जूते का चरित्र साम्यवादी होता है
By फ़ुरसतिया on April 4, 2007
समीरजी से हमें ये आशा नहीं थी!
हमने अप्रैल फूल वाले दिन, जो कि खास उनका ही दिन होता है, उनको ही खुश करने के लिये उनके साथ साइट बनाने की बातकही। इस पर वे जूते बाजी पर उतर आये और बोले लो हमने अपने अपने हिस्से की कर दी। अब आपकी बारी है। जूते बाजी उन्होंने करके जूता फाड़ दिया और अब हमसे कहते हैं -आप फटे जूते की व्यथा कथा लिखो।
फटा हुआ जूता मतलब चला हुआ जूता। जो जूता चलेगा वही फटेगा। शो केस में रखे जूते बेकार हो जाते हैं , सड़ सकते हैं लेकिन फटते नहीं। फटने के लिये चलना जरूरी होता है। फटेगा वही जिसने राहों के संघर्ष झेले होंगे।
समीरजी ने लिखा है- जूते की सुनो वो तुम्हारी सुनेगा। यह कहते हुये उन्होंने जूतों की दर्दीली दास्तान बयान की है। जूते का दर्द अपने शब्दों में बड़ी खूबसूरती से बयान किया है। जूते के दर्द को महसूसना और पूरी शिद्धत से उसे बयान करना यह समीर भाई के ही बस की है। वे बहुत विश्वास से कहते हैं – जूते की सुनो वो तुम्हारी सुनेगा। उनके विश्वास को देखकर लगता है कि वे जूते की भाषा बहुत अच्छी तरह समझते हैं। यह तो कहो समीरजी अजातुशत्रु टाइप के आइटम हैं वर्ना उनका कोई चाहने वाला कह सकता था- समीरजी को जूते की ही भाषा समझ में आती है। लेकिन हम जानते हैं कि समीरजी केवल जूतों की ही भाषा नहीं बल्कि हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू आदि के अलावा प्रेम की भाषा पर अधिकार रखते हैं। उनकी यह पोस्ट उनके जूतों के प्रति उनके अनन्य प्रेम की परिचायक है।
हमें लिखना है फटे जूते की व्यथा-कथा। व्यथा-कथा मतलब रोना-गाना। आंसू पीते हुये हिचकियां लेते हुये अपनी रामकहानी कहना। हाय हम इत्ते खबसूरत थे लोग हम पर फिदा रहते थे और अब देखो चलते-चलते हमारा मुंह भारतीय बल्लेबाजी की दरार का कैसा खुल गया है। लुटने पिटने का अहसास, ठोकरों के दर्द की दास्तान बताना। मतलब अपने दर्द को गौरवान्वित करना। मुक्तिबोध के शब्दों में दुखों के दागों को तमगों सा पहनने का प्रयास करना। यह रुदाली तो हमसे न सधेगी भाई।
राम सिंहासन के लिये अपनी खड़ाऊं इसलिये छोड़ गये होंगे ताकि भरत को सिंहासन पर बैठने की आदत न लग जाये। वे अपनी खड़ाऊं उसी तरह सिंहासन पर रखने के लिये छोड़ गये जैसे लोकल ट्रेन में डेली पैसेंजर सीट पर रूमाल रखकर अपना कब्जा जमाते हैं। खड़ाऊं उन्होंने सिंहासन पर कब्जे के लिये छोड़ीं।
फटा हुआ जूता मतलब चला हुआ जूता। जो जूता चलेगा वही फटेगा। शो केस में रखे जूते बेकार हो जाते हैं , सड़ सकते हैं लेकिन फटते नहीं। फटने के लिये चलना जरूरी होता है। फटेगा वही जिसने राहों के संघर्ष झेले होंगे। कठोर जगहों पर ठोकरें मारी होंगी। राणा सांगा कहलाने के शरीर पर घाव खाने जरूरी होते हैं वैसे ही अच्छे चले हुये जूते पर चिप्पियों की सनद जरूरी होती है। चिप्पियों से फटे जूते का रुतबा उसी तरह जिस तरह तमाम आपराधिक मुकदमों की खेप से जनप्रतिनिधियों का रुतबा बढ़ता है।
जूते का प्रधान कर्तव्य अपने मालिक पैरों की रक्षा करना होता है। जो अपने कर्तव्य का निर्वहन न कर सके, चलते-चलते पैर को बचाने के लिये अपने सीने पर ठोकरें न खा सके , धूलि-धूसरित न हो सके वह जूता कैसा? जूते के नाम पर कलंक है ऐसा जूता जो पैरों की रक्षा करते-करते फट न गया। किसी ब्लागर कवि ने सही ही कहा होगा-
