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जिन भोलानाथ उपाध्याय को इनाम देने के लिये खासतौर से ये
संस्मरण टाइप किये मैंने वे इन संस्मरणॊं के पप्पू हैं। उन्होंने संस्मरण
के पहले दो भाग पढ़े । मैंने उनको जीमेल का सदस्य बनाने के बाद की सूचनार्थ
आयी मेल के जवाब में पूछा -इनाम कैसा लगा भोला भाई? भोला भाई का जवाब
अभी-अभी मिला-
महातम भइया उन चरवाहों के सरगना थे तो परानपत काका मंत्री। बीस भैंसों व आठ चरवाहों वाले इस झुंड की न तो कोई जाति-पांत थी न ही कोई धर्म। जब तक वे भैंसों के साथ थे सिर्फ चरवाहे थे। महातम भइया के अतिरिक्त मैं ही था जिसने रेल या बस से यात्रा की थी। बाकी सब लोग गांव व उसके आसपास से ज्यादा की जानकारी नहीं रखते थे। मैं महातम भइया का छोटा भाई था और उस मंडली का सबसे योग्य व्यक्ति । महातम भइया के अनुसार,”पढ़ाओ न लिखाओ,शहर में बसाओ।”
मैं शहर से आया था। भोजपुरी की जगह खड़ी बोली बोलता था। धोती या गमछा की जगह हाफ पैंट पहनता था। सिर पर गमकउआ तेल लगाता था।मैं भी शहर के उल्टे-सीधे किस्से उन्हें सुनाने लगा जिनका कोई सिर पैर न होता और जो मेरी कल्पना की उपज होते। जब वो उत्सुकता में ज्यादा सवाल पूछते तो मैं महातम भइया की तरफ देखता और वे घुड़क देते,”अबे ससुरे,जब तुमही लोग सब समझ जाओगे तो भैंसवा कौन चरायेगा!”
महातम भइया अब मेरे लिये संसार के सबसे ज्ञानी गुरु थे। उनके पास ज्ञान का भंडार था। उन्होंने हाथी का दुर्लभ अंडा देखा था। हाथी को अंडा देते देखा व उस अंडे से बाद में बच्चा निकलते देखा। उन्होंने इमली वाली काली मैया के भी साक्षात दर्शन किये थे। वे अयोध्या जी भी गये थे। गोरखपुर तक ट्रेन से फिर बस से।महातम भैया बताते,”जब तक आदमी अजोध्याजी के दर्शन नहीं कर लेता तबतक उसका मानुस जीवन सफल नहीं होता। ना ही सुरग (स्वर्ग)में जगह मिलती है।
महातम भइया के पास किसी पुरैनी के मेले का भी एक किस्सा था।जहां उन्होंने पहली बार रसगुल्ला खाया था। बकौल महातम भइया,”क्या रसगुल्ला था भयवा कि बस पूछ मत।चार ठो में ही दोना भर गया।खूब बड़े-बड़े…छिलका इतना पतला कि मलमल जैसा और बीजा बस मकईके दाने जैसा। छीलते जाओ और गटकते जाओ। बहुत बड़े पेटू हुये तो भी चार ठो में ही अघा जाओगे।नटई (गले)तक आ जायेगा रसगुल्ला।
वास्तव में हर श्रम एक कला होती है जिसका अहसास उससे जुड़ने पर ही हो पाता है।
भैंस चराते हुये मुझे कई रहस्यमयी जानकारियां मिलीं। गांव के दक्खिन में दो महुए के विशाल पेड़ थे। उसमें दो सगी चुड़ैल बहनें रहा करती थीं और वो पूर्णमासी की रात को बउली(पोखरी) में स्नान कर नंगी ही नाचती थीं -रातभर। पकड़ी का लगभग सूखता पेड़ था। उस पेड़ पर सिरकटहा भूत था जो दिन दुपहरिया कई लोगों को पटक चुका था। अकेले पा जाता तो कुश्ती के लिये ललकारता …
