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बसंत पंचमी पर निराला जी के बारे में
By फ़ुरसतिया on January 20, 2010
[आज बसंत पंचमी को निरालाजी का जन्मदिन मनाया जाता है। इस मौके पर पहले यह लेख फ़िर से पोस्ट कर रहा हूं- निरालाजी को विनम्रता पूर्वक याद करते हुये। मास्टर साहब की टिप्पणी ( आज बसंत पंचमी पर सामयिक लगा यह लेख सो खिंचे चले आये !
जानकारी मिली ! आभार!) ने इसके बारे में याद दिलाया सो उनका भी शुक्रिया। निरालाजी को कवि निराला बनने के लिये प्रेरित करने में उनकी जीवन संगिनी की भूमिका उल्लेखनीय थी यह भी इस संस्मरण से पता चलता है। ]
निरालाजी के बारे में लिखते हुये प्रसिद्ध आलोचक स्व.रामविलास शर्मा ने लिखा:-
यह वह समय समय था जब निरालाजी पर हिंदी साहित्य में चौतरफ़ा हमले हो रहे थे। रामविलासजी ने लखनऊ विश्वविद्यालय अंग्रेजी में एम.ए. किया। इसके बाद उन्होंने पी.एच.डी. की। लेकिन निरालाजी उनको डाक्टरेट की डिग्री मिलने के पहले ही डाक्टर कहने लगे थे।
निरालाजी रामविलास शर्मा जी के प्रिय कवि थे। उन्होंने निरालाजी के व्यक्तित्व और कृतित्व को सहेजते हुये ‘ निराला की साहित्य साधना’ किताबें लिखीं हैं। इनमें निरालाजी की खूबियों-खामियों के निर्लिप्त विवरण हैं। उनकी साहित्य साधना के विविध पक्ष हैं। निरालाजी को समझने के लिये ये पुस्तक बहुत उपयोगी है।
निरालाकी का जन्म तो२९ फ़रवरी सन १८९९ २१
फ़रवरी सन १८९६ को हुआ था लेकिन वे अपना जन्मदिन बसंत पंचमी को ही मनाते
थे। आज बसंत पंचमी है सो इसी बहाने जनता के कवि निरालाजी के बारे में कुछ
चर्चा हो जाये।
निरालाजी के पूर्वज जिस इलाके बैसवाड़े के रहने वाले थे उसके लोगों के बारे में भारतेन्दु हरिशचन्द्र ने लिखा:-
ऐसे ही बैसवाड़े के रहने वाले पंडित रामसहाय तिवारी ,जो कि गांव से आकर बंगाल के महिषादल में नौकर हो गये थे, के घर जब बच्चे का जन्म हुआ तो पंडित ने जन्मकुंडली बनायी-
सुर्जकुमार अभी बोलना सीख ही रहे थे, करीब ढाई साल के रहे होंगे कि उनकी मां इस संसार से विदा हो गयीं। उनके पिताकी सारी ममता बेटे पर केंद्रित हो गयी। वह बेटे को नहलाते-धुलाते, भोजन कराते, रात को अपने पास सुलाते। दिन में अपने मित्र के घर छोड़ जाते जहां उनको हर तरफ़ से स्नेह मिलता। स्त्रियां हाथोंहाथ रखतीं। बाप का लाड़ अलग। जो खाने-पहनने को मांगते वही मिल जाता। सुर्जकुमार स्वभाव से खिलाड़ी नटखट और जिद्दी हो चले थे। बाद में वे मुहल्ले के लड़कों के नेता हो गये। गोली खेलने में सबके उस्ताद। ज्यादा समय खेल-कूद में बीतता। पिता से कहानियां सुनते, भजन , हनुमानचालीसा, रामायण ,देवी-देवताऒं की कहानियां सुनते।
