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पूर्णिमा वर्मन-जन्मदिन मुबारक
By फ़ुरसतिया on June 27, 2006
करीब दो साल पहले जब मैंने नेट का प्रयोग करना शुरू किया था तो हमारे मित्र गोविंद उपाध्याय ने अभिव्यक्ति पत्रिका के बारे में बताया। तब से मैं इसका नियमित पाठक हूँ। अभिव्यक्ति में उन दिनों हमारे कानपुर के कृष्ण बिहारी जी अपने जीवन के संस्मरण लिख रहे थे। हम उन बेबाक संस्मरणों को पढ़ते-पढ़ते अभिव्यक्ति से जुड़ते चले गये तथा उसके नियमित पाठक बनते चले गये। बाद में इसी पत्रिका में छपा रवि रतलामी का वह लेख जिसने मुझे ब्लाग जगत में घसीटा ।
अभिव्यक्ति कुछ दिन हमारी आदरणीय सी नेट पत्रिका रही। हम उसके पुराने अंक पढ़ते रहे। किसी भी लेखक कवि की कोई रचना खोजनी होती हम खट से अभिव्यक्ति को खोजते । आज भी यह हमारे लिये साहित्य सम्बंधित साम्रगी खोजने के लिये सम्पूर्ण भले न हो लेकिन एकमात्र विश्वनीय अड्डा है।
कुछ दिन बाद अभिव्यक्ति में हमारे साथियों की चहल-पहल बढ़ी। रविरतलामी के बाद फिर नयी शुरूआत अतुल से हुई। जब उनके अमेरिकी जीवन के संस्मरण अभिव्यक्ति में छपने शुरू हुये। हमें अभी भी अतुल की मिठाई का डिब्बा हाथ में थामे फोटो याद है जो उनके अभिव्यक्ति में लेख छपना शुरू होने उन्होंने पता नहीं किसको खिलाई हो लेकिन दिखाई सबको थी।बाद में उसी डिब्बे निकाल कर पंकज ने जलेबी सबके सामने रख दी थी।
फिर धीरे-धीरे ब्लागजगत के और साथी अभिव्यक्ति के लगभग नियमित लेखक होते गये। इनमें आशीष गर्ग,अतुल अरोरा,रमण कौल, विजय ठाकुर,जीतेंद्र चौधरी,इंद्र अवस्थी,अनूप शुक्ला भी शामिल थे। कुछ लिया तो कुछ दिया के तहत कुछ महारथी ऐसे भी थे जो अभिव्यक्ति के लेखक पहले थे वहां से होते हुये ब्लागजगत से जुड़े। प्रत्यक्षा तथा मानसी इनमें प्रमुख हैं।धीरे-धीरे यह सम्माननीय पत्रिका आदरणीय के साथ-साथ हमारी अपनी पत्रिका होती गई जिससे हमारा लगाव-जुड़ाव बढ़ता गया ।अब ऐसा विरला ही अंक होता है जिसमें हमारे साथियों की किसी न किसी रूप में भागेदारी न हो।
एक दिन ऐसे ही अपनी मेल देख रहा था तो याहू मैसेंजर भी खुला था। पता चला कि पूर्णिमा वर्मन जी हमसे बात करना चाहता हैं। हमारे लिये यह खुशी तथा गौरव की बात थी। बचपन से ही हम गुरुओं तथा सम्पादकों के प्रति अपने मन खास सम्मान रखते आये हैं। अपने काम की मजबूरी के तहत मुझे दो इंटर कालेज का प्रबंधन देखना पड़ता है । मुझे बहुत अटपटा लगता है जब उन विद्यालयों में जाने पर मुझसे हमारे शिक्षक साथी आदर जैसे भाव से बात करते हैं। यही बात सम्पादकों के साथ हैं। मैं बता नहीं सकता मुझे कितना असहज लगता रहा जब हर तरह से हमारे आदर की पात्र होने के साथ-साथ सम्पादिका होने के बावजूद पूर्णिमा जी मुझसे कहती हैं-अनूपजी आप कैसे हैं?
