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हम पहली जुलाई को सबेरे इलाहाबाद से चलकर रात को ही बनारस पहुंच गये थे।
रात दीपक के घर पहुंचकर खाना खाकर सो गये। जिस कमरे में हम तीनो लोग रुके
थे हमारा सारा सामान उसमें फैला था। सबेरे ही दीपक के पिताजी से मुलाकात
हुई। उन्होंने हमारी हौसला आफजाई की। नाश्ता करके हम बनारस घूमने निकल
पड़े। सवारी के लिये हमारी साइकिलें ही थीं।
बनारस हालांकि इलाहाबाद से मात्र १२० किमी की दूरी पर है लेकिन यह हमारी पहली बनारस यात्रा थी। अनगितन किस्से हमने बनारस के बारे में सुन रखे थे। किस्से जो बनारसी मस्ती,बेफिक्री, फक्कड़पन तथा दुनिया को अपने ठेंगे पर रखकर जीने के अंदाज के बारे में थे हमारे मन मे बनारस के प्रति कौतूहल जगा रहे थे।
घाटों के शहर बनारस के लिये कहावत प्रसिद्ध है :-
होली के अवसर पर होने वाले अस्सी मुहल्ले में होने अश्लील कवि सम्मेलन के किस्से हम लोगों में प्रचलित थे। दुनिया के तनाव से बेपरवाह मस्ती के आलम में डूबे रहने वाले शहर बनारस के बारे में कहा जाता है:-
लंका के बाद हम बीएचयू के कैम्पस में घुसे। तमाम हास्टल देखते हुये हम विश्वनाथ मंदिर गये।यह मंदिर बनारस के विख्यात मंदिर से अलग है। साफ-सुथरा-भव्य-ऊंचा। मंदिर में सबतरफ दानदाताओं के नामों की सूची लगी है। मंदिर इतना ऊंचा है कि मंदिर से २०० मीटर की दूरी से भी हम उसकी पूरी फोटो नहीं ले पा रहे थे।मंदिर की पहली मंजिल में दीवारों पर पूरी गीता अंकित है।तमाम ऋषि,मुनियों के उपदेश भी।
मंदिर से निकले तो एक सज्जन विश्वनाथ बोस जी मिले।उन्होंने हमारी यात्रा के बारे में जानकर बड़ी आत्मीयता से बात की तथा हमें अपने घर ठहरने का न्योता दिया।
बीएचयू से निकलकर हम लोग दुर्गामंदिर गये। दुर्गामंदिर दुर्गामंदिर कम हनुमान मंदिर अधिक लग रहा था। मंदिर लाल पत्थरों का बना है। मंदिर के हर तरफ बन्दर ही बन्दर थे। कोई घण्टे पर लटक रहा था। कोई दुर्गाकुण्ड के तालाब में बकरी की तरह पानी पी रहा था। कोई कंगूंरों की ऊंचाइयां नाप रहा था। ये सब अपने कार्य व्यापार में इतने व्यस्त थे कि इनके एकदम पास जाने पर भी ये हमसे बेफिकर बने रहे।
तुलसी मानस मंदिर तथा सम्पूर्णानंद विश्वविद्यालय के बाद भारतमाता मंदिर देखने गये।भारतमाता मंदिर में भारतवर्ष का त्रिआयामी चित्र बना है। सीमेंट का।देखने से पता चला लगता है कि कौन सी जगह समुद्र से कितनी ऊंचाई पर है।
अगले दिन आज तथा जागरण प्रेस होते हुये बाबा विश्वनाथ मंदिर के दर्शन करने गये। इनके दर्शन के बिना बनारस दर्शन अधूरा है। चौक थाने के पास संकरी गली में मंदिर बना है। मंदिर के आसपास की गलियां कीचड़,बेल-पत्ते से अंटी पड़ी थी। पास की विवादास्पद मस्जिद पर पुलिस का पहरा था।लगता है मंदिर जितना प्रसिद्ध होता उसका उतना ही गंदा होना जरूरी होता है। गंदगी तथा प्रसिद्धि का चोली-दामन का साथ है क्या!
