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किताब छपवाने के हसीन लफ़ड़े
By फ़ुरसतिया on March 12, 2012
हमारे एक लेखक मित्र बताते हैं कि दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं- एक वे जो लेखक होते हैं और दूसरे वे जो लेखक नहीं होते। सूबे की दूसरी राजभाषा वाले मोड में होने पर इसी बात को शायराना अंदाज में बताते हुये कहते- पूरी दुनिया अदीब और गैर अदीब लोगों में बंटी हुई है। बात को आगे बढ़ाते हुये वे कहते है- लेखक भी दो तरह के होते हैं- एक वे जिनकी किताब छप चुकी होती है, दूसरे वे जिनकी नहीं छपी होती।
जाहिर है कि वे दुनिया के उन चंद लोगों में शामिल थे जो कि लेखक भी थे और
जिनके किताबें भी छप चुकीं थीं। यह हमारा सौभाग्य है कि खुद छपा हुआ लेखक
होने के साथ-साथ वे हमारे मित्र भी हैं।
वे हमको ऐसे लोगों में शुमार करते हैं- जो लेखक है लेकिन जिसकी किताब छपी नहीं।
दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं- एक वे जो लेखक होते हैं और दूसरे वे जो लेखक नहीं होते।
मित्र धर्म का पालन करते हुये वे हमारा उद्धार करने की सोचते रहते हैं। जब मिलते हैं टोंकते हैं- अपनी किताब क्यों नहीं छपवाते?
कभी तो वे इत्ते भावुक हो जाते हैं कि धमकी भी दे देते हैं- इस साल अपनी किताब नहीं छपवाई तो मु्झसे बुरा कोई नहीं होगा।
कुछ दिन वे अन्ना जी के प्रभाव में भी रहे। हर मसले का हल जनलोकपाल बिल में खोजने वाले मोड में रहे। आस्ट्रेलिया में पिटती इंडियन टीम को वात्सल्य भाव से निहारते हुये बोले- अगर जनलोकपाल बिल पास हो जाता तो भारतीय टीम इस बुरी तरह न हा्रती। सचिन का महाशतक भी जनलोकपाल बिल के पास न होने के चलते रुका है। इसी प्रभाव में एक दिन बोले- अगर जनलोकपाल बिल लागू हो जाता तो तेरी किताब अब तक छप जाती।
एक दिन किताब छपने से होने वाले फ़ायदों पर चर्चा करने लगे। बताया कि किताब छपते ही लोग प्रबुद्ध लोगों में शुमार किये जाते हैं। हमने शंका जाहिर की कि प्रबुद्ध तो तब कहलायेंगे जब कुछ काम की बातें लिखेंगे-छपेंगी। इस पर उन्होंने तमाम लेखकों/कवियों की किताबों का हवाला देते हुये बताया कि काम की बात की ऐसी कोई बाध्यता होती तो इत्ता कागज काहे बरबाद होता! मुख्य मुद्दा अभिव्यक्ति का होता है। इधर आपकी अभिव्यक्ति छपे में हो गयी उधर आप प्रबु्द्ध हो गये।
किताब छपते ही आपको अपने दोस्त-दुश्मन पहचानने की अकल आ जाती है। जो आपकी किताब की तारीफ़ करे वह मित्र और जो बुराई करे वह शत्रु।
अपनी बात के समर्थन में उन्होंने उदाहरण देते हुये बताया कि एक बनिये को
लेखक कहलाने का शौक था। लेकिन लिखने के नाम पर उसके पास केवल उसका बहीखाता
था। उसने अपने एक साल के बहीखाते को एक प्रकाशक से चिकने कागज पर छपवा
