http://web.archive.org/web/20140419212634/http://hindini.com/fursatiya/archives/298
शहीद चंद्रशेखर की मां का पत्र
By फ़ुरसतिया on July 5, 2007
[पिछली पोस्ट में मैंने जे.एन.यू. के अध्यक्ष रहे चंद्रशेखर का परिचय उनके साथी प्रणय कृष्ण के माध्यम से कराया था। चंद्र्शेखर की शहादत के प्रधानमंत्री राहत कोष से एक लाख रुपये का बैंक ड्राफ़्ट वापस करते हुये उनकी मां ने जो मार्मिक पत्र लिखा था वह एक बहादुर मां ही लिख सकती है। नयी पीढी़ का नायक परिचय पुस्तिका में यह पत्र संकलित है। वह पत्र यहां प्रस्तुत है।
प्रधानमंत्री महोदय,
आपका पत्र और बैंक ड्राफ़्ट मिला।
आप शायद जानतें हों कि चंद्रशकर मेरी एकलौती संतान था। इसके सैनिक पिता जब शहीद हुये थे ,वह बच्चा ही था। आप जानिये, उस समय मेरे पास मात्र १५० रुपये थे। तब भी मैंने किसी से कुछ नहीं मांगा था। अपनी मेहनत और ईमानदारी की कमाई से मैंने उसे राजकुमारो की तरह पाला था। पाल-पोसकर बड़ा किया था और बढि़या से बढिय़ा स्कूल में पढ़ाया था। मेहनत और ईमानदारी की वह कमाई अभी भी मेरे पास है। कहिये, कितने का चेक काट दूं!
लेकिन महोदय, आपको मेहनत और ईमानदारी से क्या लेना-देना! आपको मेरे बेटे की ‘दुखद मृत्यु’ के बारे में जानकर गहरा दुख हुआ है। आपका यह कहना तो हद है महोदय! मेरे बेटे की मृत्यु नहीं हुयी है, उसे आपके ही दल के गुंडे-माफ़िया डान शहाबुद्दीन ने -जो दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष लालू यादव का दुलरुआ भी है- खूब सोच-समझकर व योजना बनाकर मरवा डाला है। लगातार खुली धमकी देने के बाद, शहर के भीड़-भाड़ भरे चौराहे पर सभा करते हुये , गोलियों से छलनी कर देने के पीछे कोई ऊंची साजिश है। प्रधानमंत्री महोदय! मेरा बेटा शहीद हुआ है। वह दुर्घटना में नहीं मरा है।
मेरा बेटा कहा करता था कि मेरी मां बहादुर है। वह किसी से डरती नहीं है। वह किसी भी लोभ-लालच में नहीं पड़ती। वह कहता था- मैं एक बहादुर मां का बहादुर बेटा हूं। शहाबुद्दीन ने लगातार मुझको कहलवाया कि अपने बेटे को मना करो नहीं तो उठवा लूंगा। मैंने जब यह बात उसे बतलायी तब भी उसने यही कहा था। ३१ मार्च की शाम जब मैं भागी-भागी अस्पताल पहुंची ,वह इस दुनिया से जा चुका था। मैंने खूब गौर से उसका चेहरा देखा, उस पर कोई शिकन नहीं थी। डर या भय का कोई चिन्ह नहीं था। एकदम से शांत चेहरा था उसका। प्रधानमंत्री महोदय! लगता था वह अभी उठेगा और चल देगा। जबकि, प्रधानमंत्री महोदय, इसके सिर और सीने में एक-दो नहीं सात-सात गोलियां मारीं गयीं थीं। बहादुरी में उसने मुझे भी पीछे छोड़ दिया।
मैंने कहा न कि वह मरकर अमर है। उस दिन से ही हजारों छात्र- नौजवान, जो उसके संगी-साथी हैं, जो हिंदू भी हैं मुसलमान भी, मुझसे मिलने आ रहे हैं। उन सबमें मुझे वह दिखाई देता है। हर तरफ़, धरती और आकाश तक, मुझे हजारों-हजार चंद्रशेखर दिखाई देते हैं। वह मरा नहीं है, प्रधानमंत्री महोदय!
