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अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।
कल रात मेरी साइकिल
सपने में आई और मुझे फटकारते हुये बोली- हमें रास्ते में खड़ा करके कहां
घूम रहे हो? जब ठीक से चला नहीं सकते तो शुरु क्यों किया चलाना ? मुझे लगा
जैसे कोई कर्कशा पत्नी ताना मार रही हो जब खिला नहीं सकते तो शादी क्यों की
थी? या जब पाल नहीं सकते तो पैदा क्यों किये थे बच्चे?
मैंने कहा-साइकिल जी, आपका गुस्सा जायज है। लेकिन आप नाराज न हों।मैं अब नियमित रूप से यायावरी के किस्से लिखूंगा। साइकिल पसीज सी गई। थोड़ा नरम लहजे में , दूध में पानी की तरह,अपनापा मिलाकर बोली-लेकिन समस्या क्या है ? तुम इतने ढीले तो कभी न थे कि सारा मसाला सोचकर भी लिख नहीं रहे हो?
मैंने बताया कि कालेज की यादें इतनी ज्यादा हैं कि समझ में नहीं आता क्या भूलूं क्या याद करूं? किसको छांटू,किसको बांटू। बहरहाल अब आगे शिकायत का मौका नहीं दूंगा।
साइकिल संतुष्ट होकर चुनाव के बाद नेता की तरह सपने से गायब हो गई।हमने अपनी यादों की पोटली से यादें टटोलना शुरु किया। सारी यादें गड्ड-मड्ड एक दूसरे से गुंथी थीं। ऐसे में छांटना मुश्किल लेकिन कोशिश करने में हर्जा क्या?
इलाहाबाद में हमारे लिये एक नई दुनिया खुल गई थी। नये लोग,नया माहौल। सब कुछ लागे नया-नया। कुछ ही दिन में अंदाजा लग गया कि यहां फेल होना बहुत मुश्किल काम है। कुछ दिन तक हम पढ़ाई से लौ लगाने का प्रयास करते रहे लेकिन ये प्रेमसंबंध बहुत जल्द ही टूट गये। पढ़ाई में चुनौतियां कम होती गईं। जो क्लास में पढ़ाया जाता वही परीक्षा में आता। रोमांच तथा अप्रत्याशितता कम होती गई।
कालेज में फेल होना होना बहुत मुश्किल था फिर भी कुछ लोग होते हैं जो असंभव को संभव कर दिखाते हैं।हमारे दोस्त मृगांक अग्रवाल जो कि आजकल यू.पी.एस.आर.टी.सी. में अधिकारी हैं, हापुड़ में बसें चलवाते हैं, प्रथम वर्ष में ९ में से ६ विषयों में फेल थे। उन दिनों ६ विषयों में फेल छात्र सप्लीमेंट्री परीक्षा दे सकता था। मृगांक ने परीक्षा दी और छहों विषय में पास हुये।
कुछ दिन पहले यादें यादें दोहराते हुये मृगांक बता रहे थे कि जब वो गर्मी की छुट्टियों में हास्टल में सप्लीमेंट्री परीक्षा की तैयारी कर रहे थे तो वायदे के अनुसार मैं उनको घर से रोज एक पत्र पोस्टकार्ड हौसला बढ़ाने के लिये लिखता था। एक दिन चाय पीने के लिये एक रुपये का नोट भेजा था । वणिक पुत्र ने वो नोट खर्च नहीं किया। आज तक सहेज कर रखा है।
इलाहाबाद की यादों में कालेज और पढ़ाई का हस्तक्षेप बहुत कम है। ज्यादातर हिस्सा हास्टल की यादों से घिरा है। हास्टल की जिंदगी गूंगे का गुड़ होती है। जो रहा है वही समझ सकता है इसका आनंद। बाकी केवल कल्पना कर सकते हैं।
हमारे यहां मेस लड़के चलाते थे। जो लड़के कल तक अपना खाना खुद नहीं खा पाते रहे होंगे वो तीस-चालीस लड़कों के खाने के इन्तजाम वाली मेस चलाते। मेस भी कालेज की तरह मिनी इंडिया थी। जाट मेस,बिहारी मेस, अन्ना मेस, बंगाली मेस,और न जाने कौन कौन सी मेस। १००० हजार लड़कों के लिये सारी मेसें सारी मेस एक छत के नीचे। किसी को अपनी मेस में कुछ पसंद नहीं आ रहा तप बगल की मेस से कुछ आ गया। एक दरवाजे से शुरु करके दूसरे से निकलने तक किसी न किसी कोने से कुछ न कुछ खाने का निमंत्रण लोगों की गति में फरक जरूर डालता।
