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दीपावली पर खरीददारी
By फ़ुरसतिया on November 3, 2013
पिछली दीवाली के पूरे साल भर बाद दीवाली आयी है।
जिधर देखो उधर पूरी चहल-पहल है। तमाम काम पड़ा है। सब निपटाना है।
त्यौहार मनाने के पहले लोग सब काम निपटाने में जुटे हैं। जिसे देखो वो कुछ न कुछ निपटा रहा है। जो निपटा नहीं रहा है वो फ़ैला रहा है।
हमें तो लगता है लोग झुट्ठै कहते हैं कि दीवाली खुशियों का त्यौहार है। हमें तो लगता है कि दीवाली काम में व्यस्त रहने का त्यौहार है। बिना काम के व्यस्त रहने का त्यौहार है।
हाल यह है कि घर के न जाने किन किन कोने-अतरे से कोई काम निकल आता है। सामने खड़ा हो जाता है बेशर्मों की तरह- हमको निपटाओ।
एक को निपटाया नहीं कि अगला सर उठाकर हाजिर- उसको निपटाया तो क्या निपटाया, हमको निपटाओ तो जाने।
गर्ज यह कि त्यौहार के मौके पर काम देश में ठांव-कुठांव होने वाले बम धमाकों की तरह हो जाते हैं। जैसे देश का कुछ पता नहीं कब, किधर से, कित्ते बम फ़ट पड़ें। वैसे ही त्यौहार के मौके पर घर में कोई गारण्टी नहीं कौन सा काम सर पर आ पड़े। आप घर के किसी सुरक्षित कोने में दुबके पड़े हो यह सोचते हुये कि त्यौहार तसल्ली से दुबक के मनायेंगे। लेकिन वहां भी -’सुनते हो…..’ के साथ कोई काम गोद में डाल दिया जाता है। – लो कुछ नहीं कर रहे तो इसे ही संभालो, निपटाओ।
इधर त्यौहारों में शुभकामनाओं के जबाब देना भी एक काम हो गया है। जिसकी शुभकामनायें आयें उनको धन्यवाद देते हुये डबल शुभकामनायें देना है। हमने इस काम पर ध्यान दिलाते हुये इसमें लगने की अनुमति मांगी तो मना कर दी गयी। बताया कि हमारा पुराना रिकार्ड ठीक नहीं इस मामले में। शुभकामनायें देते हुये बतियाने लगते हैं। तीस पैसे के काम में तीन रुपये फ़ूंक देते हैं। इस मनचाहे काम से वंचित करके हमको बाजार दौड़ा दिया गया। जाओ भाग के सब्जी ले आओ।
मन तो किया कि एक ठो एंग्री एंग मैन टाइप कोई डायलॉग मार के इस पर विरोध प्रकट कर दें कि मनपसंद काम से भगाकर हमें ऐसा काम क्यों सौंपा जा रहा है जो हमको रत्ती भर नहीं सुहाता। जरको नहीं जमता।
आपको बतायें कि हमको दो काम सख्त नापसंद हैं- एक खरीददारी करना और दूसरा प्रधानमंत्री बनना।
दूसरे काम के लिये तो हमने सब मीडिया वालों को साफ़ कह दिया है -खबरदार जो कहीं हमारे नाम की चर्चा चलाई प्रधानमंत्री पद के लिये किसी प्राइम टाइम में।
अब मीडिया वालों को हड़का दिये तो वे तो बेचारे मान गये लेकिन घर में तो जोर नहीं चलता न! घर वालों को हड़काने के बारे में सपना भी नहीं देखते। ये सपना तो खैर शोभन सरकार भी नहीं देख सकते। देखने की हिम्मत होती तो वैरागी काहे होते?