पिताजी का आगमन हुआ। मां ने मेरे भविष्य के लिये चिंता जताई। गांव में रहकर मैं सिर्फ आवारा बन सकता था। पिता को मेरे लिये देखे स्वप्न बिखरते नजर आये- और यह सच भी था। मैं ठेठ, जाहिल और अभद्र चरवाहा बन गया था। कोइली को बउली ले जाकर रगड़-रगड़कर नहलाना। उसके दुहाने का प्रबंध करना। फिर फेने वाला एक गिलास दूध पीना। बहन-भाई ही नहीं, मां पर भी, रोब झाड़ना। किसी भी बात की परवाह न करना। मेरे भविष्य में सिर्फ अंधकार ही अंधकार था। अंत में पिताजी ने दो महत्वपूर्ण निर्णय लिये- मुझे अपने पास रखेंगे , कोइली को बेंच देंगे।
मैं शहर आ गया और फिर कोइली से कभी नहीं मिला।
पिताजी मुस्कराना नहीं जानते थे। लोहा छीलते-छीलते उनका दिल भी लोहे का हो गया था। मैं हमेशा उनके सामने सहमा-सहमा सा रहता था। मेरा मन एक लम्बेसमय तक उदास रहा। पढ़ाई में कभी मन नहीं लगा। खुले आकाश में उड़ने वाले पक्षी को पिंजड़े में बंद कर दिया गया ।
गुलाम अली की इस गजल के साथ जिंदगी के इन आवारा पन्नों को फिलहाल यहीं छोड़ता हूं:-
दिल की चोटों ने कभी चैन से रहने न दिया,
जब चली सर्द हवा मैंने तुझे याद किया,
इसका रोना नहीं क्यूं तुमने किया दिल बरबाद
इसका गम है बहुत देर में बरबाद किया।
भाई साहब,बेचैनी से जिन अंकों की भोला भाई प्रतीक्षा कर रहे हैं मैं उनको तुरंत पोस्ट कर रहा हूं। बचपन के मीत श्रंखला के संस्मरणों की उनकी यह अंतिम कडी़ है । दूसरे पहलुओं पर वे लिख रहे हैं जो जल्दी ही सामने आयेगा]
मैनें तो ईनाम मांगा था आपने तो कौन बनेगा करोड़पति के अंतिम पड़ाव पर पहुंचा दिया । अकल्पनीय खुशी हुई है प्रस्तुति देख कर । शायद अगले कुछ अंक बेचैनी भरे भी होंगे क्योंकि जिस दर्द को बरसों पहले जिया था और भुला दिया था वह एक बारगी पुनः जीवित हो उठा है । पर आज के परिवेश में उन लम्हों को पुनः जीना शायद कुछ बेहतर करने की प्रेरणा दे जाय । भैया को पुनः लेखन के लिये प्रेरित करने के लिये कोटिशः धन्यवाद ।
—-पप्पू—–
किस्सा तोता मैना बनाम चरवाहों की लंठई
मैं अब चरवाहा बन गया था। कोइली व उसके पड़वे को सुबह-शाम चराने ले जाने में अलौकिक सुख प्राप्त होता। चरवाहों में हर उम्र के लोग थे । आज सैंतीस वर्ष बाद मुझे सिर्फ दो लोगों के नाम ही याद हैं। एक तो महातम भइया दूसरे परानपत काका। परानपत काका की उम्र पचास साल के लगभग रही होगी, लेकिन बीमारी ने उन्हें काफी जर्जर बना दिया था। भैंस भी उनकी उतनी ही जर्जर थी। उनको वायु रोग हो था और हर दस-पन्द्रह मिनट पर जांघ उठाकर मुंह बनाकर गैस छोड़ते -धड़ाम। सच पूछो तो वे चरवाहों की टोली के चरते-फिरते बम थे। शुरु में मुझे बहुत हंसी आती फिर सब सामान्य हो गया।