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By फ़ुरसतिया on September 11, 2005
हम जब से ब्लागर हुये घरवालों की नजरों में गिर गये है.गैरजिम्मेदार
आइटम हो गये हैं.जिसको अपने ब्लाग के सिवा किसी से भी मतलब नहीं है.ये बहुत
बोझिल इमेज है.बहुत दिन हो गये जब ढोते-ढोते तो एक दिन सोचा कौन है वो
शख्स जिसने यह अफवाह उडा़ई.पता चला कि यह हमारी पत्नी की
ही धारणा है जिसको घर के बाकी सद्स्यों ने परवान चढाया .जब पूछा तो बताया
गया-इसमें झूठ क्या है? दिन-रात जुटे रहते हो लिखने-पढने कहीं ऐसा होता
है.मैने कहा देश-दुनिया के बारे में लिखता हूं ज्ञान बढता है.वो बोली -मुझे
तो नहीं दिखा कहीं बढा हुआ ज्ञान.तुम भ्रम के शिकार भी हो रहे हो.जितनी
जल्द हो सके छोड़ दो यह सब खुराफात.मैंने कहा- अच्छा चलो आज तुम्हारे ऊपर
कविता लिखते हैं.वो बोली -नहीं ,अभी नहीं ,अभी हमें तमाम काम पडे़
हैं.अच्छा जल्दी से सुनाऒ. मैंने सुनाया:-
कोहरे के चादर में लिपटी,
किसी गुलाब की पंखुङी पर
अलसाई सी,ठिठकी
ओस की बूंद हो.
नन्हा सूरज ,
तुम्हे बार-बार छूता ,खिलखिलाता है.
मैं,
सहमा सा दूर खड़ा
हवा के हर झोंके के साथ
तुम्हे गुलाब की छाती पर
कांपते देखता हूं.
अपनी हर धड़कन पर
मुझे सिहरन सी होती है
कि कहीं इससे चौंककर
तुम ,
फूल से नीचे न ढुलक जाओ.
वे बोली ये कविता कितनी बार सुनाओगे? ओस की बूंद तो उसी दिन सूख गई होगी जब सूरज ने उसे छुआ होगा. कुछ नया लिखा हो तो सुनाओ.मौका अच्छा मिला देखकर मैनें दूसरी कविता सुनाई:-
एक अजीब,
अनमना अनुभव है.
लगता है काम चल सकता है
बिना धड़कनों के भी-
बेकार ये शरीर घड़ी टिक-टिक करती है
एक मिनट में बहत्तर बार.
गुजरतीं हैं सामने से
लिपी-पुती,सजी-संवरी,
उत्फुल्ल,खिलखिलाती -
जिंदगियां सर्र से.
सिर्फ दिन गुजरता है
मंथर गति से,थका-थका
सूरज के पांव में मोच आ गयी हो जैसे
गिर ही पडे़गा मेरे ऊपर भहराकर.
मन करता है
दिन भी होते-कुम्हार की चाक से
घुमा देता पल भर में सैकड़ों-हजारों बार
बीत जाता अलगाव का समय देखते-देखते.
मैं तुमसे बताता-
हंसते हुये
‘देखो मैं भी क्या-क्या सोचता था-
तुमसे अलग रहने पर.’
पत्नी बोली इस कविता में दो दोष हैं.पहली बात तो यह कि यह अतीत के वियोग का गुणगान करती है.अगर किसी को अच्छी लग गयी तो ऐसी ही कविता लिखने के लिये घर त्यागने को उत्सुक हो सकता है.
मैंने कहा-क्या हमारी कविता में इतना दम है कि वह पाठक को सिद्धार्थ बना दे.वो बोली-संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता लेकिन यह भी हो सकता है कि कोई खाली घर से निकल जाये फिर चाहे कुछ करे या न करे.
मैंने कहा खैर दूसरा दोष क्या है? बताया गया कि कविता भौतिकीय विचलन का शिकार है.गैलिलियो तक को पता था कि सूरज धरती के चारो तरफ नहीं घूमता.तुमफिर सूरज को क्यों घुमा रहे हो? चलो अच्छा कोई अभी तुरन्त कोई कविता लिखो .देखें तुम खुद लिखते हो या से लिखवाते हो किसी से! कोई यथार्थवादी घरेलू कविता लिखो तो जाने.खैर जब चुनौती मिली तो हमने तुरन्त कविता लिख मारी .पढ़ी जाये:-
हम घिरे हैं पर बवालों से.
