Thursday, July 05, 2007

नयी पीढ़ी का नायक

http://web.archive.org/web/20140419214705/http://hindini.com/fursatiya/archives/295

नयी पीढ़ी का नायक


नयी पीढ़ी का नायक
[पिछले दिनों जब मैं कोलकता गया था तो वहां अपने मित्र प्रेमप्रकाश से जे.एन.यू. के छात्रसंघ के अध्यक्ष रहे चंदशेखर के बारे में बातें हुयीं। चंद्रशेखर वहां के सबसे लोकप्रिय छात्र नेता थे। उनके सरोकार व्यापक थे। विचारों से वामपंथी थे। सीवान में एक जनसभा करते हुये वे मारे गये। उनके बारे में मुझे उनके मित्रों /सहयोगियों द्वारा छपाई गयी परिचयात्मक पुस्तिका नयी पीढ़ी का नायक से पता चला था। बाद में जे.एन.यू. में पढ़ने वाली हमारे परिवार की बिटिया अन्विता ने भी उनके किस्से बताये। अभय तिवारीजी ने बताया था कि वे और उनके तमाम मित्र उनकी ही विचारधारा से जुड़े हैं। मैंने इस परिचय पुस्तिका को कई बार पढ़ा है। इसके सबसे बेहतरीन अंश वे हैं जिनमें चंद्र्शेखर के वे पत्र हैं जो उन्होंने मां को लिखे थे। चंद्रशेखर के पिता सैनिक थे और १९७१ के युद्ध में शहीद हुये। चंद्रशेखर सैनिक स्कूल, तिलैया में पढ़े थे।
यहां चंद्रशेखर के बारे में लिखने का मेरा मकसद उनकी विचारधारा की वकालत करना नहीं है। मैं केवल एक ऐसे व्यक्ति के बारे में आपको बताना चाहता हूं जो बहादुर था और जो अपने सपने को पूरा करने के प्रति ईमानदार था। ऐसे लोगों का जीवन किसी भी वाद/विचारधारा के लोगों के लिये आदर्श का पैमाना हो सकता है। उनके तमाम मित्रों ने उनके बारे में अपने संस्मरण लिखें हैं। उनके मित्र रहे गोपाल प्रधान लिखते हैं- जब वे आइसा से पहली बार सचिव का चुनाव लड़ रहे थे तो मैं अध्यक्ष पद का प्रत्याशी था। लेकिन अपने त्याग और समर्पण के बल पर मध्यवर्गीय जीवन के सपनों के जाल को तोड़कर वे पूर्णकालिक कार्यकर्ता बने। वे शहीद हुये और हम मास्टरी कर रहे हैं। सत्यनारायण ठाकुर ने उनके बारे में लिखा- चंद्रशेखर जैसे लोग निश्चय ही कुछ पाने के लिये नहीं आते हैं। मैं निश्चयपूर्वक कह सकता हूं कि चंद्रशेखर को अपने जीवन और कामकाज के बारे में कभी कोई दुविधा नहीं थी। उन्हें शोषितों से उच्चकोटि का प्रेम था। गरीबों के प्रति अपार करुणा थी। उनकी शहादत करुणा की पराकाष्ठा है। जो लोग उसे हिंसा-प्रतिहिंसा का मामला बनाते हैं वे ईमानदार नहीं हैं, असल में वे परले दर्जे के बेइमान हैं। धीरेन्द्र झा उनके बारे में लिखते हैं- जे.एन.यू. जैसे एकेडेमिक कैंपस से वे इस दशक के पहले वामपंथी छात्र नेता हैं जिन्होंने अपने कैरियर को जनता की सेवा में समर्पित कर दिया।
यहां मैं चंद्रशेखर के साथी रहे उनके मित्र प्रणय कृष्ण का संस्मराणात्मक लेख प्रस्तुत कर रहा हूं। इसकी अगली पोस्ट में चंद्रशेखर की मां का एक मार्मिक पत्र है जो उन्होंने प्रधानमंत्री जी को लिखा था। इसके बाद चंद्रशेखर के उनकी मां के नाम लिखे कुछ पत्र प्रस्तुत करूंगा।]

व्हाट इज टु बि डन

प्रतिलिपियों से भरी इस दुनिया में चंदू मौलिक होने की जिद के साथ अड़े रहे। प्रथमा कहती थी, ” वह रेयर आदमी हैं।” ९१-९२ में जेएनयू में हमारी तिकड़ी बन गई थी। राजनीति, कविता, संगीत, आवेग और रहन-सहन- सभी में हम एक सा थे। हमारा नारा था,” पोयट्री, पैशन एंड पालिटिक्स”। चंदू इस नारे के सबसे ज्यादा करीब थे। समय, परिस्थिति और मौत ने हम तीनों को अलग-अलग ठिकाने लगाया, लेकिन तब तक हम एक-दूसरे के भीतर जीने लगे थे। चंदू कुछ इस तरह जिये कि हमारी कसौटी बनते चले गये। बहुत कुछ स्वाभिमान, ईमान, हिम्मत और मौलिकता और कल्पना- जिसे हम जिंदगी की राह में खोते जाते हैं, चंदू उन सारी खोई चीजों को हमें वापस दिलाते रहे।
