http://web.archive.org/web/20140419214911/http://hindini.com/fursatiya/archives/1236
हम इधर काम की कमी के चलते जरा बिजी जैसा कुछ हो गये। इस बीच देखते हैं कि ससुरा बसन्त आकर छा गया है। लोग बिना स्माइली लगाये हंसी-मजाक की बातें करने लगे हैं। चुहलबाजी के भाव चमक गये हैं। जैसे कोई ब्लॉगर ब्लॉगिंग छोड़ने के बाद लोगों के अपनापे के चलते वापस आ जाता है वैसेइच सर्दी लौट-लौट के आ रही है। वापस आकर और हसीन दिख रही है। लोग अपनी और दूसरों की कवितायें धड़ल्ले से ठेल रहे हैं। कविताओं की रेलम-पेल मची है। स्टॉक क्लियरिंग सरीखी हो रही है। एक बड़ी कविता के साथ तीन पुछल्ली/टुइयां कवितायें मुफ़्त में।
बसन्त के पुराने बिम्ब बनन के बागन के। कुंज के ,कलीन के हैं। लगता है कि शहरों में अभी भी बसन्त की एन्ट्री बैन है। बसन्त आता है,चला जाता है। बसन्त पंचमी तो चंचला है। कभी किसी तारीख को आती है,कभी किसी और को। नहीं चंचला कहना ठीक नहीं। बसन्त पंचमी भारतीय समाज की मेहनत कश कामगार महिला की तरह आती-जाती है। छुपके छुपाके। कहीं शोहदों की नजर उस पर न पड़ जाये। उसका जीना दूभर कर देंगे वे। वेलेन्टाइन दिवस अकेला मर्द है। मर्द की तरह हर साल चौदह फ़रवरी को आता है। मोटर साइकिलों पर धड़धड़ाते आते आवारा लड़कों की तरह। जहां जाता है हल्ला मचाता है, खर्चा करवाता है चला जाता है।
बसन्त बिम्ब निहारने के लिये घर के बाहर निकलता हूं। बगल के खेत की सरसों कोहरे की चादर ओढ़े अलसाई सी ऊंघ रही है। बगीचे में गेंदे के फ़ूल सर उठाये तने खड़े हैं। लग रहा है आसमान गिरेगा तो थाम लेंगे। लगता है गेंदे के बच्चे ने मेरा लिखा बांच लिया है और उसके तेवर से लग रहा है गोया वह कह रहा हो- भले ही हम थाम न पायें आसमान को लेकिन वह गिरेगा हमारे ऊपर तो उसके छेद-पंचर तो कर ही देंगे। सारी हवा निकल जायेगी! दुबारा उठने लायक न रहेगा ! एक बार गिरकर तो देखे हमारी जमीन पर! टुइयां से गेंदे के पौधे का हौसला देखकर मुझे फ़िर लगा -कुछ कर गुजरने के लिये मौसम नहीं मन चाहिये।
उधर एक मोर खेत में रैंप पर माडलिंग करते माडल सा टहल रहा है। हमको पास आते देखकर दूर सरक जाता है-गोया कह रहा हो कि एक खेत में एक ही रहेगा।
घर के बाहर से काम भर का बसन्त बटोरकर अंदर आ जाता हूं। नेट कनेक्ट करता हूं। बसन्त को खोजता हूं। 0.21 सेकेन्ड में 101,000 बसन्त अवतरित हो जाते हैं। छांट लो अपना मन चाहा बसन्त। पहली ही कड़ी बताती है :
आओ भईया आओ बसन्त
महंगाई से चहुंदिशि छाओ बसन्त!
दुख को दालों सा दुर्लभ कर दो,
चिन्ता की खोली पर ताला जड़ दो,
मनहूसियत की ऐसी तैसी कर दो,
सबहन खिलखिल कर दो हसन्त!
आओ भैया आओ बसन्त!
पंचमी बसन्त आ चली गयी
हिन्दी तिथियों सी छली गयीं
अब प्रेम दिवस का छाया बुखार
छा गये बुढौती में वेलेंटाइन संत!
आओ भैया आओ बसन्त!
