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ठिठुरता हुआ गणतंत्र
By फ़ुरसतिया on January 26, 2007
[आज गणतंत्र-दिवस है। इस मौके पर मैंहरिशंकर परसाईजीका लिखा अपनी पसंद का एक लेख पोस्ट कर रहा हूं- ठिठुरता हुआ गणतंत्र।
यह लेख मुझे कई कारणों से पसंद है। आज के मौके पर जब समाजवाद की बातें भी
होनी बन्द हो गयीं हैं और भूमंडलीकरण, मुक्त अर्थव्यवस्था के हल्ले में
समाजवाद की आवाजें मध्यम हो गयीं हैं, यह लेख एक प्रतिबद्ध लेखक की चिंताओं
से हमें परिचित कराता है। लेखक का कथन -'इस देश में जो जिसके लिये प्रतिबद्ध है, वही उसे नष्ट कर रहा है' किसी भी संवेदनशील मन को बहुत कुछ सोचने के लिये बाध्य करता है। मेरी पसंद में आज प्रख्यात जनवादी कवि-पत्रकार स्व. रघुवीर सहाय की कविता अधिनायक पोस्ट की जा रही है। ]
देखता, तब मौसम बड़ा क्रूर रहता। छ्ब्बीस जनवरी के पहले ऊपर बर्फ़ पड़ जाती है। शीत-लहर आती है, बादल छा जाते हैं, बूंदाबांदी होती है और सूर्य छिप जाता है। जैसे दिल्ली की अपनी कोई अर्थनीति नहीं है, वैसे ही अपना मौसम भी नहीं है। अर्थनीति जैसे डालर, पौण्ड, रुपया, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष या भारत सहायता क्लब
से तय होती है, वैसे ही दिल्ली का मौसम कश्मीर, सिक्किम, राजस्थान आदि तय करते हैं।
इतना बेवकूफ़ भी नहीं कि मान लूं , जिस साल मैं समारोह देखता हूं, उसी साल ऐसा मौसम रहता है। हर साल देखने वाले बताते हैं कि हर गणतन्त्र-दिवस पर मौसम ऐसा ही धूपहीन ठिठुरनवाला होता है।
आखिर बात क्या है? रहस्य क्या है?
दिये। सूर्य को बाहर निकालने के लिये सौ वर्ष दिये, मगर हर साल उसका छोटा-मोटा कोना तो निकलता दिखना चाहिये। सूर्य कोई बच्चा तो है नहीं जो अन्तरिक्ष की कोख में अटका है, जिसे आप आपरेशन करके एक दिन में निकाल देंगे।
इधर जब कांग्रेस के दो हिस्से हो गये तब मैंने एक इंडिकेटी कांग्रेस से पूछा। उसने कहा-’हम हर बार सूर्य को बादलों से बाहर निकालने की कोशिश करते थे, पर हर बार सिण्डीकेट वाले अडंगा डाल देते थे। अब हम वादा करते हैं कि अगले गणतन्त्र दिवस पर सूर्य को निकालकर बतायेंगे।
एक सिण्डीकेटी पास खडा़ सुन रहा था। वह बोल पड़ा- ‘यह लेडी(प्रधानमंत्री) कम्युनिस्टों के चक्कर में आ गई है।वही उसे उकसा रहे हैं कि सूर्य को निकालो। उन्हें उम्मीद है कि बादलों के पीछे से उनका प्यारा ‘लाल सूरज’ निकलेगा। हम कहते हैं कि सूर्य को निकालने की क्या जरूरत है? क्या बादलों को हटाने से काम नहीं चल सकता?