इसलिये जब कहा जाता है खरीदारी के लिये तो निकल पड़ते हैं झोला लेकर, झोले जैसा मुंह लटकाये।
तो भैया जब हमको अपने मनपसंद काम से वंचित करके बेमन वाला काम हम पर लाद दिया गया तो हम भी तमतमाते हुये चल दिये घर से (तमतमाने का काम घर बाहर निकलकर किये भाई) बाजार खरीददारी करने के लिये। ठान लिया मन में कि गांठ में जित्ते पैसे हैं सबको ठिकाने लगा देना है। न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी।
सबसे पहले प्याज की दुकान पर पहुंचे। भाव पूछे तो बताया 40 रुपये किलो। हमें लगा दुकानदार मौज ले रहा। दो दिन पहले टीवी पर दिल्ली में प्याज के बढ़े दाम पर हुई बहस देखी थी हमने। हमने दोबारा पूछा तब भी दाम नहीं बढ़ाये अगले ने। मन किया कि एक ठो स्टेटस मारें फ़ेंकबुक पर कि देखो दिल्ली वाले कित्ता झूठ बोलते हैं। मन तो ये भी किया वहीं प्याज की ठेलिया के पास एक ठो संवाददाता सम्मेलन करके मीडिया वालों खबर ले लें कि खाली दिल्ली के बाजार के दाम पर प्याज का प्राइम टाइम करते रहते हैं। ये नहीं कि कभी शताब्दी पकड़कर कानपुर आयें और यहां के प्याज के दाम की खबर दुनिया को सुनायें- विजय नगर , गन्दे नाले की सब्जी मण्डी की प्याज की ठेलिया के दायें कोने से कैमरा मैन अलाने के मैं फ़लाने।
खैर प्याज की दुकान से फ़ुरसत पाकर हम आलू खरीदे। अट्ठाइस रुपया किलो। बाद में पता चला कि उसके भी मंहगे होने की अफ़वाह फ़ैलाने की साजिश चल रही है। बगल में भिंडी भी बड़े शरीफ़ दाम पर सलीके से मिल रही थी। बहरहाल, हमने अब बता दिया सो अब किसी सब्जी के मंहगे होने की खबर उड़ाये कोई तो परेशान होने के पहले हमसे पूछ जरूर लेना। काहे के लिये सब्जी के नाम पर जी धक्क से करना। और भी तमाम सामान हैं मंहगाई का रोना रोने के लिये।
सब्जियों से निपट के गणेश-लक्ष्मी खरीदने के लिये मुड़े। मूर्तियां दो तरह की मिल रहीं थीं। प्लास्टर ऑफ़ पेरिस की सस्ती और देशी मिट्टी की मंहगी। हमने कहा खरीदेंगे तो देशी मिट्ठी की। चाहे मंहगी ही हों। वो थोड़ा अनगढ़ और मेहनत से बनाई मूर्ति भी लग रही थी। बहुत मेहनत से मूर्तियां छांटी। हमने किसी से सुना था कि लक्ष्मी की मूर्ति की नाक सुडौल होनी चाहिये। लेकिन जिस मूर्ति को देखा सबमें लक्ष्मी जी नाक ऐं-वैं टाइप दिखी। किसी में बेडौल, किसी में कटी सी। किसी में बिल्कुल्लै गायब। मन किया कि कहें लक्ष्मी जी से – ये सब गड़बड़ लोगों की संगत का नतीजा है। गलत लोगों के यहां रहोगी तो नाक कैसे साबुत बचेगी? लेकिन फ़िर कुछ कहे नहीं। सोचा त्यौहार के दिन क्या ताना मारना। लक्ष्मीजी मूर्ति के बाद गणेश जी फ़ाइनल किये। उसमें ज्यादा नहीं देखना पड़ा। एक में देखा कि गणेश जी का सर फ़टा हुआ था जैसे किसी ने भीड़ में लाठी चला दी हो। दुकान वाले ने बताया कि पकने में चिटक गये होंगे गणेश जी। पैसे लेने के बाद दुकानदार ने तमाम जगह पैसे छुआते हुये मत्थे से सटाये। हमारे से उसने बोहनी की थी।
दुकान से चलते-चलते देखा कि दुकान वाले ने अपने लड़के को एक कन्टाप मारा। बच्चे से एक मूर्ति गिर गयी थी। धोखे से। सजाते समय। मन तो किया कि मूर्ति वापस कर दें इस हिंसा के विरोध में। लेकिन फ़िर ‘दुकानदारी हिंसा हिंसा न भवति’ सोचते हुये दीगर सामान खरीदने लगे।
बाजार भर में छोटे-छोटे बच्चे दुकानदार बने सामान बेंचने में लगे थे। छोटे-छोटे बच्चे। गिनती और हिसाब में मुस्तैद। इनकी दीवाली इसी तरह मन रही थी। शाम तक कुछ कमा लेंगे तो शायद मजे करें।
पास के सब फ़ूंककर और तमाम सामान लादकर घर पहुंचे तो फ़िर सोचा कि तारीफ़ सुनने को मिलेगी। इत्ती खरीदारी करके आये थे। लेकिन ऐसा कुच्छ न हुआ। उल्टे उलाहना मिला कि ये सब सामान लाने के लिये किसने कहा था?