जो चला नहीं है राहों पर, जिस पर चिप्पी की भरमार नहीं,
वह जूता नहीं तमाशा है, जिसको मालिक पैरों से प्यार नहीं।
जैसे भारत में जब भी भ्रष्टाचार की बात चलती है, नेताऒं का जिक्र आता है वैसे ही जब भी जूतों की जिक्र होता है राम की खड़ाऊं सामने आ जाती हैं। बड़े चर्चे हैं राम की खड़ाऊं के। भरत वन जाते हुये राम की खड़ाऊं अपने लिये मांग लाये थे। उसे सिंहासन पर रख लिया था और चौदह साल चलाते रहे राजकाज! भरत के मांगने और राम के देने के पीछे तो तमाम कारण रहे होंगे। राम का भाई के प्रति प्यार। पुराने जमाने में घर परिवारों में छोटे भाई के पल्ले बड़े भाइयों की उतरन ही पड़ती थी। भरत ने कहा होगा भैया तुम जा ही रहे हो अपनी खड़ाऊं देते जाऒ। या उन दिनों शायद जूते बहुत मंहगे मिलते होंगे सो रामजी ने सोचा होगा कि चौदह साल जंगल में रगड़ने अच्छा है इसे यहीं छोड़ जायें। यहां भरत पालिस-वालिस करवाते रहेंगें। यह भी हो सकता है कि उनके पांव के जूते काटते हों यह सोचकर छोड़ गये होंगे कि जंगल में दूसरे मिल जायेंगे! चौथा और सबसे अहम कारण यह होगा कि राम सिंहासन के लिये अपनी खड़ाऊं इसलिये छोड़ गये होंगे ताकि भरत को सिंहासन पर बैठने की आदत न लग जाये। वे अपनी खड़ाऊं उसी तरह सिंहासन पर रखने के लिये छोड़ गये जैसे लोकल ट्रेन में डेली पैसेंजर सीट पर रूमाल रखकर अपना कब्जा जमाते हैं। खड़ाऊं उन्होंने सिंहासन पर कब्जे के लिये छोड़ीं।
मुझे राम की खड़ाऊं से अधिक नाकारा और कोई खड़ाऊं नहीं लगतीं। राम की पादुकायें जूते के इतिहास का सबसे बड़ा कलंक हैं। जूते का काम पैरों की धूल-धक्कड़, काटें-झाड़ियों से पैरों की रक्षा करना होता है। ऐसे में राम खड़ाऊं उनके पैरों से उतरकर सिंहासन पर बैठ गयीं।
बहरहाल यह तो उन महान भाइयों के बीच की आपसी बात है। सच क्या है यह वे ही जानते होंगे। लेकिन मुझे राम की खड़ाऊं से अधिक नाकारा और कोई खड़ाऊं नहीं लगतीं। राम की पादुकायें जूते के इतिहास का सबसे बड़ा कलंक हैं। जूते का काम पैरों की धूल-धक्कड़, काटें-झाड़ियों से पैरों की रक्षा करना होता है। ऐसे में राम खड़ाऊं उनके पैरों से उतरकर सिंहासन पर बैठ गयीं। यह कुछ ऐसा ही हुआ जैसे कि सरकार गिरने का आभास होते ही जनप्रतिनिधि आत्मा की आवाज पर दल परिवर्तन कर लेते हैं। अपराधी जैसे जेल जाने का नाम सुनते अस्पताल में भरती हो जाते हैं वैसे ही राम की खड़ाऊं जंगल जाने की खबर उड़ते ही जुगाड़ लगाकर उचककर सिंहासन पर बैठ गयीं।
राम की खड़ाऊं को जंगल में जाकर राम के पैरों की रक्षा करना था। खुद ठोकर खाते हुये राम के पैर बचाने थे। लेकिन वे काम से मुंह चुराकर सिंहासन पर बैठ गयीं। भरत ने उसे पूजा की वस्तु बना दिया। शोभा की चीज बना दिया। आराधना करने लगे। कामचोर, कर्तव्य विमुख, नाकारा, अप्रासंगिक, ठहरी हुयी पादुकायें पूजनीय बन गयीं। वंदनीय हो गयीं। हमारे देश में यह हमेशा से होता आया है कि जो अप्रासंगिक हो जाता है, ठहर जाता है, चुक जाता है वह पूजा की वस्तु बन जाता है। जो जितना ज्यादा अकर्मण्य, ठस, संवेदनहीन होगा वह उतना ही अधिक पूजा जायेगा। क्या बिडम्बना है।
