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अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।
गुरु गुन लिखा न जाये…
हमारे जीवन को दिशा देने वाले सबसे महत्वपूर्ण योगदान हमारे गुरूजी बाजपेयी जी का रहा है। लेकिन हमारे जीवन में पढ़ाई के शुरुआती संस्कार डाले हमारे पंडितजी ने। पंडित श्याम किशोर अवस्थी जी ने। जिनको हम अवस्थी पंडितजी कहते थे।
बचपन में हम घर के पास ही आनंदबाग स्थित नगरमहापालिका के प्राइमरी स्कूल में कक्षा एक से पांच तक पढ़े।स्कूल पहली मंजिल पर था। हम वहीं पर अवस्थी पंडितजी के छत्रछाया में ककहरा सीखे।कक्षा एक से लेकर पांच तक हमको उन्होंने ही पढा़या।बाद में वे बेसिक शिक्षा अधिकारी के पद से सेवानिवत हुये।
अवस्थी पंडित जी साधारण कद के ,खूब गोरे ,चेहरे पर चेचक के दाग होने के बावजूद खूबसूरत लगते थे।जिन दिनों हम कक्षा एक में गये उससे कुछ ही पहले उनकी नौकरी लगी थी। शादी जब हुई उनकी तब हम शायद कक्षा दो में थे। शादी का सूट पहनकर जब वे आते तो बहुत अच्छे लगते।
पंडितजी को पढा़ने का बहुत शौक था। वे हम लोगों को तरह-तरह से पढ़ने के प्रति उकसाते। रोज शाम को एक घंटा खड़े करके पहाड़े रटवाते। इसी का नतीजा है कि शायद कि आज भी सोते से उठाकर भी कोई पहाड़ा पूछे तो बिना गलती के सुना दूँ शायद।
पंडितजी को खेलकूद का भी बहुत शौक था। हम लोगों को रोज शाम को बाहर बरामदे में लाकर पूरी क्लास को दो भागों में बांट देते तथा कबड्डी खिलाते। कभी-कभी खो-खो भी होता लेकिन कबड्डी में उनका तथा बाद में हम लोगोंका भी मन ज्यादा रमता था।
मेरे अंदर साहित्यिक संस्कार यदि कुछ हैं तो वे हमारे पंडितजी के कारण।छुटपन से ही वे हम लोगों को कविताओं तथा रामचरित मानस की चौपाइयों का प्रयोग कराके अंत्याक्षरी खिलाते । इसमें हम लोगों का मन लग गया तथा सैंकड़ों चौपाइयाँ याद हो गयीं। शुरू के दिनों की याद की हुई कवितायें अक्सर याद आ जाती हैं।
एक दिन हम ऐसे ही क्लास में कोई कविता सुना रहे थे । कविता खतम हुई तो पीछे बरामदे से एक पेंसिल हमारे पास गिरी। पता चला कि हमारे बहुत कड़क मानेजाने वाले हेडमास्टर बरामदे से कविता सुन रहे थे तथा खुश होकर पेंसिल फेंककर इनाम दे दिया था। यह कुछ ऐसा ही है जैसा कि अमरीका जब किसी देश पर खुश हो जाता है उसपर कारपेट बांबिंग कर देता है। प्रेम प्रदर्शन का इससे बेहतर तरीका अभी वो सीख भी नहीं पाया है।
पंडितजी आम तौर पर कम ही नाराज होते थे लेकिन जब होते थे तो उसके इजहार के लिये या तो बच्चों को मुर्गा बना देते या डंडा बरसाते। डंडा उनका काले रंग का एक फुट करीब लंबा तथा करीब एक इंच व्यास का था। अब बच्चों को इस तरह के प्रसाद कहाँ मिल पाते हैं!