प्रतिलिपियों से भरी इस दुनिया में चंदू मौलिक होने की जिद के साथ अड़े रहे।
इलाहाबाद, फ़रवरी १९९७ की एक सुबह। कालबेल सुनकर दरवाजा खोला तो देखा कि चंदू सामने खड़े हैं। वही चौकाने वाली हरकत। बिना बताये चला जाना और बिना बताये सूचना दिये अचानक सामने खड़े हो जाना। शहीद हो जाने के बाद भी चंदू ने अपनी आदत छोड़ी नहीं है। चंदू हर रोज हमारी चेतना के थकने का इंतजार करते हैं और अवचेतन में खिड़की से दाखिल हो जाते हैं। हमारा अवचेतन जाने कितने लोगों की मौत हमें बारी-बारी दिखाता है और चंदू को जिंदा रखता है। चेतना का दबाव है कि चंदू अब नहीं हैं, अवचेतन नहीं मानता और दूसरों की मौत से उसकी क्षतिपूर्ति कर देता है। यह सपना है या यथार्थ पता नहीं चलता,
जब तक कि चेतन-अवचेतन की इस लड़ाई में नींद की दीवार भरभराकर गिर नहीं जाती।
हमारी तिकड़ी में राजनीति, कविता और प्रेम के सबसे कठिनतम समयों में अनेक समयों पर अनेक परीक्षाओं में से गुजरते हुये अपनी अस्मिता पाई थी, चंदू जिसमें सबसे पवित्र लेकिन सबसे निष्कवच होकर निकले थे।
चंदू का व्यक्तित्व गहरी पीड़ा और आंतरिक ओज से बना था जिसमें एक नायकत्व था। उनकी सबसे गहरी पहचान दो तरह के लोग ही कर सकते थे- एक वे जो राजनीतिक अंतर्दृष्टि रखते हैं और दूसरे वह स्त्री जो उन्हें प्यार कर सकती थी।
खूबसूरत तो वे थे ही, लेकिन आंखे सबसे ज्यादा संवाद करती थीं। जिस तरह कोई शिशु किसी रंगीन वस्तु को देखता है और उसकी चेतना की सारी तहों में वह रंग घुलता चला जाता है, चंदू उसी तरह किसी व्यक्तित्व को अपने भीतर तक आने देते थे, इतना कि वह उसमें कैद हो जाये। कहते हैं कि मौत के बाद भी वे खूबसूरत आंखें खुली थीं। वे सोते भी थे तो आंखें आधी खुली रहती थीं जिनमें जिंदगी की प्यास चमकती थी। फ़िल्में देखते थे तो लंबे समय तक उसमें डूबकर बातें करके रहते, उपन्यास पढ़ते तो कई दिनों तक उसकी चर्चा करते।
जिस दिन उन्होंने जेएनयू छोड़ा, उसी दिन आंध्रप्रदेश के टी. श्रीनिवास राव ने मुझे एक पत्र में लिखा,” आज चंद्रशेखर भी चले गये। कैंपस में मैं नितांत अकेला पड़ गया हूं।” श्रीनिवास राव एक दलित भूमिहार परिवार से आते हैं। चंद्रशेखर के नेतृत्व में हमने उनके संदर्भ में एकैडमिक काउंसिल में एक ऐतिहासिक जीत हासिल की थी। राव का एम.ए. में ५५ प्रतिशत अंक नहीं आ पाया था जबकि एम.फिल., पी.एच.डी. में उनका रिकार्ड शानदार था। उनका कहना था कि पारिवारिक
परिवेश के चलते एम.ए. में ५५ प्रतिशत अंक नहीं पा सके जो यूजीसी की परीक्षा और प्राध्यापन के लिये आवश्यक शर्त है अत: पीएचडी में होते हुये भी उन्हें एम.ए. का कोर्स फिर से करने दिया जाए।
उनके भाषणों को अगर रिकार्ड किया गया होता तो वह हमारी धरोहर होते। मुझे नहीं लगता कि क्लासिकीय ज्ञान, सामान्य जनता के अनुभवों, अचूक मारक क्षमता और उदबोधनात्मक आदर्शवाद से युक्त भाषण जिंदगी में फिर कभी सुन पाउंगा।
