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बरसात, बचपन,वजीफ़ा और मित्रता दिवस
By फ़ुरसतिया on August 4, 2010
दो दिन से टेलीफोन गड़बड़ाया था। बरसात के चलते हुआ होगा शायद। बरसता
पानी घुसा होगा गढ्ढे में और अंधेरे में तार को जकड़ लिया होगा तन्वंगी
नायिका समझकर। अब वहां उनको बरजने टोंकने वाला तो कोई है नहीं। जुटे हैं
अकेले में। टेलीफ़ोन खराब हो, बिजली जाये उनकी बला से। उनको तो अपने से मतलब
बस्स!
मौसम भइय़ाजी की तरह चिपचिपा हो गया है। पंखा चल रहा है लेकिन चिपचिपाहट की सामान्तर सरकार चल रही है। उसको उखाड़ नहीं पाती पंखे की हवा। एयरकंडीशनर चल नहीं रहा है। वोल्टेज कम है। ऐसा अक्सर होता है। चिपचिपी गर्मी में एयरकंडीशनर चल नहीं पाता। वैसे ही जैसे मौके पर स्टार खिलाड़ी चल नहीं पाते।
बरसात की जब बात चलती है मुझको बचपन की याद आती है। बचपन में मकान के बाहर की नाली के उफ़नते पानी में कागज की नाव बना के डालते थे। नाव उचकती-फ़ुचकती आगे जाती।वहां तक जाती जहां तक पानी की धार साफ़ रहती। जहां नाली में कूड़े का स्पीड ब्रेकर मिलता वहीं चक्कर खाकर रुक जाती। आगे नहीं जा पाती। स्मृतियों में नाव अभी भी बनी है। नावों का याद आना यह बताता है कि कोई यात्रा पूरी नहीं हुई है। यात्रायें या तो अभी शुरू हुई हैं या अटकी हैं। यात्रा पूरी हुई होती तो नावें याद न आती, नाली का साफ़ पानी याद आता, नाली की धार याद आती।
यादों का भी अजीब खेल है। अक्सर बचपन ही याद आता है। मेरे छोटा बच्चे ने तो बोलना शुरू करते ही कहना शुरू कर दिया था-….जब हम छोटे थे।
इतवार को स्टेशन से घर वापस लौटते हुये अपने पुराने मोहल्ले (गांधी नगर) की तरफ़ चले गये। मन किया कि वह कारखाना देखें जहां भैया बचपन में काम करते थे। धीरे-धीरे चलते हुये एक-एक इमारत देखते रहे। कहीं वह कारखाना न दिखा। सोचा तीस-पैंतीस साल हो गये शायद कारखाना बंद हो गया हो। जब बड़ी-बड़ी मिलों के प्लॉट काटकर बेचे जा रहे हैं तो एक मकान में चलते कारखाने की क्या औकात।
फ़िर याद आया कि अब जिब बिकती कहां हैं! स्याही वाले पेन ही जब चलन से बाहर हो गये हैं तो पेन में लगनी वाली जिब का क्या काम? फ़िर उसके कारखाने की क्या जरूरत। बन्द हो गया होगा। स्मृति में वह मकान/कारखाना अभी भी है लेकिन वास्तविकता में वहां नहीं है। ठीक-ठीक याद भी नहीं है कौन मकान था। लेकिन याद भी होता तो क्या उसकी जगह नया मकान आ जाता। यादों में इसकी जगह ये पढ़ें नहीं चलता!
फ़िर वहीं आगे आनन्द बाग में रहने वाले बचपन के दोस्त लक्ष्मी बाजपेयी से मिलने चले गये। तमाम यादें दोहराते रहे। लेलिन पार्क से समोसा मंगाये गये। कोने वाली जिस दुकान से मंगाये गये थे उस दुकान से कभी अपने दोस्त के साथ अक्सर जलेबी खाते थे। चवन्नी की जलेबी बहुत लगती थी। आज चवन्नी की क्या औकात?