अपने बचपन से ही सुर्जकुमार विद्रोही तेवर के थे। जनेऊ हो जाने के बाद भी जात-पांत, ऊंच-नीच के भेदभाव की चिंता किये बिना सब जगह सब कुछ खाते पीते।
कुछ समय बाद उनकी शादी मनोहरा देवी से हुई। दो साल बाद गौना। गांव में प्लेग फैला था उन दिनों। लोग घरों से निकलकर बाग में झोपड़े डालकर रहते थे। महुये के एक पेड़ के नीचे सुर्जकुमार का बिस्तर लगाया। जीवन में पहलीबार उन्हें नारी-देह के स्पर्श का सुखद अनुभव हुआ। उस समय मनोहरा देवी १३ साल की थीं।
गांव में फैले प्लेग के कारण मनोहरा देवी के पिताजी उनको जल्दी विदा करा ले गये। इस पर भन्नाये सुर्जकुमार तिवारी के पिताजी ने बदला लेने के लिये उनको ससुराल भेजते समय ताकीद की- यहां से तिगुना खाना।
सुर्जकुमार ने गांव में पतुरिया का श्रंगार देखा था, महिषादल में भी गायिकाऒं सुंदर स्त्रियों की कमी न थी। खुद भी इत्र-तेल-फुलेल लगाते। पैसा ससुराल का ठुकता। ऐसे ही किसी दिन बातचीत में सुर्जकुमार ने ताना मारा- “अपने बाल सूंघो? तेल की ऐसी चीकट और बदबू है कि कभी-कभी मालूम होता है कि तुम्हारे मुंह पर कै कर दूं।” मनोहरा देवी ने और तेज होकर कहा,” तो क्या मैं रण्डी हूं जो हर समय बनाव श्रंगार के पीछे पड़ी रहूं?”
सुर्जकुमार को लग रहा था ,पत्नी उनके अधिकार में पूरी तरह नहीं आ रहीं। एक दिन उनका गाना सुना। मनोहरादेवे ने भजन गाया-
मनोहरादेवी के कंठ से तुलसीदास का यह छन्द सुनकर सुर्जकुमार के न जाने कौन से सोते संस्कार जाग उठे। सहित्य इतना सुन्दर है, संगीत इतना आकर्षक है, उनकी आंखों से जैसे नया संसार देखा, कानों ने ऐसा संगीत सुना जो मानो इस धरती पर दूर किसी लोक से आता हो। अपनी इस विलक्षण अनुभूति पर वे स्वयं चकित रह गये।अपने सौन्दर्य पर जो अभिमान था, वह चूर-चूर हो गया। ऐसा ही कुछ गायें, ऐसा कुछ रचकर दिखायें, तब जीवन सार्थक हो। पर यहां विधिवत न संगीत के शिक्षा मिली न साहित्य की। पढाई भी माशाअल्लाह-एन्ट्रेन्स फेल!
कुछ दिन बाद पिता के देहान्त के बाद सुर्जकुमार तिवारी को पहली बार आटे-दाल का भाव पता चला। उनको महिषादल में ही लिखा पढ़ी का काम मिल गया। इस बीच उनके यहां एक पुत्र रामकृष्ण और एक पुत्री सरोज का जन्म हुआ। एक दिन उनको पत्नी की बीमारी का तार मिला। जब वे महिषादल से अपनी ससुराल डलमऊ पहुंचे तब मालूम हुआ कि मनोहरा देवी पहले ही चिता में जल चुकी हैं। उनके विवाहित जीवन की जब अब होनी चाहिये थी पर शुरू होने के बदले उसका अंत हो गया। उस समय उनकी उमर थी -बीस साल।
डलमऊ और उसके आस-पास इतने लोग मरे कि लाशें फूंकना असम्भव हो गया। गंगा के घाटों पर लाशों के ठट लगे थे। डाक्टरों ने जांच करके देखा कि सेर भर पानी में आधा पाव सड़ा मांस निकलता था।