नियमों से छूट देते हुये और प्रशासन की तमाम हथधर्मिता के बावजूद यह लडा़ई हम जीत गये। मुझे याद है कि जब बिहार की स्थिति के मद्देनजर जे.एन.यू. की प्रवेश परीक्षा के केंद्र को बिहार से हटा देने का मुद्दा एकैडमिक कौंसिल में आया तो वे फ़ट पड़े और मजबूरन यह प्रस्ताव प्रशासन को वापस लेना पड़ा। निजीकरण के खिलाफ़ जे.एन.यू के कैंपस में सबसे बड़ा और जीत हासिल करने वाला आंदोलन उनके नेतृत्व में छेड़ा गया। यह पूरे मुल्क में शिक्षा के निजीकरण के खिलाफ़ पहला बड़ा और सफ़ल आंदोलन था। शासक वर्गों की चाल थी कि यदि जे.एन.यू का निजीकरण कर दिया जाये तो उसे माडल के रूप में पेश करके पूरे भारत के सभी विश्वविद्यालयों का निजीकरण कर दिया जाये। चंद्र्शेखर छात्रसंघ में अकेले पड़ गये थे। तमाम तरह की शाक्तियां इस आसन्न आंदोलन को रोकने के लिये जुट पड़ीं थीं। लेकिन अप्रैल-मई १९९५ में उनका नायकत्व चमक उठा था। इस आंदोलन के दौरान अगर उनके भाषणों को अगर रिकार्ड किया गया होता तो वह हमारी धरोहर होते। मुझे नहीं लगता कि क्लासिकीय ज्ञान, सामान्य जनता के अनुभवों, अचूक मारक क्षमता और उदबोधनात्मक आदर्शवाद से युक्त भाषण जिंदगी में फिर कभी सुन पाउंगा। वे जब फ़ार्म में होते तो अंतर्भाव की गहराइयों से बोलते थे। अंग्रेजी में वे सबसे अच्छा बोलते और लिखते थे, हालांकि हिंदी और भोजपुरी में उनका अधिकार किसी से कम नहीं था।
जे.एन.यू. के भीतर गरीब, पिछड़े इलाकों से आने वाले उत्पीड़ित वर्गों के छात्र-छात्रायें कैसे अधिकाधिक संख्या में पढ़ने आ सकें, यह उनकी चिंता का मुख्य विषय था। १९९३-९४ की हमारी यूनियन ने पिछड़े इलाकों, पिछड़े छात्रों और छात्रों के प्रवेश के लिये अतिरिक्त डेप्रिवेशन प्वाइंट्स पाने की मुहिम चलाई। इसका ड्राफ़्ट
चंद्रशेखर और प्रथमा ने तैयार किया था, मेरा काम था बस उसी ड्राफ़्ट के आधार पर हरेक फोरम में बहस करना। ९४-९५ में जब चंद्रशेखर अध्यक्ष बने तो डेप्रिवेशन पाइंटस १० साल बाद फिर से जे.एन.यू. में फिर से लागू हुआ।
चंदू सब कुछ दांव पर लगा देने वाले व्यक्ति थे। जीवन का चाहे कोई भी क्षेत्र हो-प्रेम हो, राजनीति हो या युद्ध हो। उन्होंने अपने लिये कुछ बचाकर नहीं रखा।
चंद्र्शेखर बेहद धीरज के साथ स्थितियों को देखते, लेकिन पानी नाक के ऊपर जाते देख वे बारूद की तरह फ़ट पड़्ते। अनेक ऐसे अवसरों की याद हमारे पास सुरक्षित है। साथ-साथ काम करते हुये चंद्रशेखर और हमारे बीच काम का बंटवारा इतना सहज और स्वाभाविक था कि हमें एक-दूसरे से राय नहीं करनी पड़ती थी।
हमारे बीच बहुत ही खामोश बातचीत चला करती। ऐसी आपसी समझदारी जीवन में किसी और के साथ शायद ही विकसित कर पाऊं।
रात में चुपचाप अपनी चादर सोते हुये दूसरे साथी को ओढ़ा देना, पैसा न होने पर मेस से अपना खाना लाकर मेहमान को खिला देना, खाना न खाये होने पर भी भूख सहन कर जाना और किसी से कुछ न कहना उनकी ऐसी आदतें थीं जिनके कारण उनकों मेरी निर्मम आलोचना का शिकार भी होना पड़ता था। दूसरों के स्वाभिमान के लिये पूरी भीड़ में अकेले लड़ने के लिये तैयार हो जाने के कई मंजर मैंने अपनी आंखों से देखे हैं। एक बार एक बूढ़ा आदमी दौड़कर बस पकड़ना चाह रहा था और कंडक्टर ने बस नहीं रोकी। चंदू कंडक्टर से लड़ पड़े। कंडक्टर और ड्राइवर ने लोहे की छड़ें निकाल लीं और सांसदों के बंगले पर खड़े सुरक्षाकर्मियों को बुला लिया। तभी बस में चढ़े जे.एन.यू. के छात्र भी उतर पड़े और कंडक्टर, ड्राइवर और सुरक्षा कर्मियों को पीछे हटना पड़ा। चंदू सब कुछ दांव पर लगा देने वाले व्यक्ति थे। जीवन का चाहे कोई भी क्षेत्र हो-प्रेम हो, राजनीति हो या युद्ध हो। उन्होंने अपने लिये कुछ बचाकर नहीं रखा। वे निष्कवच थे, इसीलिये मेरे जैसों को उन्हें लेकर बहुत चिंता रहती।