लक्ष्मी रोज मेरी फ़ैक्ट्री के आगे से निकलते हैं लेकिन मुलाकात नहीं हो पाती। वे एक प्राइवेट फ़ैक्ट्री में काम करते हैं। हजार करोड़ रुपये का टर्न ओवर है लगभग साल भर का। बता रहे थे उस इंडस्ट्रियल स्टेट के लोगों को मजूरी तीन-हजार /पांच हजार मिलती है। अपने यहां सरकारी लोगों की तन्ख्वाह से तुलना करते हैं तो लगता हैं सरकारी मजूर प्राइवेट के मुकाबले में बहुत मजे में है। प्राइवेट में ज्यादा पैसे केवल गिने-चुने लोगों को मिलते हैं। हल्ला बहुत होता है। इत्ते लाख का पैकेज उत्ते लाख का पैकेज। जान निकाल लेते हैं कामगारों की।
लक्ष्मी के मकान के ही बगल के मकान में वह प्राइमरी स्कूल था जिसमें मैं कक्षा एक से कक्षा पांच तक पढ़ा। जिस बरामदे में हम लोग रोज शाम को गुरुजी की निगरानी में कबड्डी खिलाते थे उसकी रेलिंग टूट गयी है और नीचे झूल गयी है। अगल-बगल के बड़े-बड़े मकान जो उस समय बड़े भव्य लगते थे उनमें कबूतर बैठे गुटरगूं करते दिखे। मानो वे भी अपना बचपना याद कर रहे हों। यह भी लगता है कि सामने स्कूल देखकर पहाड़े याद कर रहे हों।
आगे ही थोड़ी दूर पर वह मकान है जिसके एक कमरे में हम लोग किराये पर रहते थे। बचपन से इलाहाबाद जाने तक। कमरे का किराया मुझे अभी भी याद है छह रुपया महीना। बिजली का किराया एक बल्ब के लिये पांच रुपये महीना था। यह पच्चीस -सत्ताइस साल पहले की बात है। मकान में अठारह किरायेदार रहते थे। एक नल। पानी के पीछे अक्सर लड़ाई-झगड़ा होता। हर किरायेदार अपना नम्बर आने पर सबसे बड़ी बाल्टी में पानी भरता और आखिरी बूंद की गुंजाइश होने तक बाल्टी नल के नीचे रहती। पता नहीं अब पानी आता भी न शायद उन नलों में। सार्वजनिक पानी की व्यवस्था बीते सालों के साथ चौपट ही हुई है।
मकान में सब साधारण स्थिति वाले किरायेदार रहते थे। एक-एक कमरे में पांच-सात,दस लोग रहने वाले। हल्ला-गुल्ला,चहल-पहल मची रहती। अंधेरे भरे उस मकान में आंगन में आती धूप की अभी भी याद है। तीन मंजिलों वाले उस मकान में बच्चे-बड़े मिलाकर सौ लोग रहते होंगे। हर मंजिल पर एक सार्वजनिक पाखाना था और एक नल । उसमें भी ऊपर की मंजिल पर पानी कम ही पहुंचता था। अगल-बगल रहने वाले किरायेदारों के परिवार वाले शहर में ही रहते हैं लेकिन वहां से निकलने के बाद फ़िर बहुत कम लोगों से मिलना हुआ।
बगल के ही घर में रहने वाले अनिल दीक्षित ने मुझसे एक साल पहले कानपुर के ही एचबीटीआई से बीटेक,आई.आई.टी.खड़गपुर से एम.टेक और फ़िर कार्मेल युनिवर्सिटी अमेरिका से पी.एच.डी की। आजकल मुंबई आई.आई.टी. में प्रोफ़ेसर हैं। आजकल कानपुर आये हुये हैं। कल के अखबार में छात्रवृत्ति के बारे में अन्य लोगों के साथ उनका एक बयान छपा। उन्होंने कहा- ’ मध्यवर्गीय परिवार के लिये स्कॉलरशिप भारत रत्न से कम नहीं होती’।कल रात यह खबर पढ़ी अखबार में। देर तक सोचता रहा कि अगर बचपन से पढ़ाई पूरी होने तक अगर स्कॉलरशिप न मिली होती तो क्या आज यहां तक पहुंच पाते हम। पता नहीं क्या होता मुझे लेकिन अनिल की बात सही लगती है।
