Wednesday, April 12, 2006

मेरे जीवन में धर्म का महत्व

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मेरे जीवन में धर्म का महत्व

अनुगूंज-१८
हम अनुगूंज के लेख का मसौदा सोच रहे थे।हमसे पहले तमाम लोग लिख चुके हैं जो कि बकौल रविरतलामी कूड़ा ही होगा। हम संकोच में थे कि कूड़े में और क्या कूडा़ मिलाया जाय। लेकिन दिल है कि मानता नहीं।दिल के आगे संकोच ने हथियार डाल दिये। हमने सोचा कि कुछ लिख ही डाला जाय। विषय खोजा-मेरे जीवन में धर्म का महत्व.
हमने धर्म के बारे में किताबें खोजीं लेकिन पता चला  कि बकौल हरिवंशराय बच्चन सारे धर्मग्रंथ तो मधुशाला जला चुकी है। हमें बहुत गुस्सा आया मधुशाला पर।ये क्या मजाक है! धर्म न हो गया किसी भ्रष्टाचारी नेता का पुतला हो गया,जला दिया। अब तो मधुशाला के बारे में सुनी अफवाहें मुझे सच सच लगने लगीं कि यह लोगों के घर जला देती है।
हमने फिर सोचा कि क्या किसी किताब का ‘टोपो’ मारा जाय।कूडा़ ही फैलाना है तो दूसरे का काहे फैलाया जाय। अपना ही ‘कुटीर उद्योग’ खोला जाय। और ये लो,कच्चा माल जुगाड़ के हम जुट गये उत्पादन में।
पहले देखा जाय कि धर्म है क्या?

धर्म वह व्यवस्था होती है जिसका उदय तथा शुरूआती प्रसार अन्याय, गैरबराबरी, दुख तथा शोषण मिटाकर समानता , न्याय की स्थापना करना होता है लेकिन होता असल में यह है कि धर्म के जहां पंख निकल आते हैं वहीं से अन्यायी,शोषक तथा ताकतवर लोग धर्म पर कब्जा कर लेते हैं।धर्म के कल्याणकारी तत्वों को तलाक देकर अन्यायपूर्ण मानव विरोधी व्यवस्था से निकाह पढ़वा लेते हैं।
हर धर्म की शुरूआत मनुष्य के भले के लिये हुई। मनुष्य का दुख दूर करने के लिये हुई।लेकिन कालांतर में वही धर्म मनुष्य के दुख का कारण बन जाता है।फिर मनुष्य दूसरा धर्म खोजता है। फिर वही कहानी चलती रहती है।मुझे लगता है कि धर्म भी एक आइटम की तरह होता है। इसकी भी एक ‘सेल्फ लाइफ’ होती है।अगर समसामयिक चुनौतियों के अनुरूप धर्म में संसोधन होते रहते हैं तो धर्म की प्रासंगिकता बनी रहती है वर्ना धर्म की स्थिति बेरोजगार,अपाहिज बुजुर्ग की तरह हो जाती है ,अपने तक नजर चुराते हैं उससे।
हर धर्म कुछ विशेष परिस्थितियों में जन्म लेता है। स्थान,समय ,सामाजिक स्थिति के अनुसार कुछ व्यवस्थायें बनायी जाती हैं। स्थान,समय ,सामाजिक स्थिति बदलने पर संभव हो कि उतना गहरा प्रभाव न पड़े उसका। जो धर्म जितना अधिक लोगों की खुशी की व्यवस्था कर सकेगा उसका उतना ही अधिक प्रसार होगा।वह उतने ही अधिक दिनों तक प्रासंगिक रहेगा।
हर धर्म में मनुष्य के सुख,सन्तोष,प्रगति और आत्मा के उत्थान के तत्व होते हैं।दया,करुणा,न्याय,सदाचार आदि सब धर्म सिखाते हैं।कटुता,घृणा,द्वेष की शिक्षा कोई धर्म नहीं देता ।अहंकार का सब धर्म निषेध करते हैं।सारे धर्म दूसरे धर्मों का आदर करने की बात करते हैं। हर धर्म मूल रूप में आत्मा में सौन्दर्य,प्रेम,उदात्त भावनायें,कोमल संवेदनायें जगाता है।
लेकिन यह विडम्बना हर धर्म के साथ होती है कि उस पर शक्ति सम्पन्न वर्ग कब्जा कर लेता है-सामन्त, साम्राज्यवादी, व्यापारी, पूंजीपति । वे प्रगतिशील सामाजिक परिवर्तनों को रोकते हैं। धर्म के जन-कल्याणकारी तत्वों को छोड़ देते हैं तथा अन्यायपूर्ण मानव-विरोधी व्यवस्था चलाते हैं।धर्म को दिखावा बना देते हैं:-