पंडितजी दुर्गा भक्त थे। क्लास के एक किनारे बनी अलमारी में दुर्गाजी की फोटो लगायी थी जिसकी देखभाल ,साफ-सफाई की जिम्मेदारी हम लोगों की थी।
गुरूजी का हस्तलेख बहुत अच्छा था। वे हम लोगों को रोज इमला बोलकर लिखवाते थे। हम लोगों की कलम बनवाने के लिये पूरी कक्षा से पांच-पांच पैसे चंदा करके एक चाकू खरीदा गया था । मानीटर होने के नाते वह चाकू हमारे कब्जे में रहता था। जिस किसी को अपनी कलम बनवानी होती या तो हम उसकी कलम बना देते या फिर अपनी निगरानी में उससे बनवाते।
हमें अपनी खड़िया-पाटी के दिन अभी भी बखूबी याद हैं। लकड़ी की तख्ती में मंगलसूत्र सा टंगा ‘बुदका’ ।’ बुदके’ में घुली हुई खड़िया तथा बस्ते में सरकंडे के कलम। पाटी कालिख से रंग-पोतकर तथा शीशी को घोंटते। घंटों घोंटने के बाद हमारी पाटी चमकने लगती। फिर उस पर जब हम लिखते तो पहले तो कुछ अनाकर्षक सा लगता लेकिन खड़िया सूख जाने के बाद अक्षर मोती से चमकने लगते।
पंडितजी हमारे लिये सब कुछ थे। उनके ज्ञान के आगे हमें कुछ सूझता नहीं था। हम उनके सारे काम गुरुकुल परंपरा के अनुसार करते रहते। गुरूजी को पानी पिलाना,उनके लिये पास की दुकान से चाय लाना । इस सबमें हमें कभी कुछ भी खराब नहीं लगता।
धीरे-धीरे हम पंडितजी के सबसे प्रिय शिष्य बन गये। पढ़ाई,खेलकूद सबमें अव्वल। अब सोचता हूँ तो लगता है कि अन्य कारणों के अलावा जाति से ब्राह्मण होना भी शायद प्रिय बनने में सहायक रहा होगा।हमारा घर पास ही था। कभी-कभी हमारे पिताजी से उनकी मुलाकात होती। वे हमारे पिताजी को भाईसाहब कहते थे।
एक बार अपने गाँव पड़रीलालपुर से कानपुर आ रहे थे। रास्ते में टेम्पो एक्सीडेंट हो जाने के कारण उनके पैर की हड्डी टूट गयी। हम उनको अपने घर से लगभग रोज गांधीनगर से कर्नलगंज देखने जाते। कुछ देर पैर छूकर उनके पास बैठते,बातें करते, चले आते।
यह तब की बात है जब मैं तीसरे या चौथे में पढ़ता था। गांधीनगर से कर्नलगंज करीब चार-पांच किलोमीटर होगा। मैं पैदल अकेले उनको शाम को देखने जाता। आज अपने पांचवे में पढ़ने वाले बच्चे को कालोनी तक में अकेले खेलने जाने देने में हम लोग हिचकते हैं। उसके स्कूल बस एकदम घर के सामने सड़क से जाती है। जब तक बस पर वह चढ़ नहीं जाता तब तक हमारे घर का कोई न कोई सदस्य उसके साथ रहता है या उस पर निगाह रखता है।
बीतते समय के साथ क्या बच्चों के प्रति प्यार,लगाव बढ़ गया है या आर्थिक बेहतरी का मानसिक असुरक्षा भावना से कुछ संबंध है?