अपने देश में न हर तरफ़ अफ़रा-तफ़री है। गड़बड़झाला है। घपले-घोटाले हैं। भाई-भतीजावाद है। लेकिन उसी के बीच ऐसे भी हालात हैं जहां तमाम लोग बिना किसी सोर्स-सिफ़ारिश के स्कॉलरशिप पाते हैं , पढ़ाई कर लेते हैं, नौकरी पाते हैं और अन्य न जाने कितनी-कितनी सहूलियतें पाते हैं। मिल जाने पर यह सब बड़ा सुकूनदेह लगता है। लेकिन न जाने कितने ऐसे भी होते हैं जो काबिल होते हुये भी सही जानकारी के अभाव में इनसे वंचित रह जाते हैं। यह भी एक संयोग ही है कि किसी को उसकी काबिलियत के अनुसार मौके पर सहायता मिल जाये।
कहां से कहां पहुंच गये हम भी। इसीलिये कहा जाता है कि यादें भूलभुलैया की तरह होती हैं। एक बार भटके कि फ़िर भटकते ही रहते हैं।
अब जब पोस्ट कर रहे हैं इसे तब याद आ रहा है कि इतवार को लक्ष्मी से मिले थे। उस दिन मित्रता दिवस था। दो घंटे बतियाते रहे लेकिन दोनों में से किसी को याद नहीं रहा कि मित्रता दिवस की मुबारक भी देनी है जबकि उसी दिन सुबह से कई लोगों से यह आदान-प्रदान हो चुका था।
सड़क कालीन सी पसरी है
शाम के गढ़ियाते अंधेरे में
कोई साया तैरता सा गुजरता है।
कमरा भर अंधेरे के बाहर,
खिड़की के पार-
बरसाती घास के उस तरफ,
सड़क पर गुजरता शरीर
गाढ़ेपन में एकाकार हो
विलीन होता दीखता है।
पर अभी भी
यह एकदम साफ है कि
रास्तों पर जिंदगी बाकायदा आबाद है।
-अनूप शुक्ल
मौसम भइय़ाजी की तरह चिपचिपा हो गया है। पंखा चल रहा है लेकिन चिपचिपाहट की सामान्तर सरकार चल रही है। उसको उखाड़ नहीं पाती पंखे की हवा। एयरकंडीशनर चल नहीं रहा है। वोल्टेज कम है। ऐसा अक्सर होता है। चिपचिपी गर्मी में एयरकंडीशनर चल नहीं पाता। वैसे ही जैसे मौके पर स्टार खिलाड़ी चल नहीं पाते।
बरसात की जब बात चलती है मुझको बचपन की याद आती है। बचपन में मकान के बाहर की नाली के उफ़नते पानी में कागज की नाव बना के डालते थे। नाव उचकती-फ़ुचकती आगे जाती।वहां तक जाती जहां तक पानी की धार साफ़ रहती। जहां नाली में कूड़े का स्पीड ब्रेकर मिलता वहीं चक्कर खाकर रुक जाती। आगे नहीं जा पाती। स्मृतियों में नाव अभी भी बनी है। नावों का याद आना यह बताता है कि कोई यात्रा पूरी नहीं हुई है। यात्रायें या तो अभी शुरू हुई हैं या अटकी हैं। यात्रा पूरी हुई होती तो नावें याद न आती, नाली का साफ़ पानी याद आता, नाली की धार याद आती।
यादों का भी अजीब खेल है। अक्सर बचपन ही याद आता है। मेरे छोटा बच्चे ने तो बोलना शुरू करते ही कहना शुरू कर दिया था-….जब हम छोटे थे।