आमों-बेरों का तो पता नहीं
मॉलों में पसरा छलिया बसन्त
सब तरफ़ सेल की रेल मची
लुट रहे गृहस्थ, फ़ंस रहे संत
आओ भैया आओ बसन्त!
तितली ने भौंरे को छेड़ दिया
भौंरा लड़कों सा शरमाय गया
दोंनो एक दूजे को रहे निहार
बगिया में मच गयी खिलखिल हसंत
आओ भैया आओ बसन्त!
पौधे पौधे पर चढ़ा खुमार
कलियों-कलियों के प्रेम बुखार
सब एक दूजे के बने यार
इस मौज मजे का न कोई अंत।
आओ भैया आओ बसन्त!
बसन्त के नाम इत्ता कविता डिस्काउन्ट लेने के बाद लगता है कि अब बसन्त आ ही गया है।
वन,बाग,कूप,त़ड़ाग,केलि,कछार अब किताबों की बात लगते हैं। लेकिन बसन्त बहुरुपिया है। किसी न किसी बहाने आ ही जाता है। छा ही जाता है। है कि नहीं!
बहरहाल यह बसन्तगीत सुनिये। लवकुश दीक्षित जी की खुद आवाज में। जिन लोगों के नेट में गड़बड़ी है उनके लिये यह गीत लिखकर भी पोस्ट किया जा रहा है।
बसन्त राजा फ़ूलइ तोरी फ़ुलवारी
बसन्त राजा फ़ूलइ तोरी फ़ुलवारी
मह-मह महकइ खेतवा कि माटी महकइ कियारी कियारी
बसन्त राजा फ़ूलइ तोरी फ़ुलवारी!
गदराने गोंहुंआ सरसों ठाढी ठुमकै
फ़ूली कुसुमियां पियर रंग दमकै
हरी हरी मटरी की पहरी घेघरिया
अरसी का गोटा किनारी!
बसन्त राजा फ़ूलइ तोरी फ़ुलवारी!
महुआरी महकैं अमंवा बौराने
बेर पके कचनार फ़ुलाने
बेला,चमेली औ फ़ूलइ चंदनियां
लहरै उजरी कारी!
बसन्त राजा फ़ूलइ तोरी फ़ुलवारी!
मदमाते भौंरा कली का मुंह चूमैं
रंग रंगी तितली पराग पी झूमैं
लपटी बेलि गरे बेरवा के
बप्पा की बिटिया दुलारी!
बसन्त राजा फ़ूलइ तोरी फ़ुलवारी!
बिखरी परी बसन्त की माया
बहकैं मन औ बहकैं काया
ज्ञानी गुनी बसन्त मां बहकैं
बहकैं सन्त पुजारी।
बसन्त राजा फ़ूलइ तोरी फ़ुलवारी!
फ़ाग धमार कबीरैं गावैं
ढोल झांझ करताल बजावैं
गाल गुलाल भाल बिच रोरी
होरी खेलैं बनवारी।
बसन्त राजा फ़ूलइ तोरी फ़ुलवारी!
हरि गोपी संग किशन कन्हैया
निरखैं ग्वाल पुकारैं गैया
अन्तर्यामी जसुदा के छैया
कवि लवकुश बलिहारी।
बसन्त राजा फ़ूलइ तोरी फ़ुलवारी!