बाद में सास ने उनकी दूसरी शादी कराने का प्रयास किया। उनकी कुंडली में भी दो विवाहों का योग था। ऐसे ही किसी दिन अपनी सास से विवाह की ही चर्चा बात करते हुये उन्होंने अपनी कुंडली वहां खेलती हुयी अपनी पुत्री सरोज को पकड़ा दी। उसने खेल-खेल में कुंडली टुकड़े-टुकड़े कर दी। दूसरा विवाह फिर नहीं हुआ।भाग्य के लेखे को निराला ने गलत साबित कर दिया।
बच्चों को सास के भरोसे छोड़कर फिर निराला महिषादल लौट आये। लेकिन वे टिक न सके। नौकरी छोड़कर धीरे-धीरे साहित्य में रमते गये। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को पत्र लिखे। बंगला भाषा का साहित्य पढ़ा। हिंदी में रचनायें लिखीं। राजनीतिक, सामाजिक समस्याऒं पर विचार करते, लेख कवितायें लिखते। साहित्य साधना प्रारंभ की। रवीन्द्र नाथ टैगोर की कवितायें उनको आकर्षित करती थीं।
इसी समय कलकत्ते से मतवाला का प्रकाशन शुरु हुआ। सुर्जकान्त तब तक तक सूर्यकान्त त्रिपाठी हो चुके थे। मतवाला का मोटो सूर्यकान्त ने तैयार किया-
यह निरालाजी की साहित्य साधना की सक्रिय शुरुआत थी। निराला मतवाला मंडल की शोभा थे। वे कविता लिखते। वे रवीन्द्रनाथ टैगोर, तुलसीदास और गालिब के भक्त थे। लेकिन वे रवीन्द्रनाथ को विश्वका सर्वश्रेष्ठ कवि न मानते थे। उनकी नजरों सर्वश्रेष्ठ तो तुलसी ही थे। अपनी बात को सिद्ध करने के लिये वे रवीन्द्र काव्य में तमाम कमियां बताकर बंग भाषा के लोगों को खिझाया करते।
इस समय ही निराला की लोकप्रियता बढ़ी और उन्होंने लोगों पर व्यंग्य भी कसे। उनके दुश्मनों की संख्या बढ़ी। इसी समय उन पर आरोप लगा के उनकी कवितायें रवीन्द्र नाथ टैगोर के भावों पर आधारित हैं। लोगों ने सप्रमाण साबित किया कि निराला की फलानी-फलानी कविता में रवीन्द्र नाथ टैगोर की फलानी-फलानी कविता से भाव साम्य है। यह शुरुआत थी निरालाजी के खिलाफ़ साहित्य में उनको घेरने की। हालांकि कुछ बातें सहीं थीं इसमें कि कुछ कविताऒं में भाव साम्य था लेकिन प्रचार जिस अंदाज में किया जा रहा था उससे यह लग रहा था कि मानों निराला का सारा माल ही चोरी का है।
बहरहाल, निराला बाद में अपने को बार-बार साबित करते रहे। उनके जितने विरोधी हुये उससे कहीं अधिक उनके अनुयायी बने।
यह अलग बात है कि इस नाम ने उनकी आर्थिक स्थिति कभी ऐसी न की कि वे निस्चिंत होकर लिख सकें। अभावों में भी निराला के स्वभाव का विद्रोही स्वरूप कभी दबा नहीं।
एक बार दुलारे लाल भार्गव के यहां ओरछा नरेश की पार्टी थी। राज्य के भूतपूर्व दीवान शुकदेव बिहारी मिश्र तथा नगर के अन्य गणमान्य साहित्यकार उपस्थित थे। जब ओरछा नरेश आये तो सब लोग उठकर खड़े हो गये। निराला अपनी कुर्सी पर बैठे रहे। लोगों ने कानाफूसी की- कैसी हेकड़ी है निराला में!