अभी इस बार जब जाकर देखा तो पाया कि मेस का बड़ा हाल दो भागों में बांट दिया है। बीच में दीवार देखकर बहुत दुख हुआ। यह दुख कुछ उसी वर्ग का था जिस वर्ग का दुख महात्मा गांधी को हिंदुस्तान का बंटवारा होने पर हुआ होगा।
फिर बाहर दुकाने थीं । चाय-नास्ते की। लड़के देर रात तक लकड़ी की बेंचों को पांव के नीचे कैंची की तरह फंसाये चाय सुड़कते रहते। काफी देर हो जाने पर मन मारकर उठना पड़ता तो अक्सर ऐसा होता कि कमरे तक पहुंचने के पहले ही कोई दूसरा ग्रुप आपको दुबारा उसी दुकान में ले आता।
रैगिंग के दौरान सीखे हुये कुछ अलिखित नियम भी अमल में आने लगे थे। अगर सीनियर, जूनियर के साथ चाय-नास्ता-खाना करेगा तो खर्चे का जिम्मा सीनियर का ही होगा। अधिकांशतया लोग लोग इसे अमल में लाते।
हम मस्ती में जी रहे थे। तमाम खुराफातें को देख रहे थे। अश्लील साहित्य से भी वहीं रूबरू हुये। जम के पढ़ागया। इतना कि अब मन ही नहीं करता उधर देखने का।
इस अश्लील साहित्य की विरतण व्यवस्था बड़ी निर्दोष, त्रुटिहीन थी। ओलम्पिक मशाल की तरह एक कमरे से दूसरे कमरे होते हुये हास्टल दर हास्टल टहल आता साहित्य। रात को कोई बालक दरवाजा खटखटा कर साहित्य ऐसे मांगता जैसे आजकल लोग पड़ोसी से बुखार ,सरदर्द होने पर ‘पैरासिटामाल’ मांगते हैं।उपलब्धता पर इंकार का चलन उन दिनो नहीं था।
पढ़ाकू लड़के तक जनवरी तक मस्ती मारते। जनवरी के बाद किताबों की धूल झाड़ते। वहीं कुछ लड़के थे जिनकी जान ही किताबों में बसती थी। रात देर तक पढ़ते या सबेरे जल्दी उठकर पढ़ते। अपनी जिंदगी नरक करे रहते। एक किस्सा बकौल अवस्थी।
जहां तक मुझे याद है उसी साल एक ‘स्पीच थेरेपिस्ट’ ने तमाम हकलाने वाले लोगों को फर्राटे से बोलना सिखाया। मनोज भी उनमें से एक थे। जहां मन किया वहां ये लोग माइक लगा कर जोर-जोर से बोलने का अभ्यास करते। हकले लोग हकलाने का,उल्टा-पुल्टा बोलने का अभ्यास करते।कुछ दिन में बहुतों की हकलाहट बहुत कुछ खतम हो गई थी। अभ्यास ने हिचक तथा आत्मविश्वासहीनता खत्म कर दी।
पहले साल हम तिलक हास्टल में रहते थे। बगल में मेस। सामने क्लब। तथा थोड़ी दूर पर ‘मोनेरेको ट्रायेंगल’ । ये ‘मोनेरेको ट्रायेंगल’ हमारा अकाल तख्त था। जिसको कालेज जाने का मन नहीं करता वह अपना मिनीड्राफ्टर लहराता हुआ पहले पहुंच आ जाता वहां तथा क्लास बंक करने का प्रस्ताव रखता। आम तौर पर यह प्रस्ताव स्वीकृत हो जाता जैसे सांसदों के भत्ते हो जाते हैं। क्लास की तरफ बढ़ते कदम चाय की दुकान की तरफ बढ़ जाते। पढ़ाकू बच्चे भुनभुनाते हुये कमरों में अपने को कैद करके किताबों में डूब जाते। क्लास बंकिग के भी तीन रूप प्रचलित थे। पीएफ,जीएफ,बीएफ। पीएफ माने पर्सनल फूटिंग ,जीएफ माने जनरल(क्लास) फूटिंग तथा बीएफ माने बंपर फूटिंग(कालेज बंद)। जाहिर है जीएफ तथा बीएफ में कुछ मेहनत पड़ती। नेताओं की रैलियों की तरह तमाम इंतजाम करने पड़ते।
इसके अलावा भी यह त्रिभुज एक ऐसी जगह थी जाहें सारे महत्वपूर्ण निर्णय लिये जाते। यहीं से सारे हास्टल के रास्ते कालेज की तरफ जाते थे। लिहाजा यहां चौपाल करना ज्यादा आसान रहता। यह जगह का प्रताप था कि यहां लिये निर्णय मान्य होते।
