Sunday, April 02, 2023

इश्क से बेहतर चाय है


कल पहली अप्रैल थी। दिन भर किसी ने बेवकूफ नहीं बताया। बहुत बुरा लगा। शाम को सड़क पर आ गए। शायद कुछ बोहनी हो जाये बेवकूफी की।
सड़क पर आते ही ऑटो रिक्शा, ई-रिक्शा दिखे। एक ई-रिक्शा को हाथ दिया। फौरन रुक गया। जलवा देखकर मन खुश हो गया। फौरन बैठ गए।
ई-रिक्शा में एक सवारी ड्राइवर के बगल में बैठी थी। दूसरी पीछे की सीट पर। हम उसके सामने वाली सीट पर बैठ गए। सात सवारी वाले ई-रिक्शा में कुल जमा तीन सवारी। फिर भी रिक्शा वाला बिना शिकायत चला रहा था रिक्शा।
पीछे बैठी बच्ची हिजाब पहने थी। चेहरे में केवल आंख दिख रही थी। हाथ में मोबाइल और कोई किताब टाइप की चीज। शायद पढ़ने जा रही हो।
ऑटो से दीवारों पर लिखे नारे दिखे। नारों में सफाई पर जोर था। अधिकतर नारों में दीवार के आसपास पेशाब न करने का आह्वान था। लिखा था :
'यहां पेशाब करना सख्त मना है। पकड़े जाने पर सफाई स्वयं करनी होगी।'
दीवार के आसपास की गंदगी देखकर लगा कि सख्त मनाही के बावजूद लोग वहां हल्के हो रहे हैं। पकड़ने वाले कोई तैनात नहीं थे लिहाजा सफाई का काम स्थगित था।
एक इश्तहार में तो और कड़ी चेतावनी लिखी थी:
'इस बंगले के सामने कहीं भी मूतने वाले के 20 जूते मारे जाएंगे।'
जिस दीवार पर यह चेतावनी लिखी थी उसके आसपास का इलाका और इमारत देखकर लगा कि लिखने वाले 'बंगले' के पहले 'भूत' लिखना भूल गया होगा। दीवार के आसपास की जमीन पूरी गीली थी। इससे लगा कि लोगों ने सजा की धमकी से बुरा मानकर और उसकी परवाह न करते जमकर पेशाब की है।
सजा के रूप में केवल जूतों का प्रावधान देखकर लगा कि नारा लिखने वाला पितृ सत्तात्मक भावना से ग्रसित होगा। ऐसा न होता तो जूते के साथ चप्पल भी लिख देता।
आगे एक देशी शराब की दुकान के पते में बदलाव का बैनर लगा हुआ था। दुकान बमुश्किल 20 कदम आगे ही गयी थी लेकिन उसकी भी सूचना के लिए बैनर देखकर लगा कि दारू की दुकान वाले लोग अपने ग्राहकों का कितना ख्याल रखते हैं।
दुकान भी आगे ही दिखी। लिखा था -'देशी शराब एसी में बैठकर पिये।' 'एसी में देशी' की लयात्मकता बरबस ग्राहक को आकर्षित करती होगी। गर्मी के मौसम में कुछ लोग तो गर्मी से निजात पाने को पीने के आ जाते होंगे।
चौराहे को पार करने पर सागर मार्केट की सड़क पर आ गए। वाहनों के चलने के लिए बनी सड़क दुकानदारों, ठेलिया वालों, पार्किंग वालों के कब्जे के चलते सिकुड़ गयी थी। दया करके थोड़ी जगह लोगों ने वाहनों के लिए भी छोड़ दी थी। उस सिकुड़ी हुई जगह से वाहन सहमे हुए, आहिस्ते-आहिस्ते निकल रहे थे।
बीच सड़क से थोड़ा पीछे एक ठेलिया पर हींग युक्त स्पेशल पानी के बतासे बिक रहे थे। बोर्ड पर दुकान वाले का नाम प्रो. संजय अग्रवाल लिखा था। प्रो. का मतलब प्रोपराइटर होता है। मालिक। हम अपनी अज्ञानता के चलते बहुत दिन तक इसका मतलब प्रोफेसर समझते रहे। आज भी जहां भी प्रो लिखा देखते हैं, सबसे पहले प्रोफेसर ही याद आता है।
यह प्रो. को प्रोफेसर समझने वाली बात अज्ञानता के चलते थी। लेकिन आजकल जिस तरह तमाम उच्च शिक्षा प्राप्त लोगों को शिक्षा के क्षेत्र में नौकरी नहीं मिल रही, पीएचडी किये लोग बेकार बैठे हैं, वे दिहाड़ी के लिए काम मिलने के लिए भी हलकान हैं उसे देखकर तो लगता है कि तमाम पीएचडी धारी लोग ठेलिया लगाने के बारे में ही सोचते होंगे। अमल में भले न ला पाते होंगे क्योंकि अपने यहां शिक्षा इंसान को मेहनत के काम करने में झिझक पैदा कर देती। जेहनी काबिलियत दुनियावी रूप से नाकाबिल बनाती है।
सड़क से गुजरते हुए बगल की बनारसी टी स्टाल में घुस गए। दुकान वीरान थी। कुल जमा तीन ग्राहक थे। जब खुली थी तो काफी भीड़ थी। लेकिन मेट्रो के लिए व्यवस्था के चलते सामने की सड़क बन्द है। दो साल कोरोना में चले गए, फिर मेट्रो के कारण बंदी। 2024 तक मेट्रो के पूरे होने के आसार हैं तब शायद इसके भी दिन बहुरें।
शहर में दो जगह बनारसी टी स्टाल है। यह तीसरा देखकर पूछा हमने -'क्या यह उन्हीं लोगों की है दुकान?'