चंदू के भीतर एक क्रांतिकारी जिद्दीपन था। जब किसी जुलूस में कम लोग जुटते तो मैं हताश होकर बैठ जाता। लेकिन चंदू अड़ जाते। उनका तर्क रहता,” चाहे जितने कम लोग हों, जुलूस निकलेगा।” और अपने तेज बेधक नारों से वे माहौल गुंजा देते। सीवान जाने को लेकर मेरा उनसे मतभेद था। मेरा मानना था कि वे पटना में रहकर युवा मोर्चा संभाले रखें। वे प्राय: मेरी बात का प्रतिवाद नहीं करते थे। लेकिन अगर वे चुप रह जाते तो मैं समझ लेता यह चुप्पी लोहे जैसी है और इस इस्पाती जिद्द को डिगा पाना असंभव है।
दिल्ली के बुद्धिजीवियों, नागरिक अधिकार मंचों, अध्यापकों और छात्रों, पत्रकारों के साथ उनका गहरा रिश्ता रहता आया। वे बड़े से बड़े बुद्धिजीवी से लेकर रिक्शावाले, डीटीसी के कर्मचारियों और झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों को समान रूप से अपनी राजनीति समझा ले जाते थे। महिलाऒं में वे प्राय: लोकप्रिय थे क्योंकि जहां भी जाते खाना बनाने से लेकर, सफ़ाई करने तक और बतरस में उनके साथ घुलमिल जाते। छोटे बच्चों के साथ उनका संवाद सीधा और गहरा था।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में लगातार तीन साल तक छात्रसंघ में चुने जाकर उन्होंने कीर्तिमान बनाया था, लेकिन साथ ही उन्होंने वहां के कर्मचारियों और शिक्षकों के साझे मोर्चे को भी बेहद पुख्ता किया। छात्रसंघ में काम करने वाले टाइपिस्ट रावतजी बताते हैं कि जे.एन.यू. से वे जिस दिन सीवान गये, उससे पहले की पूरी रात उन्होंने रावतजी के घर बिताई।
फिल्म संस्थान, पुणे के छात्रसंघ के वर्तमान अध्यक्ष शम्मी नंदा चंद्रशेखर के गहरे दोस्त हैं। उनके साथ युवा फ़िल्मकारों का एक पूरा दस्ता अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म समारोह के अवसर पर चंद्रशेखर के कमरे में आकर टिका हुआ था। रात-रात भर फ़िल्मों के बारे में चर्चा होती, फिल्म संस्थान के व्यवसायीकरण के खिलाफ़ पर्चे लिखे जाते और दिन में चंद्रशेखर इन युवा फिल्मकारों के साथ सेमिनारों में हस्तक्षेप करते। आज फिल्म संस्थान के युवा साथी चंद्रशेखर के की इस शहादत पर मर्माहत हैं और सीवान जाकर उन पर फ़िल्म बनाकर अपने साथी को श्रद्धांजलि देना चाहते हैं। अलीगढ़ विश्वविद्यालय के छात्र जब ११ अप्रैल के संसद मार्च में आये तो उन्होंने याद किया कि चंद्रशेखर ने किस तरह ए.एम.यू. के छात्रों पर गोली चलने के बाद उनके आंदोलन का राजधानी में नेतृत्व किया। जे.एन.यू. छात्रसंघ को उन्होंने देशभर यहां तक कि देश से बाहर चलने वाले जनतांत्रिक आंदोलनों से जोड़ दिया। चाहे वर्मा का लोकतंत्र बहाली आंदोलन हो, चाहे पूर्वोत्तर
राज्यों में जातीय हिंसा के खिलाफ़ बना शांति कमेटियां या टाडा विरोधी समितियां, नर्मदा आंदोलन हो या सुन्दर लाल बहुगुणा का टेहरी आंदोलन हो- चंदशेखर उन सारे आंदोलनों के अनिवार्य अंग थे। उन्होंने बिहार, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान और उत्तर-पूर्व प्रांत के सुदूर क्षेत्रों की यात्रायें भी कीं। मुजफ़्फ़रनगर में पहाड़ी महिलाऒं पर नृशंस अत्याचार के खिलाफ़ चंदू ने तथ्यान्वेषण समिति का नेतृत्व किया।
