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लिखिये तो छपाइये भी न!
By फ़ुरसतिया on October 17, 2006
पिछ्ले शनिवार को हम लखनऊ गये थे। अपने घर की
लाटरी के सिलसिले में। सारे घर लगभग बन गये हैं अब नम्बर ‘अलाट’ होने हैं।
लाटरी ठीक दस बजे शुरू हो गयी। कई नाम पुकारे गये लेकिन वे आये नहीं थे और
उनको उनकी अनुपस्थिति में नंबर दे दिये गये। हम पहले ऐसे ‘अलाटी’ थे जो
अपनी नाम की लाटरी के समय वहां मौजूद था। घर का नम्बर निकला २४। कोने से
दूसरा घर, पश्चिम की तरफ मुंह। हम तुरंत गये घर और उसकी खूबियां गिननी शुरू
कर दीं। साथ ही साथ सोचते जा रहे थे कि फरवरी में होने वाली रजिस्ट्री के
पैसे का जुगाड़ कैसे करेंगे!
यात्रा के समय मैं अपने साथ किताबें जरूर ले जाता हूं। मैं अपने साथ पहल ८३ का अंक ले गया था और साथ में थी कानपुर से निकलने वाली पत्रिका अकार। पहल अनियतकालीन पत्रिका है जिसका कि सम्पादन प्रख्यात कथाकार ज्ञानरंजन करते हैं। जबलपुर से निकलने वाली इस पत्रिका का लगभग हर अंक संग्रहणीय होता है। पहल निकालने के साथ-साथ ज्ञानरंजनजी साल में एक बार किसी रचनाकार को पहल सम्मान से सम्मानित करते हैं। इस सम्मान की खासियत यह है कि पहल की टीम इसमें रचनाकार को उसके शहर में जाकर सम्मानित करती है। इस सम्मान की पुरस्कार राशि कम जरूर है लेकिन हिंदी में दिये जाने वाले पुरस्कारों में यह अपने ढंग का अनूठा पुरस्कार है जो केवल अच्छे रचनाकार को दिया जाता है और कोई जुगाड़ या मुंह देखी नहीं होती इसमें। अकार का संपादन कानपुर के गिरिराज किशोर जी करते हैं। इसमें अक्सर विचारोत्तेजक लेख पढ़ने को मिलते हैं।
दूसरा लेख मैंने पढ़ा प्रख्यात कथाकार कृष्ण बलदेव वैद की डायरी के कुछ अंश। एक प्रख्यात कथाकार की डायरी पढ़कर लगता है कि सारे रचनाकार एक जैसे होते हैं। उनके लेखों में तमाम जगह इस बात का जिक्र है कि रचना भेजी, वापस आयी, दूसरी जगह भेज दी। वापस आयी तीसरी जगह भेज दी। कई-कई दिन हो गये कुछ समझ में ही नहीं आ रहा है क्या लिखें! और मजे कि बात अगले के पास किराये के पैसे नहीं और वह इंतजार कर रहा है कि घर से पैसे आयें तो होटल का बिल चुकाकर घर वापस जाये हिल स्टेशन से या बंबई से। डायरी में एक जगह मुल्कराज आनंद का जिक्र है कि कैसे उन्होंने अभाव के दिनों में लंदन में केवल चाय पी-पीकर अपना उपन्यास अनटचेबल लिखा था।
पता नहीं आपको कैसा लगता है लेकिन मुझे कृष्ण बलदेव वैद की डायरी पढ़ते समय अपने तमाम ब्लागर साथियों के लेख याद आ रहे थे और यह कहने का मन कर रहा था कि ब्लाग में लिखने के साथ-साथ अपने लेख, कहानियां, कवितायें जगह-जगह पत्र-पत्रिकाऒं में छपने के लिये भेजते रहें- बिना इस बात की परवाह किये कि वे छपेंगी या नहीं। मुझे अपने तमाम साथियों की रचनायें इस स्तर की लगती हैं जो थोड़े फेर बदल के साथ आराम से पत्र-पत्रिकाऒं में छपने के लायक हो सकती हैं और सच पूछिये तो कुछ साथियों की रचनाऒं का स्तर तो ऐसा है कि वे जिस पत्रिका में छपेंगी उसका स्तर ऊपर उठेगा। मेरा सुझाव है इस दिशा में सोचा जाये और हिचक और आलस्य को परे धकेल कर अपनी रचनायें छपने के लिये भेजने का प्रयास किया जाये। अब लगभग सारे अखबार, पत्रिकायें नेट से कम से कम इतना तो जुड़े ही हैं कि उनका अपना एक ई-मेल आई डी हो। मतलब आपका छापाखाना आपसे मात्र एक ई-मेल की दूरी पर है। तो शुरू करिये न अपने लिखे हुये को छपाने का प्रयास!