बहरहाल पूर्णिमाजी से बात हुई । कुछ कहानी चाहिये थी उनको गिरिराज किशोर की। हमने तब से लेकर अब तक सैकडो़ बार बात की होगी उनसे। कभी काम की ,ज्यादातर ऐसे ही। पूर्णिमा जी जब फुरसत में होंती हैं तो ढेर सारी बातें करती हैं।लेकिन जब अभिव्यक्ति या अनुभूति निकालने का समय होता है तो उनके बातचीत की शुरूआत नमस्ते से शुरू होकर फिर बात करते हैं में खतम हो जाती है बीच में कुछ बेहद जरूरी काम से संबंधित कुछ बातचीत ही होती है जिसमें भी प्रकाशन से सम्बंधित जानकारी ही एकमात्र मुद्दा होता है।काम के प्रति पूर्णिमा जी यही समर्पण ही वह कारक है कि अभिव्यक्ति सालों से हर सप्ताह नियमित रूप से प्रकाशित होती है,बिना किसी देरी के हर हफ्ते। अभिव्यक्ति और अनुभूति ,जिन्हें वे बड़े लगाव से अभि,अनु कहती हैं, को पूर्णिमाजी के सबसे नजदीकी होने का गर्व हासिल है।
वेब पर सदा हाजिर, दुनिया के हर कोने से हिंदी की आवाज को बुलंद करने के लिए तत्पर पूर्णिमा जी हिंदी का लोकप्रिय साहित्य नेट पर लाने के लिये सदैव प्रयासरत रहती हैं। मुझसे हमेशा कानपुर के सभी साहित्यकारों का लेखन नेट पर लाने का काम करने के लिये कहती रहती हैं। जिन दिनों मैं अपने स्वामीजी के साथ हैरी पाटर के जादू तथा हामिद के चिमटे की जुगलबंदी करा रहा था उन दिनों पूर्णिमाजी का विचार है कि देवकी नन्दन खत्री का चन्द्रकान्ता नेट पर लाया जाना चाहिये। धारावाहिक रूप में कुछ भाषा में बदलाव लाकर ताकि केवल खड़ी बोली से वास्ता रखने वाले पाठक भी इसका आनंद उठा सकें।
निरंतर के कुछ समय के लिये बंद होने पर वे बार-बार हम लोगों को उकसाती रहती थीं कि कैसे इतने मेहनती ,मेधावी लोग होकर एक नियमित मासिक पत्रिका नहीं निकाल सकते ? शायद उनके इस प्रोत्साहन का भी प्रभाव है नेपथ्य में कि निरंतर का फिर से प्रकाशन होना लगभग तय हो चुका है तथा शीघ्र ही यह नये कलेवर में पाठकों के सामने होगी।
सम्पादक के रूप में हर अंक के लिये पूरी तैयारी करना उनके स्वभाव में है। गुलमोहर विशेषांक में मुझसे रचना भेजने के लिये दो माह पहले कहा था। अपने सम्पादकीय में दुष्यन्त कुमार के शेर से सम्बंधित कुछ लाइनों का प्रसंग खोजने के लिये प्रख्यात लेखक कमलेश्वर की लिखी चर्चित किताब कितने पाकिस्तान देखकर मुझसे भेजने को कहा। फिर वह प्रसंग मैंने तीन बार किताब पूरी पलटकर भेजा(जिसके लिये बाकायदा तारीफ तथा शाबासी भी मिली) । अपने लेख के एक अंश के लिये इतनी खोजबीन करने की प्रवृत्ति उनके सिद्ध सम्पादक होने की कहानी कहती है।)
पूर्णिमा वर्मन बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न लेखिका,कवियत्री,सम्पादिका हैं। आज उनका ५१ वां जन्मदिन है। इस अवसर पर मैं उनको बधाई देता हूँ तथा भारतीय परम्परा के अनुसार कामना करता हूँ कि वे शतायु हों। यशस्वी हों। उनके हिंदी भाषा को समृद्ध करने के सारे प्रयास सफल हों।उनके काम का समुचित सम्मान हो।
यह लेख हड़बड़ी में लिखा जा रहा है। लेख का उद्धेश्य पूर्णिमाजी के व्यक्तित्व-कृतित्व की पड़ताल न होकर सिर्फ उनको जन्मदिन के अवसर पर शुभकामनायें प्रेषित करना है। उनके लेखन के बारे में तथा व्यक्तित्व के बारे में फिर कभी आराम से लिखा जायेगा। वैसे उनके बारे में रुचि रखने वाले पाठकों से अनुरोध है कि इस पोस्ट को फिर-फिर देखते रहें क्योंकि जो लिंक छूट गये हैं वे मैं शामिल करता रहूंगा। कोई बड़ी बात नहीं कि कुछ लेख भी लम्बा होता जाय। आज की मेरी पसंद में मैं पूर्णिमाजी की ही वह कविता दे रहा हूँ जो उन्होंने अभिव्यक्ति में उपहार स्तंभ के अंतर्गत जन्मदिन की बधाई देने के लिये खासतौर पर लिखी है तथा जिसे मैं अपने तमाम दोस्तों को ग्रीटिंग कार्ड के रूप में भेज चुका हूँ।
