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By फ़ुरसतिया on October 19, 2005
आजकल जीतेन्दर अक्सर नेट पर मिल जाते हैं। ‘जब मैं परेशानी में होता हूं तो अपने दोस्तों को याद करता हूं और मेरा दर्द कम हो जाता है‘
का बोर्ड लगाये हुये। अब चूकिं मैसेंजर याहू का छोटा होता है तो इसलिये
आगे क्या लिखा होता है मैं पढ़ नहीं पाता। लेकिन अनुमान लगा सकता हूं कि
शायद लिखा हो- और मेरे मित्र का दर्द दोगुना हो जाता है।
जब से जीतू ने नारद की कमान संभाली है ,नारद किसी हसीन माडल की तरह नित नये रूप बदल रहा है। जब कोई औरत पहली बार मां बनती है तो बच्चे का भांति-भांति से श्रंगार करती है। उसके रूप पर बार-बार मुग्ध होती है ,बलैयां लेती है, कजरौटा करती है। उसी तरह जीतू भी नारद को नित नया रूप देने में जुटे हैं।
नवीनतम रूपश्रंगार है नारद की चिट्ठा रेटिंग पता नहीं कौन फार्मूला लगाइन हैं चौधरी कि जिसका चिट्ठा टाप पर है वह भी चुटकी काट रहा है अपने आश्चर्य से और जो रोज अपडेट करता है वह भी सोच रहा है- ये क्या गजब हुआ, ये क्या जुलम हुआ!
वर्डप्रेस वालों को कोई तवज्जो नहीं दे रहे नारद जी ब्लाग रेटिंग में। हम जीरो रेटिंग के साथ नींव की ईंट बने कोस रहे हैं स्वामीजी को जिनके फुसलाने पर हम अपना आशियाना छोड़ के आ गये इधर । और ये लो अपने शाहिद रज़ा, शाहजहांपरी की प्यारी गज़ल के दुलारे शेर भी याद आ गये:-
जहां भी खायी है ठोकर निशान छोड आये,
हम अपने दर्द का एक तर्जुमान छोड आये.
हमारी उम्र तो शायद सफर में गुजरेगी,
जमीं के इश्क में हम आसमान छोड आये.
किसी के इश्क में इतना भी तुमको होश नहीं
बला की धूप थी और सायबान छोड आये.
जीतू जब भी दिखते हैं कहते हैं कुछ लिखे नहीं! हम कहते हैं आज लिखेंगे । अगले दिन फिर तकादा। हम रोज सोचते हैं कि लिखें लेकिन हम भी देवाशीष हो गये हैं लगता है- सोच-सोच के हालत सोचनीय बना लेते हैं। आज सोचा कि बिना सोचे लिखा जाये।
जीतू की दूसरी चिंता भी है कि लोग बहुत कम लिख रहे हैं। लिख भी रहे हैं तो दूसरे लोग उसे तवज्जो नहीं दे रहे हैं। टिपिया नहीं रहे हैं। वो तो ये घोषणा तक करने जा रहे थे कि सारे सीनियर ब्लागर खाली बातें मारते हैं। कोई कुछ करता नहीं। कोई कुछ लिखता नहीं है। बड़ी मुश्किल से यह समझाने पर माने कि लोग लिखने की सोच रहे हैं बस आने ही वाला है मामला सामने।
पिछले रविवार को ज्ञान चतुर्वेदी का एक लेख पढ़ा। लेख का लब्बो-लुआब यह था कि हम कहानी सुनाते-सुनाते कब कहानी बन गये पता नहीं चलता। बचपन में हमारे पास इतनी मस्ती थी कि समय की फिकर करने का समय ही नहीं था। अब हालात हैं कि मस्ती की बात सोचने की फुरसत ही नहीं हालत तो यह है कि आशीष गर्ग कहते हैं कि जीवन भी क्या बला है?मन किया कि उनको अपनी कविता की लाइनें भेज दें:-
हम कब मुस्काये याद नहीं
कब लगा ठहाका याद नहीं।
ये दुनिया बड़ी तेज चलती है
बस जीने के खातिर मरती है।
पता नहीं कहां पहुंचेगी ?
वहां पहुंचकर क्या कर लेगी?