महातम भइया उन चरवाहों के सरगना थे तो परानपत काका मंत्री। बीस भैंसों व आठ चरवाहों वाले इस झुंड की न तो कोई जाति-पांत थी न ही कोई धर्म। जब तक वे भैंसों के साथ थे सिर्फ चरवाहे थे। महातम भइया के अतिरिक्त मैं ही था जिसने रेल या बस से यात्रा की थी। बाकी सब लोग गांव व उसके आसपास से ज्यादा की जानकारी नहीं रखते थे। मैं महातम भइया का छोटा भाई था और उस मंडली का सबसे योग्य व्यक्ति । महातम भइया के अनुसार,”पढ़ाओ न लिखाओ,शहर में बसाओ।”
मैं शहर से आया था। भोजपुरी की जगह खड़ी बोली बोलता था। धोती या गमछा की जगह हाफ पैंट पहनता था। सिर पर गमकउआ तेल लगाता था।मैं भी शहर के उल्टे-सीधे किस्से उन्हें सुनाने लगा जिनका कोई सिर पैर न होता और जो मेरी कल्पना की उपज होते। जब वो उत्सुकता में ज्यादा सवाल पूछते तो मैं महातम भइया की तरफ देखता और वे घुड़क देते,”अबे ससुरे,जब तुमही लोग सब समझ जाओगे तो भैंसवा कौन चरायेगा!”
महातम भइया अब मेरे लिये संसार के सबसे ज्ञानी गुरु थे। उनके पास ज्ञान का भंडार था। उन्होंने हाथी का दुर्लभ अंडा देखा था। हाथी को अंडा देते देखा व उस अंडे से बाद में बच्चा निकलते देखा। उन्होंने इमली वाली काली मैया के भी साक्षात दर्शन किये थे। वे अयोध्या जी भी गये थे। गोरखपुर तक ट्रेन से फिर बस से।महातम भैया बताते,”जब तक आदमी अजोध्याजी के दर्शन नहीं कर लेता तबतक उसका मानुस जीवन सफल नहीं होता। ना ही सुरग (स्वर्ग)में जगह मिलती है।
महातम भइया अब मेरे लिये संसार के सबसे ज्ञानी गुरु थे। उनके पास ज्ञान का भंडार था।
इस हिसाब से उनकी सीट स्वर्ग में पक्की थी। वो तीन बार अयोध्याजी हो आये
थे और अब चौथी बार जाने का जुगाड़ कर रहे थे। अयोध्याजी में सरजू नदी में
स्नाना करके पापी से पापी आदमी का पाप धुल जाता है। मैंने निश्चय किया कि
जब कभी मेरा जुगाड़ लगेगा तो मैं भी अयोध्या जी जाऊंगा। महातम भइया के पास किसी पुरैनी के मेले का भी एक किस्सा था।जहां उन्होंने पहली बार रसगुल्ला खाया था। बकौल महातम भइया,”क्या रसगुल्ला था भयवा कि बस पूछ मत।चार ठो में ही दोना भर गया।खूब बड़े-बड़े…छिलका इतना पतला कि मलमल जैसा और बीजा बस मकईके दाने जैसा। छीलते जाओ और गटकते जाओ। बहुत बड़े पेटू हुये तो भी चार ठो में ही अघा जाओगे।नटई (गले)तक आ जायेगा रसगुल्ला।
भैंस चराना भले आज निकृष्ट कार्य लगे पर आसान यह तब भी नहीं था और आज भी नहीं है।
परानपत काका और महातम भइया को देश-दुनिया के बारे में भले कोई जानकारी न
हो लेकिन भैंसों के बारे में पी.एच.डी. हासिल थी। भैंस कब गाभिन होगी, कब
बियायेगी ,पड़वा या पड़िया के पैदा होने होने की भविष्य वाणी भी शतप्रतिशत
सही होती थी। किसी के आम के बगीचे में चलते-चलाते आम तोड़ लेना। मकई के
