Monday, July 02, 2007

प्रियंकर- एक प्रीतिकर मुलाकात

http://web.archive.org/web/20140419214956/http://hindini.com/fursatiya/archives/279

प्रियंकर- एक प्रीतिकर मुलाकात

कलकत्ते का अगला दिन काफ़ी व्यस्त रहा। दिन भर काम के बाद शाम को छह बजे फ़ुरसत मिली। फ़ुरसत मिलते ही मैं बैरकपुर से लेकरोड की तरफ़ चल पड़ा़।
लेकरोड पर ही प्रियंकरजी रहते हैं।
शाम होने के कारण सड़कों पर भीड़ थी। कारें कई जगह एक दूसरे से सटी-सटी चल रहीं थीं। सड़क पर हाथ रिक्शा, ट्राम, कार, टैक्सी ,साइकिल, पैदल सर्वहारा की तरह समान अधिकार से विचरण कर रहे थे।
करीब पच्चीस तीस किलोमीटर की यात्रा के दौरान मैं प्रियंकरजी के बारे में भी सोचता जा रहा था।
प्रियंकरजी की कवितायें हमने पिछले साल ही पढ़ना शुरू किया था। अनहदनाद में। उनकी कुछ अपनी-पराई कवितायें पढ़ने के बाद उनकी अब तक की सबसे बेहतरीन कविता (मेरे अनुसार) पढ़ने को मिली-
सबसे बुरा दिन वह होगा
जब कई प्रकाशवर्ष दूर से
सूरज भेज देगा
‘लाइट’ का लंबा-चौड़ा बिल
यह अंधेरे और अपरिचय के स्थायी होने का दिन होगा
पृथ्वी मांग लेगी
अपने नमक का मोल
मौका नहीं देगी
किसी भी गलती को सुधारने का
क्रोध में कांपती हुई कह देगी
जाओ तुम्हारी लीज़ खत्म हुई
यह भारत के भुज बनने का समय होगा
इसके बाद उनको लगातार ब्लागिंग में सक्रिय होते देखा। परिचर्चा में तमाम नोकझोंक भी हुयी उनसे लोगों की। हमारे साथ भी कुछ पोस्ट/ टिप्पणीबाजी हुयी। इसी समय हमारा बोलता हुआ गद्य उनको बहुत भाया और उसी बोलते गद्य के चलते धीरे-धीरे हमारी बोलती बंद होती चली गयी। :)
कुछ समय बाद उनका अवतरण गद्य भूमि में चौपटस्वामी के नाम से हुआ। नाम अपने अनुरूप कभी कुछ करवा ही लेता है इसे सार्थक करते हुये उन्होंने वहां चौपट पोस्टें लिखीं। खासकर मसिजीवी के उकसावे पर लिखी हुयी एक पोस्ट। वैसे हम समय के साथ यह महसूस करते जा रहे हैं कि ये जो मसिजीवी हैं वो अक्सर अपनी शरारत की आड़ में कुछ न कुछ उकसाने वाली बातें ठेल जाते हैं। यह इनकी फितरत है। आदतन ऐसा होता है इसके लिये कोई अतिरिक्त प्रयास इनको करना पड़ता हो ऐसा मुझे नहीं लगता। :) मसिजीवी इस बात को कन्फ़र्म करें या मना करें बिना हिंदी का अध्यापक होने का रोना रोते हुये। :)
मैंने कोलकता जाने के पहले प्रियंकरजी को मेल लिखा था लेकिन उसका जवाब नहीं मिला था। लेकिन, उनके घर का पता और फोन नं पास न होने के बावजूद,
मैं आश्वस्त था कि मिलना तो होगा ही। दफ़्तर का पता याद कर लिया था। सोचा नहीं होगा तो खोजते-खोजते पहुंच जायेंगे। लेकिन मुझे बहादुरी नहीं दिखाना पड़ी।
कोलकता में जब मैं मृगांक के आफिस में था तब ही उनका मेल दिखा। पता चला पिछले हफ़्ते भर बुखार-वायरल जोड़ी ने दबा रखा था उनको। अब ठीक हुये तो मेल का जवाब दिया। हमें लगा कि देखो ये बुखार-वायरल तक हमसे डरते हैं। हमारे आने की खबर सुनते ही प्रियंकरजी को छोड़ के फूट लिये।