इतवार को स्टेशन से घर वापस लौटते हुये अपने पुराने मोहल्ले (गांधी नगर) की तरफ़ चले गये। मन किया कि वह कारखाना देखें जहां भैया बचपन में काम करते थे। धीरे-धीरे चलते हुये एक-एक इमारत देखते रहे। कहीं वह कारखाना न दिखा। सोचा तीस-पैंतीस साल हो गये शायद कारखाना बंद हो गया हो। जब बड़ी-बड़ी मिलों के प्लॉट काटकर बेचे जा रहे हैं तो एक मकान में चलते कारखाने की क्या औकात।
फ़िर याद आया कि अब जिब बिकती कहां हैं! स्याही वाले पेन ही जब चलन से बाहर हो गये हैं तो पेन में लगनी वाली जिब का क्या काम? फ़िर उसके कारखाने की क्या जरूरत। बन्द हो गया होगा। स्मृति में वह मकान/कारखाना अभी भी है लेकिन वास्तविकता में वहां नहीं है। ठीक-ठीक याद भी नहीं है कौन मकान था। लेकिन याद भी होता तो क्या उसकी जगह नया मकान आ जाता। यादों में इसकी जगह ये पढ़ें नहीं चलता!
फ़िर वहीं आगे आनन्द बाग में रहने वाले बचपन के दोस्त लक्ष्मी बाजपेयी से मिलने चले गये। तमाम यादें दोहराते रहे। लेलिन पार्क से समोसा मंगाये गये। कोने वाली जिस दुकान से मंगाये गये थे उस दुकान से कभी अपने दोस्त के साथ अक्सर जलेबी खाते थे। चवन्नी की जलेबी बहुत लगती थी। आज चवन्नी की क्या औकात?
लक्ष्मी रोज मेरी फ़ैक्ट्री के आगे से निकलते हैं लेकिन मुलाकात नहीं हो पाती। वे एक प्राइवेट फ़ैक्ट्री में काम करते हैं। हजार करोड़ रुपये का टर्न ओवर है लगभग साल भर का। बता रहे थे उस इंडस्ट्रियल स्टेट के लोगों को मजूरी तीन-हजार /पांच हजार मिलती है। अपने यहां सरकारी लोगों की तन्ख्वाह से तुलना करते हैं तो लगता हैं सरकारी मजूर प्राइवेट के मुकाबले में बहुत मजे में है। प्राइवेट में ज्यादा पैसे केवल गिने-चुने लोगों को मिलते हैं। हल्ला बहुत होता है। इत्ते लाख का पैकेज उत्ते लाख का पैकेज। जान निकाल लेते हैं कामगारों की।
लक्ष्मी के मकान के ही बगल के मकान में वह प्राइमरी स्कूल था जिसमें मैं कक्षा एक से कक्षा पांच तक पढ़ा। जिस बरामदे में हम लोग रोज शाम को गुरुजी की निगरानी में कबड्डी खिलाते थे उसकी रेलिंग टूट गयी है और नीचे झूल गयी है। अगल-बगल के बड़े-बड़े मकान जो उस समय बड़े भव्य लगते थे उनमें कबूतर बैठे गुटरगूं करते दिखे। मानो वे भी अपना बचपना याद कर रहे हों। यह भी लगता है कि सामने स्कूल देखकर पहाड़े याद कर रहे हों।
आगे ही थोड़ी दूर पर वह मकान है जिसके एक कमरे में हम लोग किराये पर रहते थे। बचपन से इलाहाबाद जाने तक। कमरे का किराया मुझे अभी भी याद है छह रुपया महीना। बिजली का किराया एक बल्ब के लिये पांच रुपये महीना था। यह पच्चीस -सत्ताइस साल पहले की बात है। मकान में अठारह किरायेदार रहते थे। एक नल। पानी के पीछे अक्सर लड़ाई-झगड़ा होता। हर किरायेदार अपना नम्बर आने पर सबसे बड़ी बाल्टी में पानी भरता और आखिरी बूंद की गुंजाइश होने तक बाल्टी नल के नीचे रहती। पता नहीं अब पानी आता भी न शायद उन नलों में। सार्वजनिक पानी की व्यवस्था बीते सालों के साथ चौपट ही हुई है।