पिछली यात्रा में देखा कि इस सर्वशक्तिमान त्रिभुज की छाती के ऊपर नोटिस बोर्ड सा लग गया है। तो मन खट्टा हो गया । कुछ ऐसा ही लगा जैसा लेनिन को मास्को में अपनी गिरी मूर्ति देख कर लगता। वहीं बगल में ‘ मोनेरेकन पौरुष’ का गर्वोन्नत प्रतीक पेड़ का तना भी कट गया था। हमें राम द्वारा शिवधनुषभंग के बाद धनुष को गले से चिपटा कर विलाप करते परशुराम याद आये:-
विनय के परिवार का परिवेश साहित्यिक-सांस्कृतिक था। वीररस के सुप्रसिद्ध कवि बृजेन्द्र अवस्थीसे इनके पारिवारिक संबंध थे। उनको बचपन में विनय के पिता ने सहारा दिया था। विनय उनकी कवितायें पूरे मनोयोग से सुनाते। नाटे कद के विनय सिर को झटका देते हुये,आंखे मूंद कर वीर रस की कवितायें सुनाते तो वातावरण झनझना जाता।
लाड़ले होने की जो खूबियां होती हैं उनसे अलंकृत थे विनय। मूडी थे। दिखावे के भी मरीज । प्रदर्शन प्रिय।एक बार परीक्षा के बाद मैं अपनी विंग में पहुंचा तो देखा विनय रेलिंग पर पैर हिला रहे थे। बोले- इतनी देर कैसे हो गयी? हमने कहा -हो गयी। तुम कितनी देर पहले आये। बोले-हम तो चारो सवाल करके आधे घंटे पहले आ गये।हमने कहा कि लेकिन सवाल तो पांच करने थे। पता चला महाराज एक सवाल कम करके आधे घंटे से रेलिंग पर पैर हिला रहे थे।
विनय को सांस की तकलीफ थी। धूल से एलर्जी। जब कभी अटैक होता तबियत बहुत खराब हो जाती। फिर हमारी ‘विंग वालों’ का मार्शल लागू हो जाता इनपर। ये छटपटाते लेकिन शिकंजा मजबूत होता जाता । तभी छूटता जब तबियत सुधर जाती।
एक दिन शनिवार की रात को हम चाय की दुकान पर बैठे थे। तीन-चार चाय हो चुकी थी फिर भी मन कमरे में जाने का हो नहीं रहा था। अचानक ख्याल आया कि कुछ किया जाये। दस मिनट में तय हुआ कि ‘वालमैगजीन‘ निकाली जाये ।दो मिनट में नाम तय हो गया -सृजन।
तुरंत कागज आया। तुरंत लिखना शुरु किया गया। हिंदी में। राइटिंग हम दोनों की ही अच्छी ही थी। कुछ कवितायें लिखीं थी,कुछ कमेंट हास्टल के साथियों के बारे में कुछ कालेज पर। सब कुछ कुल मिलाकर चटर-पटर टाइप का । सबेरे चार बजे करीब मेस के नोटिस बोर्ड पर जाकर चिपका आये।आकर सो गये।
अगला दिन रविवार था। सबेरे देर से उठे।नास्ता करने गये। दूर से ही देखा लोग सृजन को पढ़ रहे थे। कुछ तारीफ कर रहे थे। कुछ कह रहे क्या फालतू का काम है। बहरहाल हम दिन भर मस्त रहे। मजा लेते रहे जब हमारे दोस्त कयास लगा रहे थे कि ये खुराफात है किसकी?कुछ दिन बाद लोगों को पता चल गया। काफी दिन निकालते रहे हम यह साप्ताहिक भित्ति पत्रिका-सृजन।
यह हमारा पहला संयुक्त उद्यम था। आगे अभी और होने थे।
दूसरे वर्ष की परीक्षायें शुरु होने वाली थीं। कक्षायें बंद हो चुकी थीं।बच्चे पढ़ाई में जुटे थे।अचानक हम लोगोंने सोचा कि छुट्टियों में कहीं ट्रेनिंग की जाये।जरूरी कागज पत्र बनवाने के लिये धूप में चलते हुये हास्टल से कालेज गये। वहां इधर-उधर टहलते रहे। जबतक कागज वगैरह बने तबतक हमारे मूड उखड़ चुके थे। गर्मी,देरी संबंधित लोगों के व्यवहार से हम झल्ला गये।तय किया कि अब ट्रेनिंग करने इस साल नहीं जायेंगे। अगले साल जाना अनिवार्य है -तभी जायेंगे।
स्वाभाविक सवाल उठा – तो इस साल क्या करेंगे?