लेकिन कविता की ही तर्ज पर हमने सोचा भेजकर क्या कर लेंगे? सो भेजने का विचार छोड़ दिया। डाकखर्च की जोकाल्पनिक बचत हुई उसे प्रधानमंत्री राहत कोष में भेजने का निश्चय किया।
कल कुछ दोस्तों से पता चला कि लोग सस्ते में मिल रहे डोमेन की सुविधा का लाभ उठाने के लिये तमाम नामों से डोमेन खरीद रहे हैं। इनमें से ऐसे लोग ही ज्यादा हैं जो अभी इनका कोई उपयोग नहीं कर रहे हैं। आगे की कभी बखत-जरूरत पर काम आने के लिये कर रहे हैं यह काम। यह बात तो अच्छी है लेकिन कुछ ऐसी ही लगती है जैसे कि लोग प्लाट खरीदकर डाल देते हैं कि आगे दाम बढ़ेंगे तो वसूले जायेंगे। शुक्र है कि आदमी के नाम डोमेन की तरह नहीं रखे जाते और कई लोगों के एक ही नाम रखने पर कोई पाबंदी नहीं है ,वर्ना लोग पीढ़ियों के नाम रजिस्टर्ड करा लेते या फिर नाम भी अंकों में रखे जाते कार-स्कूटर के नंबरों की तरह।
बहुत दिनों से तत्काल एक्सप्रेस मय डिब्बों के गायब है,कब आयेगी ? प्रेमपीयूष ,तुम आये इतै न कितै दिन खोये?
हमारे कुछ दोस्त जब गुस्सा करते हैं तो बड़े हसीन लगते हैं। कुछ दोस्तों को हसीन दिखने का कुछ ज्यादा ही शौक है। इसलिये अक्सर गुस्साते हैं। इस मामले में हमने अतुल को कुछ ज्यादा ही बदनाम कर दिया है। इस अपराधबोध से उबरने के लिये आज मेरी पसंद में एक कविता दे रहा हूं जो शायद अतुल और दूसरे साथियों (जो भी शामिल होना चाहें हो जायें। कोई फीस नहीं है।)की बात कहती है।
मेरी पसंद
किसी नागवार गुज़रती चीज पर
मेरा तड़प कर चौंक जाना,
उबल कर फट पड़ना
या दर्द से छटपटाना
कमज़ोरी नहीं है
मैं जिंदा हूं
इसका घोषणापत्र है
लक्षण है इस अक्षय सत्य का
कि आदमी के अंदर बंद है एक शाश्वत ज्वालामुखी
ये चिंगारियां हैं उसी की
जो यदा कदा बाहर आती हैं
और
जिंदगी अपनी पूरे ज़ोर से अंदर
धड़क रही है-
यह सारे संसार को बताती हैं।
शायद इसीलिए जब दर्द उठता है
तो मैं शरमाता नहीं, खुलकर रोता हूं
भरपूर चिल्लाता हूं
और इस तरह निष्पंदता की मौत से बच कर निकल जाता हूं
वरना
देर क्या लगती है
पत्थर होकर ईश्वर बन जाने में
दुनिया बड़ी माहिर है
आदमी को पत्थर बनाने में
अजब अजब तरकीबें हैं उसके पास
जो चारणी प्रशस्ति गान से
आराधना तक जाती हैं
उसे पत्थर बना कर पूजती हैं
और पत्थर की तरह सदियों जीने का
सिलसिला बनाकर छोड़ जाती हैं।
अगर कुबूल हो आदमी को
पत्थर बनकर
सदियों तक जीने का दर्द सहना
बेहिस,
संवेदनहीन,
निष्पंद……
बड़े से बड़े हादसे पर
समरस बने रहना
सिर्फ देखना और कुछ न कहना
ओह कितनी बड़ी सज़ा है
ऐसा ईश्वर बनकर रहना!
नहीं,मुझे ईश्वरत्व की असंवेद्यता का इतना बड़ा दर्द
कदापि नहीं सहना।
नहीं कबूल मुझे कि एक तरह से मृत्यु का पर्याय होकर रहूं
और भीड़ के सैलाब में
चुपचाप बहूं।
इसीलिये किसी को टुच्चे स्वार्थों के लिये
मेमने की तरह घिघियाते देख
अधपके फोड़े की तपक-सा मचलता हूं
क्रोध में सूरज की जलता हूं
यह जो ऐंठने लग जाते हैं धुएं की तरह
मेरे सारे अक्षांश और देशांतर
रक्तिम हो जाते हैं मेरी आंखों के ताने-बाने
फरकने लग जाते हैं मेरे अधरों के पंख
मेरी समूची लंबाई
मेरे ही अंदर कद से लंबी होकर
छिटकने लग जाती है
….और मेरी आवाज में
कोई बिजली समाकर चिटकने लग जाती है
यह सब कुछ न पागलपन है, न उन्माद
यह है सिर्फ मेरे जिंदा होने की निशानी
यह कोई बुखार नहीं है
जो सुखाकर चला आयेगा
मेरे अंदर का पानी!