निजीकरण को अपने विश्वविद्यालय में शिकस्त देने के बाद उन्होंने अलीगढ़ विश्वविद्यालय में हजारों छात्रों की सभा को संबोधित किया। बीएचयू में उन्होंने इसे मुद्दा बनाया और छात्रों को आगाह किया और फिल्म संस्थान, पुणे में तो एक पूरा आंदोलन ही खड़ा करवा देने में सफ़लता पाई।
भिखारी ठाकुर पर पायनियर में उन्होंने अपना अंतिम लेख लिखा था जिसे प्रसिद्ध आलोचक मैनेजर पांडेय इस विषय पर लिखा गया अब तक का सर्वश्रेष्ठ बताते हैं।
आजाद हिंदुस्तान के किसी एक छात्र नेता ने छात्र आदोलन को ही सारे जनतांत्रिक आंदोलनों से जोड़ने का इतना व्यापक कार्यभार अगर किया तो सिर्फ़ चंद्रशेखर ने।
यह अतिशयोक्ति नहीं, सच है। १९९५ में दक्षिणी कोरिया में आयोजित संयुक्त युवा सम्मेलन में वे भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। जब वे अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ़ राजनीतिक प्रस्ताव लाये तो उन्हें यह प्रस्ताव सदन के सामने नहीं रखने दिया गया। समय की कमी का बहाना बनाया गया। चंद्रेशेखर ने वहीं आस्ट्रेलिया, पाकिस्तान, बांगलादेश और दूसरे तीसरी दुनिया के देशों के प्रतिनिधियों का एक ब्लाक बनाया और सम्मेलन का बहिष्कार कर दिया। इसके बाद वे कोरियाई एकीकरण और भ्रष्टाचार के खिलाफ़ चल रहे जबर्दस्त कम्युनिस्ट छात्र आंदोलन के भूमिगत नेताऒं से मिले और सियोल में बीस हजार छात्रों की एक रैली को संबोधित किया। यह एक खतरनाक काम था जिसे उन्होंने वापस डिपोर्ट कर दिये जाने का खतरा उठाकर भी अंजाम दिया।
चंद्रशेखर एक विराट, आधुनिक छात्र आंदोलन की नींव तैयार करने के बाद इन सारे अनुभवों की पूंजी लेकर सीवान गये। उनका सपना था कि उत्तर-पश्चिम बिहार में चल रहे किसान आंदोलन को पूर्वी उत्तर-प्रदेश में भी फ़ैलाया जाये और शहरी मध्यवर्ग, बुद्धिजीवी, छात्रों और मजदूरों की व्यापक गोलबंदी करते हुये नागरिक समाज के शक्ति संतुलन को निर्णायक क्रांतिकारी मोड़ दिया जाये। पट्ना, दिल्ली और दूसरे तमाम जगहों के प्रबुद्ध लोगों को उन्होंने सीवान आने का न्योता दे रखा था। वे इस पूरे क्षेत्र में क्रांतिकारी जनवाद का एक माड्ल विकसित करना चाहते थे जिसे भारत के दूसरे हिस्सों में उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जा सके।
चंद्रशेखर ने उत्कृष्ट कवितायें और कहानियां भी लिखीं।उनके अंग्रेजी में लिखे अनेक पत्र साहित्य की धरोहर हैं। वे फिल्मों में गहरी दिलचस्पी रखते थे। कुरोसावा, ब्रेसो, सत्यजित राय और न जाने कितने ही फिल्मकारों की वे च्रर्चा करते जिनके बारे में हम बहुत ही कम जानते थे। वे बिहार के किसान आंदोलन पर एक फिल्म बनाना चाहते थे जो उनकी अनुपस्थिति में उनके मित्र अरविन्द दास अंजाम देंगे। भिखारी ठाकुर पर पायनियर में उन्होंने अपना अंतिम लेख लिखा था जिसे
प्रसिद्ध आलोचक मैनेजर पांडेय इस विषय पर लिखा गया अब तक का सर्वश्रेष्ठ बताते हैं।
उनकी डायरी में निश्चय ही उनकी कोमल संवेदनाओं के अनेक चित्र सुरक्षित होंगे। एक मित्र को लिखे अपने पत्र में वे पार्टी से निकाले गये एक साथी के बारे में बड़ी ममता से लिखते हैं कि उन्हें संभालकर रखने, उन्हें भौतिक और मानसिक सहारा देने की जरूरत है। इस साथी के गौरवपूर्ण संघर्षों की याद दिलाते हुये वे कहते हैं कि’ बनने में बहुत समय लगता है, टूटने में बहुत कम’। इस एक पत्र में साथियों के प्रति उनकी मर्मस्पर्शी चिंता छलक पड़ती है।