तुरंत तय हुआ -इस साल साइकिल पर भारत भ्रमण किया जाये।
अगले ही क्षण हमने ट्रेनिंग से संबंधित सारे कागज फाड़ दिये।
हास्टल की तरफ लौटते हुये हम, आसन्न परीक्षाओं से बेखबर,भारत भ्रमण की योजनाओं में डूब गये थे।
सुनील दीपक जी की तर्ज पर हम भी आज एक तस्वीर दे रहे हैं।जब मैं कार में बैठा अपने लैपटाप पर इतवार चौपट होने के अफसोस से उबरने के लिये यह लेख टाइप कर रहा था,तब हमारे छोटे सुपुत्र अनन्य स्थानीय अर्पिता महिला मंडल द्वारा आयोजित कला प्रतियोगिता में हाथ आजमा रहे थे। मेरा लेख तो आपने पढ़ लिया अब अनन्य को उसकी कलाकारी के साथ देखिये जिसपर उसको पहला पुरुस्कार भी मिला जिसने कि हमारे ‘इतवारी अफसोस’ की खटिया खड़ी कर दी।
जर्रे हैं शैलराट चलो वंदना करें।
माली को वायरल,कलियों को जीर्णज्वर,
कागज के फूल वृंतों पर बैठें हैं सज-संवर,
आंधी मलयसमीर का ओढ़े हुये खिताब,
निर्द्वन्द व्यवस्था ने अपहृत किये गुलाब,
निरुपाय हुये आज अपने ही उपवन में ,
कांटे हुये एलाट चलो वंदना करें।
था प्रश्न हर ज्वलंत किंतु टालते रहे,
उफ!धार में होने का भरम पालते रहे,
पतवार,पाल,नाव सभी अस्त-व्यस्त हैं,
इस भांति सिंधु थाहने का पथ प्रशस्त है,
उपलब्धियों के वर्ष,दिवस जोड़ते रहे,
देखा तो नहीं धार चलो वंदना करें।
वामन हुये विराट चलो वंदना करें,
जर्रे हैं शैलराट चलो वंदना करें।
-अजय गुप्त,शाहजहांपुर।
मैंने कहा-साइकिल जी, आपका गुस्सा जायज है। लेकिन आप नाराज न हों।मैं अब नियमित रूप से यायावरी के किस्से लिखूंगा। साइकिल पसीज सी गई। थोड़ा नरम लहजे में , दूध में पानी की तरह,अपनापा मिलाकर बोली-लेकिन समस्या क्या है ? तुम इतने ढीले तो कभी न थे कि सारा मसाला सोचकर भी लिख नहीं रहे हो?
मैंने बताया कि कालेज की यादें इतनी ज्यादा हैं कि समझ में नहीं आता क्या भूलूं क्या याद करूं? किसको छांटू,किसको बांटू। बहरहाल अब आगे शिकायत का मौका नहीं दूंगा।
साइकिल संतुष्ट होकर चुनाव के बाद नेता की तरह सपने से गायब हो गई।हमने अपनी यादों की पोटली से यादें टटोलना शुरु किया। सारी यादें गड्ड-मड्ड एक दूसरे से गुंथी थीं। ऐसे में छांटना मुश्किल लेकिन कोशिश करने में हर्जा क्या?