रखवाले की आंखों में धूल झोंक कर भुट्टा तोड़कर एक हुनर था। भैंस के ऊपर
बैठे-बैठे गन्ना चूसना और साथ में यह ध्यान रखना कि भैंस सिर्फ दो खेतों के
बीच बनी मेड़ों पर ही घास चरे। यह भी एक कला थी। भैंस चराना भले आज
निकृष्ट कार्य लगे पर आसान यह तब भी नहीं था और आज भी नहीं है।वास्तव में हर श्रम एक कला होती है जिसका अहसास उससे जुड़ने पर ही हो पाता है।
भैंस चराते हुये मुझे कई रहस्यमयी जानकारियां मिलीं। गांव के दक्खिन में दो महुए के विशाल पेड़ थे। उसमें दो सगी चुड़ैल बहनें रहा करती थीं और वो पूर्णमासी की रात को बउली(पोखरी) में स्नान कर नंगी ही नाचती थीं -रातभर। पकड़ी का लगभग सूखता पेड़ था। उस पेड़ पर सिरकटहा भूत था जो दिन दुपहरिया कई लोगों को पटक चुका था। अकेले पा जाता तो कुश्ती के लिये ललकारता …
शहर को वापसी/लौट के बुद्धू….
चार महीने में ही मैं अपनी उम्र से बहुत बड़ा हो चुका था। जैसे कोई परी आयी और अपनी तिलस्मी छड़ी से छोटे से राजकुमार को जवान बना दिया। पर यथार्थ की दुनिया में मेरे लिये वो सारी जानकारियां वीभत्स थीं। मुझे उसी चरवाहों की पाठशाला में स्त्री-पुरुष संबंध की जानकारी मिली। स्त्री के गर्भ धारण का इतिहास तथा बिना औरत के भी स्त्री सुख प्राप्त करने की कला के बारे में भी इन्हीं चरवाहों ने बताया।पिताजी का आगमन हुआ। मां ने मेरे भविष्य के लिये चिंता जताई। गांव में रहकर मैं सिर्फ आवारा बन सकता था। पिता को मेरे लिये देखे स्वप्न बिखरते नजर आये- और यह सच भी था। मैं ठेठ, जाहिल और अभद्र चरवाहा बन गया था। कोइली को बउली ले जाकर रगड़-रगड़कर नहलाना। उसके दुहाने का प्रबंध करना। फिर फेने वाला एक गिलास दूध पीना। बहन-भाई ही नहीं, मां पर भी, रोब झाड़ना। किसी भी बात की परवाह न करना। मेरे भविष्य में सिर्फ अंधकार ही अंधकार था। अंत में पिताजी ने दो महत्वपूर्ण निर्णय लिये- मुझे अपने पास रखेंगे , कोइली को बेंच देंगे।
मैं शहर आ गया और फिर कोइली से कभी नहीं मिला।
पिताजी मुस्कराना नहीं जानते थे। लोहा छीलते-छीलते उनका दिल भी लोहे का हो गया था। मैं हमेशा उनके सामने सहमा-सहमा सा रहता था। मेरा मन एक लम्बेसमय तक उदास रहा। पढ़ाई में कभी मन नहीं लगा। खुले आकाश में उड़ने वाले पक्षी को पिंजड़े में बंद कर दिया गया ।
पिताजी मुस्कराना नहीं जानते थे। लोहा छीलते-छीलते उनका दिल भी लोहे का हो गया था। मैं हमेशा उनके सामने सहमा-सहमा सा रहता था।
मैं आज भी उस पिंजड़े में ही कैद हूं। गांव में अब सड़क भी है,बिजली भी
है,भैंसे भी हैं,महातम भैया भी हैं। वो सत्तर के आसपास के हो गये हैं। अब
भैंसे नहीं चराते। मेरी अब गांव जाने की इच्छा नहीं होती।गुलाम अली की इस गजल के साथ जिंदगी के इन आवारा पन्नों को फिलहाल यहीं छोड़ता हूं:-