-लवकुश दीक्षित
ये भी शायद आप बांचना चाहें:
वनन में बागन में बगर्यो बसंत है…
ब्लागर का कैसा हो बसंत…
राजा दिल मांगे चवन्नी उछाल के
बसन्त के पुराने बिम्ब बनन के बागन के। कुंज के ,कलीन के हैं। लगता है कि शहरों में अभी भी बसन्त की एन्ट्री बैन है। बसन्त आता है,चला जाता है। बसन्त पंचमी तो चंचला है। कभी किसी तारीख को आती है,कभी किसी और को। नहीं चंचला कहना ठीक नहीं। बसन्त पंचमी भारतीय समाज की मेहनत कश कामगार महिला की तरह आती-जाती है। छुपके छुपाके। कहीं शोहदों की नजर उस पर न पड़ जाये। उसका जीना दूभर कर देंगे वे। वेलेन्टाइन दिवस अकेला मर्द है। मर्द की तरह हर साल चौदह फ़रवरी को आता है। मोटर साइकिलों पर धड़धड़ाते आते आवारा लड़कों की तरह। जहां जाता है हल्ला मचाता है, खर्चा करवाता है चला जाता है।
घर के बाहर से काम भर का बसन्त बटोरकर अंदर आ जाता हूं। नेट कनेक्ट करता हूं। बसन्त को खोजता हूं। 0.21 सेकेन्ड में 101,000 बसन्त अवतरित हो जाते हैं। छांट लो अपना मन चाहा बसन्त। पहली ही कड़ी बताती है :
माघ महीने की शुक्ल पंचमी को बसन्त पंचमी के नाम से जाना जाता है। बसंत की शुरुआत इस दिन से होती है। इसको बुद्धि, ज्ञान और कला की देवी सरस्वती की पूजा-आराधना के दिन के रूप में मनाया जाता है। मौसमी फूलों और फलों और चंदन से सरस्वती पूजा की जाती है। सरस्वती को अच्छे व्यवहार, बुद्धिमत्ता, आकर्षक व्यक्तित्व, संगीत का प्रतीक भी माना जाता है।अब मामला अटक जाता है कि माघ माह कब आता है। यह घाघ से कितना अलग है। कितना डिफ़रेन्ट है। कुछ पता नहीं है। वैसे अब पता करने की बनती भी नहीं। टेलीविजन बता चुका है कि बसन्त आ चुका है। वेलेन्टाइन बुखार छा चुका है। एक ब्लॉगर इस हालत में और क्या कर सकता है -सिवाय एक तुकबंदी ठेलने के। सो ठेल रहे हैं। इसमें आये हुये बसन्त का आवाहन है। देखिये:
आओ भईया आओ बसन्त
महंगाई से चहुंदिशि छाओ बसन्त!
दुख को दालों सा दुर्लभ कर दो,
चिन्ता की खोली पर ताला जड़ दो,
मनहूसियत की ऐसी तैसी कर दो,
सबहन खिलखिल कर दो हसन्त!
आओ भैया आओ बसन्त!
हिन्दी तिथियों सी छली गयीं
अब प्रेम दिवस का छाया बुखार
छा गये बुढौती में वेलेंटाइन संत!
मॉलों में पसरा छलिया बसन्त
सब तरफ़ सेल की रेल मची
लुट रहे गृहस्थ, फ़ंस रहे संत
आओ भैया आओ बसन्त!
भौंरा लड़कों सा शरमाय गया
दोंनो एक दूजे को रहे निहार
बगिया में मच गयी खिलखिल हसंत
कलियों-कलियों के प्रेम बुखार
सब एक दूजे के बने यार
इस मौज मजे का न कोई अंत।
आओ भैया आओ बसन्त!
बसन्त के नाम इत्ता कविता डिस्काउन्ट लेने के बाद लगता है कि अब बसन्त आ ही गया है।
वन,बाग,कूप,त़ड़ाग,केलि,कछार अब किताबों की बात लगते हैं। लेकिन बसन्त बहुरुपिया है। किसी न किसी बहाने आ ही जाता है। छा ही जाता है। है कि नहीं!
बसन्त राजा फ़ूलइ तोरी फ़ुलवारी
यह गीत काफ़ी पहले मैंने गीतकार लवकुश दीक्षित के मुंह से सुना थी। सीतापुर के लवकुश दीक्षित अवधी के प्रसिद्ध कवि स्व.बलभद्र प्रसाद दीक्षित के पुत्र हैं। उनका एक गीत टुकुर-टुकुर देवरा निहारै बेईमनवा बहुत प्रसिद्ध लोकगीत है।बहरहाल यह बसन्तगीत सुनिये। लवकुश दीक्षित जी की खुद आवाज में। जिन लोगों के नेट में गड़बड़ी है उनके लिये यह गीत लिखकर भी पोस्ट किया जा रहा है।
बसन्त राजा फ़ूलइ तोरी फ़ुलवारी
बसन्त राजा फ़ूलइ तोरी फ़ुलवारी
मह-मह महकइ खेतवा कि माटी महकइ कियारी कियारी
बसन्त राजा फ़ूलइ तोरी फ़ुलवारी!