तुम बगल में बैठी हो
लगती हो सात तालों में.
कैसे कुछ धमाल जैसा हो
सवाल उठता है सवालों में.
जिस हम खुद कर नहीं सकते
कराया जाता है अपने लालों से.
बच्चा चुम्बनों की झडी़ लगाता है
मां के उष्ण,गीले होते गालों में.
गाल असहज हैं या लाल गुस्से में
लगता गुलाब घिर गया है गुलालों से.
क्या खुराफात सिखाते हो बच्चों को,
आंख मुस्काई घिर गये हम उजालों से.
हर उजाले की अपनी फितरत होती है
जानते हैं,जो हैं शामिल-चाहने वालों में.
हम सोच रहे थे कविता कुछ वाह-वाह करवायेगी.लेकिन वहां आवाज सुनाई दी-चलो ज्यादा समय मत बर्बाद करो,सब लोग खाना खा लो.
घरेलू कविता की यही (घरेलू) परिणति हो सकती है शायद!
ओस की बूंद
तुम,कोहरे के चादर में लिपटी,
किसी गुलाब की पंखुङी पर
अलसाई सी,ठिठकी
ओस की बूंद हो.
नन्हा सूरज ,
तुम्हे बार-बार छूता ,खिलखिलाता है.
मैं,
सहमा सा दूर खड़ा
हवा के हर झोंके के साथ
तुम्हे गुलाब की छाती पर
कांपते देखता हूं.
अपनी हर धड़कन पर
मुझे सिहरन सी होती है
कि कहीं इससे चौंककर
तुम ,
फूल से नीचे न ढुलक जाओ.
वे बोली ये कविता कितनी बार सुनाओगे? ओस की बूंद तो उसी दिन सूख गई होगी जब सूरज ने उसे छुआ होगा. कुछ नया लिखा हो तो सुनाओ.मौका अच्छा मिला देखकर मैनें दूसरी कविता सुनाई:-
अलगाव का समय
तुमसे बिछुड़कर रहना भीएक अजीब,
अनमना अनुभव है.
लगता है काम चल सकता है
बिना धड़कनों के भी-
बेकार ये शरीर घड़ी टिक-टिक करती है
एक मिनट में बहत्तर बार.
गुजरतीं हैं सामने से
लिपी-पुती,सजी-संवरी,
उत्फुल्ल,खिलखिलाती -
जिंदगियां सर्र से.
सिर्फ दिन गुजरता है
मंथर गति से,थका-थका
सूरज के पांव में मोच आ गयी हो जैसे
गिर ही पडे़गा मेरे ऊपर भहराकर.
मन करता है
दिन भी होते-कुम्हार की चाक से
घुमा देता पल भर में सैकड़ों-हजारों बार
बीत जाता अलगाव का समय देखते-देखते.
मैं तुमसे बताता-
हंसते हुये
‘देखो मैं भी क्या-क्या सोचता था-
तुमसे अलग रहने पर.’
पत्नी बोली इस कविता में दो दोष हैं.पहली बात तो यह कि यह अतीत के वियोग का गुणगान करती है.अगर किसी को अच्छी लग गयी तो ऐसी ही कविता लिखने के लिये घर त्यागने को उत्सुक हो सकता है.
मैंने कहा-क्या हमारी कविता में इतना दम है कि वह पाठक को सिद्धार्थ बना दे.वो बोली-संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता लेकिन यह भी हो सकता है कि कोई खाली घर से निकल जाये फिर चाहे कुछ करे या न करे.
मैंने कहा खैर दूसरा दोष क्या है? बताया गया कि कविता भौतिकीय विचलन का शिकार है.गैलिलियो तक को पता था कि सूरज धरती के चारो तरफ नहीं घूमता.तुमफिर सूरज को क्यों घुमा रहे हो? चलो अच्छा कोई अभी तुरन्त कोई कविता लिखो .देखें तुम खुद लिखते हो या से लिखवाते हो किसी से! कोई यथार्थवादी घरेलू कविता लिखो तो जाने.खैर जब चुनौती मिली तो हमने तुरन्त कविता लिख मारी .पढ़ी जाये:-
हम घिरे हैं बवालों से
घर घिरा है घरवालों से,हम घिरे हैं पर बवालों से.