इलाहाबाद में हमारे लिये एक नई दुनिया खुल गई थी। नये लोग,नया माहौल। सब कुछ लागे नया-नया। कुछ ही दिन में अंदाजा लग गया कि यहां फेल होना बहुत मुश्किल काम है। कुछ दिन तक हम पढ़ाई से लौ लगाने का प्रयास करते रहे लेकिन ये प्रेमसंबंध बहुत जल्द ही टूट गये। पढ़ाई में चुनौतियां कम होती गईं। जो क्लास में पढ़ाया जाता वही परीक्षा में आता। रोमांच तथा अप्रत्याशितता कम होती गई।
कालेज में फेल होना होना बहुत मुश्किल था फिर भी कुछ लोग होते हैं जो असंभव को संभव कर दिखाते हैं।हमारे दोस्त मृगांक अग्रवाल जो कि आजकल यू.पी.एस.आर.टी.सी. में अधिकारी हैं, हापुड़ में बसें चलवाते हैं, प्रथम वर्ष में ९ में से ६ विषयों में फेल थे। उन दिनों ६ विषयों में फेल छात्र सप्लीमेंट्री परीक्षा दे सकता था। मृगांक ने परीक्षा दी और छहों विषय में पास हुये।
कुछ दिन पहले यादें यादें दोहराते हुये मृगांक बता रहे थे कि जब वो गर्मी की छुट्टियों में हास्टल में सप्लीमेंट्री परीक्षा की तैयारी कर रहे थे तो वायदे के अनुसार मैं उनको घर से रोज एक पत्र पोस्टकार्ड हौसला बढ़ाने के लिये लिखता था। एक दिन चाय पीने के लिये एक रुपये का नोट भेजा था । वणिक पुत्र ने वो नोट खर्च नहीं किया। आज तक सहेज कर रखा है।
इलाहाबाद की यादों में कालेज और पढ़ाई का हस्तक्षेप बहुत कम है। ज्यादातर हिस्सा हास्टल की यादों से घिरा है। हास्टल की जिंदगी गूंगे का गुड़ होती है। जो रहा है वही समझ सकता है इसका आनंद। बाकी केवल कल्पना कर सकते हैं।
हमारे यहां मेस लड़के चलाते थे। जो लड़के कल तक अपना खाना खुद नहीं खा पाते रहे होंगे वो तीस-चालीस लड़कों के खाने के इन्तजाम वाली मेस चलाते। मेस भी कालेज की तरह मिनी इंडिया थी। जाट मेस,बिहारी मेस, अन्ना मेस, बंगाली मेस,और न जाने कौन कौन सी मेस। १००० हजार लड़कों के लिये सारी मेसें सारी मेस एक छत के नीचे। किसी को अपनी मेस में कुछ पसंद नहीं आ रहा तप बगल की मेस से कुछ आ गया। एक दरवाजे से शुरु करके दूसरे से निकलने तक किसी न किसी कोने से कुछ न कुछ खाने का निमंत्रण लोगों की गति में फरक जरूर डालता।
अभी इस बार जब जाकर देखा तो पाया कि मेस का बड़ा हाल दो भागों में बांट दिया है। बीच में दीवार देखकर बहुत दुख हुआ। यह दुख कुछ उसी वर्ग का था जिस वर्ग का दुख महात्मा गांधी को हिंदुस्तान का बंटवारा होने पर हुआ होगा।
फिर बाहर दुकाने थीं । चाय-नास्ते की। लड़के देर रात तक लकड़ी की बेंचों को पांव के नीचे कैंची की तरह फंसाये चाय सुड़कते रहते। काफी देर हो जाने पर मन मारकर उठना पड़ता तो अक्सर ऐसा होता कि कमरे तक पहुंचने के पहले ही कोई दूसरा ग्रुप आपको दुबारा उसी दुकान में ले आता।
रैगिंग के दौरान सीखे हुये कुछ अलिखित नियम भी अमल में आने लगे थे। अगर सीनियर, जूनियर के साथ चाय-नास्ता-खाना करेगा तो खर्चे का जिम्मा सीनियर का ही होगा। अधिकांशतया लोग लोग इसे अमल में लाते।
हम मस्ती में जी रहे थे। तमाम खुराफातें को देख रहे थे। अश्लील साहित्य से भी वहीं रूबरू हुये। जम के पढ़ागया। इतना कि अब मन ही नहीं करता उधर देखने का।
