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[प्रत्यक्षाजी के बारे में लिखे परिचयात्मक लेख में कथाकार गोविंद उपाध्याय के भाई भोला उपाध्याय ने आदतन गलती पकड़ ली तथा लिखा-
जो लोग गोविंद उपाध्याय से परिचित नहीं हैं उनकी जानकारी के लिये बता दूं कि गोविंदजी कानपुर के बहुचर्चित कथाकार हैं। लगभग १५० कहानियां देश की विभिन्न पत्रिकाओं में छप चुकी हैं। बुनो कहानी में भी दो कहानियों के समापन अंक उन्होंने लिखे। इधर लिखना कुछ कम सा हो गया था। लेकिन चिट्ठाकारों को पढ़ते-पढ़ते सुगबुगाहट फिर से होने लगी है। यह जानकर भोला भाई जरूर खुश होंगे।
फिलहाल तो किस्तों में गोविंद जी के संस्मरण जो बतौर इनाम उनके शुरुआती प्रूफरीडर,भोलानाथ उपाध्याय, के लिये खास-तौर से है जो कि इन्हीं संस्मरणों में पप्पू-गप्पू के रूप में मौजूद हैं।]
सब कुछ बिल्कुल वैसा ही नहीं होता जैसा आप चाहते हैं। यदि आप अपनी जिंदगी को छोटे-छोटे टुकड़ों में बांटें तो हर टुकड़ा एक मुकम्मल कहानी होगी। अनूप शुक्ला जी न मुझे ‘बचपन के मीत’ के बारे में लिखने को कहा था तो मैंने हामी तो भर दी थी लेकिन लिख नहीं पाया।
क्या लिखता भला? जब बचपन ही नहीं था मेरे जीवन में तो मीत कहां से होते! मेरे जीवन की यही सबसे बड़ी विडम्बना रही है। बचपन की अबोधता का अंकुरण भी नहीं हो पाया था कि जिंदगी की पाठशाला ने मुझे एक जिम्मेदार और संजीदा इंसान बना दिया।
फिर भी जो छोटा सा टुकड़ा बचपन का मेरे हिस्से में आया था,उसमें कोइली का तीन महीने का साथ मैं कभी नहीं भूल पाया। मेरा कोइली का साथ प्रकृति की दो विधाओं का संगम था। मैंने कोइली को खोया और खो दिया था हमेशा के लिये अपने बचपन को….
पिताजी के अंदर एक हताशा उगने लगी थी। रिश्तों के जंगल में ढेर सारे कैक्टस उनको अंदर ही अंदर लहूलुहान करने लगे थे। जिस भाई के परिवार को संभालने में अपनी जवानी के सुनहरे दिन गंवा दिये ,अधेड़ावस्था में अपना घर बसाया ,आज जब वही पौधे वृक्ष की शक्ल ले चुके थे तो उन्हें हासिये पर लाकर खड़ा कर दिया गया था। घर का बंटवारा होने जा रहा था। तब मैं कुछ नहीं समझता था। पर घर में कुछ ऐसा हुआ है जो शुभ नहीं है ,ऐसा अहसास जरूर था मुझे…
अचानक एक दिन मैं मां से पूछ बैठा, “अम्मा,क्या बात है,पिताजी चुप-चुप से क्यों रहते हैं?” अम्मा ने मेरी तरफ देखा। शायद वो सोंच रहीं थीं कि क्या उनका बेटा इतना समझदार हो गया है कि घर की समस्याओं को समझ सके। मां ने एक गहरी सांस छोड़ी ,मेरे सिर पर हाथ फेरा और बस इतना कहा, ” अब हम लोग घर चलेंगे,गांव में रहेंगे।”
“पिताजी भी…” मैंने उत्सुकता से पूछा था। तब मेरे लिये पिता वह वृक्ष थे जिसकी छांव में हम सब सुरक्षित थे। पर मां ने मेरी सारी आशाओं पर पानी फेर दिया। एक अज्ञात भय से थरथरा गया मैं जब मैंने सुना मां से,” नहीं, तुम्हारे पिताजी नौकरी करेंगे”।
हम सब गांव चले आये थे। देवरिया (अब कुशीनगर)जनपद का एक बेहद पिछड़ा सा गांव। जहां न सड़क थी और न बिजली।
रात के आगमन के साथ पूरा गांव स्याह लबादे में ढक जाता था। खेतों से हुआऽऽऽहुआऽऽऽ करते सियारों का कोरस तब हमें मृतआत्माओं के विलाप सा प्रतीत होता था।