क्या तुम चाहते हो
कि कोई मुझे मेरे गंतव्य तक पहुंचने से रोक दे
और मैं कुछ न बोलूं?
कोई मुझे अनिश्चय के अधर में
दिशाहीन लटका कर छोड़ दे
और मैं अपना लटकना
चुपचाप देखता रहूं
मुंह तक न खोलूं!
नहीं, यह मुझसे हो नहीं पायेगा
क्योंकि मैं जानता हूं
मेरे अंदर बंद है ब्रह्मांड का आदिपिंड
आदमी का आदमीपन,
इसीलिए जब भी किसी निरीह को कहीं बेवजह सताया जायेगा
जब भी किसी अबोध शिशु की किलकारियों पर
अंकुश लगाया जायेगा
जब भी किसी ममता की आंखों में आंसू छलछलायेगा
तो मैं उसी निस्पंद ईश्वर की कसम खाकर कहता हूं
मेरे अंदर बंद वह जिंदा आदमी
इसी तरह फूट कर बाहर आयेगा।
जरूरी नहीं है,
कतई जरूरी नहीं है
इसका सही ढंग से पढ़ा जाना,
जितना ज़रूरी है
किसी नागवार गुजरती चीज़ पर
मेरा तड़प कर चौंक जाना
उबलकर फट पड़ना
या दर्द से छटपटाना
आदमी हूं और जिंदा हूं,
यह सारे संसार को बताना!
-डा. कन्हैया लाल नंदन
जब से जीतू ने नारद की कमान संभाली है ,नारद किसी हसीन माडल की तरह नित नये रूप बदल रहा है। जब कोई औरत पहली बार मां बनती है तो बच्चे का भांति-भांति से श्रंगार करती है। उसके रूप पर बार-बार मुग्ध होती है ,बलैयां लेती है, कजरौटा करती है। उसी तरह जीतू भी नारद को नित नया रूप देने में जुटे हैं।
नवीनतम रूपश्रंगार है नारद की चिट्ठा रेटिंग पता नहीं कौन फार्मूला लगाइन हैं चौधरी कि जिसका चिट्ठा टाप पर है वह भी चुटकी काट रहा है अपने आश्चर्य से और जो रोज अपडेट करता है वह भी सोच रहा है- ये क्या गजब हुआ, ये क्या जुलम हुआ!
वर्डप्रेस वालों को कोई तवज्जो नहीं दे रहे नारद जी ब्लाग रेटिंग में। हम जीरो रेटिंग के साथ नींव की ईंट बने कोस रहे हैं स्वामीजी को जिनके फुसलाने पर हम अपना आशियाना छोड़ के आ गये इधर । और ये लो अपने शाहिद रज़ा, शाहजहांपरी की प्यारी गज़ल के दुलारे शेर भी याद आ गये:-
जहां भी खायी है ठोकर निशान छोड आये,
हम अपने दर्द का एक तर्जुमान छोड आये.
हमारी उम्र तो शायद सफर में गुजरेगी,
जमीं के इश्क में हम आसमान छोड आये.
किसी के इश्क में इतना भी तुमको होश नहीं
बला की धूप थी और सायबान छोड आये.
जीतू जब भी दिखते हैं कहते हैं कुछ लिखे नहीं! हम कहते हैं आज लिखेंगे । अगले दिन फिर तकादा। हम रोज सोचते हैं कि लिखें लेकिन हम भी देवाशीष हो गये हैं लगता है- सोच-सोच के हालत सोचनीय बना लेते हैं। आज सोचा कि बिना सोचे लिखा जाये।
जीतू की दूसरी चिंता भी है कि लोग बहुत कम लिख रहे हैं। लिख भी रहे हैं तो दूसरे लोग उसे तवज्जो नहीं दे रहे हैं। टिपिया नहीं रहे हैं। वो तो ये घोषणा तक करने जा रहे थे कि सारे सीनियर ब्लागर खाली बातें मारते हैं। कोई कुछ करता नहीं। कोई कुछ लिखता नहीं है। बड़ी मुश्किल से यह समझाने पर माने कि लोग लिखने की सोच रहे हैं बस आने ही वाला है मामला सामने।
पिछले रविवार को ज्ञान चतुर्वेदी का एक लेख पढ़ा। लेख का लब्बो-लुआब यह था कि हम कहानी सुनाते-सुनाते कब कहानी बन गये पता नहीं चलता। बचपन में हमारे पास इतनी मस्ती थी कि समय की फिकर करने का समय ही नहीं था। अब हालात हैं कि मस्ती की बात सोचने की फुरसत ही नहीं हालत तो यह है कि आशीष गर्ग कहते हैं कि जीवन भी क्या बला है?मन किया कि उनको अपनी कविता की लाइनें भेज दें:-
हम कब मुस्काये याद नहीं
कब लगा ठहाका याद नहीं।
ये दुनिया बड़ी तेज चलती है
बस जीने के खातिर मरती है।
पता नहीं कहां पहुंचेगी ?