दिल की चोटों ने कभी चैन से रहने न दिया,
जब चली सर्द हवा मैंने तुझे याद किया,
इसका रोना नहीं क्यूं तुमने किया दिल बरबाद
इसका गम है बहुत देर में बरबाद किया।
गोविंद उपाध्याय
Posted in संस्मरण | 16 Responses
हिन्दी के उत्थान के लिये जो अथक प्रयास आप कर रहे हैं वह जरूर रंग लायेगा | इंटरनेट पर हिन्दी “चिट्ठों” के इतिहास में आपका प्रयास स्वर्णाक्षरों में अंकित होगा, यह तो निश्चित है| वैसे एक बात जरूर कहना चाहूँगा कि जिस मर्मिक ढंग से प्रथम किस्त की शुरुआत हुई थी अन्त कुछ हल्का रहा | सिलसिला कुछ और आगे बढ्ना चहिए | वैसे प्रसंशक तो मै हूँ ही आपका लेकिन अब लती बनाते जा रहें है मुझे “चिट्ठों” का |
अतुल भैये,गोविंदजी का लिखना फ़िरे से शुरु हुआ है.ब्लाग बनाने के सुझाव की आशा तो हमेँ जीतेन्द्र से थी .वो बालक पिछड कैसेगया आज! बहरहाल इस बारे मेँ गोविँद जी से पूछा है .जैसा वे
कहेँगे किया जायेगा.यह लेख तो निरन्तर के लिये लिया था मैँने.अब भोला ने कहा इनाम दिया जाये तो यही मौका सही था कि उनको उनसे जुडा लेख पढा दिया जाये.
आपकी ब्लाग खोली ( कोईली ) तैयार हो गई समझिये!
ये होगा आपका नया पता – कोइली
आप बस ऐसे ही महुआ पिलाते रहेंगे वादा करना होगा बस्स.
कैसे प्रयोग करना है वो अनूप भाई बता देंगे. तब तक मै इसका रंग रोगन ठीक कर के आपके रहने लायक कर देता हूं!
और अनूप जी को कोई भी धन्यवाद नहीं बल्की शिकायत की ये सब पोस्ट करने का काम पहले क्यों नही किया गया?
लिखते देखते हो अपहरण करने की कोशिश में सुपारी दे
देते हो.प्रयास करता हूँ.ज्यादा दिन इन्त्जार नहीँ करना
पडेगा.
यह तुच्छ प्राणी शायद अपनी बात ठीक से समझा नहीं पाया । असल में मेरी टिप्पणी रचना की गुणॅवत्ता को लेकर नहीं थी । मेरे विचार (और भी शायद इससे सहमत हों) से जिस तरह से संस्मरण की शुरुआत हुई थी उससे लगता था कि यह काफी बृहद होगी । पर यह बीच में ही ऐसे खतम हो गई जैसे कोई जोरदार फुलझडी खत्म होने से पहले ही अचानक बुझ गयी हो । उम्मीद है जिस तरह से हम फुलझडी में दुबारा सुलगा लेते हैं वैसे ही सिलसिला पुनः चमक उठेगा ।
स्वामी जी, “कोइली” का निर्माण स्थल देखा । निर्माण कार्य के लिये साधुवाद । दरवाजे पर एक तस्वीर भी लगा दिजियेगा “कोइली” का ।
आशीष
Atul bahi ‘Ek mail ki duri’ wali line kahe ko chura li….Jeetu bhai ab kya likhenege
आप का धन्यवाद कि आप ने हमें गोविंद जी के दर्शन करा दिये। हम शहर में रहने वाले गांव के बारे में कुछ कम ही जानकारी रख्ते हैं। सिर्फ़ फ़िल्मों से वो जानकारी आती है,और वो तो पूर्णरुपेन सही हो ही नही सकती। गांव की जिन्दगी की इतनी सजीव प्रस्तुती के लिए धन्यवाद गोविंद जी को भी