाक कर रहा रहा था। यह बाजार का आतंक है जो आदमी की जरूरते तय कर रहा है। पैसे नहीं हैं कोई बात नहीं लोन तो है ही।ले लो लोन हम तुम्हें खुशहाल बना के ही छोड़ेंगे।
बहुत दिन नहीं हुये जब हमारी बुजुर्ग पीढ़ी अपनी शादी के सूट को बुढ़ापे तक पहनती थी। आज हालात में सुधार आया है। अब हम एक पार्टी में पहनी हुयी शर्ट दूसरी पार्टी में पहन के जाने की हिम्मत नहीं कर पाते। कहा जाता है-पिछली पार्टी में भी तो यही पहनी थी। विकसित देशों में शायद मामला और आगे है -सुना है वहां के लोग हर पार्टी में साथी बदल लेते हैं।
दुनिया का लगभग हर देश कई शताब्दियों में एक साथ जी रहा है। हमारा देश चूंकि ज्यादा विभिन्नतायें समेटे है लिहाजा यहां शताब्दियों का कोलाज ज्यादा बड़ा है। यदि किसी इमरानाको पांच बच्चे जन चुके पति को बेटा मानने का हुक्म पंचायते सुनाती हैं तो वहीं लड़कियां दूल्हे की हरकतों से झुब्ध होकर बारात दरवाजे से लौटाने की हिम्मत भी दिखा रही हैं। दंगों के दौरान अगर चोटी,खतना देखकर मारने तथा धर्म का प्रसार करने की मनोवृत्ति लौट रही है तो वहीं जानपर खेलकर लोगों को बचाने का जुनून भी पीछे नहीं है।अंधेरे बढ़ते जा रहे हैं, हालात बदतर होते जा रहे हैं लेकिन कुछ रोशनियां भी अक्सर दिखाई देती हैं जो सारे अंधेरे की बत्तियां गुल कर देती हैं।
देश की बिडम्बना है कि आम आदमी शिदृत से बदलाव की जरूरत नहीं महसूस करता। तथा जो मध्यवर्ग यह समझ जगा सकता है वह अपने में, बीबी बच्चों में मस्त हैं । उससे भी और बुद्दिमान जो लोग हैं वे इस पचड़े में भी नहीं पड़ते। बहुत ज्यादा बुद्धि अक्सर निष्क्रियता ,अलाली, यथास्थितिवाद की गोद में जा बैठती है।कुछ ऐसे ही बुद्धिमान लोगोंसे राष्ट्रपति महोदय पूछते हैं आप देश के लिये क्या कर रहे हैं?
हर समाज का बहुसंख्यक समुदाय पिछलग्गू होता है। वह देखा-देखी काम करता है। उसे अगर प्रगति के पथ पर चलने वाले लोग दिखेंगे तो वे उधर भी चलेंगे। पर आदर्श प्रस्तुत करते समय खालिस लखनौवे हो जाते हैं-पहले आप,पहले आप।इसी में गाड़ी छूट जाती है।नेता लोकसेवक को दोष दे रहा है,लोकसेवक कहता है कि सारी गड़बड़ी राजनेता करता है देश में,जनता बेचारी समझ नहीं पा रही है माज़रा क्या है?