इस अश्लील साहित्य की विरतण व्यवस्था बड़ी निर्दोष, त्रुटिहीन थी। ओलम्पिक मशाल की तरह एक कमरे से दूसरे कमरे होते हुये हास्टल दर हास्टल टहल आता साहित्य। रात को कोई बालक दरवाजा खटखटा कर साहित्य ऐसे मांगता जैसे आजकल लोग पड़ोसी से बुखार ,सरदर्द होने पर ‘पैरासिटामाल’ मांगते हैं।उपलब्धता पर इंकार का चलन उन दिनो नहीं था।
पढ़ाकू लड़के तक जनवरी तक मस्ती मारते। जनवरी के बाद किताबों की धूल झाड़ते। वहीं कुछ लड़के थे जिनकी जान ही किताबों में बसती थी। रात देर तक पढ़ते या सबेरे जल्दी उठकर पढ़ते। अपनी जिंदगी नरक करे रहते। एक किस्सा बकौल अवस्थी।
एक रात को सुरेंद्र गुप्ता जल्दी सो गये जुगनू गुप्ता से यह कहकर कि तुम सबेरे तक पढ़ोगे । चार बजे जब सोने लगना तब मुझे जगा देना। रात को बारह बजे करीब कमरे में सरसराहट हुई तो सुरेंद्र गुप्ता की नींद खुली। देखा एक पर्ची दरवाजे नीचे से उनके कमरे में सरक कर आ गयी थी। पर्ची में लिखा था- मैंने तुम्हे जगाने की कोशिश की लेकिन तुम उठे नहीं अब चार बजे मैं सोने जा रहा हूं-जुगनू। (अवस्थी पुष्टि करें या सुधारें)दूसरा किस्सा भी अवस्थी के मुंह से फिर से सुना गया :
मनोज अग्रवाल हकलाते थे- खासतौर से ‘ म’ बोलने में । रैगिंग पीरीयड के दौरान उनको एक सीनियर ने साइकिल पर बैठा लिया कि नाम पता पूछ लेने के बाद छोड़ देंगे। अवस्थी को लगा कि कुछ देर में लौट आयेगा मनोज।पता चला सीनियर ने कोई वायदा खिलाफी नहीं की थी। उसने केवल नाम ,शहर का नाम तथा स्कूल का नाम पूछने के बाद छोड़ दिया था। अब यह संयोग है कि मनोज अग्रवाल,मुजफ्फरपुर के महात्मा गांधी इंटर कालेज से पढ़े थे। ‘म’ बोलने में हकलाते हकलाने वाले मनोज,’म’ के चक्रव्यूह में फंसे रहे बहुत देर।
काफी देर बाद भी जब नहीं लौटे तो अवस्थी लौट आये हास्टल। घंटे भर बाद जब मनोज लौटे तो स्वाभाविक रूप में पूछा – इतनी देर कैसे हो गई वो तो कह रहा था कि नाम पूछ के छोड़ देंगे।मनोज भुनभुनाते हुये बोले- साले को नाम के साथ ,शहर तथा स्कूल का नाम पूछने की क्या जरूरत थी?
जहां तक मुझे याद है उसी साल एक ‘स्पीच थेरेपिस्ट’ ने तमाम हकलाने वाले लोगों को फर्राटे से बोलना सिखाया। मनोज भी उनमें से एक थे। जहां मन किया वहां ये लोग माइक लगा कर जोर-जोर से बोलने का अभ्यास करते। हकले लोग हकलाने का,उल्टा-पुल्टा बोलने का अभ्यास करते।कुछ दिन में बहुतों की हकलाहट बहुत कुछ खतम हो गई थी। अभ्यास ने हिचक तथा आत्मविश्वासहीनता खत्म कर दी।
पहले साल हम तिलक हास्टल में रहते थे। बगल में मेस। सामने क्लब। तथा थोड़ी दूर पर ‘मोनेरेको ट्रायेंगल’ । ये ‘मोनेरेको ट्रायेंगल’ हमारा अकाल तख्त था। जिसको कालेज जाने का मन नहीं करता वह अपना मिनीड्राफ्टर लहराता हुआ पहले पहुंच आ जाता वहां तथा क्लास बंक करने का प्रस्ताव रखता। आम तौर पर यह प्रस्ताव स्वीकृत हो जाता जैसे सांसदों के भत्ते हो जाते हैं। क्लास की तरफ बढ़ते कदम चाय की दुकान की तरफ बढ़ जाते। पढ़ाकू बच्चे भुनभुनाते हुये कमरों में अपने को कैद करके किताबों में डूब जाते। क्लास बंकिग के भी तीन रूप प्रचलित थे। पीएफ,जीएफ,बीएफ। पीएफ माने पर्सनल फूटिंग ,जीएफ माने जनरल(क्लास) फूटिंग तथा बीएफ माने बंपर फूटिंग(कालेज बंद)। जाहिर है जीएफ तथा बीएफ में कुछ मेहनत पड़ती। नेताओं की रैलियों की तरह तमाम इंतजाम करने पड़ते।
