http://web.archive.org/web/20110906151955/http://hindini.com/fursatiya/archives/192
अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।
चाह गयी चिंता मिटी…
[बैठे से बेगार भली मानते हुये कल जब पुराने लेख देख देख
रहा था तो यह लेख दिखा । पन्द्रह साल पहले इस लेख का मानना था कि जब मैं दो
साल में महाब्लागर बन गया तो ऐसा कैसे है कि वह अभी तक लेख ही बना हुआ
है,महालेख काहे नहीं बना। बहरहाल यह सब बातें ऐसे ही हैं। आप इसे पढ़ें और
देखें कि आज से पंद्रह साल पहले के हमारे लेख के अंदाज में और आजके अंदाज
में कितना अंतर आया]
मैं चाहता हूँ कि मुझे जल्दी से जल्दी यह दिव्यज्ञान हो जाये कि मैं चाहता क्या हूँ। ज्योंही मुझे यह पता लगा कि मैं चाहता क्या हूँ त्योंही मैं या तो उस चाहत को पूरा करने में लग जाउँगा या फिर उससे मुँह फेर लूँगा। आर या पार। कम से कम यह पता तो लग जाये कि मैं चाहता क्या हूँ। चाहत के बारे में कहा गया है:-
चाह गयी चिंता मिटी,मनुआ बेपरवाह,
जिनको कछू न चाहिये सोई शाहंशाह।
अब चूंकि यह तय है कि अब ‘शहंशाह’ जैसे ‘जन्तु’ दुर्लभ हैं अत: यह तो तय हो गया कि सबको कुछ न कुछ न कुछ
चाहिये होता है। कुछ नहीं तो यह विरक्ति भावना ही कि उसे कुछ इच्छा न हो। मजे की बात यह है कि अक्सर जब चाहत की बात होती है तो कहा कुछ जाता है, मतलब कुछ और होता है। कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना।
कोई विकसित देश जब किसी विकासशील देश की प्रगति चाहता है तो उसका मतलब होता है कि विकसित देश सदैव विकसित
और विकासशील सदैव विकासवान बना रहे। यह किसी बच्चे को उत्साहित करके उसमें दौड़ने की ललक पैदा करने की तरह है
जिसमें अगर बच्चा बहुत आगे बढ़ने लगे तो उसे टंगड़ी मार दी जाये। बच्चा मुंह के बल गिर जाता है। विकसित देश ताली बजाते हुये किसी दूसरे प्रगतिशील देश को उत्साहित करने लगता है।
चाहत अक्सर प्याज के छिलके की तरह बहुस्तरीय होती है। एक चाहत के अंदर दूसरी चाहत। मेरे मित्र की जिंदगी की एकमात्र
पीडा यह है कि वे चाहते हुये भी प्रेम विवाह न कर सके। मां-बाप द्वारा तय किये गये खूंटे से ‘नार्मल रेट’ से बंध गये। प्रेम
विवाह न कर पाने की हीन भावना उन्हें दिन पर दिन कचोटती रहती है। एक दिन वे बोले- “यार मैं भले न कर पाया लेकिन मैं चाहता हूं कि मेरा लड़का प्रेम विवाह करे।”
मैंने सावधान किया-”हो सकता है उससे तुम्हें उतना फायदा न हो या फिर लड़की तुम्हें पसन्द न आये या कहीं लड़का अंतरजातीय विवाह न कर ले।”
इस पर वे बोले-”मियां,अब इतने बेवकूफ भी हम नहीं हैं। लड़की के मां-बाप से बात पक्की कर लेंगे। लेन-देन तय कर लेगें।
सौदा पट जाने के बाद लड़के से कहेंगे कि देखो बेटा तुम्हें इस लड़की से ‘लव मैरिज’ करनी है। ये तुम्हारी लैला है और तुम इसके मजनू। चलो शुरू हो जाओ।”