एक बार फिर पूर्णिमाजी को उनके जन्मदिन के अवसर पर हार्दिक बधाई।
मेरी पसंद
सूचना:- अगली पोस्ट में पढ़ें -पूर्णिमा वर्मन से साक्षात्कार
अभिव्यक्ति कुछ दिन हमारी आदरणीय सी नेट पत्रिका रही। हम उसके पुराने अंक पढ़ते रहे। किसी भी लेखक कवि की कोई रचना खोजनी होती हम खट से अभिव्यक्ति को खोजते । आज भी यह हमारे लिये साहित्य सम्बंधित साम्रगी खोजने के लिये सम्पूर्ण भले न हो लेकिन एकमात्र विश्वनीय अड्डा है।
कुछ दिन बाद अभिव्यक्ति में हमारे साथियों की चहल-पहल बढ़ी। रविरतलामी के बाद फिर नयी शुरूआत अतुल से हुई। जब उनके अमेरिकी जीवन के संस्मरण अभिव्यक्ति में छपने शुरू हुये। हमें अभी भी अतुल की मिठाई का डिब्बा हाथ में थामे फोटो याद है जो उनके अभिव्यक्ति में लेख छपना शुरू होने उन्होंने पता नहीं किसको खिलाई हो लेकिन दिखाई सबको थी।बाद में उसी डिब्बे निकाल कर पंकज ने जलेबी सबके सामने रख दी थी।
फिर धीरे-धीरे ब्लागजगत के और साथी अभिव्यक्ति के लगभग नियमित लेखक होते गये। इनमें आशीष गर्ग,अतुल अरोरा,रमण कौल, विजय ठाकुर,जीतेंद्र चौधरी,इंद्र अवस्थी,अनूप शुक्ला भी शामिल थे। कुछ लिया तो कुछ दिया के तहत कुछ महारथी ऐसे भी थे जो अभिव्यक्ति के लेखक पहले थे वहां से होते हुये ब्लागजगत से जुड़े। प्रत्यक्षा तथा मानसी इनमें प्रमुख हैं।धीरे-धीरे यह सम्माननीय पत्रिका आदरणीय के साथ-साथ हमारी अपनी पत्रिका होती गई जिससे हमारा लगाव-जुड़ाव बढ़ता गया ।अब ऐसा विरला ही अंक होता है जिसमें हमारे साथियों की किसी न किसी रूप में भागेदारी न हो।
एक दिन ऐसे ही अपनी मेल देख रहा था तो याहू मैसेंजर भी खुला था। पता चला कि पूर्णिमा वर्मन जी हमसे बात करना चाहता हैं। हमारे लिये यह खुशी तथा गौरव की बात थी। बचपन से ही हम गुरुओं तथा सम्पादकों के प्रति अपने मन खास सम्मान रखते आये हैं। अपने काम की मजबूरी के तहत मुझे दो इंटर कालेज का प्रबंधन देखना पड़ता है । मुझे बहुत अटपटा लगता है जब उन विद्यालयों में जाने पर मुझसे हमारे शिक्षक साथी आदर जैसे भाव से बात करते हैं। यही बात सम्पादकों के साथ हैं। मैं बता नहीं सकता मुझे कितना असहज लगता रहा जब हर तरह से हमारे आदर की पात्र होने के साथ-साथ सम्पादिका होने के बावजूद पूर्णिमा जी मुझसे कहती हैं-अनूपजी आप कैसे हैं?
बहरहाल पूर्णिमाजी से बात हुई । कुछ कहानी चाहिये थी उनको गिरिराज किशोर की। हमने तब से लेकर अब तक सैकडो़ बार बात की होगी उनसे। कभी काम की ,ज्यादातर ऐसे ही। पूर्णिमा जी जब फुरसत में होंती हैं तो ढेर सारी बातें करती हैं।लेकिन जब अभिव्यक्ति या अनुभूति निकालने का समय होता है तो उनके बातचीत की शुरूआत नमस्ते से शुरू होकर फिर बात करते हैं में खतम हो जाती है बीच में कुछ बेहद जरूरी काम से संबंधित कुछ बातचीत ही होती है जिसमें भी प्रकाशन से सम्बंधित जानकारी ही एकमात्र मुद्दा होता है।काम के प्रति पूर्णिमा जी यही समर्पण ही वह कारक है कि अभिव्यक्ति सालों से हर सप्ताह नियमित रूप से प्रकाशित होती है,बिना किसी देरी के हर हफ्ते। अभिव्यक्ति और अनुभूति ,जिन्हें वे बड़े लगाव से अभि,अनु कहती हैं, को पूर्णिमाजी के सबसे नजदीकी होने का गर्व हासिल है।
अपनों के संग सब मेले हों/सच सपने सब अलबेले हों/किस्मत करे श्रंगार!/जन्मदिन आये बारंबार!