तो भैया ये रहे दीवाली पर खरीददारी के हाल। न करो तो आफ़त, करो तो डबल आफ़त।
नोट: ऊपर पटाखे वाली दुकान की फोटो ललित शर्मा जी की। पटाखे नहीं खरीदे तो उनकी फोटू ही सही। दीवाली पर ललित शर्मा जी ने बहुत काम निपटाये।
जिधर देखो उधर पूरी चहल-पहल है। तमाम काम पड़ा है। सब निपटाना है।
त्यौहार मनाने के पहले लोग सब काम निपटाने में जुटे हैं। जिसे देखो वो कुछ न कुछ निपटा रहा है। जो निपटा नहीं रहा है वो फ़ैला रहा है।
हमें तो लगता है लोग झुट्ठै कहते हैं कि दीवाली खुशियों का त्यौहार है। हमें तो लगता है कि दीवाली काम में व्यस्त रहने का त्यौहार है। बिना काम के व्यस्त रहने का त्यौहार है।
हाल यह है कि घर के न जाने किन किन कोने-अतरे से कोई काम निकल आता है। सामने खड़ा हो जाता है बेशर्मों की तरह- हमको निपटाओ।
एक को निपटाया नहीं कि अगला सर उठाकर हाजिर- उसको निपटाया तो क्या निपटाया, हमको निपटाओ तो जाने।
गर्ज यह कि त्यौहार के मौके पर काम देश में ठांव-कुठांव होने वाले बम धमाकों की तरह हो जाते हैं। जैसे देश का कुछ पता नहीं कब, किधर से, कित्ते बम फ़ट पड़ें। वैसे ही त्यौहार के मौके पर घर में कोई गारण्टी नहीं कौन सा काम सर पर आ पड़े। आप घर के किसी सुरक्षित कोने में दुबके पड़े हो यह सोचते हुये कि त्यौहार तसल्ली से दुबक के मनायेंगे। लेकिन वहां भी -’सुनते हो…..’ के साथ कोई काम गोद में डाल दिया जाता है। – लो कुछ नहीं कर रहे तो इसे ही संभालो, निपटाओ।
इधर त्यौहारों में शुभकामनाओं के जबाब देना भी एक काम हो गया है। जिसकी शुभकामनायें आयें उनको धन्यवाद देते हुये डबल शुभकामनायें देना है। हमने इस काम पर ध्यान दिलाते हुये इसमें लगने की अनुमति मांगी तो मना कर दी गयी। बताया कि हमारा पुराना रिकार्ड ठीक नहीं इस मामले में। शुभकामनायें देते हुये बतियाने लगते हैं। तीस पैसे के काम में तीन रुपये फ़ूंक देते हैं। इस मनचाहे काम से वंचित करके हमको बाजार दौड़ा दिया गया। जाओ भाग के सब्जी ले आओ।
मन तो किया कि एक ठो एंग्री एंग मैन टाइप कोई डायलॉग मार के इस पर विरोध प्रकट कर दें कि मनपसंद काम से भगाकर हमें ऐसा काम क्यों सौंपा जा रहा है जो हमको रत्ती भर नहीं सुहाता। जरको नहीं जमता।
आपको बतायें कि हमको दो काम सख्त नापसंद हैं- एक खरीददारी करना और दूसरा प्रधानमंत्री बनना।
दूसरे काम के लिये तो हमने सब मीडिया वालों को साफ़ कह दिया है -खबरदार जो कहीं हमारे नाम की चर्चा चलाई प्रधानमंत्री पद के लिये किसी प्राइम टाइम में।
अब मीडिया वालों को हड़का दिये तो वे तो बेचारे मान गये लेकिन घर में तो जोर नहीं चलता न! घर वालों को हड़काने के बारे में सपना भी नहीं देखते। ये सपना तो खैर शोभन सरकार भी नहीं देख सकते। देखने की हिम्मत होती तो वैरागी काहे होते?