मैं संसोपाई भाई से पूछ्ता हूं। वह कहता है-’सूर्य गैर-कांग्रेसवाद पर अमल कर रहा है। उसने डाक्टर लोहिया के कहने पर हमारा पार्टी-फार्म दिया था। कांग्रेसी प्रधानंमंत्री को सलामी लेते वह कैसे देख सकता है? किसी गैर-कांग्रेसी को प्रधानमंत्री बना दो, तो सूर्य क्या ,उसके अच्छे भी निकल पड़ेंगे।
जनसंघी भाई से भी पूछा। उसने कहा-’ सूर्य सेक्युलर होता तो इस सरकार की परेड में निकला आता। इस सरकार से आशा मत करो कि भगवान अंशुमाली को निकाल सकेगी। हमारे राज्य में ही सूर्य निकलेगा।
साम्यवादी ने मुझसे साफ़ कहा-’ यह सब सी.आई.ए. का षडयंत्र है। सातवें बेड़े से बादल दिल्ली भेजे जाते हैं।’
स्वतन्त्र पार्टी के नेता ने कहा-’ रूस का पिछलग्गू बनने का और क्या नतीजा होगा?
प्रसोपा भाई ने अनमने ढंग से कहा-’ सवाल पेचीदा है। नेशनल कौंशिल की अगली बैठक में इसका फ़ैसला होगा। तब बताउंगा।’
राजाजी से मैं मिल न सका। मिलता, तो वह इसके सिवा क्या कहते कि इस राज में तारे निकलते हैं, यही गनीमत है।’
मैं इन्तजार करूंगा, जब भी सूर्य निकले।
स्वतंत्रता-दिवस भी तो भरी बरसात में होता है। अंग्रेज बहुत चालाक हैं। भरी बरसात में स्वतन्त्र करके चले गये। उस कपटी प्रेमी की तरह भागे, जो प्रेमिका का छाता भी ले जाये। वह बेचारी भीगती बस-स्टैण्ड जाती है, तो उसे प्रेमी की नहीं, छाता-चोर की याद सताती है।
मैं ओवरकोट में हाथ डाले परेड देखता हूं। प्रधानमंत्री किसी विदेशी मेहमान के साथ खुली गाड़ी में निकलती हैं। रेडियो टिप्पणीकार कहता है-’घोर करतल-ध्वनि हो रही है।’ मैं देख रहा हूं, नहीं हो रही है। हम सब तो कोट में हाथ डाले बैठे हैं।बाहर निकालने का जी नहीं हो रहा है। हाथ अकड़ जायेंगे।
लेकिन हम नहीं बजा रहे हैं, फिर भी तालियां बज रहीं हैं। मैदान में जमीन पर बैठे वे लोग बजा रहे हैं, जिनके पास हाथ गरमाने के लिये कोट नहीं है। लगता है,
गणतन्त्र ठिठुरते हुये हाथों की तालियों पर टिका है। गणतन्त्र को उन्हीं हाथों की ताली मिलतीं हैं, जिनके मालिक के पास हाथ छिपाने के लिये गर्म कपडा़ नहीं है।
पर कुछ लोग कहते हैं-’गरीबी मिटनी चाहिये।’ तभी दूसरे कहते हैं-’ऐसा कहने वाले प्रजातन्त्र के लिये खतरा पैदा कर रहे हैं।’
गणतंत्र-समारोह में हर राज्य की झांकी निकलती है। ये अपने राज्य का सही प्रतिनिधित्व नहीं करतीं। ‘सत्यमेव जयते’ हमारा मोटो है मगर झांकियां झूठ बोलती हैं। इनमें विकास-कार्य, जनजीवन इतिहास आदि रहते हैं। असल में हर राज्य को उस विशिष्ट बात को यहां प्रदर्शित करना चाहिये