मकान में सब साधारण स्थिति वाले किरायेदार रहते थे। एक-एक कमरे में पांच-सात,दस लोग रहने वाले। हल्ला-गुल्ला,चहल-पहल मची रहती। अंधेरे भरे उस मकान में आंगन में आती धूप की अभी भी याद है। तीन मंजिलों वाले उस मकान में बच्चे-बड़े मिलाकर सौ लोग रहते होंगे। हर मंजिल पर एक सार्वजनिक पाखाना था और एक नल । उसमें भी ऊपर की मंजिल पर पानी कम ही पहुंचता था। अगल-बगल रहने वाले किरायेदारों के परिवार वाले शहर में ही रहते हैं लेकिन वहां से निकलने के बाद फ़िर बहुत कम लोगों से मिलना हुआ।
बगल के ही घर में रहने वाले अनिल दीक्षित ने मुझसे एक साल पहले कानपुर के ही एचबीटीआई से बीटेक,आई.आई.टी.खड़गपुर से एम.टेक और फ़िर कार्मेल युनिवर्सिटी अमेरिका से पी.एच.डी की। आजकल मुंबई आई.आई.टी. में प्रोफ़ेसर हैं। आजकल कानपुर आये हुये हैं। कल के अखबार में छात्रवृत्ति के बारे में अन्य लोगों के साथ उनका एक बयान छपा। उन्होंने कहा- ’ मध्यवर्गीय परिवार के लिये स्कॉलरशिप भारत रत्न से कम नहीं होती’।कल रात यह खबर पढ़ी अखबार में। देर तक सोचता रहा कि अगर बचपन से पढ़ाई पूरी होने तक अगर स्कॉलरशिप न मिली होती तो क्या आज यहां तक पहुंच पाते हम। पता नहीं क्या होता मुझे लेकिन अनिल की बात सही लगती है।
अपने देश में न हर तरफ़ अफ़रा-तफ़री है। गड़बड़झाला है। घपले-घोटाले हैं। भाई-भतीजावाद है। लेकिन उसी के बीच ऐसे भी हालात हैं जहां तमाम लोग बिना किसी सोर्स-सिफ़ारिश के स्कॉलरशिप पाते हैं , पढ़ाई कर लेते हैं, नौकरी पाते हैं और अन्य न जाने कितनी-कितनी सहूलियतें पाते हैं। मिल जाने पर यह सब बड़ा सुकूनदेह लगता है। लेकिन न जाने कितने ऐसे भी होते हैं जो काबिल होते हुये भी सही जानकारी के अभाव में इनसे वंचित रह जाते हैं। यह भी एक संयोग ही है कि किसी को उसकी काबिलियत के अनुसार मौके पर सहायता मिल जाये।
कहां से कहां पहुंच गये हम भी। इसीलिये कहा जाता है कि यादें भूलभुलैया की तरह होती हैं। एक बार भटके कि फ़िर भटकते ही रहते हैं।
अब जब पोस्ट कर रहे हैं इसे तब याद आ रहा है कि इतवार को लक्ष्मी से मिले थे। उस दिन मित्रता दिवस था। दो घंटे बतियाते रहे लेकिन दोनों में से किसी को याद नहीं रहा कि मित्रता दिवस की मुबारक भी देनी है जबकि उसी दिन सुबह से कई लोगों से यह आदान-प्रदान हो चुका था।
मेरी पसंद
छलांग भर की दूरी परसड़क कालीन सी पसरी है
शाम के गढ़ियाते अंधेरे में
कोई साया तैरता सा गुजरता है।
कमरा भर अंधेरे के बाहर,
खिड़की के पार-
बरसाती घास के उस तरफ,
सड़क पर गुजरता शरीर
गाढ़ेपन में एकाकार हो
विलीन होता दीखता है।
पर अभी भी
यह एकदम साफ है कि
रास्तों पर जिंदगी बाकायदा आबाद है।
-अनूप शुक्ल
Posted in बस यूं ही | 29 Responses
vijay gaur की हालिया प्रविष्टी..देखते हैं क्या प्राब्लम है आपकी
आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है यहां भी आएं !