'नहीं। वो दुकानें दो भाइयों की है। यह अलग है। उनके नाम बनारसी टी स्टॉल है। यह न्यू बनारसी टी स्टॉल है। रजिस्ट्रेशन है।' - दुकानदार ने बताया।
'उन लोगों ने एतराज नहीं किया कि उनसे मिलता जुलता नाम रख लिया?'- हमने पूछा।
,
'एतराज क्या करेंगे? हमारा इस नाम से रजिस्ट्रेशन है। वे आये थे देखने। लेकिन देखकर लौट गए। हमारा नाम अलग है।' -दुकान वाले ने बताया।
"'बनारसी टी स्टॉल' की बजाय 'कनपुरिया टी स्टॉल' रखते तो और जमता।" -हमने कहा।
हमारी इस बात का जो जबाब दिया उसका मतलब यही निकलता था कि हमारी दुकान का नाम हम अपनी मर्जी का रखेंगे। तुमको रखना है तो खोल लो अपनी दुकान।
चाय की दुकान पर चाय से सम्बंधित कई सूक्ति वाक्य युक्त छोटे-छोटे फ़ोटो फ्रेम में लगे हैं। कुछ ये रहे:
-सुनो , एक राय है, इश्क से बेहतर चाय है 😍
-गर्मी बढ़ने पर जो चाय छोड़ दे
वो किसी की भी छोड़ सकता है।
-कहाँ सुकून हो hug में
जो मिलता है एक चाय कप में
-चाय दूसरी ऐसी चीज है, जिससे आंखे खुलती हैं
धोखा अभी भी पहले नम्बर पर है।
-कानून में एक ऐसी धारा बना दी जाए
जो चाय न पिये उसे सजा दी जाए।
-सच्चे प्यार की अब हम तुमको क्या मिसाल दें
45 डिग्री में भी हम चाय पीते हैं।
-काफी वाले तो सिर्फ फ्लर्ट करते हैं
कभी इश्क करना हो तो चाय वालों से मिलना
-चाय में गिरे बिस्कुट और नजरों से गिरे इंसान
की पहले जैसी अहमियत नहीं रहती
-खुशी में चाय , गम में चाय
चाय के बाद चाय एंड आई लव चाय
चाय के अलावा एक सूक्ति वाक्य जिंदगी और पैसे से जुड़ा था
-'पैसे भले आप मरने के बाद ऊपर नहीं लेकर जाओ, पर जब तक आप नीचे रहोगे, यह आपको बहुत ऊपर लेकर जाएगा।
सूक्ति वाक्य कुछ देवनागरी में लिखे थे। कुछ रोमन में। हमने पूछा -'ये सब हिंदी में क्यों नहीं लिखे?'
उसने बताया कि -'इसलिए कि हमारी अंग्रेजी कमजोर है।' हमे लगा अंग्रेजी से बदला लेने के लिए उसने ऐसा किया लेकिन आगे उसने कहा -' हिंदी उससे भी ज्यादा कमजोर है।' यह सुनकर हमको लगा कि उसका दोनों भाषाओं पर समान अधिकार है।
इस बीच कोई मांगने वाला आ गया। दुकान वाले ने कहा -'पैसे नहीं देंगे। चाय पी लो।'
कुछ देर बाद एक और आ गया । उसको उसने चाय के लिए भी नहीं पूछा। उसके जाने के बाद बोला -'आठ चाय हो गई सुबह से। दस तक पिला देते हैं। हमको अपना खर्चा भी देखना है।'
चाय पीने के बाद भुगतान के लिए गूगल पे चक्कर लगाता रहा। करीब दस मिनट लग गए बीस रुपये के भुगतान में। पांच सौ रुपये का नोट था पास में। लेकिन बीस रुपये के लिए पांच सौ का नोट तुड़ाना कुछ ऐसा जैसे .....। अब जैसे के बाद बहुत उपमाएं आईं दिमाग में लेकिन हम लिख नहीं रहे। आप खुद समझ जाओ। मन करे तो समझी हुई बात हमको भी बताओ। देखें हम और आप कितना एक जैसा और कितना अलग सोचते हैं।
चाय की दुकान से निकलकर वापस लौटते हुए मल्टीलेबल क्रासिंग के सामने की दीवार पर लगे हुए छोटे-छोटे गमले दिखे। पूरी दीवार पर लगे गमलों में पानी के लिए पतले पाइप और आगे छुटका फव्वारा। अगर यह व्यवस्था काम करती तो पूरी दीवार हरियाली से भरपूर दिखती। लेकिन देखभाल के अभाव में और लापरवाही के कारण सबकुछ उजाड़ सा हो गया है। यह देखकर फिर से लगा कि किसी भी व्यवस्था को अव्यवस्था में बदलने में हमारी काबिलियत का कोई जबाब नहीं।
व्यवस्था को अव्यवस्था में बदलने की काबिलियत की बात लिखते हुए डॉ आंबेडकर की संविधान के बारे में कही हुई बात याद आ गयी। आपको पता ही होगी। लिखने से क्या फायदा। डर भी है कि किसी को बुरा न लग जाये।
घर के पास ओवरब्रिज के पास दो बच्चियां गले में हाथ डाले जाती दिखीं। बच्चियां उछल-कूद करती हुई जा रहीं थी। ओवरब्रिज की दीवार पर उचककर चढ़ने की कोशिश भी की। इसके बाद वो सड़क पर डांस करते हुए ,इठलाते-इतराते चली गईं।
हम भी टहलते हुए घर लौट आये। अभी चाय पीते हुए लिखते हुए फिर याद आ रहा है -सुनो, एक राय है, इश्क से बेहतर चाय है।

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