जूते की जब भी बात होती है तब जुतियाने की जिक्र भी होता है। जुतियाने के सौंदर्य शास्त्र का गहन विश्लेषण रागदरबारी में श्रीलाल शुक्लजी कर चुके हैं। वे बताते हैं-
जूता अगर फटा हो और तीन दिन तक पानी में भिगोया गया हो तो मारने में अच्छी आवाज़ करता है और लोगों को दूर-दूर तक सूचना मिल जाती है कि जूता चल रहा है। दूसरा बोला कि पढे-लिखे आदमी को जुतिआना हो तो गोरक्षक जूते का प्रयोग करना चाहिए ताकि मार तो पड़ जाये, पर ज्यादा बेइज़्ज़ती न हो। चबूतरे पर बैठे-बैठे एक तीसरे आदमी ने कहा कि जुतिआने का सही तरीक़ा यह है कि गिनकर सौ जूते मारने चले, निन्यानबे तक आते-आते पिछली गिनती भूल जाय और एक से गिनकर फिर नये सिरे से जूता लगाना शुरू कर दे।
हमारे देश में यह हमेशा से होता आया है कि जो अप्रासंगिक हो जाता है, ठहर जाता है, चुक जाता है वह पूजा की वस्तु बन जाता है। जो जितना ज्यादा अकर्मण्य, ठस, संवेदनहीन होगा वह उतना ही अधिक पूजा जायेगा। क्या बिडम्बना है।
इसके वैज्ञानिक पक्ष का अध्ययन किया जाये तो पता लगा है जूता दिमाग में भरी हवा निकालने के काम आता है। आपने देखा होगा जहां हवा भर जाती है वहां कसकर दबाने से समस्या हल हो जाती है। पेट की गैस बहुत लोग पेट दबाकर निकालते हैं। ऐसे ही दिमाग में हवा भर जाने से व्यक्ति का दिमाग हल्का होकर उड़ने सा लगता है। व्यक्ति आंय-बांय-सांय टाइप हरकतें करने लगता है। ऐसे व्यक्ति के उपचार के लिये कुछ लोग मानसिक रोग शाला जाना पसंद करते हैं। अपने लिये हो तो मानसिक चिकित्सालय जाने की बात समझ में आती है। लेकिन दूसरों के लिये आदमी सरल उपाय ही खोजता है और जूते से मार-मार कर हवा निकाल देते हैं।
जूतेबाजी का मतलब है दिमाग को जमीनी हकीकत का अहसास कराना! चढ़े हुये दिमाग को धरती पर लाने। इसका असर वैसे ही होता है जैसे विद्युत धारा के धनात्मक और ऋणात्मक आवेश वाले तारों को एक साथ मिला देना। सर से जूते के मिलन होते ही सारे दिमाग का फ्यूज भक्क से उड़ जाता है। दिमाग में घुप्प अंधेरा छा जाता है। दिन में तारे दिखने लगते हैं। फिर बाद में धीरे-धीरे स्थिति पर नियंत्रण होता है।
बचपन से हम सुनते आये हैं कि आदमी की पहचान उसकी सोहबत से होती है। पिछ्ले दिनों हमें झटका लगा जब हमारे फटे जूतों को बदलने का आग्रह करते हुये नया संवाद फेका गया- आदमी की पहचान उसके जूतों से होती है। जूते फटे-पुराने हैं मतलब आदमी चिथड़ा है। हमने तमाम तर्कों से इस बात को यथासंभव खारिज करने की कोशिश की लेकिन यह संवाद कानों में बजता रहता है- आदमी की पहचान जूतों से होती है।
वैसे पुराने जमाने में ऐसा होता आया है जब आदमी की औकात के लिये जूता भी एक पैमाना माना गया। सुदामा के लिये दरबान ने कहा- पांय उपानहु की नहिं सामा! पैरों में जूतों की भी औकात नहीं है। धूमिल ने भी कहा है-
यहाँ तरह-तरह के जूते आते हैं
और आदमी की अलग-अलग ‘नवैयत’
बतलाते हैं
सबकी अपनी-अपनी शक्ल है
अपनी-अपनी शैली है
ये बात औकात की है। लेकिन आदमी की पहचान जूतों से होती है यह सुनकर लगा कि किसी ने पूरे व्यक्तित्व को पर जूते बजा दिये हों।
एक साइज का जूता एक ही तरह से व्यवहार करेगा, चाहे पहनने वाला अरबपति हो या खाकपति। जूता केवल पैर का साइज देखता है, पैर की औकात नहीं। जूता इस मामले में आदमी से ज्यादा साम्यवादी होता है!