इस तरह की न जाने कितनी इच्छायें मैं अपने मन में पाले हुये हूं जो कि मुझे पता है कि कभी पूरी नहीं होंगी। अमेरिका-ईराक युद्ध के समय मैंने कितना चाहा कि काश कोई होता जो इन्हें शरारती बच्चों की डपटकर शांत कर देता-”चलो बहुत कर ली पटाखेबाजी अब अपना काम करो। तुम अपना हथियार,कम्प्यूटर,अंतरिक्षयान बनाओ और तुम अपना तेल बेचो।” गोर्बाचौफ से कहता-”डरो मत बेटा अभी हम जिंदा हैं ये लो पैसे अपना काम चलाऒ।”
मन तो यह भी है कि पीछे इतिहास में जाकर तमाम लोगों को डांट-डपट आता। बाबर से पूछता-”क्यों मियां सच्ची-सच्ची बताओ कि तुमने अयोध्या में क्या लफड़ा किया था?” अगर वह कहता-”तौबा-तौबा मॆं भला ऐसा कैसे कर सकता हूं” तो
मैं उससे कहता-”अच्छा सबेरे तक पता करके हमें ‘पुटअप करो’ कि इस सबके पीछे किसके शरारत है!” कौशल्या से पूछता
कि क्या उनके बड़े लडके की डिलीवरी सहीं में अयोध्या में उसी जगह हुयी थी जहां आज इतना लफड़ा हो रहा है! चाहत तो यह भी है कि कोई शाहजहां से पूछ्ता कि उसने मुमताज की याद में जो ताजमहल बनवाया उसका ‘एडमिन अप्रूवल’ कहां हैं?
किस नियम के तहत उसने सरकारी खजाने का इतना पैसा खर्चा किया? क्या मुमताजमहल इसके लिये ‘इन्टाइटिल्ड’ थी?
चाहता तो यह भी हूं कि फ्लैशबैक में जाकर लैला को हड़का आऊं कि बेगम टसुये बहाने से कुछ हासिल नहीं होगा। चलो मजिस्ट्रेट के यहां चलकर तुम्हारा निकाह पढ़वा दूं।
आप भी सोचते होंगे कि ये क्या-क्या सोचना शुरू कर दिया लेकिन ऐसा होता है। दरअसल चाहने की बीमारी हर दोपाये में
आम है। हर व्यक्ति कुछ न कुछ चाहता है। जो कुछ नहीं करता वो ज्यादा चाहता है। चाहने के पीछे कारण वैज्ञानिक है। चाहने में पसीना नहीं पड़ता है। शरीर की कुल दो प्रतिशत ऊर्जा खर्च होती है। जबकि कुछ करने में ज्यादा पसीना बहाना पड़ता है। ज्यादा ऊर्जा खर्च होती है। इसीलिये ‘चाहना‘ ,’करने‘ के मुकाबले हमेशा आसान रहता है। आराम दायक रहता है। गौरवपूर्ण रहता है।
‘चाहने’ के कई अर्थ होने के कारण इसकी महिमा में वृद्धि होती है। ‘चाहने’ का एक अर्थ ‘प्यार करना’ भी होता है। मुझे
याद है कि कालेज के जमाने में हम इस शब्द का धड़्ल्ले से प्रयोग करते थे। किसी लड़की ने यदि गिनकर द्स सेकेंड तक बिना पलक झपकाये लगातार देख लिया तो हम एकमत होकर यह तय कर लेते थे कि वह लड़की उस लड़के को चाहती है।
इसमें हम एक व्यक्ति-एक पद के हिमायती थे। एक लड़की एक समय में सिर्फ एक लड़के को ही चाह सकती थी। चाहत बदलने का अधिकार सिर्फ कन्या की आंखों में सुरक्षित था। अगर लड़की ने बाद में बारह सेकेंड तक लगातार देख लिया तो हम मान लेते थे कि उसकी चाहत दूसरे बालक पर स्थानांरित हो गयी है। मास्टर साहब इस नियम के अपवाद थे जिनको हम सभी को मजबूरी में आंख खोलकर देखना पड़ता था।
कभी-कभी कोई छात्रा किसी परेशानी,सोच,सरदर्द या नींद में डूबकर सर नीचा किये रहती तो हमें मजबूरन यह निष्कर्ष निकालना पड़ता कि आज उसका किसी को चाहने का मूड नहीं है। इस ‘चाहने’ में कभी-कभी रहस्यवाद,छायावाद,अज्ञानता