गदराने गोंहुंआ सरसों ठाढी ठुमकै
फ़ूली कुसुमियां पियर रंग दमकै
हरी हरी मटरी की पहरी घेघरिया
अरसी का गोटा किनारी!
बसन्त राजा फ़ूलइ तोरी फ़ुलवारी!
महुआरी महकैं अमंवा बौराने
बेर पके कचनार फ़ुलाने
बेला,चमेली औ फ़ूलइ चंदनियां
लहरै उजरी कारी!
बसन्त राजा फ़ूलइ तोरी फ़ुलवारी!
मदमाते भौंरा कली का मुंह चूमैं
रंग रंगी तितली पराग पी झूमैं
लपटी बेलि गरे बेरवा के
बप्पा की बिटिया दुलारी!
बसन्त राजा फ़ूलइ तोरी फ़ुलवारी!
बिखरी परी बसन्त की माया
बहकैं मन औ बहकैं काया
ज्ञानी गुनी बसन्त मां बहकैं
बहकैं सन्त पुजारी।
बसन्त राजा फ़ूलइ तोरी फ़ुलवारी!
फ़ाग धमार कबीरैं गावैं
ढोल झांझ करताल बजावैं
गाल गुलाल भाल बिच रोरी
होरी खेलैं बनवारी।
बसन्त राजा फ़ूलइ तोरी फ़ुलवारी!
हरि गोपी संग किशन कन्हैया
निरखैं ग्वाल पुकारैं गैया
अन्तर्यामी जसुदा के छैया
कवि लवकुश बलिहारी।
बसन्त राजा फ़ूलइ तोरी फ़ुलवारी!
-लवकुश दीक्षित
ये भी शायद आप बांचना चाहें:
वनन में बागन में बगर्यो बसंत है…
ब्लागर का कैसा हो बसंत…
राजा दिल मांगे चवन्नी उछाल के
विशुद्ध फुरसतिया मार्का पोस्ट….
लोक गीत मनभावन है..
tukbandi bahut khoob ban padi hai…do naye shbd mile.
———
Luvkush ji ka yah behad khubsurat lokgeet unki awaaz mein suna..
waah! waah!!waah!!
podcast sunNe ka apna hi anand hai.
—————————
**Bin maange sujhaav-:D
[Recording karte samay mic bolne wale ke thoda close rakha kareeye..
**mobile phone ke signals beech beech mein [2 jagah]diturb kar rahe hain]..dhyan rakhen :)….
**Recording software mein bhi option hota hai final recording se pahle awaaz tez karne ka—-check kareeyega–abhi full volume kar ke hi ‘samany ‘sun pa rahe hain]:)
–abhaar..
मजा आ गया … जितना भी पढ़ा , पूर – पूर (पोर-पोर भी ) महसूसा ! … और क्या
चाहिए बसंत में !
आपके लेखन में इस दुर्योग की ओर सही संकेत है कि पहले जहाँ बसंत
बयार ( प्राकृतिक-उपादानों से ) जाहिर होता था वहीं आज यांत्रिक ( खबर-ए-टीबी.सेआदि से )
ढंग से चढ़ता है हमारी चेतना पर !
@ ” ……..मोर खेत में रैंप पर माडलिंग करते माडल सा टहल रहा है। हमको
पास आते देखकर दूर सरक जाता है-गोया कह रहा हो कि एक खेत
में एक ही रहेगा।”
— यहाँ तो अभिनव हास्य-सृष्टि है … सुन्दर !
.
लवकुश जी का परिचय आज के दिन की एक उपलब्धि जैसा है मेरे लिए …
पॉडकास्ट को सुनकर अच्छा लगा … अन्य लिंक पर अभी जा रहा हूँ …
………….. आभार ,,,
मॉलों में पसरा छलिया बसन्त
सब तरफ़ सेल की रेल मची
लुट रहे गृहस्थ, फ़ंस रहे संत
सही है. आम के पेड अब शहरों में रहे नहीं, बेर की झाडियां पता नहीं कहां काट के फेंक दी गईं. तरस गये बेर खाने को. लेकिन इस पोस्ट ने खूब बासन्ती रंग बिखेर दिया. टेसू सी चटखीली पोस्ट.
अमरेन्द्र भाई ने एक ही इशारा कैसे किया ?
