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पहाड़ का सीना चीरता हौसला
By फ़ुरसतिया on July 31, 2006
[अक्सर लोग साधनों का रोना रोकर तमाम कामों के पूरे न होने का
रोना रोते हैं। लेकिन कुछ सिरफिरे ऐसे भी होते हैं जो काम करने के पीछे जुट
जाते हैं फिर कुछ नहीं सोचते सिवाय काम के। ऐसे लोगों के हौसले के लिये ही
दुष्यन्त कुमार लिखा है:-
दशरथ मांझी अक्खड़ और फक्कड़ हैं। कबीरपंथी जो ठहरे। कबीर की ही तरह उनका पोथी से कभी वास्ता नहीं पड़ा।प्रेम के ढाई आखर जरूर पढ़े हैं। प्रेम भी ऐसा कि दीवानगी की हद पार कर जाये। इसी दीवानगी में उन्होंने पहाड़ का सीना छलनी कर दिया।
यह कहानी है बिहार के गया जिले के एक अति पिछड़े गांव गहलौर में रहने वाले दशरथ मांझी की। उनकी पत्नी को पानी लाने के लिये रोज गहलौर पहाड़ पार करना पड़ता था। तीन किलोमीटर की यह यात्रा काफी दुखदायी है। एक सुबह उनकी पत्नी पानी के लिये घर से निकलीं। वापसी में उसके सिर पर घड़ा न देखकर मांझी ने पूछा कि घड़ा कहाँ है? पूछने पर बताया कि पहाड़ पार करते समय पैर फिसल गया। चोट तो आई ही,पानी भरा मटका भी गिर कर टूट गया। बस उसी दिन दशरथ ने पहाड़ का मानमर्दन करने का संकल्प कर लिया।
यह बात १९६० की है।
दशरथ अकेले ही पहाड़ कटाकर रास्ता बनाने में लग गये। हाथ में छेनी-हथौड़ी लिये वे बाइस साल पहाड़ काटते रहे। रात-दिन,आंधी पानी की चिंन्ता किये बिना मांझी नामुमकिन को मुमकिन करने में जुटे रहे।
अंतत: पहाड़ को झुकना ही पड़ा। गहलौर पर्वत का मानमर्दन हो गया। अपने गांव से अमेठी तक २७ फुट ऊंचाई में पहाड़ काटकर ३६५ फीट लंबा और ३० फीट चौडा़ रास्ता बना दिया। पहाड़ काटकर रास्ता बनाए जाने से करीब ८० किलोमीटर लंबा रास्ता लगभग ३ किलोमीटर में सिमट गया।
इस अजूबे का बाद दुनिया उन्हें ‘माउन्टेन कटर’ के नाम से पुकारने लगी। सड़क तो बन गई लेकिन इस काम को पूरा होने के पहले उनकी पत्नी का देहांत हो गया। मांझी अपनी पत्नी को इस सड़क पर चलते हुये देख नहीं पाये। अस्सी वर्षीय मांझी तमाम अनकहे दुखों के साथ अपनी विधवा बेटी लौंगा व विकलांग बेटे भगीरथ के साथ रहते हैं।दुख है कि उनको घेरे रहता है,लेकिन वे जूझते रहते हैं। उनका दर्शन है कि आम आदमी को वो सब बुनियादी हक मिलें , जिनका वह हकदार है।
जुनूनी इतने हैं कि सड़क निर्माण के बाद वे गया से पैदल राष्ट्रपति से मिलने दिल्ली पहुंच गये। लेकिन राष्ट्रपति से उनकी भेंट नहीं हो सकी। इस बात का उन्हें आज भी मलाल है। मांझी की जद्दोजहद अभी खत्म नहीं हुई है। वे अपनी बनायी सड़क को पक्का करवाना चाहते हैं।
इसके लिये वे पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव से भी मिले। आश्वासन भी मिला,लेकिन कुछ हुआ नहीं। बीते सप्ताह वे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से भी जनता दरबार में मिले। मांझी को देखकर नीतीश कुमार इतना प्रभावित हुये कि उन्होंने मांझी को अपनी ही कुर्सी पर बैठा दिया। आश्वासन और आदेश भी दिये ,सड़क को पक्का कराने के। देखना है कि आगे क्या होगा? करजनी गाँव में सरकार से मिली पांच एकड़ जमीन पर वे एक बड़ा अस्पताल बनवाना चाहते हैं। वे पर्यावरण के प्रति भी काफी सजग हैं। हमेशा वृक्षारोपण और साफ सफाई के कार्यक्रम को प्रोत्साहन देते हैं। गांव और आसपास के लोगों के लिये अब वे दशरथ मांजी नहीं हैं। वे अब दशरथ बाबा हो गये हैं।
[यहां पर प्रस्तुत है हिंदी दैनिक हिंदुस्तान के संवाददाता विजय कुमार से हुई दशरथ मांझी से बातचीत के अंश]
पर्वत को काटकर रास्ता बनाने का विचार कैसे आया?