श्रीलाल शुक्लजी से मेरे मिलने जाने का कारण यह भी था कि मैं उनकी किताब रागदरबारी को इंटरनेट पर डालना चाहता हूं। इस बारे में कल मैंने जब बात की तो बोले कि मेरी तरफ़ से तो आपत्ति नहीं है लेकिन मैं प्रकाशक से एक बार बात कर लूं तब बताउंगा। उन्होंने यह भी आश्वासन दिया कि अगर प्रकाशक को कानूनन कोई एतराज होगा तो वे उसे समझा लेंगे।
लखनऊ यात्रा के बारे में फिलहाल इतना। शेष फिर कभी। तब तक आप दूसरे साथियों के चिट्ठे पढ़िये न! और जब वो भी कर लें तो अपना लिखिये लेकिन यह विचार जरूर करिये कि लिखना है तो छपाना भी है। लिखिये तो छपाइये भी न! क्या बुराई है?
यात्रा के समय मैं अपने साथ किताबें जरूर ले जाता हूं। मैं अपने साथ पहल ८३ का अंक ले गया था और साथ में थी कानपुर से निकलने वाली पत्रिका अकार। पहल अनियतकालीन पत्रिका है जिसका कि सम्पादन प्रख्यात कथाकार ज्ञानरंजन करते हैं। जबलपुर से निकलने वाली इस पत्रिका का लगभग हर अंक संग्रहणीय होता है। पहल निकालने के साथ-साथ ज्ञानरंजनजी साल में एक बार किसी रचनाकार को पहल सम्मान से सम्मानित करते हैं। इस सम्मान की खासियत यह है कि पहल की टीम इसमें रचनाकार को उसके शहर में जाकर सम्मानित करती है। इस सम्मान की पुरस्कार राशि कम जरूर है लेकिन हिंदी में दिये जाने वाले पुरस्कारों में यह अपने ढंग का अनूठा पुरस्कार है जो केवल अच्छे रचनाकार को दिया जाता है और कोई जुगाड़ या मुंह देखी नहीं होती इसमें। अकार का संपादन कानपुर के गिरिराज किशोर जी करते हैं। इसमें अक्सर विचारोत्तेजक लेख पढ़ने को मिलते हैं।
यौवन
नवीन भाव, नवीन विचार ग्रहण करने की तत्परता का नाम है। यौवन साहस,
उत्साह, निर्भयता, और खतरे भरी जिंदगी का नाम है। यौवन लीक से बच निकलने की
इच्छा का नाम है। और सबसे ऊपर, बेहिचक बेवकूफी करने का नाम यौवन है।
पहल ८३ में इस बार अमृतलाल वेगड़ का यात्रा संस्मरण
छपा है- बूढ़ी नदी और बूढ़ा यात्री। जानकारी के लिये बता दूं कि ७५ वर्ष के
वेगड़ जी दो बार पूरी नर्मदा की पदयात्रा कर चुके हैं और हिंदी और मातृभाषा
गुजराती में अनेको किताबें लिख चुके हैं तथा दोनों भाषाऒं मे अनेक
पुरस्कार पा चुके हैं। ७५ वर्ष की उम्र पूरी करने के बाद एक बार फिर नर्मदा
प्रेम उमड़ा तो पत्नी को साथ लेकर चल पड़े फिर से नर्मदा की परिक्रमा करने
-पैदल। इसी यात्रा के संस्मरण लिखें हैं वेगड़ जी ने अपने लेख में। लेख को
पढ़्कर हरिशंकर परसाई की बात याद आती है- यौवन
सिर्फ काले बालों का नाम नहीं है। यौवन नवीन भाव, नवीन विचार ग्रहण करने
की तत्परता का नाम है। यौवन साहस, उत्साह, निर्भयता, और खतरे भरी जिंदगी का
नाम है। यौवन लीक से बच निकलने की इच्छा का नाम है। और सबसे ऊपर, बेहिचक
बेवकूफी करने का नाम यौवन है।दूसरा लेख मैंने पढ़ा प्रख्यात कथाकार कृष्ण बलदेव वैद की डायरी के कुछ अंश। एक प्रख्यात कथाकार की डायरी पढ़कर लगता है कि सारे रचनाकार एक जैसे होते हैं। उनके लेखों में तमाम जगह इस बात का जिक्र है कि रचना भेजी, वापस आयी, दूसरी जगह भेज दी। वापस आयी तीसरी जगह भेज दी। कई-कई दिन हो गये कुछ समझ में ही नहीं आ रहा है क्या लिखें! और मजे कि बात अगले के पास किराये के पैसे नहीं और वह इंतजार कर रहा है कि घर से पैसे आयें तो होटल का बिल चुकाकर घर वापस जाये हिल स्टेशन से या बंबई से। डायरी में एक जगह मुल्कराज आनंद का जिक्र है कि कैसे उन्होंने अभाव के दिनों में लंदन में केवल चाय पी-पीकर अपना उपन्यास अनटचेबल लिखा था।
पता नहीं आपको कैसा लगता है लेकिन मुझे कृष्ण बलदेव वैद की डायरी पढ़ते समय अपने तमाम ब्लागर साथियों के लेख याद आ रहे थे और यह कहने का मन कर रहा था कि ब्लाग में लिखने के साथ-साथ अपने लेख, कहानियां, कवितायें जगह-जगह पत्र-पत्रिकाऒं में छपने के लिये भेजते रहें- बिना इस बात की परवाह किये कि वे छपेंगी या नहीं। मुझे अपने तमाम साथियों की रचनायें इस स्तर की लगती हैं जो थोड़े फेर बदल के साथ आराम से पत्र-पत्रिकाऒं में छपने के लायक हो सकती हैं और सच पूछिये तो कुछ साथियों की रचनाऒं का स्तर तो ऐसा है कि वे जिस पत्रिका में छपेंगी उसका स्तर ऊपर उठेगा। मेरा सुझाव है इस दिशा में सोचा जाये और हिचक और आलस्य को परे धकेल कर अपनी रचनायें छपने के लिये भेजने का प्रयास किया जाये। अब लगभग सारे अखबार, पत्रिकायें नेट से कम से कम इतना तो जुड़े ही हैं कि उनका अपना एक ई-मेल आई डी हो। मतलब आपका छापाखाना आपसे मात्र एक ई-मेल की दूरी पर है। तो शुरू करिये न अपने लिखे हुये को छपाने का प्रयास!