रायबहादुर शुकदेव बिहारी मिश्र हर साहित्यकार से राजा का परिचय कराते हुये कहते-गरीब परवर, ये फलाने हैं।
बुजुर्ग लेखक शुकदेवबिहारी युवक राजा को गरीबपरवर कहें, निराला को बुरा लगा। जब वह निराला का परिचय देने को हुये तो निराला उठ खड़े हुये। जैसे कोई विशालकाय देव बौने को देखे, वैसे ही राजा को देखते हुये निराला ने कहा- हम वह हैं, हम वह हैं जिनके बाप-दादों की पालकी तुम्हारे बाप-दादों के बाप-दादा उठाया करते थे।
आशय यह है कि छ्त्रसाल ने भूषण की पालकी उठाई थी; साहित्यकार राजा से बड़ा है।
निरालाजी बसंत पंचमी के दिन अपना जन्मदिन मनाते थे। आज बसंत पंचमी हैं। इस अवसर मैं निरालाजी को श्रद्धापूर्वक स्मरण करता हूं।
संदर्भ: निराला की साहित्य साधना->लेखक डा. रामविलास शर्मा
-सूर्यकांत त्रिपाठी’ निराला’
जानकारी मिली ! आभार!) ने इसके बारे में याद दिलाया सो उनका भी शुक्रिया। निरालाजी को कवि निराला बनने के लिये प्रेरित करने में उनकी जीवन संगिनी की भूमिका उल्लेखनीय थी यह भी इस संस्मरण से पता चलता है। ]
निरालाजी के बारे में लिखते हुये प्रसिद्ध आलोचक स्व.रामविलास शर्मा ने लिखा:-
यह कवि अपराजेय निराला,जनता के कवि सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ से रामविलास शर्मा जी की जब पहली मुलाकात हुयी तो वे लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्र थे। रामविलासजी ‘निराला’जी बहुत प्रभावित थे। निरालाजी ने भी रामविलास जी के कुछ अनुदित लेख देखे थे और अनुवाद की तारीफ़ की थी लेकिन मेल-मुलाकात यदा-कदा ही हुयी। एक साल बाद एम.ए. की परीक्षायें देने के बाद रामविलासजी निराला का कविता संग्रह ‘परिमल’ खरीदने के लिये सरस्वती पुस्तक भंडार गये। पुस्तक लेकर वे चलने ही वाले थे कि इतने में निरालाजी आ गये। वे बैठ गये। आगे रामविलासजी बताया:-
जिसको मिला गरल का प्याला;
ढहा और तन टूट चुका है,
पर जिसका माथा न झुका है;
शिथिल त्वचा ढलढल है छाती,
लेकिन अभी संभाले थाती,
और उठाये विजय पताका-
यह कवि है अपनी जनता का!
उन्होंने पूछा- यह किताब आप क्यों खरीद रहे हैं? मैंने कहा- इसलिये कि मैं इसे पढ़ चुका हूं।
उन्होंने आंखों में ताज्जुब भरकर कहा-तब?
मैंने जवाब दिया-मैं तो बहुत कम किताबें खरीदता हूं; इसकी कवितायें मुझे अच्छी लगती हैं। उन्हें जब इच्छा हो तब पढ़ सकूं ,इसलिये खरीद रहा हूं।
मेरे हाथ से किताब लेकर पीछे के पन्ने पलटते हुये उन्होंने कहा- शायद ये बाद की[मुक्तछन्द] रचनायें आपको न पसन्द हों।
मैंने कहा-वही तो मुझको सबसे ज्यादा पसन्द हैं; पता नहीं आपने तुकान्त रचनायें क्यों कीं?
इसके बाद वह मिल्टन, शेली, ब्राउनिंग आदि अंग्रेज कवियों के बारे में खोद-खोदकर सवाल करते रहे। बातें ज्यादातर मैंने की . वह अधिकतर सुनते रहे।
यह वह समय समय था जब निरालाजी पर हिंदी साहित्य में चौतरफ़ा हमले हो रहे थे। रामविलासजी ने लखनऊ विश्वविद्यालय अंग्रेजी में एम.ए. किया। इसके बाद उन्होंने पी.एच.डी. की। लेकिन निरालाजी उनको डाक्टरेट की डिग्री मिलने के पहले ही डाक्टर कहने लगे थे।
निरालाजी रामविलास शर्मा जी के प्रिय कवि थे। उन्होंने निरालाजी के व्यक्तित्व और कृतित्व को सहेजते हुये ‘ निराला की साहित्य साधना’ किताबें लिखीं हैं। इनमें निरालाजी की खूबियों-खामियों के निर्लिप्त विवरण हैं। उनकी साहित्य साधना के विविध पक्ष हैं। निरालाजी को समझने के लिये ये पुस्तक बहुत उपयोगी है।
निरालाकी का जन्म तो