मेरी पत्नी(फगुनी देवी) रोज सुबह गांवसे गहलौर पर्वत पारकर पानी लाने के लिये अमेठी जाती थी। एक दिन वह खाली हाथ उदास मन से घर लौटी। मैंने पूछा तो बताया कि पहाड़ पार करते समय पैर फिसल गया। चोट तो आई ही पानी भरा मटका भी गिर कर टूट गया। बस मैंने उसी समय गहलौर पर्वत को चीर रास्ता बनाने का संकल्प कर लिया।
पहाड़ को काटने की दृढ़ इच्छाशक्ति और ताकत कहाँ से आई?
लोगों ने मुझे सनकी करार दिया। कभी-कभी तो मुझे भी लगता कि मैं यह क्या कर रहा हूँ? क्या इतने बड़े पर्वत को काटकर रास्ता बना पाऊंगा? फिर मेरे मन में विचार आया ,यह पर्वत तो सतयुग,द्वापर और त्रेता युग में भी था।उस समय तो देवता भी यहाँ रहते थे।उन्हें भी इस रास्ते से आने-जाने में कष्ट होता होगा,लेकिन किसी ने तब ध्यान नहीं दिया। तभी तो कलयुग में मेरी पत्नी को कष्ट उठाना पड़ रहा है।मैंने सोचा, जो काम देवताओं को करना था ,क्यों न मैं ही कर दूँ। इसके बाद न जाने कहाँ से शक्ति आ गई मुझमें । न दिन कभी दिन लगा और न रात कभी रात। बस काटता चला गया पहाड़ को।
आपने इतना बडा़ काम किया पर इसका क्या लाभ मिला आपको?
मैंने तो कभी सोचा भी नहीं कि जो काम कर रहा हूं,उसके लिए समाज को मेरा सम्मान करना चाहिये। मेरे जीवन का एकमात्र मकसद है ‘आम आदमी को वे सभी सुविधायें दिलाना ,जिसका वह हकदार है।’पहले की सरकार ने मुझ करजनी गांव में पांच एकड़ जमीन दी,लेकिन उस पर मुझे आज तक कब्जा नहीं मिल पाया। बस यही चाहता हूँ कि आसपास के लोगों को इलाज की बेहतर सुविधा मिल जाये। इसलिये मैंने मुख्यमंत्री से करजनी गांव की जमीन पर बड़ा अस्पताल बनवाने का अनुरोध किया है।
मुख्यमंत्री ने आपको अपनी कुर्सी पर बैठा दिया। कैसा लग रहा है?