सच पूछिये तो कुछ साथियों की रचनाऒं का स्तर तो ऐसा है कि वे जिस पत्रिका में छपेंगी उसका स्तर ऊपर उठेगा
शनिवार की शाम को मैं श्रीलाल शुक्लजी
से मिलने उनके घर गया। पता चला विश्वविद्यालय गये हैं किसी किताब का
विमोचन करने। अस्वथता के कारण बहुत दिन बाद घर से निकले थे। अगले दिन का
अखबार देखा तो उनका वक्तव्य छपा था जिसका सार था – आजकल अच्छी कहानियां महिलायें ही लिख रही हैं।
अगले दिन सबेरे ही मैं चला आया तो मुलाकात नहीं हो पायी लेकिन कल फोन से
बात हुयी तो पूछा कि अगली बार कब आयेंगे लखनऊओ! मैने कहा आपके जन्मदिन
पर(३१ दिसम्बर) तो अवश्य आऊंगा उसके पहले का कुछ तय नहीं।श्रीलाल शुक्लजी से मेरे मिलने जाने का कारण यह भी था कि मैं उनकी किताब रागदरबारी को इंटरनेट पर डालना चाहता हूं। इस बारे में कल मैंने जब बात की तो बोले कि मेरी तरफ़ से तो आपत्ति नहीं है लेकिन मैं प्रकाशक से एक बार बात कर लूं तब बताउंगा। उन्होंने यह भी आश्वासन दिया कि अगर प्रकाशक को कानूनन कोई एतराज होगा तो वे उसे समझा लेंगे।
लखनऊ यात्रा के बारे में फिलहाल इतना। शेष फिर कभी। तब तक आप दूसरे साथियों के चिट्ठे पढ़िये न! और जब वो भी कर लें तो अपना लिखिये लेकिन यह विचार जरूर करिये कि लिखना है तो छपाना भी है। लिखिये तो छपाइये भी न! क्या बुराई है?
Posted in बस यूं ही | 18 Responses
बाकी के लेख पर – टीपीकल – अच्छी जानकारी है.
और आप भी लिखिये तो छपाईये भी न
सुखकर बसेरा हो — कलरव हो,मधुमय हो, सुखमय सवेरा हो ।।
बसेरे के लिए बधाई ! आशा है आवंटित मकान बहुत जल्द चहल-पहल से भरे घर में तब्दील हो्गा ।
लेख बहुत बढिया एवं उत्साहवर्धक है. जरुर छपवाने का प्रयास करना एक सही दिशा
में सही निर्णय होगा क्योंकि ब्लाग के माध्यम से आप केवल सीमित पाठकों तक ही अपनी विचार पहूँचा पाते हैं.
आपका लेख पढ़कर इस दिशा में जरुर जागरुकता आयेगी.
सौहार्द्र और अनुराग बनें उत्तर दक्षिण की दीवारें
पूरब में टँगा रहे सूरज, संझवाती हर दिन हो द्वारे
मौसम की गलियों से आकर,नित करें बहारें मनुहारें
शुभकामनायें
लगता है आपने यह पोस्ट नहीं पढ़ा -
http://hindini.com/ravi/?p=119
एक ईमानदार अफसर बैंक से ऋण लेकर ही तो घर बनवा सकता है!
बहरहाल, आपके स्वप्निल आशियाने के लिए बधाई!
“राग दरबारी” को नेट पर डालने का विचार बहुत अच्छा है.अगर बात आगे बढे तो बताइयेगा, जितना भी हो सकेगा सहयोग करूँगा.
नये घर की शुभ्कामनयें
अच्छी पुस्तकों को ईटरनेट पर डालने का अभियान अच्छा हो सकता है जो हमारी धरोहरों को कालजयी, सर्वव्यापी, सहज उप्लब्ध और सदा के लिये अमर बना सकता है।
http://www.new.dli.ernet.in/