हिंदी के प्रचार-प्रसार के बारे में ढेर सारी योजनाओ से लेकर याहू में
नमस्ते का आइकन कैसे लाया जाय तक। हिंदी का सारा अच्छा साहित्य नेट पर लाने
की उनकी नित नयी कोशिशें चलती रहती हैं। इन कोशिशों में जहाँ गौरवगाथा
जैसे प्रयास हैं जिनमें कालजयी लेखकों की मील का पत्थर मानी जाने वाली
रचनायें हैं वहीं चिट्ठा पंडित जैसी गतिविधियां भी हैं जिनमें लेखन सागर
में एकदम ताजा छलांग लगाने वाले के प्रयासों का भी जिक्र है। वेब पर सदा हाजिर, दुनिया के हर कोने से हिंदी की आवाज को बुलंद करने के लिए तत्पर पूर्णिमा जी हिंदी का लोकप्रिय साहित्य नेट पर लाने के लिये सदैव प्रयासरत रहती हैं। मुझसे हमेशा कानपुर के सभी साहित्यकारों का लेखन नेट पर लाने का काम करने के लिये कहती रहती हैं। जिन दिनों मैं अपने स्वामीजी के साथ हैरी पाटर के जादू तथा हामिद के चिमटे की जुगलबंदी करा रहा था उन दिनों पूर्णिमाजी का विचार है कि देवकी नन्दन खत्री का चन्द्रकान्ता नेट पर लाया जाना चाहिये। धारावाहिक रूप में कुछ भाषा में बदलाव लाकर ताकि केवल खड़ी बोली से वास्ता रखने वाले पाठक भी इसका आनंद उठा सकें।
उमर की लंबी डगर रहे/साथ मित्रों का बसर रहे/
मान मर्यादा अजर रहे/साल भर सुंदर सफर रहे।
पूर्णिमाजी का विश्वास है कि “मुट्ठी भर संकल्पवान लोग जिनकी अपने लक्ष्य में दृढ आस्था है, इतिहास की धारा को बदल सकते हैं।”
नेट पर हिंदी की बढ़ती गतिविधियां उनके इस विश्वास को सच में बदलने का
प्रयास हैं। पूर्णिमा जी के अभिव्यक्ति के माध्यम से देश-दुनिया में हर जगह
उनके सम्पर्क सूत्र फैले हैं-खास कर हिंदी कला तथा साहित्य से संबंध रखने
वाले। निरंतर की शुरूआत में जो लेख उन्होंने लिखा था उसमें अभिव्यक्ति के
प्रारम्भ से लेकर उस समय के प्रसार तक के बारे में लिखा
गया था। किस तरह एकल प्रयास से शुरू होकर पत्रिका इस रूप में पहुंची कि
विदेशों में हिंदी अध्ययन के लिये संदर्भ पत्रिका के रूप में मानी जाती है।मान मर्यादा अजर रहे/साल भर सुंदर सफर रहे।
निरंतर के कुछ समय के लिये बंद होने पर वे बार-बार हम लोगों को उकसाती रहती थीं कि कैसे इतने मेहनती ,मेधावी लोग होकर एक नियमित मासिक पत्रिका नहीं निकाल सकते ? शायद उनके इस प्रोत्साहन का भी प्रभाव है नेपथ्य में कि निरंतर का फिर से प्रकाशन होना लगभग तय हो चुका है तथा शीघ्र ही यह नये कलेवर में पाठकों के सामने होगी।
फूल भरा सुंदर गुलदस्ता/देखो कहता हंसता हंसता/दुख का जीवन में ना भय हो/जन्मदिवस शुभ मंगलमय हो
पूर्णिमा जी ने अपने इलाहाबाद के दिनों में तमाम अखबारों के लिये
संवाददाता का काम किया। इलाहाबाद की ट्रेनिंग उनके अभिव्यक्ति के संपादन
में झलकती है। सनसनीखेज लेखन को तथा उछालने से परहेज रखते हुये विवादों से
बचकर अपना काम करते रहना उनकी सफलता का मूलमंत्र है शायद। पूर्णिमाजी
अभिव्यक्ति की सफलता का श्रेय सामूहिक रूप से अपनी टीम को देती हैं तथा इस