वहां पहुंचकर क्या कर लेगी?
लेकिन कविता की ही तर्ज पर हमने सोचा भेजकर क्या कर लेंगे? सो भेजने का विचार छोड़ दिया। डाकखर्च की जोकाल्पनिक बचत हुई उसे प्रधानमंत्री राहत कोष में भेजने का निश्चय किया।
कल कुछ दोस्तों से पता चला कि लोग सस्ते में मिल रहे डोमेन की सुविधा का लाभ उठाने के लिये तमाम नामों से डोमेन खरीद रहे हैं। इनमें से ऐसे लोग ही ज्यादा हैं जो अभी इनका कोई उपयोग नहीं कर रहे हैं। आगे की कभी बखत-जरूरत पर काम आने के लिये कर रहे हैं यह काम। यह बात तो अच्छी है लेकिन कुछ ऐसी ही लगती है जैसे कि लोग प्लाट खरीदकर डाल देते हैं कि आगे दाम बढ़ेंगे तो वसूले जायेंगे। शुक्र है कि आदमी के नाम डोमेन की तरह नहीं रखे जाते और कई लोगों के एक ही नाम रखने पर कोई पाबंदी नहीं है ,वर्ना लोग पीढ़ियों के नाम रजिस्टर्ड करा लेते या फिर नाम भी अंकों में रखे जाते कार-स्कूटर के नंबरों की तरह।
बहुत दिनों से तत्काल एक्सप्रेस मय डिब्बों के गायब है,कब आयेगी ? प्रेमपीयूष ,तुम आये इतै न कितै दिन खोये?
हमारे कुछ दोस्त जब गुस्सा करते हैं तो बड़े हसीन लगते हैं। कुछ दोस्तों को हसीन दिखने का कुछ ज्यादा ही शौक है। इसलिये अक्सर गुस्साते हैं। इस मामले में हमने अतुल को कुछ ज्यादा ही बदनाम कर दिया है। इस अपराधबोध से उबरने के लिये आज मेरी पसंद में एक कविता दे रहा हूं जो शायद अतुल और दूसरे साथियों (जो भी शामिल होना चाहें हो जायें। कोई फीस नहीं है।)की बात कहती है।
मेरी पसंद
किसी नागवार गुज़रती चीज पर
मेरा तड़प कर चौंक जाना,
उबल कर फट पड़ना
या दर्द से छटपटाना
कमज़ोरी नहीं है
मैं जिंदा हूं
इसका घोषणापत्र है
लक्षण है इस अक्षय सत्य का
कि आदमी के अंदर बंद है एक शाश्वत ज्वालामुखी
ये चिंगारियां हैं उसी की
जो यदा कदा बाहर आती हैं
और
जिंदगी अपनी पूरे ज़ोर से अंदर
धड़क रही है-
यह सारे संसार को बताती हैं।
शायद इसीलिए जब दर्द उठता है
तो मैं शरमाता नहीं, खुलकर रोता हूं
भरपूर चिल्लाता हूं
और इस तरह निष्पंदता की मौत से बच कर निकल जाता हूं
वरना
देर क्या लगती है
पत्थर होकर ईश्वर बन जाने में
दुनिया बड़ी माहिर है
आदमी को पत्थर बनाने में
अजब अजब तरकीबें हैं उसके पास
जो चारणी प्रशस्ति गान से
आराधना तक जाती हैं
उसे पत्थर बना कर पूजती हैं
और पत्थर की तरह सदियों जीने का
सिलसिला बनाकर छोड़ जाती हैं।
अगर कुबूल हो आदमी को
पत्थर बनकर
सदियों तक जीने का दर्द सहना
बेहिस,
संवेदनहीन,
निष्पंद……
बड़े से बड़े हादसे पर
समरस बने रहना
सिर्फ देखना और कुछ न कहना
ओह कितनी बड़ी सज़ा है
ऐसा ईश्वर बनकर रहना!