लिया। चुनाव-चन्दा देकर एक बड़े नेताजी से धांसू विमोचन करवा लिया। जो लेखक
उसके यहां से उधार का राशन लेते थे उन्होंने उसकी धांसू समीक्षायें लिखीं।
मजाक-मजाक में वह बनिया लेखक हो गया। सब उधारी लेने वालों को अपनी किताब
अनिवार्य रूप में बेंचता। हर साल किताब का संस्करण छपता। मजाक-मजाक में वह
प्रबुद्ध जन कहलाने लगा।
आगे और फ़ायदे गिनाते हुये मित्र ने तमाम बातें बताईं। इसी बहाने किताब छपने को लेकर होने वाले इफ़ेक्ट और साइड इफ़ेक्ट पर चर्चा हो गयी। उसई के कुछ हिस्से आपके लिये यहां पेश किये दे रहे हैं। श्रम को भुलाने के लिये बांचें।
मेरे मित्र के पास कोई रेडीमेड जबाब नहीं था। वे किताब छपवाने के पक्ष में और तर्क गढ़ने के लिये अपनी अड्डे की तरफ़ गये हैं। जब तक वे वापस आयें तक सोचा आपको इत्ता किस्सा सुना ही दें। आगे का फ़िर कभी
सूचना: ऊपर की तीन फ़ोटो फ़्लिकर से साभार और चौथी फ़ुरसतिया की पोस्ट से।
वे हमको ऐसे लोगों में शुमार करते हैं- जो लेखक है लेकिन जिसकी किताब छपी नहीं।
कभी तो वे इत्ते भावुक हो जाते हैं कि धमकी भी दे देते हैं- इस साल अपनी किताब नहीं छपवाई तो मु्झसे बुरा कोई नहीं होगा।
कुछ दिन वे अन्ना जी के प्रभाव में भी रहे। हर मसले का हल जनलोकपाल बिल में खोजने वाले मोड में रहे। आस्ट्रेलिया में पिटती इंडियन टीम को वात्सल्य भाव से निहारते हुये बोले- अगर जनलोकपाल बिल पास हो जाता तो भारतीय टीम इस बुरी तरह न हा्रती। सचिन का महाशतक भी जनलोकपाल बिल के पास न होने के चलते रुका है। इसी प्रभाव में एक दिन बोले- अगर जनलोकपाल बिल लागू हो जाता तो तेरी किताब अब तक छप जाती।
एक दिन किताब छपने से होने वाले फ़ायदों पर चर्चा करने लगे। बताया कि किताब छपते ही लोग प्रबुद्ध लोगों में शुमार किये जाते हैं। हमने शंका जाहिर की कि प्रबुद्ध तो तब कहलायेंगे जब कुछ काम की बातें लिखेंगे-छपेंगी। इस पर उन्होंने तमाम लेखकों/कवियों की किताबों का हवाला देते हुये बताया कि काम की बात की ऐसी कोई बाध्यता होती तो इत्ता कागज काहे बरबाद होता! मुख्य मुद्दा अभिव्यक्ति का होता है। इधर आपकी अभिव्यक्ति छपे में हो गयी उधर आप प्रबु्द्ध हो गये।
आगे और फ़ायदे गिनाते हुये मित्र ने तमाम बातें बताईं। इसी बहाने किताब छपने को लेकर होने वाले इफ़ेक्ट और साइड इफ़ेक्ट पर चर्चा हो गयी। उसई के कुछ हिस्से आपके लिये यहां पेश किये दे रहे हैं। श्रम को भुलाने के लिये बांचें।
- किताब छपते ही आपको अपने दोस्त-दुश्मन पहचानने की अकल आ जाती है। जो आपकी किताब की तारीफ़ करे वह मित्र और जो बुराई करे वह शत्रु। निर्गुट लोगों के लिये आप कह सकते हैं- हमें आपसे यह उम्मीद न थी दोस्त!