करते-करते हम कक्षा पांच पास कर गये। हमारे गुरूजी ने हमें नंबर दिये थे १४७/ १५० ।हमारी आगे की पढ़ाई की चिंता भी पंडितजी को थी। यह स्कूल कक्षा पांच तक ही था। आगे के लिये उन्होंने हमें जीआईसी,कानपुर में भर्ती कराने की सलाह दी। हम टेस्ट देने गये। रिजल्ट निकला तो हमारा नंबर साठ बच्चों में सत्तावनवाँ था। हमारे एक महीने पहले मिले नंबर १४७/ १५० हमें मुँह चिढ़ा रहे थे।
बहरहाल हम वहाँ भरती हुये तथा जब हाईस्कूल का रिजल्ट आया तो हमारे नंबर स्कूल में सबसे ज्यादा थे। लेकिन जी.आई. सी.में हमें कोई ऐसे गुरू नहीं मिले जिसका हम पर कोई खास प्रभाव पड़ा हो। हाईस्कूल के बाद जब हम बगल के बी.एन. एस.डी.में गये तो हम फिर हक्का-बक्का हो गये।
एक से एक धांसू अध्यापक। उसपर करेला पर नीम यह कि पढ़ाई का माध्यम अंग्रेजी।जबकि हमने अंग्रेजी कक्षा ६ से सीखी तथा रोते-धोते पास होते गये। बहरहाल हम यहाँ भी मेहनत करते रहे तथा डाँवाडोल होते रहने के बावजूद पढ़ने में जुटे रहे।
यहीं में एक साल बाद मिले हमारे गुरू बाजपेयी जी जिन्होंने हमारे साथ अनगिनत छात्रों के
जीवन को दिशा दी तथा हमें यह अहसास कराया कि दुनिया में कोई ऐसा काम नहीं है जो दूसरा कर सकता है और हम नहीं कर सकते।
आज शिक्षक दिवस के अवसर पर अपने सारे गुरुजनों को याद करते हुये यही दोहराता हूँ:-
सब धरती कागद करूँ,लेखन सब बनराय,
सात समुद्र की मसि करुँ,गुरु गुन लिखा न जाये।
बचपन में हम घर के पास ही आनंदबाग स्थित नगरमहापालिका के प्राइमरी स्कूल में कक्षा एक से पांच तक पढ़े।स्कूल पहली मंजिल पर था। हम वहीं पर अवस्थी पंडितजी के छत्रछाया में ककहरा सीखे।कक्षा एक से लेकर पांच तक हमको उन्होंने ही पढा़या।बाद में वे बेसिक शिक्षा अधिकारी के पद से सेवानिवत हुये।
अवस्थी पंडित जी साधारण कद के ,खूब गोरे ,चेहरे पर चेचक के दाग होने के बावजूद खूबसूरत लगते थे।जिन दिनों हम कक्षा एक में गये उससे कुछ ही पहले उनकी नौकरी लगी थी। शादी जब हुई उनकी तब हम शायद कक्षा दो में थे। शादी का सूट पहनकर जब वे आते तो बहुत अच्छे लगते।
पंडितजी को पढा़ने का बहुत शौक था। वे हम लोगों को तरह-तरह से पढ़ने के प्रति उकसाते। रोज शाम को एक घंटा खड़े करके पहाड़े रटवाते। इसी का नतीजा है कि शायद कि आज भी सोते से उठाकर भी कोई पहाड़ा पूछे तो बिना गलती के सुना दूँ शायद।
पंडितजी को खेलकूद का भी बहुत शौक था। हम लोगों को रोज शाम को बाहर बरामदे में लाकर पूरी क्लास को दो भागों में बांट देते तथा कबड्डी खिलाते। कभी-कभी खो-खो भी होता लेकिन कबड्डी में उनका तथा बाद में हम लोगोंका भी मन ज्यादा रमता था।
मेरे अंदर साहित्यिक संस्कार यदि कुछ हैं तो वे हमारे पंडितजी के कारण।छुटपन से ही वे हम लोगों को कविताओं तथा रामचरित मानस की चौपाइयों का प्रयोग कराके अंत्याक्षरी खिलाते । इसमें हम लोगों का मन लग गया तथा सैंकड़ों चौपाइयाँ याद हो गयीं। शुरू के दिनों की याद की हुई कवितायें अक्सर याद आ जाती हैं।
एक दिन हम ऐसे ही क्लास में कोई कविता सुना रहे थे । कविता खतम हुई तो पीछे बरामदे से एक पेंसिल हमारे पास गिरी। पता चला कि हमारे बहुत कड़क मानेजाने वाले हेडमास्टर बरामदे से कविता सुन रहे थे तथा खुश होकर पेंसिल फेंककर इनाम दे दिया था। यह कुछ ऐसा ही है जैसा कि अमरीका जब किसी देश पर खुश हो जाता है उसपर कारपेट बांबिंग कर देता है। प्रेम प्रदर्शन का इससे बेहतर तरीका अभी वो सीख भी नहीं पाया है।
पंडितजी आम तौर पर कम ही नाराज होते थे लेकिन जब होते थे तो उसके इजहार के लिये या तो बच्चों को मुर्गा बना देते या डंडा बरसाते। डंडा उनका काले रंग का एक फुट करीब लंबा तथा करीब एक इंच व्यास का था। अब बच्चों को इस तरह के प्रसाद कहाँ मिल पाते हैं!