गहगहा गये हम भी पोस्ट पढ़कर ! ऐसे हुलस रहे हैं जैसे हम ही समझ रहे हैं इस पोस्ट की सारी रस-भंगिमायें । वसन्त-बिद्ध तो थे ही, प्रविष्टि-बिद्ध भी हो गये ।
अवधी के वसन्त-गीत ने तो मंत्रमुग्ध कर दिया । आपके लिंक पर गया ’टुकुर टुकुर देवरा निहारै बेइमनवाँ’, टुकुर-टुकुर निहारा, पर गीत सुनने का उपक्रम न ढूँढ़ पाया । उसे फिर से पोस्ट करिये न प्लेयर के साथ । जोहूँगा ।
एक बड़ी सी पॉलीथिन में भरकर फ्रिज में डाल दूंगा फिर रोज थोड़ा-थोड़ा इसका आनन्द लूंगा चाय के साथ। देखता हूँ कितने दिन चलता है यह बसन्त…:)
भौंरा लड़कों सा शरमाय गया
दोंनो एक दूजे को रहे निहार’
हमारे जमाने में तो भौंरे तितलियों को छेड़ते थे और तितलियाँ लाज से लाल हुई जाती थीं , अब लगता है रिवाज उल्टा हो गया है, सच में पुरात्त्व विभाग के सेम्पल हो लिए हम्…बकिया कविता फ़ुल्टूस फ़ुरसतिया इश्टाइल है मजेदार्…। बसंत आगमन पर आप सभी को शुभकामनाएं
पोस्ट तो खैर धांसू है ही.
उहई, ऋतुराज बसन्त के!
हम तो यही कह रहे थे कि हेरान रहा बसन्त। ईंही पावा ओके हेरत हेरत।
हा हा
हिमांशु जी से सहमत… चातुर्य … वाह … सुन्दर पोस्ट और यह जरुरी भी था यहाँ
आमों-बेरों का तो पता नहीं
मॉलों में पसरा छलिया बसन्त
सब तरफ़ सेल की रेल मची
लुट रहे गृहस्थ, फ़ंस रहे संत
आओ भैया आओ बसन्त!
हमारे यहां तो बस बर्फ ही बर्फ छायी हुई है
चलिए बढ़िया रहा , बसंत पर्व का आगमन हुई गवा ऊंहा
क्या गज़ब गीत सुनवाया जी ..मन प्रसन्न हो गया है
और
गीत के रचियता , गायक लवकुश दीक्षित जी को हमारी बधाईयाँ
मंगल कामनाएं सहित
स स्नेह,
- लावण्या
shuddh desi geet
अब बड़े भाई लोग टिपियाय गये हैं, तो समझ में नहीं आ रहा, कि कौन सी वाली लाइन की तारीफ हम करें..
वइसे आपपर फागुन की खुमारी चढ़ी नहीं दिखती है.. खाली हास्य रस में चहेड़ कर पोस्टिया दिये, इसमें श्रृंगार का कोटा किधर है? फागुन भर ये सब नहीं चलेगा… एक ठांसिये नायक-नायिका टाइप!!
सब ठीक तो है ना… (स्माइली चेंप देते हैं, कोई रिक्स नहीं)
अब बड़े भाई लोग टिपियाय गये हैं, तो समझ में नहीं आ रहा, कि कौन सी वाली लाइन की तारीफ हम करें..
वइसे आपपर फागुन की खुमारी चढ़ी नहीं दिखती है.. खाली हास्य रस में चहेड़ कर पोस्टिया दिये, इसमें श्रृंगार का कोटा किधर है? फागुन भर ये सब नहीं चलेगा… एक ठांसिये नायक-नायिका टाइप!!
सब ठीक तो है ना… (स्माइली चेंप देते हैं, कोई रिक्स नहीं)
कलियों-कलियों के प्रेम बुखार
सब एक दूजे के बने यार
इस मौज मजे का न कोई अंत।
इसको तुकबंदी कहते हो सर ? हा हा क्या बात कही है जी।
लवकुश जी का बसंत राजा सुना भी पढ़ा भी सहेजा भी। बहुत आनंद आ गया जी। बाक़ी तो चैट पर मिल ही चुके हैं। बहुत बहुत आभार इस सुन्दर पोस्ट का।