ऐसा नहीं कि लोग परेशान न हों ।लोग परेशान है मगर आराम के साथ ।बकौल अकबर इलाहाबादी:-
कौन से डर से खाते हैं डिनर हुक्काम के साथ,
रंज लीडर को बहुत है मगर आराम के साथ।
माज़रा यह हैं कि सही स्थिति का अन्दाजा उसे भी नहीं हो रहा है जो इस झमेले में फंसा है,लिहाजा परिवर्तन के लिये कोई आवाज नहीं उठती।बकौल कन्हैयालालनंदन:-
वो जो दिख रही है किश्ती ,इसी झील से गई है,
पानी में आग क्या है, उसे कुछ पता नहीं है।
वही पेड़ ,शाख ,पत्ते, वही गुल -वही परिंदे,
एक हवा सी चल गई है ,कोई बोलता नहीं है।
इतिहास जैसा भी हो लेकिन मेरा यह मानने का मन नहीं करता कि भविष्य भी वैसा ही होगा। कोई गणित नहीं होता प्रगति का।कोई एकिक नियम नहीं होता कि सौ साल में दस कदम चले तो दो सौ साल में बीस कदम चलेंगे। मेधा किसी कौम की बांदी नहीं होती। मेरा मानना है कि लगन तथा मेहनत किसी भी कमी को पूरा कर सकते हैं। मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि दो व्यक्तियों ,कौमों में उन्नीस-बीस,पंद्रह-सोलह का अंतर हो सकता है सौ-दो सौ का अंतर कभी नहीं होता । जो यह मानता है वह मेहनत ,लगन,समर्पण की ताकत से बेवाकिफ है।
मेरा तो मानना है कि हम जहां हैं जिस स्थिति में हैं वहीं से जो ठीक समझते हैं वह करते रहें । बहुत छोटी कोशिशें न जाने कब बड़ी सफलताओं में बदल जायें। काफिले की शुरुआत भी अकेले से ही होती है। सफलता -असफलता का मूल्यांकन आगे आने वाला समय करेगा। अभी न कुछ शुरु किया तो जिंदगी बीत जायेगी सोचते-सोचते -माज़रा क्या है?
मेरी पसंद
आइए,टाइम पास करते हैं
दीवारों से बात करते हैं
सितारों से बात करते हैं
केरल के मछुवारों से बात करते हैं
आप थक गये हैं तो कहिये
दिल्ली के गद्दारों से बात करते हैं।
हावर्ड युनिवर्सिटी से सीखकर आते हैं
कुछ लोग
वतनफरोशी का अर्थशास्त्र
क्यों हो जाती है अचानक रसोई गैस मंहगी
और मोटरकार सस्ती
आइये वित्तमंत्री की भाषा में बात करते हैं।
मैं जानता हूं
आपको नींद नहीं आती
बहुत खतरनाक होती है
नींद की बीमारी
उससे भी ज्यादा
खतरनाक होती है भूख
अगर आपको कोई खास एतराज न हो
आइए,आज भूख पर बात करते हैं।
प्रकृति में कितने रहस्य हैं
और हिंदुस्तान में कितने समाजवाद
इस पर बात करते हैं
पता नहीं
कैसा लगता होगा
कालाहांडी में ढलती शाम का दृश्य
कलकत्ता को सिंगापुर बनाने वाले
अंग्रेजों को फिर से बुलाने वाले
बंगाल के कम्युनिस्टों से बात करते हैं।
बातें करने के लिये बहुत हैं ,मेरे भाई!
वकील साहब की फीस
खजुराहो में कैसीनो
दुबई के फोन
करोड़पति लेखक
न समझ में आने वाली कवितायें
उत्तरप्रदेश के डाकू
बिहार के विधायक
आजादी का जश्न
पसंद आपकी,धीरज आपका
जब तक आप चाहें,बाते करते हैं।
बात ही तो करनी है
खौफ में डूबे हुये शख्स की
कर्ज में डूबे मुल्क की
जितना चाहें,उतनी बात करते हैं
आप चाहें तोदबी जुबान में बात करते हैं
आप चाहें तो इन्टरनेट पर बात करते हैं
आइये ,टाइम पास करते हैं
चलिये अच्छा ईश्वर पर बात करते हैं।
–अक्षय जैन,मुंबई
Posted in अनुगूंज | 8 Responses
आप हकीकत जानते ही हो, और शानदार तरीके से लिखे, वैसे ही दुखी मन से जैसे की मैंने; फिर आखिरी पेरे में इधर आशावाद का पोछा लगा कर उधर मुझे कहते हो स्वामी तुम ऊल्-जूलूल पेले!