पांच कमरे का खपड़ैल का मकान था। अंदर दालान और बाहर ओसारा । पिछवाड़े महिलाओं के लिये चहारदीवारियों से घिरा खुला मैदान। किसी जमाने में सम्पन्नता का प्रतीक रहा होगा यह पुश्तैनी मकान। अब जर्जर हालत में था। दो कमरे तो पूरी तरह गिर चुके थे। शेष दीवारों में पड़े बड़ी-बड़ी दरारें आने वाले समय में आने वाले समय में मकान की पूर्णरूप से धराशायी होने की चेतावनी दे रहे थे। फिर भी लोग रह रहे थे। दो कमरे ताऊजी की बहुओं के कब्जे में थे और एक रसोईघर के रूप में प्रतिस्थापित था। हमारे हिस्से में था सिर्फ बाहरी ओसारा(बरामदा)।
मां ने उसके आधे हिस्से में रसोई व घरेलू सामान अटा(रख) दिया था और बाकी में धान का पुआल बिछाकर हमारा ‘बेडरूम’बना दिया था। पिताजी हमारी जरूरतों का सामान एकत्रित कर फिर नौकरी के लिये कानपुर चले गये थे। अब उन्हें शहर में रहकर गांव में अपने बच्चों के लिये एक घोसले का इंतजाम करना था। एक सुरक्षित व मजबूत घोसला।
मां परदा करती थीं। ब्राह्मणों की बहुएं सूरज निकलने के बाद घर की चौखट नहीं लांघती थीं। पर यह एक हास्यास्पद बात थी कि जिस चौखट को सूरज डूबने के बाद लांघने की मेरी मां को मनाही थी उसी चौखट के बाहर मेरी मां अपने बच्चों समेत शरणार्थी जैसी रह रहीं थीं।
खेती की देखभाल के लिये एक नि:संतान वृद्ध दम्पति सामने आया। शंकर चचा ने जीवन के अंतिम समय तक हमारे परिवार की देखभाल की की। पप्पू-गप्पू गोल-मटोल से थे- बिल्कुल मैदे के आटे की तरह गोरे-गोरे…। उस नि:संतान दम्पति के लिये वो खिलौन थे। वे उन्हें कलेजे से लगाये रहते।
अब मर्दों के नाम पर घर में सबसे बड़ा मैं ही था। मां के लिये एक लक्ष्मण रेखा खिंची थी। उसके बाहर वे निकल नहीं सकतीं थीं। एकाएक मैं अपनी उम्र से बहुत बड़ा हो गया। मां को भतीजों के ताने और कड़ी आलोचना सहनी पड़ रही थी। हर जगह उन्हें अपमानित होना पड़ता था। तब वह मुझे गले से लगाकर रोतीं-”मुन्ना तू जल्दी से बड़ा हो जा….”
मेरे जीवन में अपने चचेरे भाइयों के प्रति एक आक्रोश पनपने लगा था। मैं कुछ भी कर पाने की स्थिति में नहीं था। पर उन दिनों एक बात मेरे मन में हमेशा रहती कि जब मैं ताकतवर बनूंगा तो उनसे बदला जरूर लूंगा।
एक झटके में मेरे बचपन अपनी आखिरी सांस ली और मैं एकाएक बड़े लोगों के बीच पहुंच गया। मैं अपने चचेरे भाइयों के बीच खड़ा होता तो वे मुझे खजहे पिल्ले की तरह दुत्कारते थे -सिवाय महातम भइया के….।
गांव के बच्चों के साथ खेलना मुझे अच्छा नहीं लगता था। वे बात-बेबात गाली-गलौज इतनी सहजता से करते मानो वह भी जिंदगी का अनिवार्य अंश हो। गंदे तो वो इतने रहते थे कि पूछो मत। ऊपर से लालची भी। तब तक मेरी जिंदगी में ‘गरीबी’ व ‘अभाव’ जैसे शब्द नहीं आये थे और मैं उन बच्चों की व्याख्या दूसरी तरह से ही करता था।