नहीं,मुझे ईश्वरत्व की असंवेद्यता का इतना बड़ा दर्द
कदापि नहीं सहना।
नहीं कबूल मुझे कि एक तरह से मृत्यु का पर्याय होकर रहूं
और भीड़ के सैलाब में
चुपचाप बहूं।
इसीलिये किसी को टुच्चे स्वार्थों के लिये
मेमने की तरह घिघियाते देख
अधपके फोड़े की तपक-सा मचलता हूं
क्रोध में सूरज की जलता हूं
यह जो ऐंठने लग जाते हैं धुएं की तरह
मेरे सारे अक्षांश और देशांतर
रक्तिम हो जाते हैं मेरी आंखों के ताने-बाने
फरकने लग जाते हैं मेरे अधरों के पंख
मेरी समूची लंबाई
मेरे ही अंदर कद से लंबी होकर
छिटकने लग जाती है
….और मेरी आवाज में
कोई बिजली समाकर चिटकने लग जाती है
यह सब कुछ न पागलपन है, न उन्माद
यह है सिर्फ मेरे जिंदा होने की निशानी
यह कोई बुखार नहीं है
जो सुखाकर चला आयेगा
मेरे अंदर का पानी!
क्या तुम चाहते हो
कि कोई मुझे मेरे गंतव्य तक पहुंचने से रोक दे
और मैं कुछ न बोलूं?
कोई मुझे अनिश्चय के अधर में
दिशाहीन लटका कर छोड़ दे
और मैं अपना लटकना
चुपचाप देखता रहूं
मुंह तक न खोलूं!
नहीं, यह मुझसे हो नहीं पायेगा
क्योंकि मैं जानता हूं
मेरे अंदर बंद है ब्रह्मांड का आदिपिंड
आदमी का आदमीपन,
इसीलिए जब भी किसी निरीह को कहीं बेवजह सताया जायेगा
जब भी किसी अबोध शिशु की किलकारियों पर
अंकुश लगाया जायेगा
जब भी किसी ममता की आंखों में आंसू छलछलायेगा
तो मैं उसी निस्पंद ईश्वर की कसम खाकर कहता हूं
मेरे अंदर बंद वह जिंदा आदमी
इसी तरह फूट कर बाहर आयेगा।
जरूरी नहीं है,
कतई जरूरी नहीं है
इसका सही ढंग से पढ़ा जाना,
जितना ज़रूरी है
किसी नागवार गुजरती चीज़ पर
मेरा तड़प कर चौंक जाना
उबलकर फट पड़ना
या दर्द से छटपटाना
आदमी हूं और जिंदा हूं,
यह सारे संसार को बताना!
-डा. कन्हैया लाल नंदन
Posted in बस यूं ही | 11 Responses
जय हो।
–मानोशी
और आपका लिखा पढकर मुस्कुराहट आ गई.दिन की शुरुआत तो अच्छी कर दी आपने.
प्रत्यक्षा
२३ से २८ तक फिर विदेश यात्रा है तो लिखना मुश्किल होगा. शायद इसी बहाने रेटिंग कम हो और चिट्ठा देवता के क्रोध को शांति मिले! और इसी बहाने अपने चिट्ठा लिखने के बजाय अन्य चिट्ठों को पढ़ने का अधिक समय मिल रहा है.
सुनील
हवन,पूजन ,चढावा..क्या शान्त करेगा देवता को ?
जबसे ब्लागर वालो ने बैकलिंक नाम की बला जोड़ी है ब्लाग प्रकाशन में कुछ लोचा हो गया है। ब्लाग पब्लिश करते ही अड़ियल गधे कि तरह अतक जाता है किसी को ३३ प्रतिशत तो किसी को कुछ और दिखाता रहता है। एक बार सेटिंग मे जाकर तारीख का फार्मेट बगल कर अँग्रेजी वाला करके सेव करिये फिर देखिये शायद कुछ फर्क पड़े।
सुनिल जी तो छाप लिये, पर मेरा तो अटका ही पडा है
फ़िर आप झकास अपने चिट्ठे पर पोस्ट लिखिये, खटाक से १००% पार न करे तो कहना। अभी तो यही देसी तरीका है। ब्लागर वालों को शिकायत ठोक दीजिये।
फ़ुरसतिया जी ये कमेन्ट प्रत्यक्षा जी को फ़ारवर्ड कर दें, अति कृपा होगी।