मैं एक सपना देखता हूं। समाजवाद आ गया है और वह बस्ती के बाहर टीले पर खड़ा है। बस्ती के लोग आरती सजाकर उसका स्वागत करने को तैयार खड़े हैं।पर टीले को घेरे खड़े हैं कई समाजवादी। उनमें से हरेक लोगों से कहकर आया है कि समाजवाद को हाथ पकड़कर मैं ही लाऊंगा।
समाजवाद टीले से चिल्लाता है-’मुझे बस्ती में ले चलो।’
मगर टीले को घेरे समाजवादी कहते हैं -’पहले यह तय होगा कि कौन तेरा हाथ पकड़कर ले जायेगा।’
समाजवाद की घेराबंदी कर रखी है। संसोपा-प्रसोपावाले जनतान्त्रिक समाजवादी हैं, पीपुल्स डेमोक्रेसी और नेशनल डेमोक्रेसीवाले समाजवादी हैं। क्रान्तिकारी समाजवादी हैं। हरेक समाजवाद का हाथ पकड़कर उसे बस्ती में ले जाकर लोगों से कहना चाहता है-’ लो, मैं समाजवाद ले आया।’
समाजवाद परेशान है। उधर जनता भी परेशान है। समाजवाद आने को तैयार खड़ा है, मगर समाजवादियों में आपस में धौल-धप्पा हो रहा है। समाजवाद एक तरफ
उतरना चाहता है कि उस पर पत्थर पड़ने लगते हैं।’खबरदार, उधर से मत जाना!’ एक समाजवादी उसका एक हाथ पकड़ता है, तो दूसरा हाथ पकड़कर खींचता है। तब बाकी समाजवादी छीना-झपटी करके हाथ छुड़ा देते हैं। लहू-लुहान समाजवाद टीले पर खड़ा है।
यों प्रधानमंत्री ने घोषणा कर दी है कि अब समाजवाद आ ही रहा है।
मैं एक कल्पना कर रहा हूं।
दिल्ली में फरमान जारी हो जायेगा-’समाजवाद सारे देश के दौरे पर निकल रहा है।उसे सब जगह पहुंचाया जाये। उसके स्वागत और सुरक्षा का पूरा बन्दोंबस्त किया जाये।
एक सचिव दूसरे सचिव से कहेगा-’लो, ये एक और वी.आई.पी. आ रहे हैं। अब इनका इन्तजाम करो। नाक में दम है।’
कलेक्टरों को हुक्म चला जायेगा। कलेक्टर एस.डी.ऒ. को लिखेगा, एस.डी.ऒ.तहसीलदार को।
पुलिस-दफ्तरों में फरमान पहुंचेंगे, समाजवाद की सुरक्षा की तैयारी करो।
दफ्तरों में बड़े बाबू छोटे बाबू से कहेंगे-’काहे हो तिवारी बाबू, एक कोई समाजवाद वाला कागज आया था न! जरा निकालो!’
तिवारी बाबू कागज निकालकर देंगे। बड़े बाबू फिर से कहेंगे-’अरे वह समाजवाद तो परसों ही निकल गया। कोई लेने नहीं गया स्टेशन। तिवारी बाबू, तुम कागज
दबाकर रख लेते हो। बड़ी खराब आदत है तुम्हारी।’
तमाम अफसर लोग चीफ-सेक्रेटरी से कहेंगे-’सर, समाजवाद बाद में नहीं आ सकता? बात यह है कि हम उसकी सुरक्षा का इन्तजाम नहीं कर सकेंगे। पूरा फोर्स
दंगे से निपटने में लगा है।’
मुख्य सचिव दिल्ली लिख देगा-’हम समाजवाद की सुरक्षा का इंतजाम करने में असमर्थ हैं। उसका आना अभी मुलत्वी किया जाये।’