बात पर जोर भी देती हैं कि उनके साथियों दीपिका जोशी तथा प्रो.आश्विन गांधी जैसे उनके साथियों की मेहनत तथा सहयोग के बिना उनका कोई काम सफल नहीं हो सकता।सम्पादक के रूप में हर अंक के लिये पूरी तैयारी करना उनके स्वभाव में है। गुलमोहर विशेषांक में मुझसे रचना भेजने के लिये दो माह पहले कहा था। अपने सम्पादकीय में दुष्यन्त कुमार के शेर से सम्बंधित कुछ लाइनों का प्रसंग खोजने के लिये प्रख्यात लेखक कमलेश्वर की लिखी चर्चित किताब कितने पाकिस्तान देखकर मुझसे भेजने को कहा। फिर वह प्रसंग मैंने तीन बार किताब पूरी पलटकर भेजा(जिसके लिये बाकायदा तारीफ तथा शाबासी भी मिली) । अपने लेख के एक अंश के लिये इतनी खोजबीन करने की प्रवृत्ति उनके सिद्ध सम्पादक होने की कहानी कहती है।)
पूर्णिमा वर्मन बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न लेखिका,कवियत्री,सम्पादिका हैं। आज उनका ५१ वां जन्मदिन है। इस अवसर पर मैं उनको बधाई देता हूँ तथा भारतीय परम्परा के अनुसार कामना करता हूँ कि वे शतायु हों। यशस्वी हों। उनके हिंदी भाषा को समृद्ध करने के सारे प्रयास सफल हों।उनके काम का समुचित सम्मान हो।
यह लेख हड़बड़ी में लिखा जा रहा है। लेख का उद्धेश्य पूर्णिमाजी के व्यक्तित्व-कृतित्व की पड़ताल न होकर सिर्फ उनको जन्मदिन के अवसर पर शुभकामनायें प्रेषित करना है। उनके लेखन के बारे में तथा व्यक्तित्व के बारे में फिर कभी आराम से लिखा जायेगा। वैसे उनके बारे में रुचि रखने वाले पाठकों से अनुरोध है कि इस पोस्ट को फिर-फिर देखते रहें क्योंकि जो लिंक छूट गये हैं वे मैं शामिल करता रहूंगा। कोई बड़ी बात नहीं कि कुछ लेख भी लम्बा होता जाय। आज की मेरी पसंद में मैं पूर्णिमाजी की ही वह कविता दे रहा हूँ जो उन्होंने अभिव्यक्ति में उपहार स्तंभ के अंतर्गत जन्मदिन की बधाई देने के लिये खासतौर पर लिखी है तथा जिसे मैं अपने तमाम दोस्तों को ग्रीटिंग कार्ड के रूप में भेज चुका हूँ।
एक बार फिर पूर्णिमाजी को उनके जन्मदिन के अवसर पर हार्दिक बधाई।
मेरी पसंद
जन्मदिवस के इस अवसर परपूर्णिमा वर्मन
थोड़ा सा तो न्याय हो जाय
गुमसुम से बैठे हैं हम तुम
चलो एक कप चाय हो जाय।
धूम धडा़का किया उम्र भर
जीवन जी भर जिया उम्र भर
आज सुखद यह शीतल मौसम
कल की यादों में डूबा मन
खिड़की में यह सुबह सुहानी
यों ही ना बेकार हो जाय
चलो एक कप चाय हो जाय।
खुशबू हो हमने महकाई
देखो दुनिया ने अपनाई
जगह-जगह लगते हैं मेले
हम क्यों बैठे यहाँ अकेले
नयी तुम्हारी इस किताब का
ज़रा एक अध्याय हो जाय
चलो एक कप चाय हो जाय।
फूल भरा सुंदर गुलदस्ता
देखो कहता हंसता हंसता
दुख का जीवन में ना भय हो
जन्मदिवस शुभ मंगलमय हो
नानखताई का डिब्बा खोलो
मुंह मीठा एक बार हो जाय
चलो एक कप चाय हो जाय।
सूचना:- अगली पोस्ट में पढ़ें -पूर्णिमा वर्मन से साक्षात्कार
Posted in इनसे मिलिये, सूचना | 26 Responses
Aap ne sachmuch abhivyakti se jure longon ki bhawnao ke anuroop yeh patra likha hai badhai ke paatra hain.Purnima ji ka hindi ke liye adhuni yug main yogdan shabdon main vyakt karna athin hai.Aisa lagta hai ki aap ne jo kuchh bhee likha hai woh abhi-anu ke har pathak ke bhawnaon ki abhivyakti hai. Padh kar yeh lagta hai haan aisa to hamare sath bhee hua .Etnee vyastataon ke vawjood purnima ji ka vyaktigat sampark sarahneeya hai.