और मूर्खता पूर्ण जासूसी के घालमेल से बनी खिचडी़ हमें हमें भौंचक्का कर देती जब हमारा ही कोई साथी हमें आर्ट आफ लिविंग की दिव्यचमक अपने चेहरे पर पोतकर हमें बताता- “बास,तुम्हें पता नहीं है लेकिन तुम फलानी लड़की को बहुत चाहते हो।”
ज्यों-ज्यों हम सभ्य होते जाने के भ्रम में डूबते जाते हैं यह ससुरा “चाहते हैं” अपने अर्थ सहित शीर्षासन करता रहता है। कभी तो सिर-पैर का ही पता नहीं चलता।
मेरे एक मित्र ने प्रेम निवेदन से करते हुये मुझसे कहा-”यार,मैं चाहता हूं कि तुम ‘सिंसियरिटी’ पर एक लेख लिखो। तुम तो बहुत अच्छा लिखते हो।” मुझे पता है कि वह चाहता-वाहता कुछ नहीं है। कोई और लेख न होने की मजबूरी में पत्रिका के
दो पेज बरबाद करने की जिम्मेदारी मेरे मत्थे मढ़ना चाहता है। इसी सिलसिले में आगे सोचता हूं तो पाता हूं कि ‘सिंसियरिटी’ और ‘चाहने’ में अद्बुत साम्य है। ‘सिंसियरिटी’ वहीं पायी जाती है जहां बास और अधीनस्थ नाम से जाने जाने वाले प्राणी एक दूसरे को चाहने की हद तक चाहते हैं।
चाहत की गरिमा ही उसके पूरी न होने में है। वह चाहत ही क्या जो पूरी हो जाये। चाहत एक स्थायी तत्व है। कोई अपने देश की सरकारें नहीं जो आज बनी और कल समर्थन के अभाव में गिर गयीं। जिस दिन कोई चाहत किसी कम्पनी के ‘प्रोडक्ट मिक्स’ की तरह अपना स्वरूप बदलेगी उसका आकर्षण मर जायेगा। उसका राम-नाम सत्य हो जायेगा।
बचपन से आजतक मैं चाहता रहा हूं कि रोज सबेरे उठकर सड़क पर टहलने के बहाने वह किया करूं जिसे लोग मार्निंग वाक कहते हैं। बचपन से लेकर आजतक मैनें कभी यह हरकत नहीं की इसीलिये यह चाहत बरकरार है। अगर कहीं भावुकता की चपेट में आकर करने लगता तो हाथ धो बैठते इस हसीन चाहत से। चाहत को बरकरार रखने में बहुत मेहनत करनी पड़ती है।
लोग हमारे वजन से चिंतित होकर कहते हैं अब तो शुरू हो जाऒ सबेरे-शाम लेकिन हम हैं कि अपनी चाहत से वफादारी निभाये जा रहे हैं। चाहत बरकरार रखे हैं।
मैंने कितना चाहा कि अपनी चाहतों का एक ‘साइटिंग बोर्ड’ करूं। चाहतों की प्राथमिकतायें तय करूं। उनको पूरा करने का
‘एक्टिविटी चार्ट’ बनाऊं। पर हर बार यह चाहत की बात एक सफल ,विशेषज्ञ सलाहकार की तरह अगली भवुकता के ज्वार आने तक के लिये टाल दी। मैंने अनगिनत बार चाहा कि अपनी पत्नी,दोस्त, बच्चों के प्रति अपना प्रेम प्रदर्शित करूं,अपने जीवन में उनके महत्व ,योगदान की बात कहकर उनकी सार्थकता बताऊं। पर हर बार सिर्फ तुम कितनी अच्छी हो, तुम्हारा जैसा मित्र दुर्लभ है या ‘आई लव यू माई डीयर सन’ जैसे रस्मी उद्गार व्यक्त करके रह गया। चाहत-चाहत ही बनी रही।