बहरहाल हम खरीदी कौड़ियों के मोल के गाड़ियाहाट होते हुये दो घंटे के अंतराल में लेक रोड स्थित प्रियंकरजी के घर पहुंच ही गये।
प्रियंकरजी बाहर गये थे। आने ही वाले थे। हमें जब तक बिटिया गौरी पानी पिलायें तब तक प्रियंकरजी हाजिर हो गये। अपने हाथ के आम सामने की मेज पर रखकर हम खास लोग गले मिले और बैठकर बतियाने लगे।
पता चला कि प्रियंकरजी के घर वाले पहले कानपुर के पास औरैया के रहने वाले थे। यहां से राजस्थान गये। कलकत्ता से निकलने वाली पत्रिका समकालीन सृजन के संपादक मंडल से जुड़े हैं। उनके सम्पादन में निकला समकालीन सृजनका २२ वां धर्म, आतंकवाद और आजादी पर केंद्रित था। इसमें तमाम विचारकों के कुछ बेहतरीन लेख संकलित हैं।
शुरुआती कुछ साल गोवा में नौकरी करने के बाद पिछले काफ़ी वर्षों से प्रियंकरजी कोलकता में ही हैं। तमाम स्थानीय साहित्यिक/सांस्कृतिक संस्थाऒं से जुड़ाव है। इंद्र अवस्थी के मामा डा. प्रेम शंकर त्रिपाठी उनके जानने वालों में हैं। उसी बहाने काफ़ी देर स्व. आचार्य विष्णु कान्त शास्त्री के बारे में बातचीत होती रही जिन्होंने साहित्य की बात करते समय अपनी विचारधारा को कभी आड़े नहीं आने दिया।
विश्व हिंदी सम्मेलन के बहाने अरविन्द कुमार के योगदान के बारे में भी चर्चा हुयी। अरविंद कुमारजी ने अपनी बीस साल की साधना से हिंदी का पहला थिसारस समान्तर कोश तैयार किया है। मेरी एक पोस्ट पर टिप्पणी करते हुये उन्होंने लिखा था -जब विश्व हिंदी सम्मेलन में नेतागण जय हिंदी के नारे लगा रहे होंगे तब हम अपने नये प्रोजेक्ट में जुट चुके होंगे जो अगले दस साल में पूरा होगा।
चिट्ठाकारी के भी बारे में तमाम बातें हुयीं। जो मुद्दा सामने आया उस पर बतिया के उसे किनारे कर दिया। विवादास्पद/गैरविवादास्पद सभी पहलुऒं पर बातें हुयीं।
प्रियंकरजी और तमाम लोगों के अलावा खासकर ज्ञानदत्त, अनामदास, प्रमोदसिंह की भाषा के मुरीद हैं। समीरलालजी के लेखन की लोकप्रिय लेखन के कायल हैं लेकिन लगता है कि उनमें कुछ और गम्भीरता का पुट हो तो अच्छा है। हमने सुझाया कि भाई समीरजी, का लिखा हुआ हास्य पढ़कर लोग हल्के हो जाते हैं।इसलिये उड़नतश्तरी लोगों के हल्के होने का आदर्श हलका है। लोग वहां जाते ही हल्के होने के लिये हैं। :)
प्रमोदजी की भाषाई बहुस्तरीयता और ज्ञानजी की अंग्रेजी/हिंदी ब्लागिंग के बारे में भी गुफ़्तूगू हुई। मेरे ख्याल में ज्ञानजी अपनी भाषा का पुन:अन्वेषण कर रहे हैं।
उनको मैंने फोन पर बतियाते हुये कहा भी था- भाषा आपके लिये सोती सुन्दरी की तरह है। आप बहुत दिन बाद आये राजकुमार की तरह भाषाई झाड़-झंखाड़ काटते हुये जल्द ही अपनी सुंदरी के पास पहुंच जायेंगे।:)