इसलिये जब कहा जाता है खरीदारी के लिये तो निकल पड़ते हैं झोला लेकर, झोले जैसा मुंह लटकाये।
तो भैया जब हमको अपने मनपसंद काम से वंचित करके बेमन वाला काम हम पर लाद दिया गया तो हम भी तमतमाते हुये चल दिये घर से (तमतमाने का काम घर बाहर निकलकर किये भाई) बाजार खरीददारी करने के लिये। ठान लिया मन में कि गांठ में जित्ते पैसे हैं सबको ठिकाने लगा देना है। न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी।
सबसे पहले प्याज की दुकान पर पहुंचे। भाव पूछे तो बताया 40 रुपये किलो। हमें लगा दुकानदार मौज ले रहा। दो दिन पहले टीवी पर दिल्ली में प्याज के बढ़े दाम पर हुई बहस देखी थी हमने। हमने दोबारा पूछा तब भी दाम नहीं बढ़ाये अगले ने। मन किया कि एक ठो स्टेटस मारें फ़ेंकबुक पर कि देखो दिल्ली वाले कित्ता झूठ बोलते हैं। मन तो ये भी किया वहीं प्याज की ठेलिया के पास एक ठो संवाददाता सम्मेलन करके मीडिया वालों खबर ले लें कि खाली दिल्ली के बाजार के दाम पर प्याज का प्राइम टाइम करते रहते हैं। ये नहीं कि कभी शताब्दी पकड़कर कानपुर आयें और यहां के प्याज के दाम की खबर दुनिया को सुनायें- विजय नगर , गन्दे नाले की सब्जी मण्डी की प्याज की ठेलिया के दायें कोने से कैमरा मैन अलाने के मैं फ़लाने।
खैर प्याज की दुकान से फ़ुरसत पाकर हम आलू खरीदे। अट्ठाइस रुपया किलो। बाद में पता चला कि उसके भी मंहगे होने की अफ़वाह फ़ैलाने की साजिश चल रही है। बगल में भिंडी भी बड़े शरीफ़ दाम पर सलीके से मिल रही थी। बहरहाल, हमने अब बता दिया सो अब किसी सब्जी के मंहगे होने की खबर उड़ाये कोई तो परेशान होने के पहले हमसे पूछ जरूर लेना। काहे के लिये सब्जी के नाम पर जी धक्क से करना। और भी तमाम सामान हैं मंहगाई का रोना रोने के लिये।
सब्जियों से निपट के गणेश-लक्ष्मी खरीदने के लिये मुड़े। मूर्तियां दो तरह की मिल रहीं थीं। प्लास्टर ऑफ़ पेरिस की सस्ती और देशी मिट्टी की मंहगी। हमने कहा खरीदेंगे तो देशी मिट्ठी की। चाहे मंहगी ही हों। वो थोड़ा अनगढ़ और मेहनत से बनाई मूर्ति भी लग रही थी। बहुत मेहनत से मूर्तियां छांटी। हमने किसी से सुना था कि लक्ष्मी की मूर्ति की नाक सुडौल होनी चाहिये। लेकिन जिस मूर्ति को देखा सबमें लक्ष्मी जी नाक ऐं-वैं टाइप दिखी। किसी में बेडौल, किसी में कटी सी। किसी में बिल्कुल्लै गायब। मन किया कि कहें लक्ष्मी जी से – ये सब गड़बड़ लोगों की संगत का नतीजा है। गलत लोगों के यहां रहोगी तो नाक कैसे साबुत बचेगी? लेकिन फ़िर कुछ कहे नहीं। सोचा त्यौहार के दिन क्या ताना मारना। लक्ष्मीजी मूर्ति के बाद गणेश जी फ़ाइनल किये। उसमें ज्यादा नहीं देखना पड़ा। एक में देखा कि गणेश जी का सर फ़टा हुआ था जैसे किसी ने भीड़ में लाठी चला दी हो। दुकान वाले ने बताया कि पकने में चिटक गये होंगे गणेश जी। पैसे लेने के बाद दुकानदार ने तमाम जगह पैसे छुआते हुये मत्थे से सटाये। हमारे से उसने बोहनी की थी।
दुकान से चलते-चलते देखा कि दुकान वाले ने अपने लड़के को एक कन्टाप मारा। बच्चे से एक मूर्ति गिर गयी थी। धोखे से। सजाते समय। मन तो किया कि मूर्ति वापस कर दें इस हिंसा के विरोध में। लेकिन फ़िर ‘दुकानदारी हिंसा हिंसा न भवति’ सोचते हुये दीगर सामान खरीदने लगे।
बाजार भर में छोटे-छोटे बच्चे दुकानदार बने सामान बेंचने में लगे थे। छोटे-छोटे बच्चे। गिनती और हिसाब में मुस्तैद। इनकी दीवाली इसी तरह मन रही थी। शाम तक कुछ कमा लेंगे तो शायद मजे करें।
पास के सब फ़ूंककर और तमाम सामान लादकर घर पहुंचे तो फ़िर सोचा कि तारीफ़ सुनने को मिलेगी। इत्ती खरीदारी करके आये थे। लेकिन ऐसा कुच्छ न हुआ। उल्टे उलाहना मिला कि ये सब सामान लाने के लिये किसने कहा था?
तो भैया ये रहे दीवाली पर खरीददारी के हाल। न करो तो आफ़त, करो तो डबल आफ़त।
नोट: ऊपर पटाखे वाली दुकान की फोटो ललित शर्मा जी की। पटाखे नहीं खरीदे तो उनकी फोटू ही सही। दीवाली पर ललित शर्मा जी ने बहुत काम निपटाये।
Posted in बस यूं ही | 7 Responses
आपको सपरिवार दीपावली मंगलमय हो
arvind mishra की हालिया प्रविष्टी..देहाती औरत!
काजल कुमार की हालिया प्रविष्टी..कार्टून :- दिवाली का अगला दिन
हुकुम बजा लाये हो !
कट्टा कानपुरी असली वाले की हालिया प्रविष्टी..अपने अपने उल्लू ले , महिलायें बाहर निकलीं हैं -सतीश सक्सेना