- किताब छपते ही लेखक फ़ल से लदे हुये वृक्ष की भांति विनम्र हो जाता है। भाषा मुलायम। उसकी भाषा में विनम्रता का साफ़्टवेयर फ़िट हो जाता है। किसी नखरीले पाठक के लिये उसके मन से निकला वाक्य- ”पढो चाहे भाड़ में जाओ” विनम्रता के साफ़्टवेयर से गुजरकर “समय मिलने पर किताब देखियेगा/अपनी राय दीजियेगा/मार्गदर्शन करियेगा/कृपा बनाये रखियेगा” के रूप में बाहर आता है।
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किताब छपते ही लेखक फ़ल से लदे हुये वृक्ष की भांति विनम्र हो जाता है। भाषा मुलायम। उसकी भाषा में विनम्रता का साफ़्टवेयर फ़िट हो जाता है। - अगर आप बेटी के बाप हैं तो आप समझिये किताबें छपवाने की प्रक्रिया आपके लिये बेटी के विवाह का पूर्वाभ्यास है। सब करम हो जाते हैं अपना लिखा हुआ छपवाने में। रचनाओं के लिये प्रकाशक खोजना बेटी के लिये वर खोजना जैसा है। कवितायें छपवाने वाले के लिये प्रकाशक का नजरिया वैसा ही होता है जैसा आर्ट्स साइड से एम.ए. की हुई कन्याओं के प्रति वर पक्ष का होता है। भले ही छपने के बाद हास्यास्पद लगे लेकिन हास्य-व्यंग्य की रचनाओं को प्रकाशक उसी तरह पसंद करते हैं जैसे कामकाजी कन्यायें वरपक्ष की पहली पसंद होती हैं। किताब छपने के बाद बाजार में कित्ता खपेगी इसकी चिंता प्रकाशक को सबसे ज्यादा रहती है जिस तरह वर पक्ष सोचता है कि कन्या के घर वाले दहेज कित्ता दे सकते हैं।
- किताब छपने के बाद प्रकाशक/लेखक का झगड़ा भी आम बात है। कुछ सज्जन लेखक/प्रकाशक निज मन की व्यथा समझकर मन में छिपा लेते हैं। लेकिन स्वछंद छीछालेदरी अभिव्यक्ति के हिमायती सारे लफ़ड़े/झगड़े को सारी जनता के सामने छितरा देते हैं। उस समय वे चिरकुटई के एवरेस्ट पर विराजमान शेरपा सरीखे दीखते हैं!
- किताब छपने के बाद आप उसको विमोचन करवाने की चिन्ता रहती है। किताब का विमोचन करना/करवाना भी एक कला है। कुछ लेखक तो इस मामले में आत्मनिर्भर होते हैं। किताब साथ लेकर चलते हैं। जहां भीड़ देखी फ़ौरन किताब सीने से चिपकाकर फोटो खैंच ली और खबर छपा दी- खचाखच भीड़ में विमोचन! एक दिन उनके बच्चे ने पूछा- पापा आप अभी तक घर नहीं पहुंचे। कहां हैं? उन्होंने बताया – बेटा विमोचन में फ़ंसा हूं! जैसे ही विमोचन हटा घर आता हूं। और तो और वे एक दिन ट्रैफ़िक एस.पी. के पास शिकायत लेकर पहुंच गये- साहब ट्रैफ़िक पुलिस एकदम नाकारा है! हर चौराहे पर विमोचन लग जाता है।
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किताबें छपवाने की प्रक्रिया आपके लिये बेटी के विवाह का पूर्वाभ्यास है। सब करम हो जाते हैं अपना लिखा हुआ छपवाने में। रचनाओं के लिये प्रकाशक खोजना बेटी के लिये वर खोजना जैसा है। - किताब छपते ही आपके हाथ में किताब के रूप में एक हथियार आ जाता है। इस हथियार का आप किसी भी रूप में कभी भी प्रयोग कर सकते हैं। नाराजगी जाहिर कर सकते हैं। अगर आपकी किताब पर कोई इनाम मिल चुका है तो समाज की किसी भी समस्या के खिलाफ़ अपना विरोध दर्ज करते हुये इनाम वापस करने की घोषणा कर सकते हैं। न मिला हो तो बयान जारी कर सकते हैं- खबरदार अगर मुझे कोई इनाम दिया तो। प्रकाशक से किताबें छापने का अधिकार वापस लेने का बयान जारी कर सकते हैं( संभव है इससे प्र्काशक को ही सुकून मिले लेकिन धर्मयुद्ध में फ़ायदा-नुकसान क्या देखना)।
- लेखक होने का एक और फ़ायदा यह है कि आप बिना कोई संघर्ष किये दुनिया के सबसे संघर्षशील लोगों में अपने को शामिल कर सकते हैं। बिना कुछ बोले अभिव्यक्ति के खतरे उठाने का दावा कर सकते हैं। खाते-पीते-ऐश करते हुये भी अपने को सबसे दीन-दु्खी-निबल-विकल-असुरक्षित प्राणी के रूप में अपना रजिस्ट्रेशन करा सकते हैं। दुनिया भर की खटिया खड़ी करते हुये भी अपने को सबसे कमजोर बता सकते हैं। लेखक होना बड़ा कलाकारी का काम है!