मुझे एक माह से ऊपर हो चुका था गांव आये और अब मेरे ऊपर किसी का हुक्म नहीं चलता था। ताऊजी अब मेरे घर के मुखिया नहीं थे। मेरा खेत उनसे अलग था। चचेरे भाई अब मेरे पट्टीदार थे। पट्टीदार प्रतिद्वंदी होता है। उम्र का कोई मतलब नहीं। गांव में दबदबा कायम करने के लिये ताकत की जरूरत होती है। ताकत अखाड़े में पहलवानी से आती है। यह सारे सूत्र मेरे छोटे से मस्तिष्क में बनने लगे थे।
पढ़िये अगली किस्त में
बन्दा गोविन्द जी का छोटा भाई है | उनके शुरुआती लेखन के दिनों में मैं उनका प्रूफ रीडर हुआ करता था | काम था हिज़्ज़ों की गलतियं सुधारना | बदले में नयी कहानी फ्री में पढने को मिल जाती थीं | आदतन अभी भी ध्यान गलतियों पर चला ही जाता है| प्रत्यक्षा जी के परिचय में “महात्मा बुद्ध की निर्वाण स्थली,गया” लिखा है | क्षमा सहित बताना चाहता हूं कि बुद्ध कि निर्वाण (मृत्यु)स्थली कुशीनगर है |अगर मैं सही हूं तो बदले में एक नई कहानी का पुरस्कार चाहूंगा |अब चूंकि गलती वाकई थी लिहाजा पकड़ने का इनाम भी देना लाजिमी था। हालांकि भोलाजी ने इनाम में मेरा लेख मांगा था। पर उनको उनका मुंहमांगा इनाम देने से पहले वो इनाम देना चाहूंगा जिसकी उनको आदत पड़ी है। गोविंद जी से मैंनेइंद्र अवस्थी द्वारा आयोजित अनुगूंज के विषय ,'मेरे बचपन के मीत', पर लिखने को कहा था। हामी भरने के बाद लिखते-लिखते कुछ दिन उन्होंने अपना संस्मरणात्मक लेख लिखा।
जो लोग गोविंद उपाध्याय से परिचित नहीं हैं उनकी जानकारी के लिये बता दूं कि गोविंदजी कानपुर के बहुचर्चित कथाकार हैं। लगभग १५० कहानियां देश की विभिन्न पत्रिकाओं में छप चुकी हैं। बुनो कहानी में भी दो कहानियों के समापन अंक उन्होंने लिखे। इधर लिखना कुछ कम सा हो गया था। लेकिन चिट्ठाकारों को पढ़ते-पढ़ते सुगबुगाहट फिर से होने लगी है। यह जानकर भोला भाई जरूर खुश होंगे।
फिलहाल तो किस्तों में गोविंद जी के संस्मरण जो बतौर इनाम उनके शुरुआती प्रूफरीडर,भोलानाथ उपाध्याय, के लिये खास-तौर से है जो कि इन्हीं संस्मरणों में पप्पू-गप्पू के रूप में मौजूद हैं।]
सब कुछ बिल्कुल वैसा ही नहीं होता जैसा आप चाहते हैं। यदि आप अपनी जिंदगी को छोटे-छोटे टुकड़ों में बांटें तो हर टुकड़ा एक मुकम्मल कहानी होगी। अनूप शुक्ला जी न मुझे ‘बचपन के मीत’ के बारे में लिखने को कहा था तो मैंने हामी तो भर दी थी लेकिन लिख नहीं पाया।
क्या लिखता भला? जब बचपन ही नहीं था मेरे जीवन में तो मीत कहां से होते! मेरे जीवन की यही सबसे बड़ी विडम्बना रही है। बचपन की अबोधता का अंकुरण भी नहीं हो पाया था कि जिंदगी की पाठशाला ने मुझे एक जिम्मेदार और संजीदा इंसान बना दिया।
फिर भी जो छोटा सा टुकड़ा बचपन का मेरे हिस्से में आया था,उसमें कोइली का तीन महीने का साथ मैं कभी नहीं भूल पाया। मेरा कोइली का साथ प्रकृति की दो विधाओं का संगम था। मैंने कोइली को खोया और खो दिया था हमेशा के लिये अपने बचपन को….
कहानी बचपन के मौत की
सन् १९६९ की बात है। मेरे हंसते-खेलते परिवार में एक बवंडर सा उठ खड़ा हुआ। न तो पिता में पहले जैसी सहजता थी और न ही मां पहले के समान वात्सल्य से मेरे मेरी पीठ थपथपातीं थीं। हर पल घर में मरघट सा सन्नाटा पसरा रहता। कोई भी आहट घर की हवा तक को चौंका देती थी। क्यूं हो गया था मेरे घर में ऐसा….?