जिस शासन-व्यवस्था में समाजवाद के आगमन के कागज दब जायें और जो उसकी सुरक्षा की व्यवस्था न करे, उसके भरोसे समाजवाद लाना है तो ले आओ। मुझे खास ऐतराज भी नहीं है। जनता के द्वारा न आकर अगर समाजवाद दफ्तरों के द्वारा आ गया तो एक ऐतिहासिक घटना हो जायेगी।
-हरिशंकर परसाई
मेरी पसन्द
ठिठुरता हुआ गणतंत्र
हरिशंकर परसाई
चार बार मैं गणतन्त्र-दिवस का जलसा दिल्ली में देख चुका हूं। पांचवीं
बार देखने का साहस नहीं। आखिर यह क्या बात है कि हर बार जब मैं
गणतन्त्र-समारोहदेखता, तब मौसम बड़ा क्रूर रहता। छ्ब्बीस जनवरी के पहले ऊपर बर्फ़ पड़ जाती है। शीत-लहर आती है, बादल छा जाते हैं, बूंदाबांदी होती है और सूर्य छिप जाता है। जैसे दिल्ली की अपनी कोई अर्थनीति नहीं है, वैसे ही अपना मौसम भी नहीं है। अर्थनीति जैसे डालर, पौण्ड, रुपया, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष या भारत सहायता क्लब
से तय होती है, वैसे ही दिल्ली का मौसम कश्मीर, सिक्किम, राजस्थान आदि तय करते हैं।
इतना बेवकूफ़ भी नहीं कि मान लूं , जिस साल मैं समारोह देखता हूं, उसी साल ऐसा मौसम रहता है। हर साल देखने वाले बताते हैं कि हर गणतन्त्र-दिवस पर मौसम ऐसा ही धूपहीन ठिठुरनवाला होता है।
आखिर बात क्या है? रहस्य क्या है?
जैसे दिल्ली की अपनी कोई अर्थनीति नहीं है, वैसे ही अपना मौसम भी नहीं है।
जब कांग्रेस टूटी नहीं थी, तब मैंने एक कांग्रेस मंत्री से पूछा था कि
यह क्या बात है कि हर गणतन्त्र-दिवस को सूर्य छिपा रहता है? सूर्य की
किरणों के तले हम उत्सव क्यों नहीं मना सकते?उन्होंने कहा-जरा धीरज रखिये।
हम कोशिश में हैं कि सूर्य बाहर आ जाये। पर इतने बड़े सूर्य को बाहर निकालना
आसान नहीं हैं। वक्त लगेगा। हमें सत्ता के कम से कम सौ वर्ष तो दीजिये।दिये। सूर्य को बाहर निकालने के लिये सौ वर्ष दिये, मगर हर साल उसका छोटा-मोटा कोना तो निकलता दिखना चाहिये। सूर्य कोई बच्चा तो है नहीं जो अन्तरिक्ष की कोख में अटका है, जिसे आप आपरेशन करके एक दिन में निकाल देंगे।
इधर जब कांग्रेस के दो हिस्से हो गये तब मैंने एक इंडिकेटी कांग्रेस से पूछा। उसने कहा-’हम हर बार सूर्य को बादलों से बाहर निकालने की कोशिश करते थे, पर हर बार सिण्डीकेट वाले अडंगा डाल देते थे। अब हम वादा करते हैं कि अगले गणतन्त्र दिवस पर सूर्य को निकालकर बतायेंगे।
एक सिण्डीकेटी पास खडा़ सुन रहा था। वह बोल पड़ा- ‘यह लेडी(प्रधानमंत्री) कम्युनिस्टों के चक्कर में आ गई है।वही उसे उकसा रहे हैं कि सूर्य को निकालो। उन्हें उम्मीद है कि बादलों के पीछे से उनका प्यारा ‘लाल सूरज’ निकलेगा। हम कहते हैं कि सूर्य को निकालने की क्या जरूरत है? क्या बादलों को हटाने से काम नहीं चल सकता?