मुंह में राम बगल में छूरी,मिल गये राम पेल दिहिन पूरी।
जब धर्म अपने मूल तत्वों से विचलित होता है तब तमाम धर्म के तमाम ठेकेदार पैदा हो जाते हैं। हर एक के पास अपने धर्म की ‘सोलसेलिंग’ एजेंसी होती है।हर एजेंट  हाटलाइन से सीधे परमात्मा से जुड़ा होता है। इधर आप भुगतान करिये  , उधर आपकी बर्थ स्वर्ग में रिजर्व !
आजकल सबेरे हर टीवी चैनेल बाबा लोग धर्म के बारे में उपदेश देते मिल जाते हैं। ‘संसार निस्सार है’ कहने वाले बाबा लोग एअरकंडीशंड गाडियों के काफिले में विलासिता पूर्ण सुविधाओं के घेरे में घूमते हैं। गली-गली कौड़ी के तीन स्वयंभू  भगवान टकराते रहते हैं।
 पिछले माह उत्तरप्रदेश में तीन स्वयंभू भगवान,जो राजकीय सेवाओं में थे, निलंबित हुये हैं ।उ.प्र. में ही  एक पचास की उमर के स्वयंभू भगवान जिनके भक्तों ,सेवकों तथा सुरक्षागार्डों व ड्राइवरों में ज्यादातर जवान माहिलायें ही शामिल थीं को भगवान विरोधियों ने गोलियों से छलनी कर दिया।
कहने का मतलब यह कि आजकल भगवान होना बहुत आसान हो गया। थोड़ी सी गुंडई,थोड़ी सी धूर्तता,थोड़ी से कलाकारी तथा थोड़ा सा वाग्जाल बस हो गया कमाल। इतनी कम लागत में भगवान बनना सुलभ हो जाने के कारण ही भगवानों की संख्या बढ़ती जा रही है।आप कहेंगे कि  ऐसे भगवानों से तो साधारण इंसान बेहतर लेकिन यह तो और लोग भी कहते हैं:-
फरिश्ते से बेहतर है इंसान होना,
लेकिन उसमें लगती है मेहनत जियादा।

इस तरह की लफ्फाजी का कोई अंत नहीं हैं । बात अपने बारे में करना भी जरूरी है। तो भइये, अव्वल तो हमारा न तो ऐसा कोई धार्मिक एजेंडा है न ही कोई झंडा जिसे मैं डंडे में लगाकर फहरा सकूं।हर धर्म के मूल में जो बाते मैं हैं वे अनुकरणीय  हैं। उनके प्राणतत्व का अनुकरण ही सच्चा धर्म है।
यहां पर धूमिल की कविता ‘मोचीराम’ के अंश देने का मन कर रहा है:-
जिंदा रहने के पीछे
अगर सही तर्क नहीं है
तो रामनामी बेचकर
या रंडियों की दलाली करके
रोजी कमाने में
कोई फर्क नहीं है।