मै भी अभिव्यक्ति का एक नियमीत पाठक हूं, हर सप्ताह इस पत्रीका का इंतजार रहता है।
आशीष
-प्रेमलता पांडे
चलते चलते अनूप भाई को साधुवाद है जो हिंदी साहित्यकारो और ब्लागरों का जन्मदिन इतने हिसाब से याद रखते हैं कि हमारे सरीखे अलाल टिप्पणी के जरिये बधाई धर्म निभाने का अवसर मिल जाता है ।
हिन्दी के संसार को अभिव्यक्ति और अनुभूति जैसे तोहफ़े देने के लिए पूर्णिमा जी को सहृदय धन्यवाद। मेरे लिए भी इंटरनेट पर हिन्दी का पहला सार्थक संपर्क अभिव्यक्ति के द्वारा ही हुआ है।
अनूप
हिन्दी में खासकर भारत में जन्मदिवस पर लेखकों को बधाई देने की परंपरा का लोप मन को सालता है । हिन्दी पट्टी के लोग लगता है स्वार्थी होते जा रहे हैं । शायद भौतिकता, यांत्रिकता और मनवाद के जगह पर धनवाद के कारण (कृपया इसे धनबाद) न समझें ।
कहते हैं भाषा और साहित्य दो दिलों को जोड़ते हैं । दोनों सेतु ही होते हैं । इस समय सोचता हूँ कि भाषा के आदि समय में कैसे हमारे पूर्वजों से अक्षरों और शब्दों को अपने जीवन के लिए संरक्षित किया होगा । उसे एक अर्थ दिया होगा । और साहित्य ने उसे लगातार मौखक पंरपरा से समृद्ध किया होगा । कितने महान थे हमारे पूर्वज जिन्होंने हमें भाषा का उपहार दिया । साहित्यकारों ने हमें उन्नत भाषा के माध्यम से संस्कारित किया । सोचिए तो लगता है हम जो भी है भाषा और हमारे साहित्य के कारण ही हैं- यानी कि इंसान । हम भाषा या वाक् या शब्द या साहित्य के बिना क्या है आखिर । जहाँ वाक् नहीं होता, जहाँ शब्द नहीं होता वहाँ एक महाशुन्य होता है । अर्थात् यदि भाषा नहीं होती तो हम कुछ भी नहीं होते । और ऐसे ही भाषा संरक्षिका, शब्दशिल्पी आदरणीया पूर्णिमा दीदी के जन्म दिन का स्मरण कराकर आपने सचमुच अनुप जी हमें तो उपहार दिया ही है दीदी की उदारता और तन्यमता को विशेष सम्मान दिया है । यही सृजन का सम्मान है । यही स्वयं के होने का सम्मान है । हम हर रचनाकार का उत्तरदायित्व होता है कि हम वरिष्ठ और मार्गदर्शक पीढ़ी का स्मरण करें । उनका अभिनंदन करें । कम से कम शब्दों से । धन से ही सम्मान नहीं होता । सच तो यह है कि धन का सम्मान तो कर्पूर की तरह उड़ जाता है । मन का सम्मान तो अजर अमर है । शब्दों के माध्यम से आपने जो उन्हें रेखांकित किया है वह ऐतिहासिक है । शायद किसी प्रधानमंत्री को भी किसी अंतरजाल साइट पर ऐसी वंदना का सौभाग्य नहीं मिला होगा । आपसे मुझे अब ईर्ष्या होने लगी है । ……….. । हम पूर्णतः भारतीय होकर, भारत में रहकर भी अपनी दीदी को आपसे पहले जन्मदिवस की बधाई नहीं दे सके । आपकी सदाशयता को मैं नमन करना चाहता हूँ ।
पूर्णिमा मेरी ही नहीं हिन्दी वालों की दीदी हैं । वे हिन्दी के लोकव्यापीकरण का पर्याय बन चुकी हैं । नेट भले ही किसी की खोज हो । हिन्दी को नेट पर लाकर उसे वैश्विक बनाने में जिनके योगदान का जिक्र इतिहास करेगा उसमें पूर्णिमा जी भी समादृत होंगी ।