पंडितजी दुर्गा भक्त थे। क्लास के एक किनारे बनी अलमारी में दुर्गाजी की फोटो लगायी थी जिसकी देखभाल ,साफ-सफाई की जिम्मेदारी हम लोगों की थी।
गुरूजी का हस्तलेख बहुत अच्छा था। वे हम लोगों को रोज इमला बोलकर लिखवाते थे। हम लोगों की कलम बनवाने के लिये पूरी कक्षा से पांच-पांच पैसे चंदा करके एक चाकू खरीदा गया था । मानीटर होने के नाते वह चाकू हमारे कब्जे में रहता था। जिस किसी को अपनी कलम बनवानी होती या तो हम उसकी कलम बना देते या फिर अपनी निगरानी में उससे बनवाते।
हमें अपनी खड़िया-पाटी के दिन अभी भी बखूबी याद हैं। लकड़ी की तख्ती में मंगलसूत्र सा टंगा ‘बुदका’ ।’ बुदके’ में घुली हुई खड़िया तथा बस्ते में सरकंडे के कलम। पाटी कालिख से रंग-पोतकर तथा शीशी को घोंटते। घंटों घोंटने के बाद हमारी पाटी चमकने लगती। फिर उस पर जब हम लिखते तो पहले तो कुछ अनाकर्षक सा लगता लेकिन खड़िया सूख जाने के बाद अक्षर मोती से चमकने लगते।
पंडितजी हमारे लिये सब कुछ थे। उनके ज्ञान के आगे हमें कुछ सूझता नहीं था। हम उनके सारे काम गुरुकुल परंपरा के अनुसार करते रहते। गुरूजी को पानी पिलाना,उनके लिये पास की दुकान से चाय लाना । इस सबमें हमें कभी कुछ भी खराब नहीं लगता।
धीरे-धीरे हम पंडितजी के सबसे प्रिय शिष्य बन गये। पढ़ाई,खेलकूद सबमें अव्वल। अब सोचता हूँ तो लगता है कि अन्य कारणों के अलावा जाति से ब्राह्मण होना भी शायद प्रिय बनने में सहायक रहा होगा।हमारा घर पास ही था। कभी-कभी हमारे पिताजी से उनकी मुलाकात होती। वे हमारे पिताजी को भाईसाहब कहते थे।
एक बार अपने गाँव पड़रीलालपुर से कानपुर आ रहे थे। रास्ते में टेम्पो एक्सीडेंट हो जाने के कारण उनके पैर की हड्डी टूट गयी। हम उनको अपने घर से लगभग रोज गांधीनगर से कर्नलगंज देखने जाते। कुछ देर पैर छूकर उनके पास बैठते,बातें करते, चले आते।
यह तब की बात है जब मैं तीसरे या चौथे में पढ़ता था। गांधीनगर से कर्नलगंज करीब चार-पांच किलोमीटर होगा। मैं पैदल अकेले उनको शाम को देखने जाता। आज अपने पांचवे में पढ़ने वाले बच्चे को कालोनी तक में अकेले खेलने जाने देने में हम लोग हिचकते हैं। उसके स्कूल बस एकदम घर के सामने सड़क से जाती है। जब तक बस पर वह चढ़ नहीं जाता तब तक हमारे घर का कोई न कोई सदस्य उसके साथ रहता है या उस पर निगाह रखता है।
बीतते समय के साथ क्या बच्चों के प्रति प्यार,लगाव बढ़ गया है या आर्थिक बेहतरी का मानसिक असुरक्षा भावना से कुछ संबंध है?