मंदिर के पास ही घाट पर सीढ़ियों पर बहुत देर तक बैठे रहे। पंडे बता रहे थे कहानियां घाटों की। फलाना घाट फलानी रानी के कहने पर बना। यहां बिस्मिल्ला खान शहनाई वादन का रियाज करते थे। छोटे-छोटे बच्चे नावें लिये ग्राहकों को पटाने में लगे थे। लड़ाई-झगड़ा भी हो रहा था लेकिन जितनी जल्दी शुरू हो रहा था उतनी ही जल्दी खलास भी होता जा रहा था।
शाम को हम बनारस का बाजार भी देखने गये। दुकाने बाहर-बाहर से देखीं। अंदर जाकर क्या करते?
बाद में जब मैं बीएचयू में पढ़ने गया तो खूब तबियत से घूमा बनारस। वहां समय इफरात में था। उस दिनों के विश्वविद्यालय के कुछ साथियों में से अफलातून देसाई ने मेरा ब्लाग देखकर मेल किया था नवंबर में मुझे:-
मेल दबा रहा जवाब देने के इंतजार में। कल जब जवाब दिया कि हां भाई हम ही हैं वो नाचीज अनूप शुक्ला जो आपके मित्र रहे तथा जो १९-२० साल बाद दुबारा पकड़ में आये। तो अफलातून ने जवाब दिया:-
बहरहाल,दो दिन के बनारस प्रवास के दौरान कई बार ‘ई रजा काशी हौ सुना’ । इतनै मां छिटकै लगलू सुनने के लिये बाद में आना जो था। तीसरे दिन हमें बनारस से आगे चलना था।
स्वेटर,मफलर मिल ठंड से पंजे रहे लड़ाय।
पवन सहायता कर रहा ठंडक की भरपूर।
करो अंगीठी गर्व तुम इसका भी अब चूर।
कोयला कल तक था बुरा बंद पड़ी थी ‘टाल’।
अब वो ‘कलुआ’ हो गया सबसे अहम सवाल।
गर्म चाय ठंडी हुई ज्यों ब्लागर के जोश।
गर्मी की फिर कर जुगत,बिन खोये तू होश।
गाल,टमाटर,सेब सब मचा रहे हैं धमाल।
कौन चमकता है बहुत कौन अधिक है लाल।
किरणें पहुंची खेत में लिये सुनहरा रंग।
पीली सरसों देखकर वो भी रह गईं दंग।
सूरज निकला ठाठ से ऐंठ किरण की मूंछ।
ठिठुरन सरपट फूट ली दबा के अपनी पूंछ।
-अनूप शुक्ला
बनारस हालांकि इलाहाबाद से मात्र १२० किमी की दूरी पर है लेकिन यह हमारी पहली बनारस यात्रा थी। अनगितन किस्से हमने बनारस के बारे में सुन रखे थे। किस्से जो बनारसी मस्ती,बेफिक्री, फक्कड़पन तथा दुनिया को अपने ठेंगे पर रखकर जीने के अंदाज के बारे में थे हमारे मन मे बनारस के प्रति कौतूहल जगा रहे थे।
घाटों के शहर बनारस के लिये कहावत प्रसिद्ध है :-
रांड़,सांड़,सीढ़ी,सन्यासीजयशंकर प्रसाद की गुंडा कहानी के नन्हकू सिंह के मिजाज वाले शहर को देखने को उत्सुक थे।चकाचक बनारसी की “आयल हौ जजमान चकाचक“, “कस बे चेतुआ दाब से टेटुआ को देखत है?” सुन चुके थे। बनारस के उपकुलपति (शायद इकबाल नारायण) कहा करते थे- ‘बनारस इज अ सिटी व्हिच हैव रिफ्यूस्ड टु मार्डनाइज इटसेल्फ’। इंकार कर दिया हमें नहीं बनना आधुनिक। इसी मूड के लोगों में बाद में तन्नी गुरू भी जुड़े बमार्फत काशीनाथ सिंह जिनसे जब किसी ने पूछा-गुरू ,हम भारत वाले चांद पर कब तकपहुंचेंगे ?तो तन्नी गुरू ताव में आकर भन्नाते हुये बोले–जिस साले की गर्ज होगी खुदै यहां आयेगा तन्नी गुरू यहां से नहीं हिलेंगे।
इनसे बचे तो सेवै काशी।