पूर्णिमा को चन्द्रमा पूर्णतः वलयाकार होता है । किसी भी कोण से उसमें निर्मलता के अलावा कोई भाव नहीं होता । वह सरस होता है । वह सरल होता है । वह उज्ज्वल तो होता ही है । पूर्णिमा भारतीय तंत्र में और अध्यात्म में भी कम महत्वपूर्ण नहीं । साहित्य तो उसके बिना सूना है । मैं उनके माता-पिता को भी इस अवसर पर स्मरण करना चाहूंगा कि वे भी माटीपूत्र थे जिनके आँगन में ऐसी साहित्यसाधिका पली बढ़ी । और आज हिन्दी का समाज जिस पर गर्व करता है । पूर्णिमा जी को आपके माध्यम से पुनः नमन । उनकी साधना को नमन । उनकी चेतना को नमन ।
मैं यहाँ भारत में देखता हूँ । खासकर शासकीय गलियारों में । हिन्दी का सत्यानाश करने पर सारा तंत्र जुटा हुआ है । हिन्दी के नाम पर जितनी भी दुकाने खुली हुई है सबमें बासीपन है और मात्र औपचारिकता । परायी भाषा को माँ कहा जा रहा है और मातृभाषा को बेवा की तरह रखा जा रहा है । ऐसे ही समाज के भीतर से निकल कर कोई जब पूर्णिमा वर्मन बन जाता है तो मुझे और मेरे जैसे किसी हिन्दी प्रेमी को तोष होता है कि अभी भी हम हारे नहीं है । अभी भी हिन्दी का पताके को समूचे विश्व में फहराने का हौसला जुटा सकते हैं हम ।
पूर्णिमा जी को जैसा मैंने और जितना जाना है- उसके प्रकाश में कहा जा सकता है कि वे सुकोमल चित्त की मालकिन हैं । उनके लेखन में प्रकृति की उद्दातता रस बनकर टपकती है । शब्दों जैसे उनके इशारे पर नाचते हैं । मन के भाव जैसे होते हैं शब्दों के माध्यम से वैसे ही और उसी गति और लय से अर्थात् संपूर्णतः कह पाने का कौशल कम साहित्यकारों में देखा जाता है । यह हम सब महसूसते भी हैं । पूर्णिमा जी की रचना में वह आलोक है जिसे गंभीरता से भाषाविज्ञानी मन से देखने पर मैने हर बार पाया है कि वे शब्दों को साध चुकी हैं । यह बात उनके प्रतीक और बिंब चयन से ज्ञात होता है । बिंब केवल ऋंगार नहीं साहित्य में वह दृष्टि और सृष्टि के मध्य का रास्ता भी है । उनके बिंब इसकी गवाही देती हैं । खैर.. यह जगह उनकी रचनात्मकता को परखने का समय नहीं है । यह फिर कभी
पूर्णिमा जी सदाशयता की प्रतिमूर्ति हैं । वे परम सहयोगी है उस भाषासेवी के जो हिन्दी के लिए कुछ करना चाहता है । प्रोत्साहन करने में तो वे मेरी छोटी सी दुनिया में सबसे अव्वल जान पड़ती हैं । मैं ही क्यों मेरा बेटा जो मात्र 13 साल का है उनके सहयोग और प्रेरणा से प्रभावित है । मुझे सर्वप्रथम अंतरजाल पर प्रकाशित करने वाली पूर्णिमा जी ही हैं । http://www.srijangatha.com दरअसल उनकी संवेदना के पथ का अनुसरण है जिसका दूसरा अंक जुलाई 1 2006 को आ रहा है ।
महिला होकर भी अपने माटी से दूर रहकर इतना तटस्थ क्रियाशील होना । निर्विवाद लेखन और प्रकाशन करना । शिविरबाज साहित्यकारो के जाल में न उलझना । विश्व के लेखक बिरादरी से सतत् जुडे रहना कोई सीखना चाहता है तो दीदी से सीखे । आपकी बात आप जाने मैं तो उन्हें अपना मार्गदर्शक मानता हूँ ।
आज मन कर रहा है कि मैं उन्हे दो भाषाओं में बधाई दूं । क्योंकि आप सब तो हिन्दी मे बधाई दे ही चुके हैं ।
पहला उडिया होने के कारण— आपणंकर जन्म दिबस फेरि-फेरि आसू थाऊ । हामें सबू छूआ माने सहे बरस तक जीऊँ आउ पूर्णिमा भउँणी हामर सबु जनंकर जन्म दिवस रे पूणि-पूणि सहे (100 वर्ष) बरस र उमर बृद्धि पाऊँ थाउँ ।