मैं संसोपाई भाई से पूछ्ता हूं। वह कहता है-’सूर्य गैर-कांग्रेसवाद पर अमल कर रहा है। उसने डाक्टर लोहिया के कहने पर हमारा पार्टी-फार्म दिया था। कांग्रेसी प्रधानंमंत्री को सलामी लेते वह कैसे देख सकता है? किसी गैर-कांग्रेसी को प्रधानमंत्री बना दो, तो सूर्य क्या ,उसके अच्छे भी निकल पड़ेंगे।
जनसंघी भाई से भी पूछा। उसने कहा-’ सूर्य सेक्युलर होता तो इस सरकार की परेड में निकला आता। इस सरकार से आशा मत करो कि भगवान अंशुमाली को निकाल सकेगी। हमारे राज्य में ही सूर्य निकलेगा।
साम्यवादी ने मुझसे साफ़ कहा-’ यह सब सी.आई.ए. का षडयंत्र है। सातवें बेड़े से बादल दिल्ली भेजे जाते हैं।’
स्वतन्त्र पार्टी के नेता ने कहा-’ रूस का पिछलग्गू बनने का और क्या नतीजा होगा?
प्रसोपा भाई ने अनमने ढंग से कहा-’ सवाल पेचीदा है। नेशनल कौंशिल की अगली बैठक में इसका फ़ैसला होगा। तब बताउंगा।’
राजाजी से मैं मिल न सका। मिलता, तो वह इसके सिवा क्या कहते कि इस राज में तारे निकलते हैं, यही गनीमत है।’
मैं इन्तजार करूंगा, जब भी सूर्य निकले।
स्वतंत्रता-दिवस भी तो भरी बरसात में होता है। अंग्रेज बहुत चालाक हैं। भरी बरसात में स्वतन्त्र करके चले गये। उस कपटी प्रेमी की तरह भागे, जो प्रेमिका का छाता भी ले जाये। वह बेचारी भीगती बस-स्टैण्ड जाती है, तो उसे प्रेमी की नहीं, छाता-चोर की याद सताती है।
अंग्रेज
बहुत चालाक हैं। भरी बरसात में स्वतन्त्र करके चले गये। उस कपटी प्रेमी की
तरह भागे, जो प्रेमिका का छाता भी ले जाये। वह बेचारी भीगती बस-स्टैण्ड
जाती है, तो उसे प्रेमी की नहीं, छाता-चोर की याद सताती है।
स्वतंत्रता-दिवस भीगता है और गणतन्त्र-दिवस ठिठुरता है।मैं ओवरकोट में हाथ डाले परेड देखता हूं। प्रधानमंत्री किसी विदेशी मेहमान के साथ खुली गाड़ी में निकलती हैं। रेडियो टिप्पणीकार कहता है-’घोर करतल-ध्वनि हो रही है।’ मैं देख रहा हूं, नहीं हो रही है। हम सब तो कोट में हाथ डाले बैठे हैं।बाहर निकालने का जी नहीं हो रहा है। हाथ अकड़ जायेंगे।
लेकिन हम नहीं बजा रहे हैं, फिर भी तालियां बज रहीं हैं। मैदान में जमीन पर बैठे वे लोग बजा रहे हैं, जिनके पास हाथ गरमाने के लिये कोट नहीं है। लगता है,
गणतन्त्र ठिठुरते हुये हाथों की तालियों पर टिका है। गणतन्त्र को उन्हीं हाथों की ताली मिलतीं हैं, जिनके मालिक के पास हाथ छिपाने के लिये गर्म कपडा़ नहीं है।
पर कुछ लोग कहते हैं-’गरीबी मिटनी चाहिये।’ तभी दूसरे कहते हैं-’ऐसा कहने वाले प्रजातन्त्र के लिये खतरा पैदा कर रहे हैं।’
गणतंत्र-समारोह में हर राज्य की झांकी निकलती है। ये अपने राज्य का सही प्रतिनिधित्व नहीं करतीं। ‘सत्यमेव जयते’ हमारा मोटो है मगर झांकियां झूठ बोलती हैं। इनमें विकास-कार्य, जनजीवन इतिहास आदि रहते हैं। असल में हर राज्य को उस विशिष्ट बात को यहां प्रदर्शित करना चाहिये
गणतन्त्र