ये क्या माजरा है? माजरा नही है गोरखधंधा है!! आपने वो रिपोर्टें पढीं जिनकी कडियां मैंने दी थीं – मैंने जो भी कहा वो उन जैसी शोध की रिपोर्ट्स के आधार पर कहा , मनगढंत नही!
आप मुझे एक बात बताईये – हमारे देश मे अरेन्ज्ड शादी-ब्याह के समय परिवार-खानदान देखा जाता है – तो क्या देखते है बडे-बुजुर्ग? भई जिनेटिकल पेटर्न, बिहेवियरल पेटर्न ही तो देखते हो ना! वही मैं भी बोल रहा हूँ – अपनी देसी जीन में थोडी बहुत काम चलाउ अक्ल है पर उसके इस्तेमाल की भी तमीज नही है, इतिहास का पेटर्न देखो ना आप!
पहले भी कुछ प्रबंधन, प्रशासन की तमीज गोरे सिखा के गए और आगे भी वो बाहर के देखा देखी ही सीखी जाएगी. खरबूजे को देख के खरबूजा रंग बदलेगा – अपनी भली निबेडने की तमीज भी जो है ना, वो भी पिछलग्गुगिरी से ही आएगी – आ रही है! अपनी भाषा से प्रेम ये देख कर आएगा की वो उनकी भाषा से कितना प्रेम करते हैं – यह प्रतिक्रियात्मक भलाई है बहुत हद तक! ये जितने भी नए सुधार हो रहे हैं ना वो बहुत हद तक बाहर के देखा देखी मे हैं! अब हर घर से एक-आध पुत्तर इधर H1/B1/L1 visa पे कंप्युटर संभाल बैठा है तो हवा तो लगेगी ना उधर कुछ!
मै बाजारवाद का हिमायती नहीं हूँ पर आज के समय में बाजारों पर पकड ही कौमों के पुरुषार्थ का पैमाना है – हमारी मर्दानगी देखो, अपना काम करने के लिए भी रिश्वत लेता है भारतीय, पूरे हक के साथ. भारतीय २१,००० करोड सालाना रिश्वत देते हैं. आज की खबर है.
कोई भी समझदार कौम ऐसी घटिया हरकत करेगी बताईये? attitude, approach, जीवन मे कुछ कर गुजरने की तमीज एक दिशा देने का बल भी कोई चीज होती है – हम मे नही है! ज्यादा दिन नही हुए जब बिहार में IITian इन्जीनियर को जान से मार दिया गया था. बहुत इज्जत होती है पढे लिखों की – है ना? और अगर कभी गलती से होने लगे तो उनके अहं से खुदा डर जाए! २ कौडी का काम करेंगे और २ दिन का समारोह कर के लोकार्पण होगा हिंदी फाण्ट्स का! हद्द है यार.
पूत के पाँव तो पालने मे दिख जाते हैं – हमरे नेहरु और जिन्ना ने ही भविष्य का ट्रेलर दिखा दिया था आगे क्या हुआ वो आपने हम से ज्यादा देखा भोगा है!
हम मे अकल है ये बात किसी दिन जर्मनी या जापान वाले को बोलने दो, जिस दिन कोई मर्सीडीज/बीएमडब्लू या सोनी/होंडा बनायेगा देसी और दुनिया में झण्डे गाड देंगे उत्पाद – मान लेंगें कुछ दम है. जिस दिन निंबुपानी का कोई ब्राण्ड कोका-कोला की टक्कर में अमरीका में उतार देंगे और उनके गले में नीचे भी – मान लूँगा. अभी तो दो दिन में १ बार २० मिनट पानी आता है भारत में और तीस पर भी जनता शुक्र मनाती है!