- किताब छपने पर आप अपने जीवन में घटी घटनाओं के लिये संवत/ईसवी के मोहताज नहीं रहते। फ़िर आप अपने कालखंड गढ़ सकते हैं और कह सकते हैं- यह बात उस समय की है जब मेरी पहली किताब का विमोचन हुआ था/तीसरी प्रेस में थी/ सातवीं के प्रूफ़ आ गये थे/प्रकाशक से पांचवी किताब के दूसरे संस्करण की शर्तें हो रहीं थीं।
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लेखक होने का एक और फ़ायदा यह है कि आप बिना कोई संघर्ष किये दुनिया के सबसे संघर्षशील लोगों में अपने को शामिल कर सकते हैं। बिना कुछ बोले अभिव्यक्ति के खतरे उठाने का दावा कर सकते हैं।
मेरे मित्र के पास कोई रेडीमेड जबाब नहीं था। वे किताब छपवाने के पक्ष में और तर्क गढ़ने के लिये अपनी अड्डे की तरफ़ गये हैं। जब तक वे वापस आयें तक सोचा आपको इत्ता किस्सा सुना ही दें। आगे का फ़िर कभी
सूचना: ऊपर की तीन फ़ोटो फ़्लिकर से साभार और चौथी फ़ुरसतिया की पोस्ट से।
Posted in बस यूं ही | 63 Responses
प्रणाम,.
shikha varshney की हालिया प्रविष्टी..जय हो….
बहुत ही मस्त पोस्ट!
आप जल्द ही किताब छपवाइए और अन्ना हजारे से रामलीला मैदान में उसका विमोचन करवाइए. कोलकाता आयें तो हावड़ा स्टेशन पर भीड़ में विमोचन करवा दिया जाएगा.
शिव कुमार मिश्र की हालिया प्रविष्टी..दुर्योधन की डायरी – पेज २९९३
किताब में लिखा वापस नहीं हो सकता, मतलब यदि आपने पड़ोस वाले बनिए या सरकारी ठेकेदार की खिलाफ अगर कुछ लिखा है, तो यकीन मानिए, या तो राशन बंद होगा, या फिर पिटाई के पूरे योग है। जबकि ब्लॉग पर लिखा आप मिटा सकते है, कोई भी बहाना ठेलकर।
बकिया पोस्ट चकाचक लिखे हो, किताब छाप जाये तो विमोचन के लिए बुलवा भेज दीजिएगा….
इसई लिये तो तुम्हारी याद आती है। ऐसे ऐसे मौलिक बहाने और कौन बता सकता है तुम्हारे अलावा!
आपने चाहे कवितायें दीं हों चाहे व्यंग्य वे एक सा प्रभाव छोड़ती हैं। मतलब समझकर हंसने में एक बराबर समय लगता है।
फेसबुक इस श्रेणी के देशभक्त लेखक थोक के भाव में मिल जायेंगे जी!
ashish की हालिया प्रविष्टी..वंचिता
देखिये इसे कहते हैं MM Effect .
भारतीय नागरिक की हालिया प्रविष्टी..और अब नरेन्द्र कुमार
बढ़िया नुस्खों के साथ और साथ में यह सलाह भी कि जब भी मौका मिले अपनी भी पाण्डुलिपि तैयार रखो !!
संतोष त्रिवेदी की हालिया प्रविष्टी..एक अजन्मे बच्चे की चीख !