ठिठुरते हुये हाथों की तालियों पर टिका है। गणतन्त्र को उन्हीं हाथों की
ताली मिलतीं हैं, जिनके मालिक के पास हाथ छिपाने के लिये गर्म कपडा़ नहीं
है।
जिसके कारण पिछले साल वह राज्य मशहूर हुआ। गुजरात की झांकी में इस साल
दंगे का दृश्य होना चाहिये, जलता हुआ घर और आग में झोंके जाते बच्चे। पिछले
साल मैंने उम्मीद की थी कि आन्ध्र की झांकी में हरिजन जलते हुये दिखाये
जायेंगे। मगर ऐसा नहीं दिखा। यह कितना बड़ा झूठ है कि कोई राज्य दंगे के
कारण अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति पाये,लेकिन झांकी सजाये लघु उद्योगों की। दंगे
से अच्छा गृह-उद्योग तो इस देश में दूसरा है नहीं। मेरे मध्यप्रदेश ने दो
साल पहले सत्य के नजदीक पहुंचने की कोशिश की थी। झांकी में अकाल-राहत कार्य
बतलाये गये थे। पर सत्य अधूरा रह गया था। मध्यप्रदेश उस साल राहत कार्यों
के कारण नहीं, राहत-कार्यों में घपले के कारण मशहूर हुआ था। मेरा सुझाव
माना जाता तो मैं झांकी में झूठे मस्टर रोल भरते दिखाता, चुकारा करनेवाले
का अगूंठा हजारों मूर्खों के नाम के आगे लगवाता। नेता, अफसर, ठेकेदारों के
बीच लेन-देन का दृश्य दिखाता। उस झांकी में वह बात नहीं आयी। पिछले साल
स्कूलों के ‘टाट-पट्टी काण्ड’ से हमारा राज्य मशहूर हुआ। मैं पिछले साल की
झांकी में यह दृश्य दिखाता- ‘मंत्री, अफसर वगैरह खड़े हैं और टाट-पट्टी खा
रहे हैं।
दंगे से अच्छा गृह-उद्योग तो इस देश में दूसरा है नहीं।
जो हाल झांकियों का, वही घोषणाऒं का। हर साल घोषणा की जाती है कि
समाजवाद आ रहा है। पर अभी तक नहीं आया। कहां अटक गया? लगभग सभी दल समाजवाद
लाने का दावा कर रहे हैं, लेकिन वह नहीं आ रहा।मैं एक सपना देखता हूं। समाजवाद आ गया है और वह बस्ती के बाहर टीले पर खड़ा है। बस्ती के लोग आरती सजाकर उसका स्वागत करने को तैयार खड़े हैं।पर टीले को घेरे खड़े हैं कई समाजवादी। उनमें से हरेक लोगों से कहकर आया है कि समाजवाद को हाथ पकड़कर मैं ही लाऊंगा।
समाजवाद टीले से चिल्लाता है-’मुझे बस्ती में ले चलो।’
मगर टीले को घेरे समाजवादी कहते हैं -’पहले यह तय होगा कि कौन तेरा हाथ पकड़कर ले जायेगा।’
समाजवाद की घेराबंदी कर रखी है। संसोपा-प्रसोपावाले जनतान्त्रिक समाजवादी हैं, पीपुल्स डेमोक्रेसी और नेशनल डेमोक्रेसीवाले समाजवादी हैं। क्रान्तिकारी समाजवादी हैं। हरेक समाजवाद का हाथ पकड़कर उसे बस्ती में ले जाकर लोगों से कहना चाहता है-’ लो, मैं समाजवाद ले आया।’
समाजवाद परेशान है। उधर जनता भी परेशान है। समाजवाद आने को तैयार खड़ा है, मगर समाजवादियों में आपस में धौल-धप्पा हो रहा है। समाजवाद एक तरफ
उतरना चाहता है कि उस पर पत्थर पड़ने लगते हैं।’खबरदार, उधर से मत जाना!’ एक समाजवादी उसका एक हाथ पकड़ता है, तो दूसरा हाथ पकड़कर खींचता है। तब बाकी समाजवादी छीना-झपटी करके हाथ छुड़ा देते हैं। लहू-लुहान समाजवाद टीले पर खड़ा है।