कोई भी धर्म रिन साबुन की टिकिया नहीं है जिसकी चमकार दूसरे धर्म के मुकाबले ज्यादा हो। जो धर्म मानव जीवन को बेहतर बनाने में सहायक हो सके,मानवमन को उदात्त बना सके,परदुखकातर बना सके वही धर्म अनुकरणीय होगा।
वही शायद मेरा भी धर्म होगा।
मेरी पसंद
लोग तुम्हारे पास लेकर आते हैं प्रार्थना
मैं तुम्हारे दरबार में एतराज़ लेकर आ रहा हूं।
और उसी एतराज़ में
अपनी अर्जी लगा रहा हूं।
क्षमा करना दया सागर
वैसे तो यहां सभी कुछ चलता है
लेकिन तुम्हारा समदर्शी होना
अब मुझे बहुत खलता है।
पता नहीं तुम्हें कैसा लगता है
जब पीड़ित और पीड़क
दोनों एक साथ
तुम्हारे पास आते हैं
और याचना भरी निगाहों से
तुम्हारे लिये गुहार मचाते हैं
तब फिर बोलो कृपानिधान,
उन दोनों को तुम कितना पहचानते हो?
तुम्हीं बताओ ,
जिस मां की बेती की अस्मत
किसी दरिंदे की हवस का शिकार हुई हो
वह अपनी दरकती हुई छाती में
तुम्हारे न्याय का विश्वास टिकाए
तुमसे  न्याय मांगे
और तुम्हारी उसी अदालत में
वही दरिंदा
चढ़ावे का थाल लिये
खड़ा हो सबसे आगे।
तब भी तुम कैसे रह लेते हो शांत
कैसे सह लेती है तुम्हारी निगाह
दोनों को एक साथ?
बोलो दीनानाथ ,
ऐसा समदृष्टा होना
न्याय के कौन से मानक बनायेगा?
मैं पूछता हूं
तुम्हारा चक्र-सुदर्शन
धनुष-बाण
तीर-तलवार
आखिर किस दिन काम आयेगा?
क्या यह जरूरी नहीं
कि अब अन्याय के खिलाफ
तुम बेहिचक सामने आओ
और मजलूम को उसकी यातना से
छुटकारा दिलाओ?
कम से कम इतना तो मानो
कि जालिम को मज़लूम के समकक्ष रखकर
देखना गुनाह है,
प्रभुवर,आपकी दृष्टि का
यह कौन सा प्रवाह है,
जो तुम्हारी अपनी ही कथाओं को
झूठा ठहराता है,
अन्याय के खिलाफ लड़ने की
तुम्हारी प्रतिष्ठा में दाग लगाता है?
ऐसा तो नहीं
कि हमारे जमाने के अन्याय से टकराना
तुम्हें भी पड़ने लगा हो भारी?
तब फिर मेरी प्रार्थना है
कि मुझे भी ले लो साथ
और फिर करो तैयारी।
समदर्शी बहुत रह लिये
अब प्रत्यक्षदर्शी हो जाओ
देखो, कि यहां जल को जल
और रेत को रेत बताने वाले
किस तरह मार खाते हैं!
निरी रेत,जल बनकर
उन्हें कैसे छलती है
और वे बेचारे उसी मगजल से
देखते-देखते कैसे हार जाते हैं।
मुझे ले चलोगे साथ
तो जिन जिन अंधेरों से होकर गुजरा हूं
वहां वहां तुम्हें भी ले जाऊंगा
अदना ही सही ,लेकिन इस तरह
कुछ तो तुम्हारे काम आऊंगा।
छोड़ो समदृष्टि का चक्कर मेरे करतार,
होने दो दूध का दूध
और पानी का पानी
ज़रूरी है कि अब थोड़ी बहुत बदले
तुम्हारी भी कहानी।
उठाओ चक्र सुदर्शन,धनुष-बाण
कुठार-तीर-तलवार
हो सके तो सब एक साथ
ताकि मज़लूम
खुले मन इस दुनिया में रह सके
 और तुम सचमुच
न्याय के साथ हो,
यह बात वह पूरे विश्वास के साथ कह सके।
-कन्हैयालाल नंदन

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

12 responses to “मेरे जीवन में धर्म का महत्व”