ब्लागिंग का एक धनात्मक पहलू यह भी है कि ब्लागर लोग दिन में पांच-दस लेख तो पढ़ ही लेते हैं। तमाम न पढ़ने वालों की भी पढ़ने की आदत हो गयी है।
अफ़लातूनजी को भी कुछ समय दिया गया। उनके लड़कपन जिसको वे अपना जागरुकता मानते हैं पर भी हमने कुछ सूक्तियां प्रियंकरजी को सुनायीं। नारद प्रकरण के साथ भी न्याय किया गया। प्रियंकरजी के जो विचार थे वे पहले ही बता चुके थे। हमने भी इस पूरे मसले पर हुये लफ़ड़े पर अपने सुविचार जाहिर किये।
इस वार्ता क्रम के बीच कई बार सुखद घरेलू ब्रेक भी होते रहे। इनके बीच चाय-नाश्ता और प्रियंकर परिवार के सभी सदस्यों से प्रीतिकर बातें भी होंती रहीं। हमने भाभीजी से पूछा कि आपने उस प्रेम पत्र में क्या लिखा था जिसको बकरी खा गयी थी और उसके बाद प्रियंकरजी बकरी को मारने पर तुल गये थे। लेकिन उन्होंने कई बार पूछने के बावजूद इस मामले को स्विस बैंक के खाते की तरह गुप्त ही रखा। परंतु इस सवाल-जवाब से उनके पारिवारिक जीवन के और तमाम खुशनुमा स्मृति-झरोखे दिखे जिनसे होकर आती हवा उनके जीवन को खुसनुमा संजीवनी देती रहती है।
बिटिया गौरी से बतियाते हुये उनके माता-पिता की तमाम पोलपट्टी खुली। पता चला कि जब कोई अच्छा काम करती है तो दोनों उसे अपनी बिटिया बताने लगते हैं। वहीं अगर कुछ गलती हो जाती है तो बिटिया से जुड़ाव-भावना में वज्रगुणन हो जाता है- दोनों कहने लगते हैं कि यह हमारी नहीं मम्मी की/पापा की बिटिया है।
प्रियंकरजी ने अपने बारे में वह सच भी बताया जो हम पहले से जानते थे। उनको जब गुस्सा आता है तो बहुत जोर से आता है, प्रेम उमड़ता है तो बाढ़ सरीखा।
ऐसे व्यक्ति की तारीफ़ में लोग तमाम बातें कहते हैं। संवेदनशील हैं, दिल के साफ़ हैं, मन में कुछ नहीं रखते, कपटी नहीं हैं। आदि-इत्यादि। हमें उस समय यह सब याद ही नहीं आया। न मुझे नन्दनजी कविता ही याद आयी जो उनके स्वभाव के समर्थन में सुना देता( किसी नागवार गुज़रती चीज पर/मेरा तड़प कर चौंक जाना/उबल कर फट पड़ना/या दर्द से छटपटाना/कमज़ोरी नहीं है/मैं जिंदा हूं/इसका घोषणापत्र है/लक्षण है इस अक्षय सत्य का ) अत: मैंने निन्दा स्तुति का सहारा लेते हुये कहा-मुझे लगता है जो क्रोध करने की बात पर सहज क्रोध नहीं करता वह अक्सर बहुत घाघ व्यक्ति होता है। उस समय तो चुप रहता है लेकिन बाद में सदियों तक उस क्रोध की कमाई खाता रहता है। यह कहते हुये हम भूल गये थे कि हम शान्त प्रकृति के जीव माने जाते हैं। :)
प्रियंकरजी ने मेरा अब तक की सबसे खराब पोस्ट के बारे में भी जानकारी दी। आगे के तमाम आयोजनों की रूपरेखायें भी खींचीं गयीं। इनमें कोलकता में कुछ दिन के लिये ब्लागर मिलन/रहन-सहन टाइप के विचार भी थे। कोलकता में मान्या और शिवकुमार मिश्र जी भी बसते हैं लेकिन उनके अते-पते के बारे में प्रियंकरजी को उस शाम तक पता नहीं था। अत: उनसे मुलाकात अगली बार तक के लिये टल गयी।
