
पैर मोड़ने में दर्द होता है तो मत मोड़ा करो। मेरी इस बात पर वो बोलीं- घर के काम कौन करेगा फिर? हम कौन पैसे वाले हैं जो कोई काम वाली लगा लें।
हम जाने लगे तो पेड़ के नीचे गिरी पड़ी लकड़ी को ले जाने की अनुमति ली। हमने कहा -ले जाओ। उसने दुबारा पूछा। ले गयी होगी शायद।
प्राकृतिक संसाधनों पर जिस तरह 'कुछ ज्यादा बराबर' लोगों का कब्जा होता जा रहा है उससे लगता है कि वह दिन दूर नहीं जब लोग किसी खुली जगह पर खड़े होकर सांस लेने की अनुमति मांगेगे।
पहाड़ की तरफ गए आज। जहां अनगिनत चूल्हे जलते दीखते थे वहां अब सिर्फ एक परिवार बरसाती का टेंट लगाकर रह रहा था। बाकी लोग शायद बारिश के दिनों में घर चले गए हैं। अधबने ओवर ब्रिज के नीचे अलबत्ता तमाम परिवार शरण पाये हुए थे।

अधबने ओवरब्रिज की सड़क कुछ परिवार अस्थाई डेरा लगाये रह रहे थे। पुल चालू हो जाने पर इनका डेरा उजड़ जाएगा।
पुल के नीचे देखा एक बच्ची एक अल्युमिनियम की पतीली के पानी में अपनी चड्ढी धो रही थी। नहा शायद पहले ही चुकी थी। बाल रूखे और बिखरे हुए। चड्ढी धोने के बाद वह ईंटों के बने घर से एक प्लास्टिक के डिब्बे में कडुवा तेल लेकर बाहर आई।तेल डिब्बे की तल से चिपका था। बच्ची ने उँगलियों की पोर में तेल लगाकर पेट, छाती और बालों में तेल लगाया। पिता से पीठ पर तेल लगाने को कहा। पिता ने बच्ची की पीठ पर तेल लगाया।

पिता कोमल पटेल रिक्शा चलाते हैं। पत्नी रही नहीं। एक बेटा ट्रक चलाता है। दूसरी बेटी एक नारी कल्याण निकेतन में रहती है। दीपिका के साथ ओवरब्रिज की छत के नीचे की जगह ईंटों से घेरकर रहने लगे। अगर भगाए नहीं गए तो यहीं रहेंगे। भगाए गए तो ईंटे उठाकर कहीं और चले जाएंगे। रौशनी के लिए पास के खम्भे पर जलते बिजली के बल्ब का सहारा है।
बात करते हुए दीपिका अपनी रंगबिरंगी फ्राक ले आई। फोटो खींचकर दिखाई तो हंसने लगी। फोटो में पिता को शामिल किया। पिता के साथ भी फोटो खींची।
कक्षा 2 में पढ़ने वाली दीपिका को 100 तक गिनती आती है। पहाड़े नहीं सीखे अभी।स्कूल में छुपन-छुपाई, पकड़म-पकड़ाई और दुसरे खेल खेलती है। स्कूल के बस्ते के साथ दीपिका की फोटो खींचते हुए सोचा - शुक्र है अभी कुछ सरकारी स्कूल बन्द नहीं हुए हैं और दीपिका जैसे बच्चे स्कूल जा पाते हैं।

सुना है कि जबलपुर भी स्मार्ट सिटी बनने की दौड़ में है। जब यह स्मार्ट सिटी बन जायेगा तो कोमल का ठिकाना किधर होगा। दीपिका कहाँ रहेगी। वैसे अपने देश की योजनाओं के पूरी होने की गति देखते हुए निकट भविष्य में कोई खतरा नजर नहीं आता।
मेस आये तो पता नहीं कहां से कोई आदमी अंदर घुस आया था। डायनिंग हाल में कुर्सी पर बैठे आदमी से पूछा कि वह कौन है? उसने बताया -आप मुझे जानते नहीं। मैं सीएम हूँ। हमने कहा -किस फैक्ट्री /सेक्सन में चार्जमैन हो? उसने कहा- चार्जमैन नहीं मैं चीफ मिनिस्टर हूँ।
हमने खुद को सीएम बताने वाले भाईसाहब को बाअदब मेस के बाहर का रास्ता बताया -बाहर निकलकर बाएं हाथ चले जाइये वहीं आगे सचिवालय है। वहीँ आपका आफिस होगा। अदब से बात पापुलर मेरठी के इस शेर को याद करके की:
न देखा करो मवालियों को हिकारत से
न जाने कौन सा गुंडा वजीर हो जाए।
संयोग कि आजकल मुख्यमंत्रियों के बदले जाने की खबरें भी आती रहती हैं। क्या पता सच में कोई विधायक हों वे भाई साहब भी जिनको अपने सीएम बनने का भरोसा हो। कई विधायक यह सपना तो देख ही रहे होंगे। इस चक्कर में कइयों को नींद नहीं आती होगी।
बहरहाल यह रही आजकी दास्ताने सुबह। आप मजे से रहिये। दिन और सप्ताह की शुरुआत चकाचक हो आपकी।
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, फ़िल्मी गीत और बीमारियां - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteDipika,komal,Ramesh,aashiyana....aapke sath sb ghume-milen.....kamobesh hr jagah yek hi sthiti hai.....achha laga vritant padhke.
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