bachpan ko phir se jiti hai….
lalitya bhari ye post…..
ankho ko nam karti hai…..
pranam.
मूड से अलग आपका पोस्ट… एक्के बार में नॉस्टल्जिक कर दिए हैं अऊर पढने के बाद त कुछ समझे में नहीं आ रहा है कि का कहें… बस हमरे गुरू राही मासूम का बहुत पुराना लाईन याद आ रहा हैः
याद कोई बादलों की तरह हल्की चीज़ नहीं जो आहिस्ता से गुज़र जाए, याद एक पूरा ज़माना होती है और ज़माना कभी हल्का नहीं होता.
आपका जईसा मोख्तसर टिप्पणी नहीं दे सकते हैं..छमा कीजिएगा!
सलिल
बड़ा बड़ा अच्छा लगा….
आभार…बहुत बहुत आभार…
रंजना. की हालिया प्रविष्टी..महाप्रलय
हम तो मजबूर हैं यहाँ आने और लुत्फ़ उठाने के लिए।
सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी की हालिया प्रविष्टी..वर्धा में ब्लॉगर सम्मेलन की तिथि दुबारा नोट कीजिए…
छलांग भर की दूरी पर
सड़क कालीन सी पसरी है
शाम के गढ़ियाते अंधेरे में
कोई साया तैरता सा गुजरता है।
कमरा भर अंधेरे के बाहर,
खिड़की के पार-
बरसाती घास के उस तरफ,
सड़क पर गुजरता शरीर
गाढ़ेपन में एकाकार हो
विलीन होता दीखता है।
पर अभी भी
यह एकदम साफ है कि
रास्तों पर जिंदगी बाकायदा आबाद है।
लाजवाब
सड़क कालीन सी पसरी है
शाम के गढ़ियाते अंधेरे में
कोई साया तैरता सा गुजरता है।
कमरा भर अंधेरे के बाहर,
खिड़की के पार-
बरसाती घास के उस तरफ,
सड़क पर गुजरता शरीर
गाढ़ेपन में एकाकार हो
विलीन होता दीखता है।
पर अभी भी
यह एकदम साफ है कि
रास्तों पर जिंदगी बाकायदा आबाद है।
लाजवाब …..
यादें छूट नहीं देतीं कि इसकी जगह यह पढ़ें , मजबूरी है , इसे हम स्वाभाविक सा ‘एन्जॉय’ करने लगते हैं , इसीलिये बकौल प्रेमचंद – ‘अतीत कैसा भी हो उसकी स्मृति सदैव मधुर होती है ‘ ! .. उस चवन्नी की बड़ी औकात है जिसपर हज़ार अन्नी भी फेल है !..
इतना सब सलीकेदाराना ढंग से लिखते जाना भी कमाल है , झूलती हुई सीढी को बनाने जैसा है !