तुम बगल में बैठी हो
लगती हो सात तालों में.
कैसे कुछ धमाल जैसा हो
सवाल उठता है सवालों में.
जिस हम खुद कर नहीं सकते
कराया जाता है अपने लालों से.
बच्चा चुम्बनों की झडी़ लगाता है
मां के उष्ण,गीले होते गालों में.
गाल असहज हैं या लाल गुस्से में
लगता गुलाब घिर गया है गुलालों से.
क्या खुराफात सिखाते हो बच्चों को,
आंख मुस्काई घिर गये हम उजालों से.
हर उजाले की अपनी फितरत होती है
जानते हैं,जो हैं शामिल-चाहने वालों में.
हम सोच रहे थे कविता कुछ वाह-वाह करवायेगी.लेकिन वहां आवाज सुनाई दी-चलो ज्यादा समय मत बर्बाद करो,सब लोग खाना खा लो.
घरेलू कविता की यही (घरेलू) परिणति हो सकती है शायद!
Posted in कविता, बस यूं ही | 24 Responses
–स
बढ़िया है।
नमक तेल और दालोँ मेँ
घर पुतवाओ, सब्जी लाओ
जूझो इन सवालोँ मेँ
महारथी की हो गयी शादी
जंग लग रही भालों में
भौजी को हमारा नमस्कार
मिलेंगे फिर कुछ सालों में
प्रत्यक्षा
इस पोस्ट पर एक तस्वीर और दरकार है , यानी दूसरी तस्वीर “कवि-पिता” और कनिष्ठ पुत्र की ।
-राजेश
भाभी जी की ओर से कुछ पंक्तियाँ
विश्व का जाल पकड़ के बैठे हो,
घर घिरा है मकड़ी के जालों से।
माउस-कीबोर्ड से नहीं फुरसत तुम को,
काम घर के कराते हो सालों से।
ये तो हम हैं कि घर चलाते हैं
पूछो कम चिट्ठे लिखने वालों से।
बहुत बढ़िया लिखा है। तबियत खुश होगयी। आप और आपके सुन्दर परिवार को बधाई।
लक्ष्मीनारायण
कोहरे के चादर में लिपटी,
किसी गुलाब की पंखुङी पर
अलसाई सी,ठिठकी
ओस की बूंद हो.
” kitne sunder prstutee hai, jvab nahee hum to pdhty hee reh gye sach ”
Regards
आपने अलग अलग रस की इन कविताओं को पिरोने के लिए जिस सर्जनात्मक सूझ का सहारा लिया व अपने सहज पत्नी्प्रेम को अभिव्यक्ति दी है, वह प्रशंसनीय है। इस बहाने आपके परिवार से मिलने का भी सुख मिल गया।
हाँ, एक बात तो कहना ही भूल गई।
आपके घर में कवि और आलोचक दोनों विद्यमान हैं, पत्नी से कहें कि उनके प्रति लिखी गई कविताओं को वे प्रिया वाले भाव से सुनें, आलोचकीयता के लिए हम लोग अपनी कविताएँ भिजवा दिया करेंगे।
चलेगा?
सोचता हूँ, आप जो ये लिंक न देते आज मुझे तो मैं तो वंचित ही रह जाता आपके इस “अवतार” से भी।
“ओस की बूंद” में जो इमेज की कल्पना उभरी है…अहा! और फिर कविता की आखिरी पंक्तियां और निहित कवि का मासूम-सा भय…ओहो! क्या सचमुच भाभी जी की वही प्रतिक्रिया थी? मैं नहीं मानता! वो तो निहाल हो गयी होंगी…
और “अलगाव आ समय” में सूरज का भहराकर गिर पड़ने की बात गुलज़ार की याद दिला गया।
गुजारिश है देव, इस “अवतार” झलकी बीच-बीच में दिखाते रहें आप…