इसके अलावा भी यह त्रिभुज एक ऐसी जगह थी जाहें सारे महत्वपूर्ण निर्णय लिये जाते। यहीं से सारे हास्टल के रास्ते कालेज की तरफ जाते थे। लिहाजा यहां चौपाल करना ज्यादा आसान रहता। यह जगह का प्रताप था कि यहां लिये निर्णय मान्य होते।
पिछली यात्रा में देखा कि इस सर्वशक्तिमान त्रिभुज की छाती के ऊपर नोटिस बोर्ड सा लग गया है। तो मन खट्टा हो गया । कुछ ऐसा ही लगा जैसा लेनिन को मास्को में अपनी गिरी मूर्ति देख कर लगता। वहीं बगल में ‘ मोनेरेकन पौरुष’ का गर्वोन्नत प्रतीक पेड़ का तना भी कट गया था। हमें राम द्वारा शिवधनुषभंग के बाद धनुष को गले से चिपटा कर विलाप करते परशुराम याद आये:-
आशुतोष के हृदय दुलारे,मैं कमरा नम्बर ५७ में रहता था। ५९ में रहते थे विनय कुमार अवस्थी। विनय नाटे कद के खूबसूरत घुंघराले बाल युक्त सुदर्शन दुबले-पतले बालक थे। ४ बहनों के बाद पैदा हुआ लाड़-प्यार में पला बालक कालेज आने तक अपने पिता को ११ वर्ष की उम्र में खो चुका था। जिस समय तहसीलदार पिता की किडनी फेल होने से मौत हुई ,वे मात्र ४६ साल के थे। बाद में अध्यापिका मां ने अपने छहों बच्चों को पाल-पोसकर,लिखा-पढ़ाकर बड़ा किया।हर तरह से काबिल बनाया।
पार्वती के प्राण पियारे,
यह दुर्गति हो गयी तुम्हारी,
क्या मुझपर विश्वास नहीं था।
विनय के परिवार का परिवेश साहित्यिक-सांस्कृतिक था। वीररस के सुप्रसिद्ध कवि बृजेन्द्र अवस्थीसे इनके पारिवारिक संबंध थे। उनको बचपन में विनय के पिता ने सहारा दिया था। विनय उनकी कवितायें पूरे मनोयोग से सुनाते। नाटे कद के विनय सिर को झटका देते हुये,आंखे मूंद कर वीर रस की कवितायें सुनाते तो वातावरण झनझना जाता।
लाड़ले होने की जो खूबियां होती हैं उनसे अलंकृत थे विनय। मूडी थे। दिखावे के भी मरीज । प्रदर्शन प्रिय।एक बार परीक्षा के बाद मैं अपनी विंग में पहुंचा तो देखा विनय रेलिंग पर पैर हिला रहे थे। बोले- इतनी देर कैसे हो गयी? हमने कहा -हो गयी। तुम कितनी देर पहले आये। बोले-हम तो चारो सवाल करके आधे घंटे पहले आ गये।हमने कहा कि लेकिन सवाल तो पांच करने थे। पता चला महाराज एक सवाल कम करके आधे घंटे से रेलिंग पर पैर हिला रहे थे।
विनय को सांस की तकलीफ थी। धूल से एलर्जी। जब कभी अटैक होता तबियत बहुत खराब हो जाती। फिर हमारी ‘विंग वालों’ का मार्शल लागू हो जाता इनपर। ये छटपटाते लेकिन शिकंजा मजबूत होता जाता । तभी छूटता जब तबियत सुधर जाती।
एक दिन शनिवार की रात को हम चाय की दुकान पर बैठे थे। तीन-चार चाय हो चुकी थी फिर भी मन कमरे में जाने का हो नहीं रहा था। अचानक ख्याल आया कि कुछ किया जाये। दस मिनट में तय हुआ कि ‘वालमैगजीन‘ निकाली जाये ।दो मिनट में नाम तय हो गया -सृजन।