वैसे जूते की एक खासियत होती है। लोग भले जूते अपनी औकात के अनुसार खरींदे लेकिन जूता पैरों की औकात देख कर अपना काम नहीं करता। एक साइज का जूता एक ही तरह से व्यवहार करेगा, चाहे पहनने वाला अरबपति हो या खाकपति। जूता केवल पैर का साइज देखता है, पैर की औकात नहीं। जूता इस मामले में आदमी से ज्यादा साम्यवादी होता है!
आज जमाना हाइटेक है। जूते बाजी तकनीक-पालकी (तकनीक-पालकी शब्द राकेश खंडेलवालजी से साभार) बैठकर नये रूप में सजधजकर सामने आ रही है। आभासी जूतम पैजार का चलन बढ़ रहा है। लोग क्रिकेट में हार के लिये खिलाड़ियों को गरिया रहे हैं, कोच को कोस रहे हैं। जनता के दीवाने पन और मानसिक दीवालिये पन पर खीझ रहे हैं।
ब्लाग जगत में यह आभासी जूताबाजी एक और रूप में प्रचलित है। इसे ब्लाग जगत में टिपियाना कहा जाता है। लोग ऐसे-ऐसे टिपियाते हैं कि पढ़ने वाले का सर क्या पूर बदन झनझना जाये। कोई अनाम लेखक के रूप में नाम वालों को जुतिया रहा है, कोई नाम वाले अनाम जुतियाने वालों पर कपड़े फाड़ रहा है। कोई इस बात पर कोस रहा है कि उसकी कविताऒं की चर्चा नहीं हुयी कोई इस बात पर कि उसकी कविता अचर्चित रह गयी। इसी क्रम में कोई मसिजीवी के लिये अनाम टिप्पणी कर जाता है, वे उसका दुख मनाते हैं, हम भी उस दुख में शामिल होते हैं। इस दुख पर अभय जी कुछ सवाल उठाते हैं और सृजन शिल्पी हाइटेक अंदाज में जुतियातेहैं। ये ऐसी चोट है कि खाने वाला न हंस सकता है न रो सकता है।
बहरहाल, अब आगे क्या लिखें समीरभाई! आप हमसे ज्यादा समझदार हो। आपको क्या सुनायें फटे जूते की कहानी! जो लिखने के लिये फटफटा रहा था वह निकल आया। आपके सामने है। आप बताओ कैसे लगे हमारे फटे जूते!
Posted in बस यूं ही | 32 Responses
उनके विश्वास को देखकर लगता है कि वे जूते की भाषा बहुत अच्छी तरह समझते हैं। यह तो कहो समीरजी अजातुशत्रु टाइप के आइटम हैं वर्ना उनका कोई चाहने वाला कह सकता था- समीरजी को जूते की ही भाषा समझ में आती है। लेकिन हम जानते हैं कि समीरजी केवल जूतों की ही भाषा नहीं बल्कि हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू आदि के अलावा प्रेम की भाषा पर अधिकार रखते हैं। उनकी यह पोस्ट उनके जूतों के प्रति उनके अनन्य प्रेम की परिचायक है।
वह जूता नहीं तमाशा है, जिसको मालिक पैरों से प्यार नहीं।
कहां से लाते है इतनी रचनात्मकता {खाली टाइम} :)))
जो भी हो लेख तो बेशक मज़ेदार है।
आपकी और समीर जी की रेटिंग करे तो ….?