मैं तो जनता दरबार में फरियादी बन कर आया था। सरकार से कुछ मांगने ।मेरा इससे बड़ा सम्मान और क्या होगा कि बिहार के मुख्यमंत्री अपनी कुर्सी मुझे सौंप दी। अब आप लोग (मीडियाकर्मी) मुझसे सवाल कर रहे हैं। मेरी तस्वीर ले रहे हैं। मुझे तो बड़ा अच्छा लग रहा है।
दशरथ मांझी ने जो काम किया उसकी कीमत सरकारी अनुसार करीब २० -२२ लाख होती है। अगर यह काम कोई ठेकेदार
करता तो कुछ महीनों में डायनामाइट वगैरह लगा के कर देता। लेकिन दशरथ मांझी अकेले जुटे रहे तथा बाईस साल में काम खत्म करके ही दम लिया। उनके हौसले को सलाम करते हुये यह लगता है कि ये कैसा समाज है जो एक अकेले आदमी को पहाड़ से जूझते देखता रहता है और उसे पागल ,खब्ती,सिरफिरा कहते हुये प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हतोत्साहित करता है। असफल होने पर पागलपन को पुख़्ता मानकर ठिठोली करता है तथा सफल हो जाने पर माला पहनाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेता है। इसके पीछे दशरथ मांझी के छोटी जाति का होना,नेतृत्व क्षमता का अभाव आदि कारण रहे होंगे लेकिन लोगों की निरपेक्ष भाव से टकटकी लगाकर दूर से तमाशा देखने की प्रवृत्ति सबसे बड़ा कारक है इस उदासीनता का।जीवन के हर क्षेत्र में सामूहिकता की भावना का अभाव हमारे समाज का बहुत निराशा जनक पहलू है।
ऐसे में दशरथ मांझी जैसे जुनूनी लोगों के लिये मुझे मुझे अपने एक मित्र के मुंह से सुनी पंक्तियां याद आती हैं:-
जो बीच भंवर में इठलाया करते हैं,
बांधा करते हैं, तट, पर नांव नहीं।
संघर्षों के,पीडा़ओं के पथ के राही
सुख का जिनके घर रहा पढ़ाव नहीं।।
जो सुमन,बीहड़ों में, वन में खिलते हैं,
वे माली के मोहताज नहीं होते।
जो दीप उम्र भर जलते हैं ,
वे दीवाली के मोहताज नहीं होते।।
(उपरोक्त शेर स्मृति के आधार पर लिखा था। राकेश खंडेलवाल जी ने गलती बतायी टिप्पणी लिखकर। राकेशजी के प्रति आभार प्रकट करते हुये सही शेर लिखा जा रहा है।)कौन कहता है आसमान में छेद नहीं हो सकता,
एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों।
कैसे आकाश में सूराख नहीं हो सकता,कल ऐसी ही एक शख्सियत बिहार के गया जिले के दशरथ मांझी के बारे में दैनिक हिंदुस्तान में प्रदीप सौरभ का लेख पढ़कर लगा कि इसे यहां पोस्ट किया जाये। सो यह लेख दशरथ माँझी के हौसले को सलाम करते हुये पोस्ट कर रहा हूँ।]
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों।
दशरथ मांझी अक्खड़ और फक्कड़ हैं। कबीरपंथी जो ठहरे। कबीर की ही तरह उनका पोथी से कभी वास्ता नहीं पड़ा।प्रेम के ढाई आखर जरूर पढ़े हैं। प्रेम भी ऐसा कि दीवानगी की हद पार कर जाये। इसी दीवानगी में उन्होंने पहाड़ का सीना छलनी कर दिया।
यह कहानी है बिहार के गया जिले के एक अति पिछड़े गांव गहलौर में रहने वाले दशरथ मांझी की। उनकी पत्नी को पानी लाने के लिये रोज गहलौर पहाड़ पार करना पड़ता था। तीन किलोमीटर की यह यात्रा काफी दुखदायी है। एक सुबह उनकी पत्नी पानी के लिये घर से निकलीं। वापसी में उसके सिर पर घड़ा न देखकर मांझी ने पूछा कि घड़ा कहाँ है? पूछने पर बताया कि पहाड़ पार करते समय पैर फिसल गया। चोट तो आई ही,पानी भरा मटका भी गिर कर टूट गया। बस उसी दिन दशरथ ने पहाड़ का मानमर्दन करने का संकल्प कर लिया।
यह बात १९६० की है।
दशरथ अकेले ही पहाड़ कटाकर रास्ता बनाने में लग गये। हाथ में छेनी-हथौड़ी लिये वे बाइस साल पहाड़ काटते रहे। रात-दिन,आंधी पानी की चिंन्ता किये बिना मांझी नामुमकिन को मुमकिन करने में जुटे रहे।