बचपन की अबोधता का अंकुरण भी नहीं हो पाया था कि जिंदगी की पाठशाला ने मुझे एक जिम्मेदार और संजीदा इंसान बना दिया।
तब हम आधा दर्जन प्राणी थे। मां-पिता के बाद मैं । मुझसे छोटी गुड़िया
फिर पप्पू फिर गप्पू। गप्पू इतना छोटा था कि चलना तो दूर ठीक से बैठ भी
नहीं पाता था। पिताजी एक सरकारी कारखाने में मजदूर थे। ठीक-ठाक पगार थी और
हम सबका लालन-पालन भी ठीक से हो रहा था। मेरा बांया पैर खराब था और चलने
में भचकता था। पिताजी की तमन्ना थी कि मैं डाक्टर बनूं। मैं ठीक-ठाक स्कूल
में शिक्षा पा रहा था और बचपन की सतरंगी तितलियां उड़ा रहा था। पिताजी के अंदर एक हताशा उगने लगी थी। रिश्तों के जंगल में ढेर सारे कैक्टस उनको अंदर ही अंदर लहूलुहान करने लगे थे। जिस भाई के परिवार को संभालने में अपनी जवानी के सुनहरे दिन गंवा दिये ,अधेड़ावस्था में अपना घर बसाया ,आज जब वही पौधे वृक्ष की शक्ल ले चुके थे तो उन्हें हासिये पर लाकर खड़ा कर दिया गया था। घर का बंटवारा होने जा रहा था। तब मैं कुछ नहीं समझता था। पर घर में कुछ ऐसा हुआ है जो शुभ नहीं है ,ऐसा अहसास जरूर था मुझे…
अचानक एक दिन मैं मां से पूछ बैठा, “अम्मा,क्या बात है,पिताजी चुप-चुप से क्यों रहते हैं?” अम्मा ने मेरी तरफ देखा। शायद वो सोंच रहीं थीं कि क्या उनका बेटा इतना समझदार हो गया है कि घर की समस्याओं को समझ सके। मां ने एक गहरी सांस छोड़ी ,मेरे सिर पर हाथ फेरा और बस इतना कहा, ” अब हम लोग घर चलेंगे,गांव में रहेंगे।”
“पिताजी भी…” मैंने उत्सुकता से पूछा था। तब मेरे लिये पिता वह वृक्ष थे जिसकी छांव में हम सब सुरक्षित थे। पर मां ने मेरी सारी आशाओं पर पानी फेर दिया। एक अज्ञात भय से थरथरा गया मैं जब मैंने सुना मां से,” नहीं, तुम्हारे पिताजी नौकरी करेंगे”।
हम सब गांव चले आये थे। देवरिया (अब कुशीनगर)जनपद का एक बेहद पिछड़ा सा गांव। जहां न सड़क थी और न बिजली।
रात के आगमन के साथ पूरा गांव स्याह लबादे में ढक जाता था। खेतों से हुआऽऽऽहुआऽऽऽ करते सियारों का कोरस तब हमें मृतआत्माओं के विलाप सा प्रतीत होता था।
पांच कमरे का खपड़ैल का मकान था। अंदर दालान और बाहर ओसारा । पिछवाड़े महिलाओं के लिये चहारदीवारियों से घिरा खुला मैदान। किसी जमाने में सम्पन्नता का प्रतीक रहा होगा यह पुश्तैनी मकान। अब जर्जर हालत में था। दो कमरे तो पूरी तरह गिर चुके थे। शेष दीवारों में पड़े बड़ी-बड़ी दरारें आने वाले समय में आने वाले समय में मकान की पूर्णरूप से धराशायी होने की चेतावनी दे रहे थे। फिर भी लोग रह रहे थे। दो कमरे ताऊजी की बहुओं के कब्जे में थे और एक रसोईघर के रूप में प्रतिस्थापित था। हमारे हिस्से में था सिर्फ बाहरी ओसारा(बरामदा)।
मां ने उसके आधे हिस्से में रसोई व घरेलू सामान अटा(रख) दिया था और बाकी में धान का पुआल बिछाकर हमारा ‘बेडरूम’बना दिया था। पिताजी हमारी जरूरतों का सामान एकत्रित कर फिर नौकरी के लिये कानपुर चले गये थे। अब उन्हें शहर में रहकर गांव में अपने बच्चों के लिये एक घोसले का इंतजाम करना था। एक सुरक्षित व मजबूत घोसला।