इस
देश में जो जिसके लिये प्रतिबद्ध है, वही उसे नष्ट कर रहा है। लेखकीय
स्वतंत्रता के लिये प्रतिबद्ध लोग ही लेखक की स्वतंत्रता छीन रहे हैं।
सहकारिता केलिये प्रतिबद्ध इस आन्दोलन के लोग ही सहकारिता को नष्ट कर रहे
हैं।
इस देश में जो जिसके लिये प्रतिबद्ध है, वही उसे नष्ट कर रहा है। लेखकीय
स्वतंत्रता के लिये प्रतिबद्ध लोग ही लेखक की स्वतंत्रता छीन रहे हैं।
सहकारिता केलिये प्रतिबद्ध इस आन्दोलन के लोग ही सहकारिता को नष्ट कर रहे
हैं। सहकारिता तो एक स्पिरिट है। सब मिलकर सहकारितापूर्वक खाने लगते हैं और
आन्दोलन को नष्ट कर देते हैं। समाजवाद को समाजवादी ही रोके हुये हैं।यों प्रधानमंत्री ने घोषणा कर दी है कि अब समाजवाद आ ही रहा है।
मैं एक कल्पना कर रहा हूं।
दिल्ली में फरमान जारी हो जायेगा-’समाजवाद सारे देश के दौरे पर निकल रहा है।उसे सब जगह पहुंचाया जाये। उसके स्वागत और सुरक्षा का पूरा बन्दोंबस्त किया जाये।
एक सचिव दूसरे सचिव से कहेगा-’लो, ये एक और वी.आई.पी. आ रहे हैं। अब इनका इन्तजाम करो। नाक में दम है।’
कलेक्टरों को हुक्म चला जायेगा। कलेक्टर एस.डी.ऒ. को लिखेगा, एस.डी.ऒ.तहसीलदार को।
पुलिस-दफ्तरों में फरमान पहुंचेंगे, समाजवाद की सुरक्षा की तैयारी करो।
दफ्तरों में बड़े बाबू छोटे बाबू से कहेंगे-’काहे हो तिवारी बाबू, एक कोई समाजवाद वाला कागज आया था न! जरा निकालो!’
तिवारी बाबू कागज निकालकर देंगे। बड़े बाबू फिर से कहेंगे-’अरे वह समाजवाद तो परसों ही निकल गया। कोई लेने नहीं गया स्टेशन। तिवारी बाबू, तुम कागज
दबाकर रख लेते हो। बड़ी खराब आदत है तुम्हारी।’
तमाम अफसर लोग चीफ-सेक्रेटरी से कहेंगे-’सर, समाजवाद बाद में नहीं आ सकता? बात यह है कि हम उसकी सुरक्षा का इन्तजाम नहीं कर सकेंगे। पूरा फोर्स
दंगे से निपटने में लगा है।’
मुख्य सचिव दिल्ली लिख देगा-’हम समाजवाद की सुरक्षा का इंतजाम करने में असमर्थ हैं। उसका आना अभी मुलत्वी किया जाये।’
जिस शासन-व्यवस्था में समाजवाद के आगमन के कागज दब जायें और जो उसकी सुरक्षा की व्यवस्था न करे, उसके भरोसे समाजवाद लाना है तो ले आओ। मुझे खास ऐतराज भी नहीं है। जनता के द्वारा न आकर अगर समाजवाद दफ्तरों के द्वारा आ गया तो एक ऐतिहासिक घटना हो जायेगी।
-हरिशंकर परसाई
मेरी पसन्द
-रघुवीर सहाय
राष्ट्रगीत में भला कौन वह
भारत-भाग्य विधाता है
फटा सुथन्ना पहले जिसका
गुन हरचरना गाता है।
मख़मल टमटम बल्लम तुरही
पगड़ी छत्र चंवर के साथ
तोप छुड़ाकर ढोल बजाकर
जय-जय कौन कराता है।
पूरब-पच्छिम से आते हैं
नंगे-बूचे नरकंकाल
सिंहासन पर बैठा, उनके
तमगे कौन लगाता है।
कौन-कौन है वह जन-गण-मन-
अधिनायक वह महाबली
डरा हुआ मन बेमन जिसका
बाजा रोज बजाता है।
Posted in मेरी पसंद, व्यंग्य | 19 Responses
गणतन्त्र ठिठुरते हुये हाथों की तालियों पर टिका है।…”
व्यंग्य में परसाईं का जवाब नहीं.