मैंने कितनी बार चाहा कि बुद्धिमानी और काबिलियत का ठेका सिर्फ अपने नाम समझने वाले मित्र से कह सकूं -”तुम सिर्फ अपनी तारीफ सुनना चाहते हो, अपनी मूर्खताऒं की भी वाह-वाही चाहते हो जबकि ससलियत यह है तुम भी दूसरों से कम बगलोल नहीं हो। उतने ही काबिल हो जितना कि कोई दूसरा हो सकता है।” पर मैं ऐसा नहीं कह पाया। हर बार मुस्कराकर रह गया। चाहत यथावत बनी रही। मैंने कितना चाहा कि कभी मौका आने पर किसी मजे हुए काइयां से काइयांपन दिखा सकूं पर काइयांपने का हर प्रयास बेवकूफी में बदल गया। ईमानदारी के कितने ही रिहर्सल अंतत: नमकीन मिलावटी बेइमानी में
तब्दील हो गये।
जैसा कि मैंने शुरू में ही बताया कि असली मुश्किल तब होती है जब पता नहीं होता कि हम चाहते क्या हैं। मन कटी पतंग सा हवा के सहारे झूलता रहता है। उसकी नियति या तो किसी पेंड़ पर लटके रहने,फटने की होती है या फिर कोई उसे अपनी मर्जी से उडा़ता है-उस तरफ,जिधर मैं देखना भी नहीं चाहता। ऐसी स्थिति आने से पहले पता लग सके कि हम चाहते क्या हैं तो ठीक ,अति उत्तम। वर्ना हरि इच्छा।
अपनी ब्रह्मचर्य की पटरी छोड़कर नौकरी और गृहस्थी के राजमार्ग पर चलते हुये मैंने न जाने कितनी चाहते जबरियन दफन कर दीं इसलिये कि कहीं उनको पूरा करने को जी न ललचा उठे। कुछ चाहतें अपनी मौत मरती जा रही हैं,खाद पानी के अभाव में। बाकी जो कुछ बेशरम चाहतें जिंदा हैं,जिनका वक्त के थपेड़ों में भी दम नहीं टूटता उनको अपने मन में बंद करके रखता हूं। वे बेशरम चाहतें हमसफर सी सहारा देती हैं।
ऐसी ही चाहतों में से एक है कि यह लेख पूरा हो जाये। अगर यह पूरा हो गया तो एक और चाहत अपने दिन पूरा करके बेवफा निकल जायेगी। वह पूरी तो होगी लेकिन साथ छोड़ जायेगी।
मैं चाहता हूँ कि मुझे जल्दी से जल्दी यह दिव्यज्ञान हो जाये कि मैं चाहता क्या हूँ। ज्योंही मुझे यह पता लगा कि मैं चाहता क्या हूँ त्योंही मैं या तो उस चाहत को पूरा करने में लग जाउँगा या फिर उससे मुँह फेर लूँगा। आर या पार। कम से कम यह पता तो लग जाये कि मैं चाहता क्या हूँ। चाहत के बारे में कहा गया है:-
चाह गयी चिंता मिटी,मनुआ बेपरवाह,
जिनको कछू न चाहिये सोई शाहंशाह।
अब चूंकि यह तय है कि अब ‘शहंशाह’ जैसे ‘जन्तु’ दुर्लभ हैं अत: यह तो तय हो गया कि सबको कुछ न कुछ न कुछ
चाहिये होता है। कुछ नहीं तो यह विरक्ति भावना ही कि उसे कुछ इच्छा न हो। मजे की बात यह है कि अक्सर जब चाहत की बात होती है तो कहा कुछ जाता है, मतलब कुछ और होता है। कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना।
कोई विकसित देश जब किसी विकासशील देश की प्रगति चाहता है तो उसका मतलब होता है कि विकसित देश सदैव विकसित
और विकासशील सदैव विकासवान बना रहे। यह किसी बच्चे को उत्साहित करके उसमें दौड़ने की ललक पैदा करने की तरह है
जिसमें अगर बच्चा बहुत आगे बढ़ने लगे तो उसे टंगड़ी मार दी जाये। बच्चा मुंह के बल गिर जाता है। विकसित देश ताली बजाते हुये किसी दूसरे प्रगतिशील देश को उत्साहित करने लगता है।
चाहत अक्सर प्याज के छिलके की तरह बहुस्तरीय होती है। एक चाहत के अंदर दूसरी चाहत। मेरे मित्र की जिंदगी की एकमात्र