होली के अवसर पर होने वाले अस्सी मुहल्ले में होने अश्लील कवि सम्मेलन के किस्से हम लोगों में प्रचलित थे। दुनिया के तनाव से बेपरवाह मस्ती के आलम में डूबे रहने वाले शहर बनारस के बारे में कहा जाता है:-
जो मजा बनारस मेंसबसे पहले हम बनारस हिंदू विश्वविद्यालय घूमने गये। लंका (बीएचयू का प्रवेश द्वार) पहुंचे। वहां फोटो ली। लंका चौराहे पर अक्सर नेतागण तकरीर करते पाये जाते थे। हमने बाद में ८५-८६ में जार्ज फर्नांडीज को इसी चौराहे पर भाषण देते सुना । वे छात्रसंघ के चुनाव में किसी उम्मीदवार के समर्थन में आये थे शायद।
वो न पेरिस में न फारस में।
लंका के बाद हम बीएचयू के कैम्पस में घुसे। तमाम हास्टल देखते हुये हम विश्वनाथ मंदिर गये।यह मंदिर बनारस के विख्यात मंदिर से अलग है। साफ-सुथरा-भव्य-ऊंचा। मंदिर में सबतरफ दानदाताओं के नामों की सूची लगी है। मंदिर इतना ऊंचा है कि मंदिर से २०० मीटर की दूरी से भी हम उसकी पूरी फोटो नहीं ले पा रहे थे।मंदिर की पहली मंजिल में दीवारों पर पूरी गीता अंकित है।तमाम ऋषि,मुनियों के उपदेश भी।
मंदिर से निकले तो एक सज्जन विश्वनाथ बोस जी मिले।उन्होंने हमारी यात्रा के बारे में जानकर बड़ी आत्मीयता से बात की तथा हमें अपने घर ठहरने का न्योता दिया।
बीएचयू से निकलकर हम लोग दुर्गामंदिर गये। दुर्गामंदिर दुर्गामंदिर कम हनुमान मंदिर अधिक लग रहा था। मंदिर लाल पत्थरों का बना है। मंदिर के हर तरफ बन्दर ही बन्दर थे। कोई घण्टे पर लटक रहा था। कोई दुर्गाकुण्ड के तालाब में बकरी की तरह पानी पी रहा था। कोई कंगूंरों की ऊंचाइयां नाप रहा था। ये सब अपने कार्य व्यापार में इतने व्यस्त थे कि इनके एकदम पास जाने पर भी ये हमसे बेफिकर बने रहे।
तुलसी मानस मंदिर तथा सम्पूर्णानंद विश्वविद्यालय के बाद भारतमाता मंदिर देखने गये।भारतमाता मंदिर में भारतवर्ष का त्रिआयामी चित्र बना है। सीमेंट का।देखने से पता चला लगता है कि कौन सी जगह समुद्र से कितनी ऊंचाई पर है।
अगले दिन आज तथा जागरण प्रेस होते हुये बाबा विश्वनाथ मंदिर के दर्शन करने गये। इनके दर्शन के बिना बनारस दर्शन अधूरा है। चौक थाने के पास संकरी गली में मंदिर बना है। मंदिर के आसपास की गलियां कीचड़,बेल-पत्ते से अंटी पड़ी थी। पास की विवादास्पद मस्जिद पर पुलिस का पहरा था।लगता है मंदिर जितना प्रसिद्ध होता उसका उतना ही गंदा होना जरूरी होता है। गंदगी तथा प्रसिद्धि का चोली-दामन का साथ है क्या!
मंदिर के पास ही घाट पर सीढ़ियों पर बहुत देर तक बैठे रहे। पंडे बता रहे थे कहानियां घाटों की। फलाना घाट फलानी रानी के कहने पर बना। यहां बिस्मिल्ला खान शहनाई वादन का रियाज करते थे। छोटे-छोटे बच्चे नावें लिये ग्राहकों को पटाने में लगे थे। लड़ाई-झगड़ा भी हो रहा था लेकिन जितनी जल्दी शुरू हो रहा था उतनी ही जल्दी खलास भी होता जा रहा था।
शाम को हम बनारस का बाजार भी देखने गये। दुकाने बाहर-बाहर से देखीं। अंदर जाकर क्या करते?