रवि की हालिया प्रविष्टी..आसपास बिखरी हुई शानदार कहानियाँ – Stories from here and there – 103
मेनेजर की डांट भरी मेल हो या दोस्तों की शादी की मैरिज एनिवर्सरी, सब पोस्ट से याद की जाती है|
थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी से इंस्पायर्ड है ये प्वाइंट
किताब का विमोचन करवाने का आइडिया भी एक दम ज़बर है| प्वाईंट नंबर ११ के बाद काफी लोग आप पे ये आरोप लगा सकते हैं की अन्दर की बात बाहर निकाल दी
और रही बात ब्लोगरों की बात तो आप ध्यान न दीजिये, छपवा डालिए अपनी पुस्तक :), ब्लोगरों का क्या है, टीका-टिप्पणी तो उनका धर्म है
वैसे हम तो डायरी लिखने/छपवाने के फैन टाईप हैं , इससे लोगो के जीवन का आइडिया मिल जाता है
http://agadambagadamswaha.blogspot.com/2012/01/blog-post_07.html
देवांशु निगम की हालिया प्रविष्टी..हाँ!!!वही देश, जहाँ गंगा बहा करती थी…
बाकी किताब छपवाने में लफ़ड़ा बहुत है। पहले दो-तीन साल प्लान बनाना पड़ता है। फ़िर कोई कहे तो पहले मना करना पड़ता है। और भी बहुत कुछ बतायेंगे आराम से कभी जरा शर्म-लिहाज कुछ कम हो तब बतायेंगे।
Sanjeet Tripathi की हालिया प्रविष्टी..मुख्यमंत्री को कलम के सिपाही का फिर एक पत्र, एक आग्रह-एक सुझाव
सचमुच ‘पुस्तक ददाति विनयं.’
sanjay @ mo sam kaun…? की हालिया प्रविष्टी..मूल्य…
वैसे ज्ञान जी पर बड़ा भरोसा है आपको कि वे कुछ न कहेंगे जबकि हमें पक्का इत्मिनान है कि वे कुछ न कुछ तो कहेंगे। इस तरह यह तो भरोसों का सीधा संघर्ष हो गया।
प्रणाम.
arvind mishra की हालिया प्रविष्टी..हे कवयित्री!
प्रवीण पाण्डेय की हालिया प्रविष्टी..सोझ समझ कर पीना, यह चम्बल का पानी है
अब छपवा ही लीजिये
वैसे ९ तो सारे लेखको के लिए लागू है (छपाओ चाहे न छपाओ )
आशीष श्रीवास्तव
सही है बिंदु संख्या ९ सब पर लागू होगा है। अपन पर भी।
और फिर फुरसतिया भाई, सुबह का लफडा अगर शाम तक बकौल आपके हसीन लगने लगे तो उसे लफडा नहीं कहते!!
सलिल वर्मा की हालिया प्रविष्टी..होली – एक कबित्त
बोलिये बिहारी बाबू की जय !
दीपिका की हालिया प्रविष्टी..रमिया का एक दिन…. (महिला दिवस के बहाने)
दीपिका की हालिया प्रविष्टी..रमिया का एक दिन…. (महिला दिवस के बहाने)
अभी तो हाथ में जाम है (ब्लॉगिंग)
तौबा कितना काम है । (पोस्ट)
फुरसत मिलेगी तो देखा जाएगा ।
दुनिया के बार में सोचा जाएगा । (किताब)
मनोज कुमार की हालिया प्रविष्टी..बरसात का एक दिन!
७वाँ सबसे ज्यादा फिल्मी और खिलाड़ी लोगों पर जमता है।
चंदन कुमार मिश्र की हालिया प्रविष्टी..अक्षरों की चोरी (कविता)
अब मेरे कहले लायक बचा ही क्या है अलबत्ता इसके कि छपी किताब प्रकाशक के गोदाम से, पैसे देकर पढ़ने वाले पाठक के यहां पहुंचवाना उससे भी बड़ा काम है
आपने जो पोजिटिव पॉइंट लिखे हैं वो तो खतरनाक है, लेकिन साईड-इफेक्ट भी कम खतरनाक नहीं है…सोच रहे हैं की किताब छपवाए या ना छपवाए..
एनीवे आप ये बताइए की अगर किताब हमने छपवाया तो क्या आप पढेंगे उसे और तारीफ़ करेंगे?(इस प्रश्न का जवाब पॉइंट नंबर 1 को ध्यान में रख कर दिया जाए)
abhi की हालिया प्रविष्टी..आखिरी मुलाकात
महफूज़ अली की हालिया प्रविष्टी..कुछ यहाँ वहां की ऐंवें ही और सिर्फ तुम्हारे लिए एक प्रेम कविता : महफूज़
बढ़िया धारदार व्यंग .
घुघूती बासूती