चंदू को उनकी मां से अलग समझा ही नहीं जा सकता। सैनिक स्कूल, तिलैया और फ़िर नेशनल डिफ़ेन्स एकेडमी, पुणे, फिर पटना और फिर जे.एन.यू.। इस लंबे सफ़र में पिछले १५-१६ सालों से मां-बेटे एक दूसरे को खोजते रहे और अंतत: मां की गोद चंदू को शहादत के साथ ही मिली।
मैंने कई बार चंद्रशेखर को विचलित और बेहद दुखी देखा है। ऐसा ही एक समय था १९९२ में बाबरी मस्जिद का ध्वंस। खुद बुरी तरह हिल जाने के बाद भी वे दिन रात उन छात्रों के कमरों में जाते जिनके घर दंगा पीड़ित इलाकों में पड़ते थे। उन्हें हिम्मत देते और फिर राजनीतिक लड़ाई में जुट जाते। कहा जाये तो जब तक वे रहे उनके नेतृत्व में धर्मनिरेपेक्षता का झंडा लहराता रहा। सांप्रदायिक फ़ासीवादी ताकतों को जे.एन.यू. में उन्होंने बुरी तरह हराया और देश भर में इसके खिलाफ़ लामबंदी करते रहे। छात्रसंघ में न रहने के बावजूद इसी साल आडवाणी को उन्होंने जे.एन.यू. में घुसने नहीं दिया।
चंदू का हास्टल का कमरा अनेक ऐसे समाज छात्रों और समाज से विद्रोह करने वाले, विरल संवेदनाओं वाले लोगों की आश्रयस्थली था जो कहीं और एड्जस्ट नहीं कर पाते थे। मेस बिल न चुका पाने के कारण छात्रसंघ का अध्यक्ष होने के बावजूद उनके कमरे में प्रशासन का ताला लग जाता। उनके लिये तो जे.एन.यू. का हर कमरा खुलता रहता लेकिन अपने आश्रितों के लिये वे विशेष चिंतित रहते। एक बार मेस बिल जमा करने के लिये उन्हें १६०० रुपये इकट्ठा करके दिये गये। अगले दिन पता चला कि कमरा अभी नहीं खुला। चंदू ने बड़ी मासूमियत से बताया कि ८०० रुपये उन्होंने किसी दूसरे लड़के को दे दिये क्योंकि उसे ज्यादा जरूरत थी।
चंदू को उनकी मां से अलग समझा ही नहीं जा सकता। सैनिक स्कूल, तिलैया और फ़िर नेशनल डिफ़ेन्स एकेडमी, पुणे, फिर पटना और फिर जे.एन.यू.। इस लंबे सफ़र में पिछले १५-१६ सालों से मां-बेटे एक दूसरे को खोजते रहे और अंतत: मां की गोद चंदू को शहादत के साथ ही मिली। मां जब कभी ३६०, झेलम ए.एन.यू.में आकर रहतीं तो पूरे फ़्लोर के सभी लड़कों की मां की तरह रहतीं। चंदू से गुस्सा हुयीं तो अयूब या विनय गुप्ता के कमरे में जाकर सो गयीं। फिर संदू उन्हें मनाते और वे भी डांटने-फ़टकारने के बाद बेटे की लापरवाही माफ़ कर देंतीं। एक बार उसी फ़्लोर पर दो छात्रों में जमकर लड़ाई हो गयी। मां ने तुरन्त हस्तक्षेप किया। बच्चों को डांट-फटकार और सांत्वना की घुट्टी पिलाकर झगड़ा खतम करा दिया।
“हां, मेरी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा है- भगतसिंह की तरह जीवन, चेग्वेआरा की तरह मौत”। चंदू ने अपना वायदा पूरा किया।
१९९२ की ही बात है। सीवान से खबर आयी कि मां को कुत्ते ने काट लिया है। चंद्रशेखर बुरी तरह विचलित हो गये। मैं उन्हें सीवान के लिये गाड़ी पकड़ाने दिल्ली रेलवे स्टेशन गया लेकिन उनकी हालत देखकर मुझसे रहा नहीं गया और मैं उनके साथ गाड़ी में सवार हो गया। मैं गोरखपुर उतरा और उनसे कहा कि वे सीवान जाकर तुरन्त फोन करें। शाम को उनका फोन आया कि मां ठीक-ठाक हैं तब जान में जान आई।
चंद्रशेखर की सबसे प्रिय किताब थी लेनिन की पुस्तक ‘क्या करें’। नेरुदा के संस्मरण भी उन्हें बेहद प्रिय थे। अकसर अपने भाषणों में वे पाश की प्रसिद्ध पंक्ति दोहराते थे- ‘सबसे खतरनाक है हमारे सपनों का मर जाना।’ १९९३ में जब हम जे.एन.यू. छात्रसंघ का चुनाव लड़ रहे थे तो सवाल-जवाब के सत्र में किसी ने उनसे पूछा,” क्या आप किसी व्यक्तिगत मह्त्वाकांक्षा के लिये चुनाव लड़ रहे हैं?”