अनिल दीक्षित जी वजा फरमा रहे हैं , छात्रवृत्ति पर मेरा भी अनुभव ऐसा ही है , इसे सकारात्मक लिया जाना चाहिए , हरदम रोउना रोने के बजाय ! आपका यह कहना सही है —
” पर अभी भी
यह एकदम साफ है कि
रास्तों पर जिंदगी बाकायदा आबाद है।”
बेचैन आत्मा की हालिया प्रविष्टी..सावन की बरसात
इधर रुलाने का काम ज़्यादा करने लगे हैं आप ( ये शिकायत नहीं है)
विश्वास की जड़ें केवल हिल रही हैं, अभी उखड़ी नहीं है, क्योंकि अपनी योग्यता की दम पर लोगों को बनते देखने की प्रक्रिया जारी है.
पर अभी भी
यह एकदम साफ है कि
रास्तों पर जिंदगी बाकायदा आबाद है।
बहुत सुन्दर पोस्ट.
पहली ट्यूशन से २०० रूपये भी मिले थे.. याद है थक जाता था उन प्यारे प्यारे बच्चो को पढा पढाकर और उनकी माता श्री रोज लाकर छडी दे देती थी कि सर आज मारियेगा जरूर। शायद वो मेरे नाम से बच्चो को डराती होगी।
फिर एक रोज कभी पता चला कि एक ही रात मे राउरकेला जाना है। लखनऊ से कानपुर और कानपुर से राउरकेला अकेले.. अब पिता जी को कहा कहा ले जाता.. पता भी नही था कि कौन सी ट्रेन होग, कहा होगी उस वक्त ये साईट और मोबाईल न जाने कहा थे।
फिर कन्गाली मे आटा गीला वाली कथा… राउरकेला एडमिशन हो जाने के बाद पहला सेमेस्टर ज्वाईन करने जाना था और कम्बख्त कपडो से भरा एक बैग ट्रेन मे ही छूट गया। गिन कर पूरे सेमेस्स्टर मे चार कपडे थे मेरे पास और तब तक रहे जब तक एजुकेशन लोन हाथ मे नही आ गया…
दिन बदले है, बहुत बदले… मकान, खन्डहर से अब घर लगने लगा है.. जिन्दगी के खडन्जो पर कन्क्रीट रोड बनती दिख रही है… लेकिन यादे वही है.. वही जैसा आपने कहा..
रात के ३ बजे कहा कहा घुमा लाये आप…
अनूप जी, भारी आखो से आपकी लेखनी और इन्सानियत दोनो को नमन…
….पोस्ट कुछ छोटी लगी…खालिस फुरसतिया ब्रांड नहीं
ब्लॉगिंग का पता नहीं कब तक चले….पर जब भी याद आयेगी आपके ब्लॉग, आपके मामा की कविताएं और परसाई हमेशा याद आयेंगे
सही कहा।
यादों की बात करके आपने अलग ही तरीके की पोस्ट लिख दी. अनिल जी का कहना बिलकुल ठीक है. वजीफा न जाने कितने घरों के लिए भारत रत्न जैसा ही है.
और विजय गौड़ जी की बात से शत-प्रतिशत सहमत कि;
“…….यदि यह माध्यम न आया होता तो सिर्फ कथा, कहानियों और चंद सीमित विधाओं वाले हिन्दी साहित्य की दुनिया में इस तरह के लेखन की झलक कहां से पाता। हिन्दी की रचनात्मक दुनिया के विस्तार के लिए विविधता से भरे ऎसे लेखन की बेहद जरूरत है अनूप जी। जारी रहिये और लिखिये और लिखिये….”
दोस्तों के लिए कोई एक दिन कैसे बांधा जा सकता है. दोस्त जब भी मिलें चैन से वही मित्रता दिवस है.
Sanjeet Tripathi की हालिया प्रविष्टी..एक मुख्यमंत्री को कलम के सिपाही का एक पत्र- एक आग्रह-एक सुझाव
क्या ये सेटिंग आपने की है?
Sanjeet Tripathi की हालिया प्रविष्टी..एक मुख्यमंत्री को कलम के सिपाही का एक पत्र- एक आग्रह-एक सुझाव