इसीलिये, इस एवज में कोई भी राशि लेना मेरे लिये अपमानजनक है। आपके कारिंदे पहले भी आकर लौट चुके हैं। मैंने उनसे भी यही सब कहा था। मैंने उनसे कहा था कि तुम्हारे पास चारा घोटाला का, भूमि घोटाला का अलकतरा घोटाला का जो पैसा है, उसे अपने पास ही रखो। यह उस बेटे की कीमत नहीं है जो मेरे लिये सोना था, रतन था, सोने और रतन से भी बढ़कर था।
आज मुझे यह जानकर और भी दुख हुआ कि इसकी सिफ़ारिश आपके गृहमंत्री इंद्रजीत गुप्त ने की थी। वे उस पार्टी के महासचिव रह चुके हैं जहां से मेरे बेटे ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की थी। मुझ अपढ़-गंवार मां के सामने आज यह बात और भी साफ़ हो गयी कि मेरे बेटे ने बहुत जल्दी ही उनकी पार्टी क्यों छोड़ दी। इस पत्र के माध्यम से मैं आपके साथ-साथ उन पर भी लानतें भेज रहीं हूं जिन्होंने मेरी भावनाऒं के साथ यह घिनौना मजाक किया है और मेरे बेटे की जान की ऐसी कीमत लगवाई है।
एक ऐसी मां के लिये -जिसका इतना बड़ा और एकलौता बेटा मार दिया गया हो, और जो यह भी जानती हो कि उसका कातिल कौन है- एकमात्र काम यह हो सकता है , वह यह है कि उसके कातिल को सजा मिले। मेरा मन तभी शांत होगा महोदय! उसके पहले कभी नहीं, किसी भी कीमत पर नहीं। मेरी एक ही जरूरत है, मेरी एक ही मांग है- अपने दुलारे शहाबुद्दीन को ‘किले’ से बाहर करो। या तो उसे फ़ांसी दो ,या फ़िर लोगों को यह हक दो कि वे उसे गोली से उड़ा दें।
मुझे पक्का विश्वास है प्रधानमंत्री महोदय! आप मेरी मांग पूरी नहीं करेंगे। भरसक यही कोशिश करेंगे कि ऐसा न होने पाये। मुझे अच्छी तरह मालूम है आप किसके तरफ़दार हैं। मृतक के परिवार को तत्काल राहत पहुंचाने हेतु एक लाख रुपये का यह बैंक ड्राफ़्ट आपको ही मुबारक।
कोई भी मां अपने बेटे के कातिलों से सुलह नहीं कर सकती।
कौशल्या देवी
(शहीद चंद्रशेखर की मां_)
बिंदुसार सीवान
१८ अप्रैल, १९९७
(शहीद चंद्रशेखर की मां_)
बिंदुसार सीवान
१८ अप्रैल, १९९७
Posted in संस्मरण | 14 Responses
उस मा को शत शत नमन ,भृत्सना के लिये क्या कहे हम इन अपने देश के गैंडे की खाल ओढे कर्णधारो को .
आपको एक नए अवतार में देखा . कलकत्ता आने का यह असर अच्छा लगा . आबोहवा का यह त्वरित असर निस्संदेह बहुत सुखद है . आपके साथ इस संस्मरण के प्रकाश के प्रेरणास्रोत भाई प्रेमप्रकाश जी को भी साधुवाद!
यह पत्र , आज की हमारी व्यवस्था, हमारे राजनीतिज्ञों के मुंह पर एक करारा तमाचा है पर अफ़सोस कि ऐसे तमाचे के बाद भी इन सबको कोई फ़र्क नही पड़ता!!
जब एक पल दूसरे पल से सहमता है
सिहरता है चौबारों की रोशनी तब तक
खिड़कियों से कूदकर आत्महत्या कर लेती है इन शांत रातों के गर्भ में
जब बगावत खौलती है रोशनी बेरोशनी भी कत्ल हो सकता हूं मैं ।।