उनका जवाब भूलता नहीं। उन्होंने कहा,” हां, मेरी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा है- भगतसिंह की तरह जीवन, चेग्वेआरा की तरह मौत”। चंदू ने अपना वायदा पूरा किया।
चंदू की शहादत का मूल्यांकल अभी बाकी है। उसके निहितार्थों की समीक्षा अभी बाकी है। पीढ़ियां इस शहादत का मूल्यांकन करेंगी। लेकिन आज जो बात तय है वह यह कि हमारे युग की एक बड़ी घटना है यह। इस एक शहादत ने कितने नये रास्ते खोल दिये अभी तक इसका मूल्यांकन नहीं हुआ है। लेकिन दिल्ली नौजवानों के नारों से गूंज रही है- चंद्रशेखर, भगतसिंह! वी शैल फ़ाइट, वीशैल विन।
प्रणय कृष्ण

16 responses to “नयी पीढ़ी का नायक”

  1. फुरसतिया » शहीद चंद्रशेखर की मां का पत्र
    [...] [पिछली पोस्ट में मैंने जे.एन.यू. के अध्यक्ष रहे चंद्रशेखर का परिचय उनके साथी प्रणय कृष्ण के माध्यम से कराया था। चंद्र्शेखर की शहादत के प्रधानमंत्री राहत कोष से एक लाख रुपये का बैंक ड्राफ़्ट वापस करते हुये उनकी मां ने जो मार्मिक पत्र लिखा था वह एक बहादुर मां ही लिख सकती है। नयी पीढी़ का नायक परिचय पुस्तिका में यह पत्र संकलित है। वह पत्र यहां प्रस्तुत है। [...]
  2. abhay tiwari
    प्रणय का यह संस्मरण पहले जब जनमत में छपा था.. तो भी पढ़ा था.. आज फिर पढ़ कर आँखें भर आईं.. आप को धन्यवाद कि आप ने इसे यहाँ छापा.. ठीक ही कहा था आपने..ये काम शायद हमें पहले करना चाहिये था..
  3. rahul
    आदरणीय भाई साहब,
    चंदू को अपने चिठ्ठे पर जगह देकर अपने वो काम किया है जो आलस्य मे मुझे बहुत दिनों से छूट रहा था… धन्यवाद। चंदू वामपंथी थे और भारत के उस हिस्से का प्रतिनिधित्व करते थे जो सैकड़ों सालों से दबी कुचली और एक तरह से सामाजिक – आर्थिक परित्यक्ता की स्थिति मे जीं रही है। यहाँ पर मैं आपके द्वारा दीं गई एक जानकारी को थोडा दुरुस्त करना चाहता हूँ। चंदू की हत्या हुई थी न कि वो सीवान मे एक जनसभा करते हुए मारे गए थे। उनकी हत्या आर जे डी के सांसद सय्यद शहाबुद्दीन ने की थी। सीवान की एक अदालत मे इसका मुकदमा भी चल रहा है। शहाबुद्दीन के ऊपर चल रहे मुकदमों की ज्यादा जानकारी के लिए रियाज़ भाई के हाशिया पर देखें। दरअसल चंदू सीवान मे भारत के उसी हिस्से को जो परित्यक्त है , बड़ी ही तेजी से अपने हक की आवाज़ बुलंद करने के लिए इकट्ठा कर ले गए थे जो वहाँ के सवर्णों को बर्दाश्त नही हो पा रहा था। शहाबुद्दीन को साड़ी जड़ चंदू मे ही दिखाई दे रही थी सो उन्होने अपने हिसाब से जड़ काटने की कोशिश की। चंदू की दुर्दान्त हत्या कर दी गई।
    अभी फिलहाल इतना ही। एक बार फिर से चंदू को अपने चिठ्ठे पर जगह देने के लिए धन्यवाद ।
  4. pramod singh
    पंडित जी,
    माजरा क्‍या है? अपने को क्रांतिकारी लगानेवालों के मुंह पर आपका यह तमाचा है.. या इन दिनों आप खुद बदलाव की नई रौ में बहे जा रहे हैं? वजह जो भी हो.. नतीजा अच्‍छा है. हाथ में मोमबत्‍ती लिए ऐसे ही जलाये रहिए रोशनी.