पीडा यह है कि वे चाहते हुये भी प्रेम विवाह न कर सके। मां-बाप द्वारा तय किये गये खूंटे से ‘नार्मल रेट’ से बंध गये। प्रेम
विवाह न कर पाने की हीन भावना उन्हें दिन पर दिन कचोटती रहती है। एक दिन वे बोले- “यार मैं भले न कर पाया लेकिन मैं चाहता हूं कि मेरा लड़का प्रेम विवाह करे।”
मैंने सावधान किया-”हो सकता है उससे तुम्हें उतना फायदा न हो या फिर लड़की तुम्हें पसन्द न आये या कहीं लड़का अंतरजातीय विवाह न कर ले।”
इस पर वे बोले-”मियां,अब इतने बेवकूफ भी हम नहीं हैं। लड़की के मां-बाप से बात पक्की कर लेंगे। लेन-देन तय कर लेगें।
सौदा पट जाने के बाद लड़के से कहेंगे कि देखो बेटा तुम्हें इस लड़की से ‘लव मैरिज’ करनी है। ये तुम्हारी लैला है और तुम इसके मजनू। चलो शुरू हो जाओ।”
इस तरह की न जाने कितनी इच्छायें मैं अपने मन में पाले हुये हूं जो कि मुझे पता है कि कभी पूरी नहीं होंगी। अमेरिका-ईराक युद्ध के समय मैंने कितना चाहा कि काश कोई होता जो इन्हें शरारती बच्चों की डपटकर शांत कर देता-”चलो बहुत कर ली पटाखेबाजी अब अपना काम करो। तुम अपना हथियार,कम्प्यूटर,अंतरिक्षयान बनाओ और तुम अपना तेल बेचो।” गोर्बाचौफ से कहता-”डरो मत बेटा अभी हम जिंदा हैं ये लो पैसे अपना काम चलाऒ।”
मन तो यह भी है कि पीछे इतिहास में जाकर तमाम लोगों को डांट-डपट आता। बाबर से पूछता-”क्यों मियां सच्ची-सच्ची बताओ कि तुमने अयोध्या में क्या लफड़ा किया था?” अगर वह कहता-”तौबा-तौबा मॆं भला ऐसा कैसे कर सकता हूं” तो
मैं उससे कहता-”अच्छा सबेरे तक पता करके हमें ‘पुटअप करो’ कि इस सबके पीछे किसके शरारत है!” कौशल्या से पूछता
कि क्या उनके बड़े लडके की डिलीवरी सहीं में अयोध्या में उसी जगह हुयी थी जहां आज इतना लफड़ा हो रहा है! चाहत तो यह भी है कि कोई शाहजहां से पूछ्ता कि उसने मुमताज की याद में जो ताजमहल बनवाया उसका ‘एडमिन अप्रूवल’ कहां हैं?
किस नियम के तहत उसने सरकारी खजाने का इतना पैसा खर्चा किया? क्या मुमताजमहल इसके लिये ‘इन्टाइटिल्ड’ थी?
चाहता तो यह भी हूं कि फ्लैशबैक में जाकर लैला को हड़का आऊं कि बेगम टसुये बहाने से कुछ हासिल नहीं होगा। चलो मजिस्ट्रेट के यहां चलकर तुम्हारा निकाह पढ़वा दूं।
आप भी सोचते होंगे कि ये क्या-क्या सोचना शुरू कर दिया लेकिन ऐसा होता है। दरअसल चाहने की बीमारी हर दोपाये में
आम है। हर व्यक्ति कुछ न कुछ चाहता है। जो कुछ नहीं करता वो ज्यादा चाहता है। चाहने के पीछे कारण वैज्ञानिक है। चाहने में पसीना नहीं पड़ता है। शरीर की कुल दो प्रतिशत ऊर्जा खर्च होती है। जबकि कुछ करने में ज्यादा पसीना बहाना पड़ता है। ज्यादा ऊर्जा खर्च होती है। इसीलिये ‘चाहना‘ ,’करने‘ के मुकाबले हमेशा आसान रहता है। आराम दायक रहता है। गौरवपूर्ण रहता है।
‘चाहने’ के कई अर्थ होने के कारण इसकी महिमा में वृद्धि होती है। ‘चाहने’ का एक अर्थ ‘प्यार करना’ भी होता है। मुझे