आज भी सामयिक है यह रचना.
नंगे-बूचे नरकंकाल
सिंहासन पर बैठा, उनके
तमगे कौन लगाता है
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ के स्वागत गान के दूसरे चरण का सटीक विश्लेषण है
अहरह तव आव्हान प्रचारित, सुनि तव उदार वाणी
हिन्दू बौद्ध सिख ईसाई, मुसलमान क्रिस्तानी
पूरब पश्चिम आसे, तव सिंहासन पासे, संकट दु:ख त्राता
जन गण मंगल दायक जय हे भारत भाग्य विधाता
और परसाईजी की रचना के बारे में कुछ कहना असंभव है.
आपको एक बार पुन: धन्यवाद. साहित्य के खज़ाने से यह रत्न निकाल कर लाने के लिये
-मानें न मानें, आज सुबह ही यह लेख पुनः किताब में पढ़ता था, फिर आपको देखा, पुनः पढ़ा. वाह वाह क्या बात है.परसाई जी का कोई सानी नहीं है. आप ऐसे ही पेश करते रहें और ब्लाग जगत को आनन्दित करते रहें..यह परचम लहराता रहे. आपका साधुवाद.
बिना शब्दाडाम्बर के कसा गया व्यंग्य.
“गणतन्त्र ठिठुरते हुये हाथों की तालियों पर टिका है।”
यह पंक्ति दर्दभरी मुस्कान लाने के लिए काफी है.
लेख और कविता दोनो ही सुन्दर.
यह बात यहाँ लिखनी चाहिए या नहीं, पता नहीं. अस्थान लगे तो अनूपजी यहाँ से हटा सकते है.
मेरा ध्यान इस बात पर गया की गुजरात दंगो को भी झंकी में स्थान मिलता तो अच्छा रहता. यह रचना हालकि नहीं है. क्या उस समय भी दंगे होते थे? तब तो कट्टर पंथियो का राज न था. दरअसल यहाँ मुगलकाल से दंगे होते आए हैं, कभी छह-छह महिने शहर बन्द रहा करता था. बाद में भी छोटी-मोटी ‘नेट-प्रेक्टिस’ हर रोज का क्रम था, जो अब मोदी के भय से बन्द हो गए है.
अमिताभ बच्चन के साथ दो पार्टीयों का उछलना कूदना, हत्त तेरे की धत्ते तेरे की पढते हुए लग रहा है परसाई जी की टांग औऱ अमिताभ में गजब की साम्यता है।
दोनो पार्टियां पहले टांग को लेकर भिडी और दोषारोपण करते करते साले और मादर तक जाने को तैयार लग रही है
मजा आ रहा है, परसाई जी को पढते हुए।
की बात कर रहे है,
चंदन कुमार मिश्र की हालिया प्रविष्टी..आज छब्बीस जनवरी है (कविता)