Tuesday, November 08, 2016

हम लायें इन किरणों को धुंध से निकालकर



आज सुबह निकले तो देखा सूरज भाई आसमान पर विराजमान थे। चेहरा अलबत्ता कुछ झटक गया सा लग रहा था। थोड़ा कुम्हलाया हुआ। देखते ही जिस तरह के भाव चेहरे पर आये उनके उससे लगा कि बस अब गाना गाने ही वाले हैं:
हम लायें इन किरणों को धुंध से निकालकर
इनको रखना तुम धूल-धुयें से संभालकर।
सड़क पर एक रिक्शे में बैठे बच्चे स्कूल जा रहे थे। उनके बैग लटके हुये रिक्शे के किनारे। रिक्शा वाला उचक-उचककर रिक्शा चला रहा था। धूप बेचारी उसकी मेहनत देखकर खिलने में सकुचा रही थी।
आर्मापुर गेट तक आते-आते ख्याल आया कि बताओ पांच आदमियों के बैठने की जगह वाली गाड़ी में हम अकेले जाते हैं। चार आदमियों का प्रदूषण बेफ़ालतू फ़ैलाते हैं। कुछ ऐसा जुगाड़ करें कि चार सवारी आर्मापुर गेट से झकरकटी तक या टाटमिल चौराहे तक बैठा लिया करें। प्रति व्यक्ति कुछ प्रदूषण ही कम करें। विकसित देशों की तरह हम भी अपना आने-जाने का समय डाल दिया करें नेट्पर । जिसको चलना हो साथ में वो चला चले।
लेकिन फ़िर तमाम बवाल याद आये तो इरादा दिमाग में ही दफ़ना दिया। जलाया नहीं। जलाने में धुंआ उड़ता है न ! कूड़ा जलाना मना है न स्मॉग के चलते। दफ़नाने से धुंआ नहीं होता।
विजयनगर चौराहे पर तमाम कौवे पता नहीं क्यों चक्कर काट रहे थे। आसमान में। महाकवि भूषण की मूर्ति के ऊपर सीने तक अनेक इश्तहार चिपके हुये थे। क्या पता महाकवि मन में कहते हों:
इस प्रदूषण को गरियाऊं कि
गरियाऊं चौराहे के जाम को।
फ़जलगंज जाते हुये एक आदमी बाल्टी में पाने भरे जा रहा था। दिन शुभ होगा ऐसा लगा। लेकिन सुबह बेजान दारूवाला ने लिखा था हमारी राशिवालों के लिये कि नये कपड़े पहनकर जायेंगे। वो तो नहीं हुआ। फ़िर यह पानी-सगुन भी क्या पता गच्चा हो।
पंकज बाजपेयी आज कुछ शान्त दिखे। कुछ कपड़े और पहन लिये हैं उन्होंने। उनसे कुछ और बात हो तब तक पीछे से आती बस ने हार्न दिया और हम आगे बढ़ गये।
झकरकटी पुल पर एक गाड़ी को ओवरटेक किये तो सामने से आते मोटरसाइकिल सवार को थोड़ा देरी सी हुई। उसने हेलमेट के अंदर से ’अंखियों से गोली मारे’ वाले अंदाज में मुझे देखा। हाथ से इशारा करते हुये पूछा- ’बड़ी जल्दी है क्या भाई?’ हमें लगा कि पुल पर ओवरटेक करना ठीक नहीं। लेकिन यह अकल तब आई तब ओवरटेक कर चुके थे। जित्ती तेजी से आई उत्ती तेजी से ही फ़ूट भी ली।
टाटमिल चौराहे के आगे एक मोटरसाइकिल सवार तेजी से पीठ पर बस्ता लादे चला जा रहा था। उसका हेलमेट उसके दायें हाथ में लटका हुआ था। लगता है उसको भरोसा था कि अगर कहीं दुर्घटना हुई तो हेलमेट फ़टाक से पहन लेंगे। हेलमेट हाथ में धारण करके चलने वाले सर पर कफ़न बांधकर चलते हैं।
मोड़ पर मट्ठे वाला खड़ा था। मट्ठा 12 रुपये ग्लास। हमें लगा मंहगाई बहुत बढ गयी है सच्ची में। 2011 में हम आठ 11 रुपये में पूरा खाना खाते थे। विजयनगर के एक ढाबे में। लेकिन फ़िर याद आया कि आज भी तो 10 रुपये में कैंटीन में पूरा खाना खाते हैं। इसलिये मंहगाई की बात हमने छोड़ दी और सीधा फ़ैक्ट्री में जमा हो गये जहां का हम नमक खाते हैं।
नीचे फ़ोटो जीटी रोड की नर्सरी की
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