निरालाजी के पूर्वज जिस इलाके बैसवाड़े के रहने वाले थे उसके लोगों के बारे में भारतेन्दु हरिशचन्द्र ने लिखा:-
यहां का हर आदमी अपने को भीम और अर्जुन समझता है। इनकी भाषा भी कुछ ऐसी है कि लोग सीधे स्वभाव बात कर रहे हों तो अजनबी को लगेगा कि लड़ रहे हों।
ऐसे ही बैसवाड़े के रहने वाले पंडित रामसहाय तिवारी ,जो कि गांव से आकर बंगाल के महिषादल में नौकर हो गये थे, के घर जब बच्चे का जन्म हुआ तो पंडित ने जन्मकुंडली बनायी-
लड़का मंगली है, दो ब्याह लिखे हैं; है बड़ा भाग्यवान, बड़ा नाम करेगा। इसका नाम रखो सुर्जकुमार। रामसहाय ने सोचा- दो ब्याह हमारे हुये, बेटा भी कुल-रीति निबाहेगा।
सुर्जकुमार अभी बोलना सीख ही रहे थे, करीब ढाई साल के रहे होंगे कि उनकी मां इस संसार से विदा हो गयीं। उनके पिताकी सारी ममता बेटे पर केंद्रित हो गयी। वह बेटे को नहलाते-धुलाते, भोजन कराते, रात को अपने पास सुलाते। दिन में अपने मित्र के घर छोड़ जाते जहां उनको हर तरफ़ से स्नेह मिलता। स्त्रियां हाथोंहाथ रखतीं। बाप का लाड़ अलग। जो खाने-पहनने को मांगते वही मिल जाता। सुर्जकुमार स्वभाव से खिलाड़ी नटखट और जिद्दी हो चले थे। बाद में वे मुहल्ले के लड़कों के नेता हो गये। गोली खेलने में सबके उस्ताद। ज्यादा समय खेल-कूद में बीतता। पिता से कहानियां सुनते, भजन , हनुमानचालीसा, रामायण ,देवी-देवताऒं की कहानियां सुनते।
अपने बचपन से ही सुर्जकुमार विद्रोही तेवर के थे। जनेऊ हो जाने के बाद भी जात-पांत, ऊंच-नीच के भेदभाव की चिंता किये बिना सब जगह सब कुछ खाते पीते।
कुछ समय बाद उनकी शादी मनोहरा देवी से हुई। दो साल बाद गौना। गांव में प्लेग फैला था उन दिनों। लोग घरों से निकलकर बाग में झोपड़े डालकर रहते थे। महुये के एक पेड़ के नीचे सुर्जकुमार का बिस्तर लगाया। जीवन में पहलीबार उन्हें नारी-देह के स्पर्श का सुखद अनुभव हुआ। उस समय मनोहरा देवी १३ साल की थीं।
गांव में फैले प्लेग के कारण मनोहरा देवी के पिताजी उनको जल्दी विदा करा ले गये। इस पर भन्नाये सुर्जकुमार तिवारी के पिताजी ने बदला लेने के लिये उनको ससुराल भेजते समय ताकीद की- यहां से तिगुना खाना।
सुर्जकुमार ने गांव में पतुरिया का श्रंगार देखा था, महिषादल में भी गायिकाऒं सुंदर स्त्रियों की कमी न थी। खुद भी इत्र-तेल-फुलेल लगाते। पैसा ससुराल का ठुकता। ऐसे ही किसी दिन बातचीत में सुर्जकुमार ने ताना मारा- “अपने बाल सूंघो? तेल की ऐसी चीकट और बदबू है कि कभी-कभी मालूम होता है कि तुम्हारे मुंह पर कै कर दूं।” मनोहरा देवी ने और तेज होकर कहा,” तो क्या मैं रण्डी हूं जो हर समय बनाव श्रंगार के पीछे पड़ी रहूं?”
सुर्जकुमार को लग रहा था ,पत्नी उनके अधिकार में पूरी तरह नहीं आ रहीं। एक दिन उनका गाना सुना। मनोहरादेवे ने भजन गाया-
श्री रामचन्द्र क्रपालु भजु मन हरण भव भय दारुणम
कन्दर्प अगणित अमित छवि नवनीलनीरज सुन्दरम।
मनोहरादेवी के कंठ से तुलसीदास का यह छन्द सुनकर सुर्जकुमार के न जाने कौन से सोते संस्कार जाग उठे। सहित्य इतना सुन्दर है, संगीत इतना आकर्षक है, उनकी आंखों से जैसे नया संसार देखा, कानों ने ऐसा संगीत सुना जो मानो इस धरती पर दूर किसी लोक से आता हो। अपनी इस विलक्षण अनुभूति पर वे स्वयं चकित रह गये।अपने सौन्दर्य पर जो अभिमान था, वह चूर-चूर हो गया। ऐसा ही कुछ गायें, ऐसा कुछ रचकर दिखायें, तब जीवन सार्थक हो। पर यहां विधिवत न संगीत के शिक्षा मिली न साहित्य की। पढाई भी माशाअल्लाह-एन्ट्रेन्स फेल!