तुरंत कागज आया। तुरंत लिखना शुरु किया गया। हिंदी में। राइटिंग हम दोनों की ही अच्छी ही थी। कुछ कवितायें लिखीं थी,कुछ कमेंट हास्टल के साथियों के बारे में कुछ कालेज पर। सब कुछ कुल मिलाकर चटर-पटर टाइप का । सबेरे चार बजे करीब मेस के नोटिस बोर्ड पर जाकर चिपका आये।आकर सो गये।
अगला दिन रविवार था। सबेरे देर से उठे।नास्ता करने गये। दूर से ही देखा लोग सृजन को पढ़ रहे थे। कुछ तारीफ कर रहे थे। कुछ कह रहे क्या फालतू का काम है। बहरहाल हम दिन भर मस्त रहे। मजा लेते रहे जब हमारे दोस्त कयास लगा रहे थे कि ये खुराफात है किसकी?कुछ दिन बाद लोगों को पता चल गया। काफी दिन निकालते रहे हम यह साप्ताहिक भित्ति पत्रिका-सृजन।
यह हमारा पहला संयुक्त उद्यम था। आगे अभी और होने थे।
दूसरे वर्ष की परीक्षायें शुरु होने वाली थीं। कक्षायें बंद हो चुकी थीं।बच्चे पढ़ाई में जुटे थे।अचानक हम लोगोंने सोचा कि छुट्टियों में कहीं ट्रेनिंग की जाये।जरूरी कागज पत्र बनवाने के लिये धूप में चलते हुये हास्टल से कालेज गये। वहां इधर-उधर टहलते रहे। जबतक कागज वगैरह बने तबतक हमारे मूड उखड़ चुके थे। गर्मी,देरी संबंधित लोगों के व्यवहार से हम झल्ला गये।तय किया कि अब ट्रेनिंग करने इस साल नहीं जायेंगे। अगले साल जाना अनिवार्य है -तभी जायेंगे।
स्वाभाविक सवाल उठा – तो इस साल क्या करेंगे?
तुरंत तय हुआ -इस साल साइकिल पर भारत भ्रमण किया जाये।
अगले ही क्षण हमने ट्रेनिंग से संबंधित सारे कागज फाड़ दिये।
हास्टल की तरफ लौटते हुये हम, आसन्न परीक्षाओं से बेखबर,भारत भ्रमण की योजनाओं में डूब गये थे।
सुनील दीपक जी की तर्ज पर हम भी आज एक तस्वीर दे रहे हैं।जब मैं कार में बैठा अपने लैपटाप पर इतवार चौपट होने के अफसोस से उबरने के लिये यह लेख टाइप कर रहा था,तब हमारे छोटे सुपुत्र अनन्य स्थानीय अर्पिता महिला मंडल द्वारा आयोजित कला प्रतियोगिता में हाथ आजमा रहे थे। मेरा लेख तो आपने पढ़ लिया अब अनन्य को उसकी कलाकारी के साथ देखिये जिसपर उसको पहला पुरुस्कार भी मिला जिसने कि हमारे ‘इतवारी अफसोस’ की खटिया खड़ी कर दी।
मेरी पसंद
वामन हुये विराट चलो वंदना करें,जर्रे हैं शैलराट चलो वंदना करें।
माली को वायरल,कलियों को जीर्णज्वर,
कागज के फूल वृंतों पर बैठें हैं सज-संवर,
आंधी मलयसमीर का ओढ़े हुये खिताब,
निर्द्वन्द व्यवस्था ने अपहृत किये गुलाब,
निरुपाय हुये आज अपने ही उपवन में ,
कांटे हुये एलाट चलो वंदना करें।
था प्रश्न हर ज्वलंत किंतु टालते रहे,
उफ!धार में होने का भरम पालते रहे,
पतवार,पाल,नाव सभी अस्त-व्यस्त हैं,
इस भांति सिंधु थाहने का पथ प्रशस्त है,
उपलब्धियों के वर्ष,दिवस जोड़ते रहे,
देखा तो नहीं धार चलो वंदना करें।
वामन हुये विराट चलो वंदना करें,
जर्रे हैं शैलराट चलो वंदना करें।
-अजय गुप्त,शाहजहांपुर।
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