आज सुबह स्पेनिश के कुछ शब्द सीखे। dualingo मोबाइल एप से। शब्द बार-बार भूल रहे थे, लेकिन एप बिना झल्लाये फिर से सिखाता जा रहा था। सिखाने वाले को मोबाइल एप जैसा धैर्यवान होना चाहिए। जिसने यह एप बनाया वह भाषाओं और मानव व्यवहार का कितना जानकार होगा।
इसी सिलसिले में मारखेज से उनके मित्र की बातचीत के संकलन वाली किताब 'अमरूद की महक' भी पढ़ी। संयोग से इसी समय इस भाषाई एप Duolingo की जानकारी हुई। विदेशी भाषाओं में पहला विकल्प स्पेनिश का दिखा। उसी को सीखना शुरू कर दिया। अब तक 25-30 शब्द सीख चुके हैं। कुछ भूल भी गए। लेकिन का सिखाने का तरीका इतना रुचिकर है कि आगे भी सीखने का मन बनता है।
'एकांत के सौ साल' उपन्यास हमने पहली बार 92-93 में खरीदा था। अंग्रेजी में। one hundred years in solitude । उस समय धूम मची थी इस उपन्यास की।
खरीद तो लिया और सरसरी तौर पर पढ़ भी लिया लेकिन अंग्रेजी में होने और बिना शब्दकोश के पढ़ने के चलते उतना रस नहीं आया जितना उपन्यास का नाम था। उन दिनों बिना शब्दकोश के पढ़ते थे और जिन शब्दों के अर्थ नहीं आते थे उनके अर्थ अंदाज से लगाते थे। कई बार मतलब कुछ और होता था लेकिन हम समझते कुछ और होंगे। पढ़ने की हड़बड़ी में ऐसा होता था। कहने को पढ़ लिए लेकिन पूरा मजा नहीं आता था।
सोचा था दुबारा पढ़ेंगे उपन्यास लेकिन एक दिन हमारे घर हमारे साथी अरविंद मिश्र आये। किताब देखकर ले गए यह कहते हुए कि हम भी पढ़ेंगे। हमने दे दी।
करीब महीने भर बाद हमने किताब के बारे में पूछा तो वो बोले -'वो हमसे चचा ले गए हैं। कह रहे थे पहले हम पढ़ेंगे।'
अरविंद जी के चचा मतलब हृदयेश जी। हृदयेश जी शाहजहांपुर के प्रसिद्द कहानीकार, उपन्यासकार थे। कचहरी में काम करते थे। भारतीय न्यायतंत्र पर लिखा उपन्यास 'सफेद घोड़ा काला सवार' अद्भुत उपन्यास है। इसमें कचहरी के अनुभवों, किस्सों के रोचक विवरण भी हैं।
बहुत पहले पढ़े इस उपन्यास का एक किस्सा याद आ रहा है। उसके अनुसार एक जज साहब को ऊंचा सुनाई देता था। कान में सुनने की मशीन लगाकर बहस सुनते थे। एक दिन मशीन , शायद बैटरी के चलते, कुछ खराब हो गयी। जज साहब को बहस ठीक से सुनाई नहीं दे रही थी। लेकिन कह नहीं पाए। बहस चलती रही। जज साहब बिना सुने सुनते रहे। बहस के अंत में फैसला भी सुना दिया।
आजकल जब किसी अधिकारी या अदालत का कोई निर्णय असंगत लगता है तो मुझे अनायास हृदयेश जी द्वारा लिखा यह किस्सा याद आता है।
बहरहाल बात हो रही थी किताब की। काफी दिन अरविंद जी से तकादा करते रहे किताब का। वो कहते रहे, चचा ने अभी लौटाई नहीं।
बाद में तकादे की अवधि बढ़ती गयी। आखिर में बताया अरविंद जी ने कि लगता है चचा भूल गए। एक दिन बताया -'चचा कह रहे थे कि किताब उन्होंने वापस कर दी।'
लब्बोलुआब यह कि अंग्रेजी की किताब इधर-उधर हो गयी। किताबों की यह सहज गति है। किसी मित्र को दी हुई किताब सही सलामत वापस आ जाये तो सौभाग्य समझना चाहिए।
इधर hundred years in solitude का हिंदी अनुवाद आया तो उसको खरीदा। न सिर्फ खरीदा बल्कि 10-15 दिन में लगकर पढ़ भी लिया। अनुवाद दिल्ली विश्वविद्यालय की मनीषा तनेजा जी ने किया है। पांच साल में किया अनुवाद छपने में करीब बीस साल लग गए।
किताब राजकमल प्रकाशन से छपी है -एकाकीपन के सौ वर्ष । आनलाइन है। 438 पेज की किताब के दाम 499 रुपये हैं। मंगाकर पढ़िए, अच्छा लगेगा।
किताब का अनुवाद बहुत सहज और आसानी से समझ में आने वाला है। पाद टिप्पणियों में विभिन्न शब्दों और परंपराओं के अर्थ समझाए गए हैं। इससे उपन्यास के परिवेश को समझना आसान और रुचिकर हो जाता है।
किताब एक बार पढ़ चुके हैं लेकिन फिर पढ़नी है। अब समझिए कि one hundred years in solitude की लिखाई सन 1965 में शुरू हुई थी। 1967 में पूरी हुई मतलब आज से 56 साल पहले। 1982 में इसे नोबल पुरस्कार मिला और इसे हम पढ़ पा रहे हैं आज 2023 में। समय के कितने अंतराल होते हैं इस कायनात में।
बात शुरू हुई थी स्पेनिश सीखने से। जब किताब छपी थी तब कम्प्यूटर और मोबाइल और एप का कोई चलन नहीं था। कोई सोचता भी नहीं होगा कि हम इस तरह स्पेनिश सीखेंगे। लेकिन ऐसा हो रहा है। स्पेनिश सीखने के बहाने उन समाजों के बारे में सीख सकेंगे जहां स्पेनिश बोली जाती है।
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