कुछ दिन बाद पिता के देहान्त के बाद सुर्जकुमार तिवारी को पहली बार आटे-दाल का भाव पता चला। उनको महिषादल में ही लिखा पढ़ी का काम मिल गया। इस बीच उनके यहां एक पुत्र रामकृष्ण और एक पुत्री सरोज का जन्म हुआ। एक दिन उनको पत्नी की बीमारी का तार मिला। जब वे महिषादल से अपनी ससुराल डलमऊ पहुंचे तब मालूम हुआ कि मनोहरा देवी पहले ही चिता में जल चुकी हैं। उनके विवाहित जीवन की जब अब होनी चाहिये थी पर शुरू होने के बदले उसका अंत हो गया। उस समय उनकी उमर थी -बीस साल।
डलमऊ और उसके आस-पास इतने लोग मरे कि लाशें फूंकना असम्भव हो गया। गंगा के घाटों पर लाशों के ठट लगे थे। डाक्टरों ने जांच करके देखा कि सेर भर पानी में आधा पाव सड़ा मांस निकलता था।
बाद में सास ने उनकी दूसरी शादी कराने का प्रयास किया। उनकी कुंडली में भी दो विवाहों का योग था। ऐसे ही किसी दिन अपनी सास से विवाह की ही चर्चा बात करते हुये उन्होंने अपनी कुंडली वहां खेलती हुयी अपनी पुत्री सरोज को पकड़ा दी। उसने खेल-खेल में कुंडली टुकड़े-टुकड़े कर दी। दूसरा विवाह फिर नहीं हुआ।भाग्य के लेखे को निराला ने गलत साबित कर दिया।
बच्चों को सास के भरोसे छोड़कर फिर निराला महिषादल लौट आये। लेकिन वे टिक न सके। नौकरी छोड़कर धीरे-धीरे साहित्य में रमते गये। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को पत्र लिखे। बंगला भाषा का साहित्य पढ़ा। हिंदी में रचनायें लिखीं। राजनीतिक, सामाजिक समस्याऒं पर विचार करते, लेख कवितायें लिखते। साहित्य साधना प्रारंभ की। रवीन्द्र नाथ टैगोर की कवितायें उनको आकर्षित करती थीं।
इसी समय कलकत्ते से मतवाला का प्रकाशन शुरु हुआ। सुर्जकान्त तब तक तक सूर्यकान्त त्रिपाठी हो चुके थे। मतवाला का मोटो सूर्यकान्त ने तैयार किया-
अमिय गरल शशि सीकर रविकर राग विराग भरा प्याला’इसी के साथ मतवाला की तर्ज पर सूर्यकांत त्रिपाठी ने उपनाम रखा- निराला। सूर्यकांत त्रिपाठी,’निराला’।
पीते हैं जो साधक उनका प्यारा है यह मतवाला।
यह निरालाजी की साहित्य साधना की सक्रिय शुरुआत थी। निराला मतवाला मंडल की शोभा थे। वे कविता लिखते। वे रवीन्द्रनाथ टैगोर, तुलसीदास और गालिब के भक्त थे। लेकिन वे रवीन्द्रनाथ को विश्वका सर्वश्रेष्ठ कवि न मानते थे। उनकी नजरों सर्वश्रेष्ठ तो तुलसी ही थे। अपनी बात को सिद्ध करने के लिये वे रवीन्द्र काव्य में तमाम कमियां बताकर बंग भाषा के लोगों को खिझाया करते।
इस समय ही निराला की लोकप्रियता बढ़ी और उन्होंने लोगों पर व्यंग्य भी कसे। उनके दुश्मनों की संख्या बढ़ी। इसी समय उन पर आरोप लगा के उनकी कवितायें रवीन्द्र नाथ टैगोर के भावों पर आधारित हैं। लोगों ने सप्रमाण साबित किया कि निराला की फलानी-फलानी कविता में रवीन्द्र नाथ टैगोर की फलानी-फलानी कविता से भाव साम्य है। यह शुरुआत थी निरालाजी के खिलाफ़ साहित्य में उनको घेरने की। हालांकि कुछ बातें सहीं थीं इसमें कि कुछ कविताऒं में भाव साम्य था लेकिन प्रचार जिस अंदाज में किया जा रहा था उससे यह लग रहा था कि मानों निराला का सारा माल ही चोरी का है।
बहरहाल, निराला बाद में अपने को बार-बार साबित करते रहे। उनके जितने विरोधी हुये उससे कहीं अधिक उनके अनुयायी बने।
यह अलग बात है कि इस नाम ने उनकी आर्थिक स्थिति कभी ऐसी न की कि वे निस्चिंत होकर लिख सकें। अभावों में भी निराला के स्वभाव का विद्रोही स्वरूप कभी दबा नहीं।
एक बार दुलारे लाल भार्गव के यहां ओरछा नरेश की पार्टी थी। राज्य के भूतपूर्व दीवान शुकदेव बिहारी मिश्र तथा नगर के अन्य गणमान्य साहित्यकार उपस्थित थे। जब ओरछा नरेश आये तो सब लोग उठकर खड़े हो गये। निराला अपनी कुर्सी पर बैठे रहे। लोगों ने कानाफूसी की- कैसी हेकड़ी है निराला में!