रहने दीजिए, रेटिंग वेटिंग से सब सौंदर्य नष्ट हो जाएगा।
बधाई आप दोनो को!इतिहास का पहला जूता पुराण लिख्ने के लिए
जो गया है फट, देख तेरा है या मेरा.
मस्त हास्य विनोद हुआ. अंत तक लग ही नहीं जुता पूरी तरह से फटा है. कहीं कोई गुंजाइस है तो और फाड़ो जुता
ये बातें खास पसँद आईं-
/आराधना करने लगे। कामचोर, कर्तव्य विमुख, नाकारा, अप्रासंगिक, ठहरी हुयी पादुकायें पूजनीय बन गयीं। वंदनीय हो गयीं। /
/जूता केवल पैर का साइज देखता है, पैर की औकात नहीं। जूता इस मामले में आदमी से ज्यादा साम्यवादी होता है!
मेरा सदैव यही मानना रहा है। आजकल भी किसी कारण से सिंहासन से वन्चित रहने पर लोग कुछ ऐसी ही चीज़ों को मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री बना देते हैं। दक्षिण के एक राज्य का एक दृश्य भी ध्यान है मुझे जहाँ सिंहासन के लिए जिसे चुना गया उसने अपनी पादुका-तुल्यता दर्शाने हेतु दण्डवत ज़मीन पर लम्बे हो गए।
@जगदीशजी, शुक्रिया।
@समीरजी, आपकी तारीफ़ का शुक्रिया। हमें पता है आप रोलर कैस्टर पर कहां ऊपर हुये और कहां नीचे। लेकिन जैसे फिल्मों में कहानी की मांग के अनुसार अंगप्रदर्शन होता है वैसे ही लेख की मांग के अनुसार ऊपर नीचे हुआ। कविता ऐसे ही पैरोडी है स्वदेश प्रेम वाली लाइनों (जो भरा नहीं भावों से …) और यह बेवकूफी हमारे सिवाय कौन कर सकता है! :)आगे बढा़ने का काम खुद ही लोग कर रहे हैं। आपकी पोस्ट संक्रामक है!
@काकेशजी, धन्यवाद। अभी-अभी आपका पाडकास्ट सुना अच्छा लगा।
@मसिजीवीजी, यह सही है कि पादुका राज्य यहां की नियति सा बन गया है।
@नोटपैड, आपकी तारीफ़ का शुक्रिया। यह सही है रेटिंग से सौंन्दर्य चौपट होता है-करने वाले का भी
@पंकज, शुक्रिया। लेख ऐसे ही अचानक खत्म हो गया जैसे जूता अचानक चलते-चलते फट जाये। आगे ख्याल रखा जायेगा।
@संजय, शुक्रिया। लेकिन यह सारी खुराफ़ात समीरजी की है जो यह सब करा रहे हैं।
@रचनाजी,शुक्रिया! आपकी बात पर गौर कर रहा हूं। आगे सुधार की कोशिश करूंगा!
@नीलिमाजी, तारीफ़ का शुक्रिया!
@मृणाल,तारीफ़ का शुक्रिया।:)
@राजीवजी, आपने सही कहा- जूते का मामला हो तो कोई भी कनपुरिया कैसे पीछे रहे! शुक्रिया।
@रत्नाजी, आपकी तारीफ़ बहुत दिन बाद मिली। अब लिखिये लगातार! शुक्रिया फिर से लिखना शुरू करने के लिये!
@सागरभाई, पहली बार नहीं पसंद आयी तो दुबारा पढो़ न! तिबारा पढो़। लेकिन तुम्हारी राय सुनकर अच्छा लगा! शुक्रिया!
सच तो यह है कि हमें अपना औकात अच्छी तरह पता। परसाई जी जैसी सामाजिक, राजनैतिक समझ विरले लोगों की ही होती है। हम लोग उनके अनुसरण से ही अपने गौरवान्वित समझते हैं।
१.गदा का स्वाद चखने का मन कर रहा है क्या?