अंतत: पहाड़ को झुकना ही पड़ा। गहलौर पर्वत का मानमर्दन हो गया। अपने गांव से अमेठी तक २७ फुट ऊंचाई में पहाड़ काटकर ३६५ फीट लंबा और ३० फीट चौडा़ रास्ता बना दिया। पहाड़ काटकर रास्ता बनाए जाने से करीब ८० किलोमीटर लंबा रास्ता लगभग ३ किलोमीटर में सिमट गया।
इस अजूबे का बाद दुनिया उन्हें ‘माउन्टेन कटर’ के नाम से पुकारने लगी। सड़क तो बन गई लेकिन इस काम को पूरा होने के पहले उनकी पत्नी का देहांत हो गया। मांझी अपनी पत्नी को इस सड़क पर चलते हुये देख नहीं पाये। अस्सी वर्षीय मांझी तमाम अनकहे दुखों के साथ अपनी विधवा बेटी लौंगा व विकलांग बेटे भगीरथ के साथ रहते हैं।दुख है कि उनको घेरे रहता है,लेकिन वे जूझते रहते हैं। उनका दर्शन है कि आम आदमी को वो सब बुनियादी हक मिलें , जिनका वह हकदार है।
जुनूनी इतने हैं कि सड़क निर्माण के बाद वे गया से पैदल राष्ट्रपति से मिलने दिल्ली पहुंच गये। लेकिन राष्ट्रपति से उनकी भेंट नहीं हो सकी। इस बात का उन्हें आज भी मलाल है। मांझी की जद्दोजहद अभी खत्म नहीं हुई है। वे अपनी बनायी सड़क को पक्का करवाना चाहते हैं।
इसके लिये वे पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव से भी मिले। आश्वासन भी मिला,लेकिन कुछ हुआ नहीं। बीते सप्ताह वे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से भी जनता दरबार में मिले। मांझी को देखकर नीतीश कुमार इतना प्रभावित हुये कि उन्होंने मांझी को अपनी ही कुर्सी पर बैठा दिया। आश्वासन और आदेश भी दिये ,सड़क को पक्का कराने के। देखना है कि आगे क्या होगा? करजनी गाँव में सरकार से मिली पांच एकड़ जमीन पर वे एक बड़ा अस्पताल बनवाना चाहते हैं। वे पर्यावरण के प्रति भी काफी सजग हैं। हमेशा वृक्षारोपण और साफ सफाई के कार्यक्रम को प्रोत्साहन देते हैं। गांव और आसपास के लोगों के लिये अब वे दशरथ मांजी नहीं हैं। वे अब दशरथ बाबा हो गये हैं।
[यहां पर प्रस्तुत है हिंदी दैनिक हिंदुस्तान के संवाददाता विजय कुमार से हुई दशरथ मांझी से बातचीत के अंश]
पर्वत को काटकर रास्ता बनाने का विचार कैसे आया?
मेरी पत्नी(फगुनी देवी) रोज सुबह गांवसे गहलौर पर्वत पारकर पानी लाने के लिये अमेठी जाती थी। एक दिन वह खाली हाथ उदास मन से घर लौटी। मैंने पूछा तो बताया कि पहाड़ पार करते समय पैर फिसल गया। चोट तो आई ही पानी भरा मटका भी गिर कर टूट गया। बस मैंने उसी समय गहलौर पर्वत को चीर रास्ता बनाने का संकल्प कर लिया।
पहाड़ को काटने की दृढ़ इच्छाशक्ति और ताकत कहाँ से आई?
लोगों ने मुझे सनकी करार दिया। कभी-कभी तो मुझे भी लगता कि मैं यह क्या कर रहा हूँ? क्या इतने बड़े पर्वत को काटकर रास्ता बना पाऊंगा? फिर मेरे मन में विचार आया ,यह पर्वत तो सतयुग,द्वापर और त्रेता युग में भी था।उस समय तो देवता भी यहाँ रहते थे।उन्हें भी इस रास्ते से आने-जाने में कष्ट होता होगा,लेकिन किसी ने तब ध्यान नहीं दिया। तभी तो कलयुग में मेरी पत्नी को कष्ट उठाना पड़ रहा है।मैंने सोचा, जो काम देवताओं को करना था ,क्यों न मैं ही कर दूँ। इसके बाद न जाने कहाँ से शक्ति आ गई मुझमें । न दिन कभी दिन लगा और न रात कभी रात। बस काटता चला गया पहाड़ को।
आपने इतना बडा़ काम किया पर इसका क्या लाभ मिला आपको?
मैंने तो कभी सोचा भी नहीं कि जो काम कर रहा हूं,उसके लिए समाज को मेरा सम्मान करना चाहिये। मेरे जीवन का एकमात्र मकसद है ‘आम आदमी को वे सभी सुविधायें दिलाना ,जिसका वह हकदार है।’पहले की सरकार ने मुझ करजनी गांव में पांच एकड़ जमीन दी,लेकिन उस पर मुझे आज तक कब्जा नहीं मिल पाया। बस यही चाहता हूँ कि आसपास के लोगों को इलाज की बेहतर सुविधा मिल जाये। इसलिये मैंने मुख्यमंत्री से करजनी गांव की जमीन पर बड़ा अस्पताल बनवाने का अनुरोध किया है।
मुख्यमंत्री ने आपको अपनी कुर्सी पर बैठा दिया। कैसा लग रहा है?