  1. Tarun
    तो आपने भी जबरिया लिख ही दिया, धर्म और धार्मिक होना वैसा ही है जैसा ‘बद अच्‍छा बदनाम बुरा’।
  2. समीर लाल
    मजाक का लहज़ा, और इतनी गहराई के साथ अभिव्यक्ति, मान गये आपकी लेखनी का लोहा, कुछ तो उधार दे दो, अनूप भाई, ब्याज चाहे जो ले लो.
    शुभेक्षु
    समीर लाल
  3. अभिनव
    ‘जो धर्म मानव जीवन को बेहतर बनाने में सहायक हो सके,मानवमन को उदात्त बना सके,परदुखकातर बना सके वही धर्म अनुकरणीय होगा।’ बढ़िया बात कही आपने। नंदन जी की कविता पढ़कर आनंद आया।
  4. रवि
    बहुत अच्छे!
    वैसे , अब मैं प्रमाणपत्र देता हूँ कि यह लाइन कूड़ा नहीं है, बल्कि हीरे की कनी है – चमक बिखेरती हुई-
    फरिश्ते से बेहतर है इंसान होना,
    लेकिन उसमें लगती है मेहनत जियादा।
    आइए, हम सभी थोड़ी मेहनत कर लें :)
  5. sanjay | joglikhi
    इस युग के भगवानों पर लिखने के लिए शब्द नहीं मिल रहे थे. समझ में नहीं आ रहा था क्यो लिखुं, कैसे लिखुं. लेकिन आपने तो एकदम सरल भाषा में सहजता से आधुनिक भगवानों को निपटा दिया. बहुत खुब.
  6. विजय वडनेरे
    बहुत अच्छा लिखे हैं आप.
    दरअसल यही सब देखते हैं आजकल आप और हमसब. चिढ भी होती है, गुस्सा भी आता है. मगर, कुछ ना कर सकने की मजबूरी सी रहती है.
    बिलकुल सच बात है:
    गली-गली कौड़ी के तीन स्वयंभू भगवान टकराते रहते हैं।
    यही दास्तां बयां करता हुआ एक शेर अर्ज है:
    हमने देखा है कई ऐसे खुदाओं को यहाँ,
    सामने जिनके ‘वो’ सचमुच का खुदा कुछ भी नहीं!
    शुभकामनायें.
  7. फ़ुरसतिया » वीर रस में प्रेम पचीसी
    [...] विजय वडनेरे on मेरे जीवन में धर्म का महत्व sanjay | joglikhi on मेरे जीवन में धर्म का महत्व रवि on मेरे जीवन में धर्म का महत्व अभिनव on मेरे जीवन में धर्म का महत्व समीर लाल on मेरे जीवन में धर्म का महत्व [...]
  8. जोगलिखी » चिट्ठाकारों द्वारा लगभग 18,000 शब्द लिखे गये
    [...] अनुगूंज 18 के लिए इन्होने लिखा हैं : दुनियाँ मेरी नजर से (अमित) (30 मार्च) जोगलिखी (संजय बेंगाणी) दिनांक 1 अप्रैल दस्तक (सागर चन्द नाहर ) दिनांक 2 अप्रैल खाली-पीली (आशीष श्रीवास्तव) दिनांक 4 अप्रैल निठल्ला चिंतन (तरूण) दिनांक 4 अप्रैल छींटे और बौछारें (रविशंकर श्रीवास्तव) दिनांक 4 अप्रैल निनाद गाथा (अभिनव) दिनांक 5 अप्रैल मेरा पन्ना (जितेन्द्र चौधरी) दिनांक 5 अप्रैल बीच-बजार (परग कुमार मण्डले) दिनांक 5 अप्रैल उन्मुक्त (उन्मुक्त) दिनांक 9 अप्रैल झरोखा (शालिनी नारंग) दिनांक 10 अप्रैल उडन तश्तरी (समीरलाल) दिनांक 11 अप्रैल फ़ुरसतिया (अनूप शुक्ला) दिनांक 12 अप्रैल मन की बात (प्रेमलता पाण्डे) दिनांक 12 अप्रैल (ई-स्वामी) दिनांक 14 अप्रैल मेरा चिट्ठा (आशीष) दिनांक 14 अप्रैल इधर उधर की (रमण ) दिनांक 14 अप्रैल [...]
  9. चिट्ठाकारों द्वारा लगभग 18,000 शब्द लिखे गये at अक्षरग्राम
    [...] अनुगूंज 18 के लिए इन्होने लिखा हैं : दुनियाँ मेरी नजर से (अमित) (30 मार्च) जोगलिखी (संजय बेंगाणी) दिनांक 1 अप्रैल दस्तक (सागर चन्द नाहर ) दिनांक 2 अप्रैल खाली-पीली (आशीष श्रीवास्तव) दिनांक 4 अप्रैल निठल्ला चिंतन (तरूण) दिनांक 4 अप्रैल छींटे और बौछारें (रविशंकर श्रीवास्तव) दिनांक 4 अप्रैल निनाद गाथा (अभिनव) दिनांक 5 अप्रैल मेरा पन्ना (जितेन्द्र चौधरी) दिनांक 5 अप्रैल बीच-बजार (परग कुमार मण्डले) दिनांक 5 अप्रैल उन्मुक्त (उन्मुक्त) दिनांक 9 अप्रैल झरोखा (शालिनी नारंग) दिनांक 10 अप्रैल उडन तश्तरी (समीरलाल) दिनांक 11 अप्रैल फ़ुरसतिया (अनूप शुक्ला) दिनांक 12 अप्रैल मन की बात (प्रेमलता पाण्डे) दिनांक 12 अप्रैल (ई-स्वामी) दिनांक 14 अप्रैल मेरा चिट्ठा (आशीष) दिनांक 14 अप्रैल इधर उधर की (रमण ) दिनांक 14 अप्रैल [...]
  10. अवलोकन : अनुगूजँ 18- मेरे जीवन में धर्म का महत्व at अक्षरग्राम
    [...] धर्म के उदय और अंजाम को समझाना हो तो अनूप शुक्लाजी के पास फुरसत ही फुरसत हैं  “धर्म वह व्यवस्था होती है जिसका उदय तथा शुरूआती प्रसार अन्याय, गैरबराबरी, दुख तथा शोषण मिटाकर समानता , न्याय की स्थापना करना होता है। लेकिन यह विडम्बना हर धर्म के साथ होती है कि उस पर शक्ति सम्पन्न वर्ग कब्जा कर लेता है-सामन्त, साम्राज्यवादी, व्यापारी, पूंजीपति ।“ नतिजा आज कल हम सब देख रहें हैं ”गली-गली कौड़ी के तीन स्वयंभू  भगवान टकराते रहते हैं।“  ऐसे में इनके लिए तो “वही धर्म अनुकरणीय होगा जो धर्म मानव जीवन को बेहतर बनाने में सहायक हो सके,मानवमन को उदात्त बना सके,परदुखकातर बना सके”   [...]
  11. कौन कहता है बुढ़ापे में इश्क का सिलसिला नहीं होता
    [...] पिछली पोस्ट पर समीरजी ने टिप्पणी की [...]
  12. फ़ुरसतिया-पुराने लेख
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