मां परदा करती थीं। ब्राह्मणों की बहुएं सूरज निकलने के बाद घर की चौखट नहीं लांघती थीं। पर यह एक हास्यास्पद बात थी कि जिस चौखट को सूरज डूबने के बाद लांघने की मेरी मां को मनाही थी उसी चौखट के बाहर मेरी मां अपने बच्चों समेत शरणार्थी जैसी रह रहीं थीं।
जिस
चौखट को सूरज डूबने के बाद लांघने की मेरी मां को मनाही थी उसी चौखट के
बाहर मेरी मां अपने बच्चों समेत शरणार्थी जैसी रह रहीं थीं
मां फिर भी सारी औपचारिकतायें निभा रहीं थीं। एक लम्बा घूंघट…।चार
बच्चों की जिम्मेदारी। अपने ही लोग जो कल तक सम्मान में नजरे बिछाये रहते
थे,प्रतिद्वंदी के समान गिद्ध दृष्टि से देख रहे थे। ताऊजी के छोटे लड़के
,जो गांव की खेती संभालते थे,खेती का आधा हिस्सा निकल जाने के कारण हम
लोगों से काफी कुपित थे,”देखते हैं साले ये शहरी पिल्ले कितने दिन यहां
टिकते हैं।”खेती की देखभाल के लिये एक नि:संतान वृद्ध दम्पति सामने आया। शंकर चचा ने जीवन के अंतिम समय तक हमारे परिवार की देखभाल की की। पप्पू-गप्पू गोल-मटोल से थे- बिल्कुल मैदे के आटे की तरह गोरे-गोरे…। उस नि:संतान दम्पति के लिये वो खिलौन थे। वे उन्हें कलेजे से लगाये रहते।
अब मर्दों के नाम पर घर में सबसे बड़ा मैं ही था। मां के लिये एक लक्ष्मण रेखा खिंची थी। उसके बाहर वे निकल नहीं सकतीं थीं। एकाएक मैं अपनी उम्र से बहुत बड़ा हो गया। मां को भतीजों के ताने और कड़ी आलोचना सहनी पड़ रही थी। हर जगह उन्हें अपमानित होना पड़ता था। तब वह मुझे गले से लगाकर रोतीं-”मुन्ना तू जल्दी से बड़ा हो जा….”
मेरे जीवन में अपने चचेरे भाइयों के प्रति एक आक्रोश पनपने लगा था। मैं कुछ भी कर पाने की स्थिति में नहीं था। पर उन दिनों एक बात मेरे मन में हमेशा रहती कि जब मैं ताकतवर बनूंगा तो उनसे बदला जरूर लूंगा।
एक झटके में मेरे बचपन अपनी आखिरी सांस ली और मैं एकाएक बड़े लोगों के बीच पहुंच गया। मैं अपने चचेरे भाइयों के बीच खड़ा होता तो वे मुझे खजहे पिल्ले की तरह दुत्कारते थे -सिवाय महातम भइया के….।
गांव के बच्चों के साथ खेलना मुझे अच्छा नहीं लगता था। वे बात-बेबात गाली-गलौज इतनी सहजता से करते मानो वह भी जिंदगी का अनिवार्य अंश हो। गंदे तो वो इतने रहते थे कि पूछो मत। ऊपर से लालची भी। तब तक मेरी जिंदगी में ‘गरीबी’ व ‘अभाव’ जैसे शब्द नहीं आये थे और मैं उन बच्चों की व्याख्या दूसरी तरह से ही करता था।
मुझे एक माह से ऊपर हो चुका था गांव आये और अब मेरे ऊपर किसी का हुक्म नहीं चलता था। ताऊजी अब मेरे घर के मुखिया नहीं थे। मेरा खेत उनसे अलग था। चचेरे भाई अब मेरे पट्टीदार थे। पट्टीदार प्रतिद्वंदी होता है। उम्र का कोई मतलब नहीं। गांव में दबदबा कायम करने के लिये ताकत की जरूरत होती है। ताकत अखाड़े में पहलवानी से आती है। यह सारे सूत्र मेरे छोटे से मस्तिष्क में बनने लगे थे।
पढ़िये अगली किस्त में
कोइली आई मेरी जिंदगी में
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Posted in संस्मरण | 7 Responses
हिंदी ब्लागलेखन जब अपनी नई उंचाईयाँ छूता है मेरा सीना गर्व से फूल जाता है. देखो बच्चों इसे कहते हैं “लेखन” इस की टक्कर का कुछ लाओ तो जाने!! गोविंद उपाध्यायजी को पहली बार पढ रहा हूँ और उनसे आगे लिखते रहने की मनुहार है. फुर्सतिया जी दूसरी किस्त छाप दीजिए हम पीसी के आगे से हिलूंगा नही तब तक!
—-पप्पू—–