सबेरे नींद खुलते ही चाय की याद आती है। घंटी बजाकर चाय के लिए बोलते हैं तो पता चला अभी दूध नहीं आया। सात बजे आएगा। यह भी बताया कि बाहर सड़क पार मिल जायेगा।
काफ़ी देर से बाहर निकलने की सोच रहे थे। आलस उठने नहीं दे रहा था। लेकिन चाय की इच्छा ने आलस को पटक दिया। उठ खड़े हुए। निकल लिए बाहर।
कहने के साथ ही उसने कुल्हड़ पलटकर उसकी धूल झाड़ी। बाद में हमें लगा कोई यह भी समझ सकता था कि दुकान वाला कह रहा है -‘भाड़ में जाओ।’ इसके बाद वाक युद्ध शुरू हो सकता था। लेकिन हमारी समझदारी से संभावित बहस टल गई।
चाय की दुकान के बग़ल में एक फूल वाला ज़मीन पर बैठा माला गूँथ रहा था। महिला और पुरुष साथ-साथ माला बना रहे थे। लंबे सूजे को कोमल ,मासूम फूल की छातियों में घुसेड़कर उनको माला में पिरो रहे थे दोनों। हमको नंदलाल पाठक की की कविता की पंक्ति याद आई :
आपत्ति फ़ूल को है माला में गुथने में,
भारत मां तेरा वंदन कैसे होगा?
सम्मिलित स्वरों में हमें नहीं आता गाना,
बिखरे स्वर में ध्वज का वंदन कैसे होगा?
हमको लगा कि डाली से अलग हुए फूल की क्या औक़ात जो किसी माला में गूँथने से इंकार करे। उसको तो जहां कहा जाएगा लग जाएगा। लेकिन अब कवि जी की मर्ज़ी जो मन आये कह दें। वैसे भी आजकल जमाना बड़ा ख़राब है। पीड़ित और वंचित के ख़िलाफ़ ही मुक़दमे दायर हो रहे हैं और फ़ैसला भी उनके ख़िलाफ़ ही हो रहा है।
माला बनाती हुई महिला ने मुझसे पूछा -‘ माला लेना है क्या ?’ हमने नकार में सिर हिलाया और चुपचाप उन लोगों को माला बनाते देखते रहे।
चाय की दुकान पर एक बुजुर्ग बेंच पर बैठे थे। होंठ भींचे ऐसे जैसे गेट बंद कर रखा हो , कोई शब्द बाहर न निकल जाये। बुजुर्ग को देखकर हमको अपने भूतपूर्व प्रधानमंत्री राव जी याद आए। वे भी अक्सर ऐसे ही शांत , चुप दिखते हैं फ़ोटो में।
चाय वाले ने बताया कि बुजुर्ग दिखने में साधारण हैं। लेकिन हैं बहुत संपन्न। पाँच बेटे हैं। लड़की भी हैं। सबका शादी बना दिया। सबके पास मकान हैं। हमारी बात न मानो तो उनसे पूछ लो।
हमारी बात न मानो तो उनसे पूछ लो से हमको गाना याद आया -हमरी न मानो तो बजजवा से पूछो।
हमने किसी से न पूछकर बुजुर्ग से ही बातचीत करना शुरू किया। कुछ पूछा लेकिन वे बोले नहीं। होंठ और कस लिए। क्या पता शब्दों को हड़का भी दिया हो -‘ख़बरदार जो बाहर निकले। टांग तोड़ दूँगा एक -एक की।’
चाय की दुकान पर दो कुत्ते भी मौजूद थे। चुपचाप खड़े थे। हमने बिस्कुट का टुकड़ा डाला ज़मीन पर तो दोनों दुम हिलाने लगे। एक कुत्ता दुम हिलाने में इतना मशगूल हो गया कि उसके सामने का बिस्कुट भी दूसरा कुत्ता खा गया। हमने उसके एन मुँह के सामने एक और टुकड़ा डाला तब उसने लपककर खाया। थोड़ी देर और खड़े रहे दोनों। इसके बाद जब और बिस्कुट नहीं मिला तो दुम हिलाना बंद करके सड़क पर टहलने लगे।
चाय पीते हुए सामने की बेंच पर बैठे आदमी से गंगाघाट का रास्ता और दूरी पूछी तो उन्होंने पूरी तफ़सील से तीन चार तरीक़े बताये। बस नंबर, किराया और तमाम जानकारी। इतने तसल्ली से गूगल क्या बताएगा।
बताने के लहजे से लगा मूलतः बिहार से हैं। पूछा तो पता लग छपरा से हैं । बचपन में आये थे। तब से यहीं हैं। अब तो यही देश है। आते-जाते रहते हैं गाँव जब कोई बुलाता है।
छपरा का नाम सुनते ही गाना याद आया
आरा हीले, छपरा हीले, बलिया हीले ला ,
कि जब लचके मोर कमरिया
त सारी दुनिया हिलेला।
कभी सुने हुए चर्चित गीत कितनी दूर तक पीछा करते हैं ।
इस बीच एक चाय और पी। दो चाय और दो बिस्किट के दाम हुए बीस रुपये। भुगतान करते हुए हमें याद आया कि कल हवाई अड्डे पर चाय के दाम 25O रुपये से शुरू हुए थे। यहाँ चाय आठ रुपये की । तीस गुने का अंतर।
चाय पीकर वापस आते हुए सड़क पर जाते और आते हुए लोग दिखे। एक अख़बार वाला साइकिल पर तमाम अख़बार लादे ले जाते दिखा। जब बग़ल से गुजर गया तो लगा कि अख़बार के लेते तो अच्छा रहता।
एक रिक्शे वाला आहिस्ते से रिक्शा चलाते हुए सामने से आता दिखा। रिक्शा चलाते हुए उसने अंगौछे से मुँह पोंछा। उसके अँगौछे को देखकर मुझे राज्यसभा के सांसद प्रोफ़ेसर मनोज झा जी की याद आई।
संसद की बात से और भी बहुत कुछ याद आया लेकिन वह फिर कभी।
सड़क किनारे खड़े हुए आते -जाते लोगों को देखते रहे। एक महिला सड़क पार करके टहलते हुई गई और कुछ दे बाद दूध का पैकेट हिलाते हुए वापस लौटी। बसें सड़क को दबाती हुई तेज़ी से इधर-उधर आ जा रहीं थीं। एक आटो वाला आटो की स्टीयरिंग को सीने से सटाये हुए सा आता दिखा। एक रिक्शा वाला अपने रिक्शे में मोटर फिट किए ढेर सारा सामान लादे तेज़ी से आता दिखा और बाद में बग़ल से गुजरते हुए जाता दिखने लगा और कुछ देर में दूर जाकर दिखना बंद हो गया।
काफ़ी देर तक सड़क पर खड़े रहने के बाद याद आया कि गेस्ट हाउस में दूध आ गया होगा। लौट आये। चाय के लिए बोलकर इधर आ गये।
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