  5. प्रत्यक्षा
    कुछ जाना था पहले पर इतने विस्तार से नहीं । बहुत अच्छा किया कि इस मार्मिक संस्मरण को यहाँ लाये ।
  6. मनीष
    चंद्रशेखर जी के बारे में इतनी विस्तृत जानकारी देने के लिए धन्यवाद ! उनकी सोच और विचारधारा को क्या आज भी लोग आगे ले जा पा रहे हैं या ये मशाल उनकी मृत्यु के साथ धीमी पड़ गई है?
  7. प्रियंकर
    प्रिय भाई!
    कलकत्ता आने का यह असर अच्छा लगा . आबोहवा का ऐसा त्वरित असर होगा सोचा न था . आपके साथ इस संस्मरण के तात्कालिक प्रेरणास्रोत भाई प्रेमप्रकाश जी और इस बेहद आत्मीय और आलोडनकारी संस्मरण के लेखक प्रणयकृष्ण साधुवाद के पात्र हैं . चंद्रशेखर जैसे शानदार ढंग से जिए,वैसी ही गौरवशाली मौत पाई . वे सचमुच नई पीढी के नायक होने लायक हैं . वे न होने पर भी हैं . फ़ैज़ याद आ रहे हैं :
    जिस धज़ से कोई मकतल को गया
    वो शान सलामत रहती है
    इस जान की कोई बात नहीं
    ये जान तो आनी-जानी है ।
  8. rahul
    main samjhta hoon ki har aadmi ke andar ek chandu hota hai , koi shahbiddeen bankar use maar dalta hai to koi jinda rakhta hai….bhai sahab , mujhe lag raha hai ki aapka chandu kabhi kabhi jaag jata hai .
  9. Sanjeet Tripathi
    शुक्रिया आपका जो आपने यह सारी जानकारी उपलब्ध कराई!!
    दिक्कत यही है कि ऐसे शानदार व्यक्तित हमारे यहां की कुत्सित/आपराधिक राजनीति के शिकार हो जाते हैं!
    आभार!!
  10. yunus
    मैं घास हूं
    मैं आपके हर किये धरे पर उग जाऊंगा
    बम फेंक दो चाहे विश्‍वविद्यालय पर
    बना दो होस्‍टल मलबे के ढेर सुहागा फिरा दो भले ही हमारी झोपडियों पर
    मुझे क्‍या करोगे
    मैं तो घास हूं
    हर चीज़ को ढंक लूंगा
    हर ढेर पर उग जाऊंगा
    ‘बंगे’ को ढेर कर दो ’संगरूर’ को मिटा डालो
    धुल में मिला दो लुधियाना को मेरी हरियाली अपना काम करेगी दो साल, दस साल बाद
    सवारियां फिर किसी कंडक्‍टर से पूछेंगी ये कौन सी जगह है
    मुझे बरनाला उतार देना जहां हरे घास का जंगल है
    मैं घास हूं अपना काम करूंगा
    आपके हर किये धरे पर उग जाऊंगा
    –पाश
  11. समीर लाल
    अति मार्मिक संस्मरण. साधुवाद इस पेशकश के लिये. इन्तजार है चन्द्रशेखर के अपनी माँ के नाम खतों का. उनकी माता जी का प्रधानमंत्री के नाम खत पढ़ लिया.
  12. फुरसतिया » मां के नाम बेटे की चिट्ठियां
    [...] [अपने माता-पिता की इकलौती संतान होने और बचपन में ही पिता के प्यार से वंचित हो जाने की वजह से शहीद चंद्रशेखर के लिये उनकी मां ही मानो सर्वस्व थीं। अपने जीवन के पूरे उतार-चढ़ाव में चंदू ने अपनी भावनाऒं को सबसे खुले तौर पर अपनी मां के समक्ष ही व्यक्त किया था। सैनिक स्कूल तिलैया से लेकर पटना, दिल्ली , बंबई में जीवन संघर्ष से जूझते चंद्रशेखर के अपनी मां को लिखे यह पत्र उनके जीवन के कुछ पहलुऒं को, खासकर मां-बेटे के रिश्तों की प्रगाड़ता के समझने में मददगार हो सकते हैं। इन पत्रों को पढ़ने से साफ़ लगता है कि समाज की विसंगतियों पर उनकी नजर बालपने से ही पड़नी लगी थी और अपने जीवन को अपनी शर्तों पर जीने की ललक उन दिनों भी थी जब वे संघर्ष के दौर से गुजर रहे थे।] [...]
  13. sonali
    mere liye to ye jankari bilkul nayi hai . dhanyavad
  14. कम से कम तुम ठीक तरह मरना
    [...] के प्रतिभाशाली छात्र रहे चंद्रशेखर शायद इसीलिये भगतसिंह जैसी मौत चाहते [...]
  15. Chandar Shekhar-Hero of a new generation « Paash
  16. : फ़ुरसतिया-पुराने लेखhttp//hindini.com/fursatiya/archives/176
    [...] नयी पीढ़ी का नायक [...]

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