करते-करते हम कक्षा पांच पास कर गये। हमारे गुरूजी ने हमें नंबर दिये थे १४७/ १५० ।हमारी आगे की पढ़ाई की चिंता भी पंडितजी को थी। यह स्कूल कक्षा पांच तक ही था। आगे के लिये उन्होंने हमें जीआईसी,कानपुर में भर्ती कराने की सलाह दी। हम टेस्ट देने गये। रिजल्ट निकला तो हमारा नंबर साठ बच्चों में सत्तावनवाँ था। हमारे एक महीने पहले मिले नंबर १४७/ १५० हमें मुँह चिढ़ा रहे थे।
बहरहाल हम वहाँ भरती हुये तथा जब हाईस्कूल का रिजल्ट आया तो हमारे नंबर स्कूल में सबसे ज्यादा थे। लेकिन जी.आई. सी.में हमें कोई ऐसे गुरू नहीं मिले जिसका हम पर कोई खास प्रभाव पड़ा हो। हाईस्कूल के बाद जब हम बगल के बी.एन. एस.डी.में गये तो हम फिर हक्का-बक्का हो गये।
एक से एक धांसू अध्यापक। उसपर करेला पर नीम यह कि पढ़ाई का माध्यम अंग्रेजी।जबकि हमने अंग्रेजी कक्षा ६ से सीखी तथा रोते-धोते पास होते गये। बहरहाल हम यहाँ भी मेहनत करते रहे तथा डाँवाडोल होते रहने के बावजूद पढ़ने में जुटे रहे।
यहीं में एक साल बाद मिले हमारे गुरू बाजपेयी जी जिन्होंने हमारे साथ अनगिनत छात्रों के
जीवन को दिशा दी तथा हमें यह अहसास कराया कि दुनिया में कोई ऐसा काम नहीं है जो दूसरा कर सकता है और हम नहीं कर सकते।
आज शिक्षक दिवस के अवसर पर अपने सारे गुरुजनों को याद करते हुये यही दोहराता हूँ:-
सब धरती कागद करूँ,लेखन सब बनराय,
सात समुद्र की मसि करुँ,गुरु गुन लिखा न जाये।
Posted in संस्मरण | 10 Responses
मेरे मत मे दोनो का ही योगदान कुछ आवश्यकता से अधिक मात्रा मे है.
शिक्षक दिवस के अवसर पर इतने सुंदर लेख के लिये बधाई एवं समस्त गुरुजनों को हार्दिक नमन.