याद है कि कालेज के जमाने में हम इस शब्द का धड़्ल्ले से प्रयोग करते थे। किसी लड़की ने यदि गिनकर द्स सेकेंड तक बिना पलक झपकाये लगातार देख लिया तो हम एकमत होकर यह तय कर लेते थे कि वह लड़की उस लड़के को चाहती है।
इसमें हम एक व्यक्ति-एक पद के हिमायती थे। एक लड़की एक समय में सिर्फ एक लड़के को ही चाह सकती थी। चाहत बदलने का अधिकार सिर्फ कन्या की आंखों में सुरक्षित था। अगर लड़की ने बाद में बारह सेकेंड तक लगातार देख लिया तो हम मान लेते थे कि उसकी चाहत दूसरे बालक पर स्थानांरित हो गयी है। मास्टर साहब इस नियम के अपवाद थे जिनको हम सभी को मजबूरी में आंख खोलकर देखना पड़ता था।
कभी-कभी कोई छात्रा किसी परेशानी,सोच,सरदर्द या नींद में डूबकर सर नीचा किये रहती तो हमें मजबूरन यह निष्कर्ष निकालना पड़ता कि आज उसका किसी को चाहने का मूड नहीं है। इस ‘चाहने’ में कभी-कभी रहस्यवाद,छायावाद,अज्ञानता
और मूर्खता पूर्ण जासूसी के घालमेल से बनी खिचडी़ हमें हमें भौंचक्का कर देती जब हमारा ही कोई साथी हमें आर्ट आफ लिविंग की दिव्यचमक अपने चेहरे पर पोतकर हमें बताता- “बास,तुम्हें पता नहीं है लेकिन तुम फलानी लड़की को बहुत चाहते हो।”
ज्यों-ज्यों हम सभ्य होते जाने के भ्रम में डूबते जाते हैं यह ससुरा “चाहते हैं” अपने अर्थ सहित शीर्षासन करता रहता है। कभी तो सिर-पैर का ही पता नहीं चलता।
मेरे एक मित्र ने प्रेम निवेदन से करते हुये मुझसे कहा-”यार,मैं चाहता हूं कि तुम ‘सिंसियरिटी’ पर एक लेख लिखो। तुम तो बहुत अच्छा लिखते हो।” मुझे पता है कि वह चाहता-वाहता कुछ नहीं है। कोई और लेख न होने की मजबूरी में पत्रिका के
दो पेज बरबाद करने की जिम्मेदारी मेरे मत्थे मढ़ना चाहता है। इसी सिलसिले में आगे सोचता हूं तो पाता हूं कि ‘सिंसियरिटी’ और ‘चाहने’ में अद्बुत साम्य है। ‘सिंसियरिटी’ वहीं पायी जाती है जहां बास और अधीनस्थ नाम से जाने जाने वाले प्राणी एक दूसरे को चाहने की हद तक चाहते हैं।
चाहत की गरिमा ही उसके पूरी न होने में है। वह चाहत ही क्या जो पूरी हो जाये। चाहत एक स्थायी तत्व है। कोई अपने देश की सरकारें नहीं जो आज बनी और कल समर्थन के अभाव में गिर गयीं। जिस दिन कोई चाहत किसी कम्पनी के ‘प्रोडक्ट मिक्स’ की तरह अपना स्वरूप बदलेगी उसका आकर्षण मर जायेगा। उसका राम-नाम सत्य हो जायेगा।
बचपन से आजतक मैं चाहता रहा हूं कि रोज सबेरे उठकर सड़क पर टहलने के बहाने वह किया करूं जिसे लोग मार्निंग वाक कहते हैं। बचपन से लेकर आजतक मैनें कभी यह हरकत नहीं की इसीलिये यह चाहत बरकरार है। अगर कहीं भावुकता की चपेट में आकर करने लगता तो हाथ धो बैठते इस हसीन चाहत से। चाहत को बरकरार रखने में बहुत मेहनत करनी पड़ती है।
लोग हमारे वजन से चिंतित होकर कहते हैं अब तो शुरू हो जाऒ सबेरे-शाम लेकिन हम हैं कि अपनी चाहत से वफादारी निभाये जा रहे हैं। चाहत बरकरार रखे हैं।
मैंने कितना चाहा कि अपनी चाहतों का एक ‘साइटिंग बोर्ड’ करूं। चाहतों की प्राथमिकतायें तय करूं। उनको पूरा करने का