मैं तो जनता दरबार में फरियादी बन कर आया था। सरकार से कुछ मांगने ।मेरा इससे बड़ा सम्मान और क्या होगा कि बिहार के मुख्यमंत्री अपनी कुर्सी मुझे सौंप दी। अब आप लोग (मीडियाकर्मी) मुझसे सवाल कर रहे हैं। मेरी तस्वीर ले रहे हैं। मुझे तो बड़ा अच्छा लग रहा है।
दशरथ मांझी ने जो काम किया उसकी कीमत सरकारी अनुसार करीब २० -२२ लाख होती है। अगर यह काम कोई ठेकेदार
करता तो कुछ महीनों में डायनामाइट वगैरह लगा के कर देता। लेकिन दशरथ मांझी अकेले जुटे रहे तथा बाईस साल में काम खत्म करके ही दम लिया। उनके हौसले को सलाम करते हुये यह लगता है कि ये कैसा समाज है जो एक अकेले आदमी को पहाड़ से जूझते देखता रहता है और उसे पागल ,खब्ती,सिरफिरा कहते हुये प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हतोत्साहित करता है। असफल होने पर पागलपन को पुख़्ता मानकर ठिठोली करता है तथा सफल हो जाने पर माला पहनाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेता है। इसके पीछे दशरथ मांझी के छोटी जाति का होना,नेतृत्व क्षमता का अभाव आदि कारण रहे होंगे लेकिन लोगों की निरपेक्ष भाव से टकटकी लगाकर दूर से तमाशा देखने की प्रवृत्ति सबसे बड़ा कारक है इस उदासीनता का।जीवन के हर क्षेत्र में सामूहिकता की भावना का अभाव हमारे समाज का बहुत निराशा जनक पहलू है।
ऐसे में दशरथ मांझी जैसे जुनूनी लोगों के लिये मुझे मुझे अपने एक मित्र के मुंह से सुनी पंक्तियां याद आती हैं:-
जो बीच भंवर में इठलाया करते हैं,
बांधा करते हैं, तट, पर नांव नहीं।
संघर्षों के,पीडा़ओं के पथ के राही
सुख का जिनके घर रहा पढ़ाव नहीं।।
जो सुमन,बीहड़ों में, वन में खिलते हैं,
वे माली के मोहताज नहीं होते।
जो दीप उम्र भर जलते हैं ,
वे दीवाली के मोहताज नहीं होते।।
Posted in इनसे मिलिये, बस यूं ही, सूचना | 33 Responses
सरकारी आश्वासन तो सिर्फ़ आश्वासन ही होते है। दशरथ मांझी जी के कार्यों को तो दुनिया की नजर मे लाना चाहिए, दशरथ भाई जैसे लोग हमारे ब्रान्ड एम्बैसडर होने चाहिए। सचमुच भारतवर्ष को उन पर नाज होना चाहिए।
कई वर्षों पहले मनोहर कहानियाँ में भी दशरथ बाबा की कहानी प्रकाशित हुई थी।
एकाकी प्रयास से पहाड़ों का सीना चीर देने वाले, अकेले बड़े-बड़े वनों का वृक्षारोपण करने वाले जीवटयुक्त व्यक्तियों की कमी नहीं है हमारे यहाँ। धुन के पक्के, किसी की परवाह नहीं करने वाले ऐसे ही दुस्साहसी लोगों के बल पर अजूबे लगने वाले काम संपन्न हो पाते हैं। विडंबना यह है कि सरकार और समाज से ऐसे व्यक्तियों को उचित सम्मान नहीं मिल पाता।
और आपको बहुत बहुत धन्यवाद, उन्हे हमारे ख्यालों में लाने के लिये।
अग्रिम क्षमायाचना सहित निवेदन है कि डुष्यन्त कुमार की गज़ल का शेर
दुरुस्त कर लें. सन्दर्भ के लिये उनकी पुस्तक देखें” साये में धूप ” जिसमें यह गज़ल शामिल है.आपका लेख बहुत अच्छा लगा
वैसे इस शेर का मैने तो वर्ज़न सुना है..वो फ़ुरसतिया जी वाला ही है। खन्डेल्वाल जी वाला वर्ज़न तो मैंने पहली बर सुना..