बलिहारी गुरू आपणे गोबिन्द दियो मिलाए
इण्टर मे मैने पहली बार किसी सरकारी स्कूल कलेज मे पाव रखा मगर यह मेरे जीवन को सबसे परिर्वतन भरा दो साल रहा मेरे तीन अध्यापक श्री जी0 पी0 सिंह जी नागरिक शास्त्र,शारदा प्रसाद जी अर्थशास्त्र तथा राजेन्द्र प्रसाद गौड जी संस्कृत का मेरे प्रिय अध्यापक रहे। जीपी सिंह जी बारे मे एक तथ्य पूरे स्कूल मे मुझे ही मालूम था यह कि उनका पूरा नाम क्या था घूर फेकन तिवारी मै दो साल तक विद्यालय मे रहा मगर मैने किसी भी मित्र को यह नही बताया कि उनका पूरा नाम क्या है तथा कई अध्यापक भी उनका नाम नही जानते थे। शारदा सर ये एक माली है शिक्षक होते हुये भी अपना पैत्रिक काम को नही छोडा आज भी शाम को ललिता देवी मन्दिर मे फूल बेचते दिखेगे पर पढाई के आगे कर्म तथा कर्म के आगे पढाई कभी आडे आने नही दिया। राजेन्द्र प्रसाद जी मेरे सबसे प्रिय ये भी पेशे से पडित है बहुत ही अच्छे है ये भी एक हमारे यहां 8 पीरियडमे से 5 सव्जेक्ट हो ने के कारण 5 ही चलते थे मेरे पहला तथा दूसरा पीरियड खाली रहता था जब भी मै जाता था तो वे मुझे एक्ट्रा पढते थे। एक बार की बात है मैने पएने के लिये गया शायद वे व्यक्ति गत कारण से परेशान थे और वे मुझसे बिगड गये मेरे पाय कोई काम नही है बस तुम्हारे लिये ही मै हू मै नही पढउगा। मेरे आख से आसू आगाये पर अगले दिन मै नही गया तो उन्होने मुझे बुला कर गले लगा लिया। शारदा जी और गौड जी के कारण मेरा स्नातक विषय अर्थशास्त्र और संस्कृत रहा।
स्नातक प्रतेयेक व्यकित्ा के लिये महत्वपूर्ण होता है हिन्दी तो मेरा प्रिय नही रहा पर मरे प्रिय अध्यपक रहे चन्दा देव संस्कृत के अध्यपक रहे विभागाघ्यक्ष मृदुला जी, केके श्रीवास्तव, एसडी द्विवेदी तथा अर्थशास्त्र के श्री मनमोहन कृष्ण, विभागाध्यक्ष पीएन मल्होत्रा, चतुवेदी सर, जैन सर और किरण सिंह।
कुछ खट्टी मीठी यादो के साथ सभी शिक्षको को नमन तथा सभी लोगो को इस दिवस की बधाई।
चलते चलते उज्जैन की याद आगयी हम जैसे विद्यार्थियो के लिये इससे बडा राष्ट्रीय शर्म और क्या होगा कि एक शिक्षक को शिष्यो ने हि पीट पीट कर मार डाला। मृतक शिक्षक प्रो. हरभजन सिंह सभरवाल को श्रृद्धाजंली
प्राथमिक से लेकर १२ वी तक के मेरे जितने भी शिक्षक थे, उनके आज भी हम(ना केवल मै मेरे अधिकतर सहपाठी) चरण छुते है। जबकि ये वह शिक्षक थे, जो गलती करने पर घंटो मुर्गा बनाकर रखते थे, अधिकतर शिक्षको के पास एक रूल(लकडी का एक फुट का डंडा) होता था। सजा देने मे कोई कोताही नही बरती जाती थी।
लेकिन शिक्षको के सम्मान मे कोई कमी नही होती थी।
उद्दंड से उद्दंड छात्रो को जो लडाई झगडो मे सबसे आगे रहते थे, किसी का सर फोड देना जिनके लिये आम बात होती थी, उन्हे भी मैने शिक्षको की दी सजा को सर झुका कर स्वीकार करते देखा है। मेरा ये अनुभव ज्यादा पूराना भी नही यही कोई दस साल पूराना है। मैने कालेज १९९७ मे खत्म किया है।
फ़ुरसतिया पंडित , आभार !
पुनश्च : ‘गुरु जी जहां बैठूं वहां छाया दे’
— कुमार गंधर्व का गाया कबीर का यह पद याद आ रहा है .