२.सृजन शिल्पी जो सज्जनों के लिए जितना सृजनकारी है, दुष्टों के लिए उतना ही संहारकारी भी हो सकता है।
३.होंगे अनूपजी महादेव जो सांपों को अपने गले में लिपटाये घूमते हैं लेकिन ऐसे दुष्टों (अनाम टिप्पणी कारों )के संहार के लिये विष्णुवाहन (गरुड़) की जरूरत होती है
इन बातों के तमाम तर्कपूर्ण जवाब होंगे उनसे तुम अपने को और दूसरों को भी अपनी बात समझाने का प्रयास कर सकते हो लेकिन मुझे लगता है इस वर्जुअल पहलवानी का कोई मतलब नहीं।
यह तुम्हारे बारे में मेरे विचार हैं। मुझे पता नहीं कि इसे तुम किस तरह लेते हो। लेकिन यह सच है कि इस पोस्ट में मैंने जो लिखा था (हाईटेक जूता) वह बिल्कुल मौज मजे में नहीं था। जो मैंने महसूस किया वह लिखा। दूसरी बात यह कि यह लिखते समय मेरा मन बिल्कुल शांत है। यह तुम्हारे बारे में अपनी सोच बताने का मन था सो बता दी। अगर तुम मुझे गलत समझते हो तो मेरी समझ पर झींक लेना या और कोई तुलनात्मक वार कर लेना! पर तुम्हारे प्रति मेरे मन में कोई कटुता नहीं है। तुम्हारे प्रति शुभकामनाऒं व्यक्त करता हूं।
आशा हे आपसे ऊपर व्यक्त स्नेह पाकर सृजन के मन से हमारे लिए जमा मैल मिट गया होगा।
2. बातों के अर्थ को संदर्भ से काटकर देखने और दिखाने की कला आपमें पाई जाती है, यह भी पता चला। मेरे हवाले से जो तीन वाक्य आपने उद्धृत किए हैं उनमें पहले दो वाक्य का संदर्भ मेरे चिट्ठे पर यथावत मौजूद है। वे दोनों वाक्य मेरी एक पोस्ट में, एक व्यक्ति विशेष की बातों पर उसी की भाषा और शैली में की गई प्रतिक्रिया मात्र थी। मेरी वैसी प्रतिक्रिया भी शांत मन से और जान-बूझकर व्यक्त की गई थी, किसी आवेश, उत्तेजना और उत्साह में नहीं।
3. आपके इस आरोप की पुष्टि तो मेरे नियमित पाठकों का बहुमत ही कर सकता है कि मेरी पोस्टों में उपर्युक्त किस्म के डायलाग ‘अक्सर’ पाए जाते हैं या नहीं। क्या इसके लिए एक सर्वेक्षण (poll) करा लें?
4.
4. यहां भी एक प्रति-टिप्पणीकर्ता इसलिए महफूज़ है, क्योंकि उसने आपकी प्रति-टिप्पणी की आड़ ले ली है।
5. मेरे प्रति कटुता का भाव नहीं रखने और शुभकामनाएँ व्यक्त करने की आपकी उदारता के सम्मुख नतमस्तक हूं। मेरी प्रतिकूल टिप्पणियाँ संदर्भ के अनुरूप थीं, लेकिन आपके प्रति मेरे मन में आदर-सम्मान का भाव हमेशा अक्षुण्ण रहा है।
@मसिजीवीजी, आपकी टिप्पणी के लिय्रे शुक्रिया! सृजन के मन में आपके लिये क्या है यह आप उनकी टिप्पणी में देख लें!
@सृजनशिल्पी, कुछ इसी तरह की तार्किक टिप्पणी की अपेक्षा मुझे थी। तुम्हारी टिप्पणी से मेरे विश्वास की रक्षा हुई। अपने बारे में व्यक्ति स्वंय जितना समझ सकता है उतना दुनिया का कोई सर्वेक्षण नही समझ/समझा सकता। तुम्हारे बारे में पोल कराने में मुझे कोई रुचि नहीं है। तुम स्वयं अपने बारे में बेहतर समझ सकते हो, अगर समझना चाहते हो। तुम्हारे बारे में जो मैं सोचता,समझता हूं वह मैंने बिना किसी लाग-लपेट के बताया। अब तुम इससे सहमत नहीं और इसे गलत मानते हो तो यह तुम्हारी मर्जी। संभव है मैं ही गलत होऊं! बाकी तुलना/उपमा पर बहुत कुछ कहा/लिखा जा सकता है लेकिन मैं जबरदस्ती अनावश्यक बहस में समय नहीं बर्बाद करना चाहता- न अपना न तुम्हारा। मेरी शुभकामनायें!
वह जूता नहीं तमाशा है, जिसको मालिक पैरों से प्यार नहीं।
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