छत्तीसगढ़ी भाषा वाले राज्य में रहने के कारण – दीदी तोर जनम दिन सकल संसार ला याद रही जाय । तें हम जम्मे झन के उमर पा जा । आऊ अइसनेच हिन्दी आऊ भाखा के सेवा करत रहस । जम्मो लईका पिचका डाहर ले जनमदिन के गाडा-गाड़ा बधाई पहुँचे ।
शायद इसलिए की वे माटी की मान हैं । और माटी की गंध लोकभाषा में ज्यादा होती है …
जयप्रकाश मानस
http://www.srijangatha.com
‘व्यक्तित्व की पूर्णता का नाम ही पूर्णिमा वर्मन है’ मैं जितेंद्र दवे जी से पूर्णतः सहमत हूं। आज ‘अभि-अनू’ और पूर्णिमा ही मेरे प्रेरणास्रोत हैं।
दीपिका जोशी ‘संध्या’
आप सबके स्नेह, सहयोग, समय, सदभावना, सहृदयता और इतनी सारी शुभकामनाएं पाकर अभिभूत हूं। जन्मदिन का ऐसा उपहार शायद ही पहले किसी ने पाया हो। हार्दिक आभार। सबसे बहुत कुछ कहना है पर वह आराम से अपने चिट्ठे पर।
आप सबकी मुझे हमेशा ज़रूरत रहेगी क्यों कि यह काम एक दो या तीन लोगों का नहीं। आशा है सदा की तरह मेरे आवाज़ देने पर आपकी आवाज़ भी सुनाई देगी।
धन्यवाद और मंगलकामनाओं के साथ,
पूर्णिमा वर्मन
लिए रौशनी अपनी
मन में तब तब ही
तरंगें बहुत उठी
लिये भंगिमा नेह की
बांटे सौम्य मधुरता
लिये अनुभूति एक विभूति
बांचे काव्य कथा
लिया वर मन काव्य से
बिखेर पुर्णिमा अपनी
स्वीकार करें वह पूर्णिमा
बधाई जन्म दिवस की.
-रेणु आहूजा.
उन्हें हमारी संस्था ने गत वर्ष राष्ट्रीय सम्मान पद्मभूषण झाबरमल्ल शर्मा सम्मान से सम्मानित किया था । वे यहाँ रायपुर आये थे । खैर…..
क्या आप पूर्णिमा जी पर प्रकाशित आलेख को rewrite कर कुछ नयी जानकारियों के साथ भेज सकते हैं ? हम srijangatha.com में प्रकाशित करना चाहेंगे । अपने विचार से अवगत कराना चाहें । उस साक्षात्कार के लिए पुनः आपको बधाई
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Ramesh vishvahar
Vishvahar@yahoo.co.in
Raipur, Chhattisgarh(INDIA)
Rasik Bihari Awadhia ke Kavita bahut achchha lagis, aap la badhaee au rasik bhai ghalok la.
ramesh vishvahar
चाहत का अम्बार मिले ,,,,,
खुशियाँ समृधि रहे सुखमय ,,,
स्वह्र्दय में अति अनुराग लसे ,,,
मनोकामना पूर्ण हो उनकी ,,,,
चाहत का संसार मिले ,,,
अह्लाद सदा अनुकंपित हो ,,,
नेह स्व प्रेम निछावर को ,
रवि अनुराग भरे ऐसा ,,,
विज्ञान का भाव जगे जैसा ,,,
शशि शीतल भाव भरे निसदिन ,,
मलयागिरि मंद सुगंध बहे ,,
नवजीवन का अहसास रहे ,,
चाहत का अम्बार मिले ,,,,
खुशियाँ समृधि रहे सुखमय ,,,
सतत ही आता रहे,
मधुर डे ,,,
जीवन में नव उत्साह भरे ,,
सद्भाव सदा जागृत होवे ,
नभ मंडल भी गुणगान
करे ,,,
जन्मदिन मुबारक हो उनको ,,,,
चाहत का अम्बार मिले ,,,,
पूर्णिमा वर्मन जी
काश आज आपका जन्मदिन होता
मुझे जन्मदिन की शुभकामना ,
देने का एहसास होता ,
दो शब्द लिखने नया अंदाज होता
जो भी हो जन्मदिन ,का
दिन कुछ विशेष होता है ,,,
नव जीवन का एहसास
होता है ,,
देर से आये हैं ,
आपके जन्मदिन का मुबारक देने ,
रब जिन्दगी की खुशियाँ ,
बिखेरे चाँद की तरह ,
जिन्दगी सलामत रहे
आफताब [रवि]
की तरह ,,
जन्मदिन की कोटि -कोटि
हार्दिक शुभकामना
राजकिशोर मिश्र [प्रतापगढ़ ]
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