आपका ये टिपिकल भारतीय आशावाद मेरी समझ और तार्किकता के परे है – खोपडी के टोटली बाहर की चीज है! आप यथार्थपरक और विश्लेषक होते हुए किस आधार पर इतने आशावान हो की हम बिना बाहर से कुछ गुर सीखे ही आगे बढ लेंगे? मुझे तो नही लगता!
मेरी सारी बातें तार्किक भी नहीं हैं .काफी कुछ भावना पर आधारित है.लेकिन
भइये मैं यह मानने के लिये बिल्कुल तैयार नहीं हो पाता कि मेधा किसी खास कौम में इफरात में होती है तथा कहीं बिल्कुल सन्नाटा होता है.समूह में हम जुट के काम नहीं कर पा रहें है उसके तमाम कारण होँगे-पर कम से कम बुद्धि
की कमी तो बिल्कुल नहीं . न हो तो तुलना करके बताना किसी आम अमेरिकी
से कितने गुना कम है तुम्हारी बुद्दि उनसे.बिहार की बात मैँने जो बताई कि
वहां विसंगतियां सबसे ज्यादा हैं तो उनसे जूझने का माद्दा रखने वाले भी सबसे
ज्यादा लोग भी हैं.जो मारा गया गया वह भी बिहारी था.जानता था कि शायद मार दिया जाउं फिर भी भगा नहीं.किसी मेट्रोपालिटन का होता तो बाल-बाल
बचने की कहानियां लिख रहा होता.पहले भी जे.एन्.यू.का जहीन छात्रनेता खुले
आम मारा गया .उसकी मां ने खुला पत्र लिखकर मुख्यमंत्री के दिये पैसे लौटा
दिये यह कहकर कि जिस गुंडे ने मेरे लडके को मारा/मरवाया वह जिस सरकार
मेँ मंत्री है उससे मैं पैसे लेकर अपने इकलौते बेटे की शहादत का सौदा नहीं कर्
सकती.किसी से सीखने-सिखाने के लिये सहायता लेना अलग बात है लेकिन
अपने को हर तरह से दबा-कुचला मानते हुये सहायता के लिये रिरियाना नहीं
समझ में आता अपुन को स्वामीजी.बंधुवर तुम्हारे अध्ययन की तारीफ
करते हुये यह अर्ज करना चाहता हूं कि दो अलग-अलग समाजों की तुलना
करना अक्सर भ्रामक होता है.सारे पैरामीटर समान नहीं होते.जिस समाज की जो जरूरतें होती हैं उस् तरफ उसका ध्यान जाता है.कोई देश दूसरे देश पर कब्जा उसके उद्दार के लिये नहीं करता.हमारे देश का इतिहास तो इतिहास हो चुका लेकिन अफगानिस्तान,ईरान तो कल की बात है.क्या वहां बहुत विकास हो गया? जिस २१००० करोङ की बात बतायी तुमने वह भी उन्हीं बुद्दिमान लोगों की व्यवस्था की देन है जो लोग हमारा सिस्ट्म सुधारने आये थे जिसे हमारे देश के सबसे मेधावी लोग चला रहें हैं.वास्तव में इस देश का सबसे ज्यादा कबाडा देश के सबसे ज्यादा मेधावी लोगों ने किया है. असमर्पित,असंम्पृक्त,रीढहीन ,बेइमान मेधा लूट रही है देश को.ईमानदार मेधा इंतजार कर रही है कि हालात सुधरें तब देश के लिये कुछ किया जाये.ऐसे जानजोखिम में डालना ठीक नहीं.बहरहाल फिलहाल इतना ही.यह अच्छा लगा कि हमें इतना लिखने के लिये मजबूर किया तुमने.आगे तर्क के साथ साथ तथा तुम्हारे दिये लिंक पढने के बाद फिर लिखने का सुयोग बनेगा. पर यह तय है कि मैं किसी भी तर्क से यह मानने में शायद सफल न हो पाऊं कि बुद्दि
कौमों रेसों के हिसाब से बटती है.
अनुनाद
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