रायबहादुर शुकदेव बिहारी मिश्र हर साहित्यकार से राजा का परिचय कराते हुये कहते-गरीब परवर, ये फलाने हैं।
बुजुर्ग लेखक शुकदेवबिहारी युवक राजा को गरीबपरवर कहें, निराला को बुरा लगा। जब वह निराला का परिचय देने को हुये तो निराला उठ खड़े हुये। जैसे कोई विशालकाय देव बौने को देखे, वैसे ही राजा को देखते हुये निराला ने कहा- हम वह हैं, हम वह हैं जिनके बाप-दादों की पालकी तुम्हारे बाप-दादों के बाप-दादा उठाया करते थे।
आशय यह है कि छ्त्रसाल ने भूषण की पालकी उठाई थी; साहित्यकार राजा से बड़ा है।
निरालाजी बसंत पंचमी के दिन अपना जन्मदिन मनाते थे। आज बसंत पंचमी हैं। इस अवसर मैं निरालाजी को श्रद्धापूर्वक स्मरण करता हूं।
संदर्भ: निराला की साहित्य साधना->लेखक डा. रामविलास शर्मा
मेरी पसंद:
भारति, जय, विजयकरे!मुखरें!
कनक-शस्य-कमलधरे!
लंका पदतल शतदल
गर्जितोर्मि सागर-जल,
धोता शुचि चरण युगल
स्तव कर बहु अर्थ भरे।
तरु-तृण-वन-लता वसन,
अंचल में खचित सुमन,
गंगा ज्योतिर्जल-कण
धवल-धार हार गले।
मुकुट शुभ्र हिम- तुषार,
प्राण प्रणव ओंकार,
ध्वनित दिशायें उदार,
शतमुख-शतरव-
-सूर्यकांत त्रिपाठी’ निराला’
Posted in संस्मरण | 23 Responses
सरस्वती के इस वरद पुत्र का जन्मदिवस वसंत पंचमी की शुभघड़ी से संयुक्त हो जाना शुभ ही है !
निराला जी का पुण्य-स्मरण करते हुए आपको वसंत पंचमी की शुभकामनायें ।
वसंतपंचमी की शुभकामनायें.
Nirala,mahadevi ji ki main jabardast prashanshak hun…Yah aalekh padh jo aanand aaya ,kya kahun….
बहुत दिनों बाद इस गली आना हुआ, पहचान तो रहे हैं न?
–सारिका
निराला जी को स्मरण करने और इतनी महत्त्वपूर्ण सूचनायें देने के लिये धन्यवाद!
निराला जी को शत-शत नमन और आपको आभार!
सादर
बेहतरीन पोस्ट.
Mahan Nirala ko smaran kar unhe sahi artho mein shradhanjali di. Lekh kathin than fir bhi tartamya bana hi nahi raha balki usme nikhar aata gaya. (Vinay) DDN 21-01-2010.
बेहतर स्मरण…
Anand aa gaya nirala ji ke baare mein padh kar
शुक्रिया देव!