सबसे पहले आपका धन्यवाद। कम से कम मुझे तो दशरथ जी के बारे में नहीं मालूम था और आपके लेख नें ही मुझे यह जानकारी दी। इसके बाद मुझे उनके बारे में और जानने की उत्सुकता हुई और मैंने संजाल पर भी खोजा और पाया कि उनके बारे में यदा कदा और कुछ समाचार पत्रों व अन्य लोगों ने भी लिखा है। एक स्थान पर उनका चित्र भी मिला, एक लेख ने तो उनकी तुलना शाहजहाँ से भी कर दी – ताजमहल के निर्माण संकल्प के कारण – परंतु मेरे अपने विचार में तो दशरथ जी का स्थान स्वयं किये गये अनवरत श्रम के कारण और भी ऊपर होना चाहिये। इस सन्दर्भ में मुझे दो और व्यक्ति याद आते हैं –
1 – मार्क इंग्लिस, जिनका नाम भी हाल में प्रकाश में आया था और इसी वर्ष मई में उन्होंने एवेरेस्ट की चोटी पर पहुंचने में सफलता प्राप्त की थी – ग़ौरतलब यह कि श्री मार्क के दोनों ही पैर नहीं हैं और उन्होंने titanium के कृत्रिम पैरों और अपने अदम्य साहस के बल पर यह अजूबा कर दिखाया।
2- प्रो. स्टीफेन हाकिंग, जिन्होनें अपनी शारीरिक अक्षमता जिसके चलते उनका मस्तिष्क उनके अंगों का संचालन ही नहीं कर सकता, मात्र कुछ उंगलियों को छोड़ कर। ऐसी अक्षमता के चलते उन्होंने विज्ञान के क्षेत्र कई आयाम स्थापित किये हैं, और इसके पीछे भी उनकी दृढ़ मन: शक्ति और साहस ही है।
मेरे अपने विचार से तो श्री दशरथ द्वारा किया गया कार्य इन महानुभावों की उपलब्धियों के समकक्ष ही है। अदम्य साहस और दृढ़ इच्छा शक्ति, इन तीनों में ही कूट-कूट कर भरी है। यदि हम कल्पना भी करें तो जानेंगे कि अखिरकार 20-22 वर्ष तक अनवरत अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिये मेहनत और संघर्ष करते रहना कोई साधारण कार्य नहीं है, और वह भी तब जब कि समाज का अपेक्षित सहयोग न मिला हो और आप अकेले ही इस प्रयास मैं रत हों। उपरोक्त सभी महानुभाव भिन्न कार्य क्षेत्रों में होते हुए भी समानांतर रूप से सराहनीय हैं और सभी के लिये प्रेरणा के स्रोत। मैं भी श्री दशरथ जी को शत्-शत् नमन करता हूँ।
यह भी विडम्बना है और इस बात का मलाल भी होता है कि कुछ तो मीडिआ (यद्यपि चुनिन्दा समाचार पत्रों ने उनके बारे में समाचार और लेख प्रकाशित किये हैं) और बाकी अपने राजनीतिज्ञों की उदासीनता के कारण श्री दशरथ को वह यश, प्रशस्ति और सम्मान कदाचित न मिल पाया जिसके कि वे अधिकारी हैं। यदि इस प्रकार की कोई उपलब्धता किसी पश्चिमी देश के नागरिक ने प्राप्त की होती तो वहाँ की सरकार, जन समुदाय, मीडिआ सभी ने उनकी प्रशंसा और महानता का ऐसा गुणगान किया होता कि उसके सुर हमारे यहाँ भी स्पष्ट सुने जाते और यहाँ के जन-मानस के पटल पर भी ऐसे महान व्यक्ति की महिमामंडित छवि अंकित होती, उदाहरण के रूप में, माइकेल शूमाकर को उनकी उपलब्धियों के लिये हमारे निम्न मध्यमवर्गीय से ले कर उच्च वर्ग का तक का एक बड़ा अंश जानता है – शायद अधिक भी। परंतु श्री दशरथ मांझी के बारे में बहुत कम लोग – या शायद मैं ही अनभिज्ञ था!
India need people like Dhasrat baba
दसरथ manjhiवैरी गुड man .
i read बुक ऑफ़ दसरथ मांझी.
I AM STUDENT.
I READ IN BOOK OF DASHRATH MANJHI.
HE IS A GOOD MAN .
दसरथ मांझी इन बिर्थ DAY 1934
वे दीवाली के मोहताज नहीं होते…दशरथ मांझी के हौंसले को सलाम.