‘एक्टिविटी चार्ट’ बनाऊं। पर हर बार यह चाहत की बात एक सफल ,विशेषज्ञ सलाहकार की तरह अगली भवुकता के ज्वार आने तक के लिये टाल दी। मैंने अनगिनत बार चाहा कि अपनी पत्नी,दोस्त, बच्चों के प्रति अपना प्रेम प्रदर्शित करूं,अपने जीवन में उनके महत्व ,योगदान की बात कहकर उनकी सार्थकता बताऊं। पर हर बार सिर्फ तुम कितनी अच्छी हो, तुम्हारा जैसा मित्र दुर्लभ है या ‘आई लव यू माई डीयर सन’ जैसे रस्मी उद्गार व्यक्त करके रह गया। चाहत-चाहत ही बनी रही।
मैंने कितनी बार चाहा कि बुद्धिमानी और काबिलियत का ठेका सिर्फ अपने नाम समझने वाले मित्र से कह सकूं -”तुम सिर्फ अपनी तारीफ सुनना चाहते हो, अपनी मूर्खताऒं की भी वाह-वाही चाहते हो जबकि ससलियत यह है तुम भी दूसरों से कम बगलोल नहीं हो। उतने ही काबिल हो जितना कि कोई दूसरा हो सकता है।” पर मैं ऐसा नहीं कह पाया। हर बार मुस्कराकर रह गया। चाहत यथावत बनी रही। मैंने कितना चाहा कि कभी मौका आने पर किसी मजे हुए काइयां से काइयांपन दिखा सकूं पर काइयांपने का हर प्रयास बेवकूफी में बदल गया। ईमानदारी के कितने ही रिहर्सल अंतत: नमकीन मिलावटी बेइमानी में
तब्दील हो गये।
जैसा कि मैंने शुरू में ही बताया कि असली मुश्किल तब होती है जब पता नहीं होता कि हम चाहते क्या हैं। मन कटी पतंग सा हवा के सहारे झूलता रहता है। उसकी नियति या तो किसी पेंड़ पर लटके रहने,फटने की होती है या फिर कोई उसे अपनी मर्जी से उडा़ता है-उस तरफ,जिधर मैं देखना भी नहीं चाहता। ऐसी स्थिति आने से पहले पता लग सके कि हम चाहते क्या हैं तो ठीक ,अति उत्तम। वर्ना हरि इच्छा।
अपनी ब्रह्मचर्य की पटरी छोड़कर नौकरी और गृहस्थी के राजमार्ग पर चलते हुये मैंने न जाने कितनी चाहते जबरियन दफन कर दीं इसलिये कि कहीं उनको पूरा करने को जी न ललचा उठे। कुछ चाहतें अपनी मौत मरती जा रही हैं,खाद पानी के अभाव में। बाकी जो कुछ बेशरम चाहतें जिंदा हैं,जिनका वक्त के थपेड़ों में भी दम नहीं टूटता उनको अपने मन में बंद करके रखता हूं। वे बेशरम चाहतें हमसफर सी सहारा देती हैं।
ऐसी ही चाहतों में से एक है कि यह लेख पूरा हो जाये। अगर यह पूरा हो गया तो एक और चाहत अपने दिन पूरा करके बेवफा निकल जायेगी। वह पूरी तो होगी लेकिन साथ छोड़ जायेगी।
Posted in बस यूं ही | 16 Responses
“बास,तुम्हें पता नहीं है लेकिन तुम फलानी लड़की को बहुत चाहते हो।”
यह वाक्य सबसे मजेदार रहा.
बहुत सूफ़ियाना खयाल है….
–वाह भाई, एकदम मिलती सी चाहत है.
तो पंद्रह साल से वही ओज अब तक बरकरार रखा गया है, बहुत बधाई..आपका आने वाला लेखन समय और अधिक ओजस्वी हो, यही हमारी चाहत है और हमेशा बरकरार रहेगी.
क्या गंवाया है क्या मिला है मुझे
करने और चाहत के अंतर को बखूबी उतारा है आपने !
“ये भी कर लूँ,वो भी कर लूँ, चाहत मेरी है मोटी-सी,
चाहत को पूरा करने को है,एक जिन्दगी छोटी सी !!”