जीवन को समझना चाहो तो कोई पेड़, कोई पौधा, कोई फूल....एक ही सही....कैक्टस ही क्यों न हो....लगा कर देखो तो सही। धरती किसान से, अपने चाहने वाले से, बार-बार बेवफाई करती है। फिर भी वो उस पर भरोसा करता है। धोखे पर धोखे खाता है। फिर भी प्यार किये जाता है और जब वो प्यार के लायक नहीं रहता तो गांव छोड़ देता है। शहर जाकर अपना थका-हारा पिंजर किसी मिल को सौंप देता है। शहर में फिर उसे जीते-जी धरती अपनी सूरत नहीं दिखाती। दरी, चटाई, संगे-मरमर, सीमेंट, टाइल्स के फर्श और तारकोल के नीचे अपना मुंह छिपाये रहती है।
-मुस्ताक अहमद युसूफ़ी 
'धनयात्रा' से
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