बाद में जब मैं बीएचयू में पढ़ने गया तो खूब तबियत से घूमा बनारस। वहां समय इफरात में था। उस दिनों के विश्वविद्यालय के कुछ साथियों में से अफलातून देसाई ने मेरा ब्लाग देखकर मेल किया था नवंबर में मुझे:-
‘भाई मेरे ,आपका हिंदीप्रेम देखकर मुझे लग रहा है कि आप मेरे एक पुराने मित्र हैं।मेरे एक मित्र अनूप शुक्ला ने बीएचयू से एमटेक किया था।’
मेल दबा रहा जवाब देने के इंतजार में। कल जब जवाब दिया कि हां भाई हम ही हैं वो नाचीज अनूप शुक्ला जो आपके मित्र रहे तथा जो १९-२० साल बाद दुबारा पकड़ में आये। तो अफलातून ने जवाब दिया:-
वाह भाई, नाम फुरसतिया,और जवाब देने की फुरसत नहीं ।क्या बात है!अफलातून देसाई समाजवादी विचारधारा के सामाजिक कार्यकर्ता हैं। अफलातूनजी के माध्यम से ही मैं स्व.किशनपटनायक के विचारों के बारे में जान पाया जिनकी किताब ‘विकल्पहीन नहीं है दुनिया’ मेरी पसंदीदा पुस्तकों में हैं।अफलातून देसाई के साथ कुछ दिन जिंदाबाद-मुर्दाबाद विहीन चुनावी राजनीति में भी रहे। जब वो चुनाव लड़े थे तो उनके पोस्टर भी चिपकवाये थे। उनका ब्लाग अभी अंग्रेजी में है लेकिन अब हमारे सम्पर्क में आये हैं तो हिंदी में तो हो ही जायेगा।
बहरहाल,दो दिन के बनारस प्रवास के दौरान कई बार ‘ई रजा काशी हौ सुना’ । इतनै मां छिटकै लगलू सुनने के लिये बाद में आना जो था। तीसरे दिन हमें बनारस से आगे चलना था।
मेरी पसंद
ठिठुरन बैठी ठाठ से सबको रही कंपाय।स्वेटर,मफलर मिल ठंड से पंजे रहे लड़ाय।
पवन सहायता कर रहा ठंडक की भरपूर।
करो अंगीठी गर्व तुम इसका भी अब चूर।
कोयला कल तक था बुरा बंद पड़ी थी ‘टाल’।
अब वो ‘कलुआ’ हो गया सबसे अहम सवाल।
गर्म चाय ठंडी हुई ज्यों ब्लागर के जोश।
गर्मी की फिर कर जुगत,बिन खोये तू होश।
गाल,टमाटर,सेब सब मचा रहे हैं धमाल।
कौन चमकता है बहुत कौन अधिक है लाल।
किरणें पहुंची खेत में लिये सुनहरा रंग।
पीली सरसों देखकर वो भी रह गईं दंग।
सूरज निकला ठाठ से ऐंठ किरण की मूंछ।
ठिठुरन सरपट फूट ली दबा के अपनी पूंछ।
-अनूप शुक्ला
Posted in जिज्ञासु यायावर, संस्मरण | 12 Responses
सोमवार का चिट्ठा काहे हो गया देर
जाडे ने क्या कह दिया हम हैं सवा सेर ?
प्रत्यक्षा
इंडीब्लॉगीज़ 2006 में द्वितीय स्थान प्राप्त करने पर बहुत-बहुत बधाईयाँ!
that is why i unable to live at varansi. i have spent my 25 years at mumbai.
however i always remember to varansi. because varansi’s culture is running in my body
and blood,But god has play an another game my wife she has spent most of the time
at varansi, i always use to ask about varansi. i love to varansi and varansi girl’s for
their simplicity and innocent just like my wife.