इस बीच खाना भी लग गया। हमें इस बात पर अफ़सोस भी हुआ कि हमसे एक बार भी खाने के बारे में पूछा नहीं गया और मुझे मेरे, अरे खाने की क्या जरूरत है, इतना तो खिला दिया आपने, पेट में जगह नहीं है ,आप कहां परेशान होंगी, अगली बार आयेंगे तब खायेंगे, अच्छा थोड़ा सा लगा दीजिये, जो बना हो उसी में ले लेंगे, कोई अतिरिक्त मेहनत मत करियेगा, घराने की स्वाभाविक स्वाभाविक संवाद अदायगी से वंचित किया गया।
बहरहाल, बेहतरीन,लजीज खाना खाते-खाते प्रियंकरजी ने अपने कुछ घरेलू दुख भी बताये जैसे घर में उनकी पत्नी-बिटिया-बेटा मिलकर उन पर अपना रोब चलाते हैं। वे इस तरह बता रहे थे जैसे यह कोई नई बात हो। हमने उनको अपना एक और फार्मूला टिका दिया- जीवन साथी से डरना उतना जरूरी नहीं है जितना डरने का सटीक नाटक करना। (जो लोग डरने की जगह प्रेम करते हों वो डर की जगह प्रेम पढ़ सकते हैं ,जब तक बरकरार होने का भ्रम है :))
पता नहीं कैसे घड़ी की सुइयां आगे सरकती चली गयीं। बिना हमसे कुछ पूछे-बताये। रात भी काफ़ी हो गयी। हमें न चाहते हुये भी, प्रियंकरजी की दी हुयी किताबें समेटते हुये अपने को वापस जाने के लिये समेटना पड़ा।
हम घर से तो चल दिये लेकिन फिर से नीचे आकर बतियाने लगे। इस द्वाराचार में भी तमाम बातें हुयीं। हम बतियाते रहते अगर ड्राइवर पास न होता और यह अहसास न होता कि हमें अभी दमदम तक जाना है और ड्राइवर बेचारा सबेरे से हमारे साथ था।
हम वापस चल दिये। इस प्रीतिकर मुलाकात की जितनी बातें मैं कह पाया उससे कहीं ज्यादा अनकही रह गयीं। :)
अगले दिन फोन किया तो पता चला कि प्रियंकरजी घर में थे। बच्चे स्कूल चले गये थे। पता यह भी चला कि प्रियंकरजी भाभीजी से कुछ मूव मलने की गुजारिश करते पाये गये। हम यह नहीं पूछ पाये कि भाईजी यह दर्द कल की मुलाकात का है या एक बार फिर से बकरी द्वारा प्रेमपत्र खा जाने की याद ने हड्डियां हिला दीं।
ऐसे मूविंग पलों का अतिक्रमण करके हम भाभीजी से यह भी न कह सके कि भाभी कल खाना बहुत अच्छा बना था। :)

21 responses to “प्रियंकर- एक प्रीतिकर मुलाकात”

  1. masijeevi
    ‘ये जो मसिजीवी हैं वो अक्सर अपनी शरारत की आड़ में कुछ न कुछ उकसाने वाली बातें ठेल जाते हैं। यह इनकी फितरत है। आदतन ऐसा होता है इसके लिये कोई अतिरिक्त प्रयास इनको करना पड़ता हो ऐसा मुझे नहीं लगता। मसिजीवी इस बात को कन्फ़र्म करें या मना करें बिना हिंदी का अध्यापक होने का रोना रोते हुये।…’
    हम इसे पुरजोर तरीके से डिनाई करते हैं- ये अलहदा बात है कि हमारी पत्‍नी तक इसे कन्‍फर्म मानती हैं। जो मतलब अब आप निकालना चाहें, आपको स्‍वागत है। :)
    अरे चौपटस्‍वामी, प्रियंकर हैं, मतलब आपकी सूचना ठीक थी। हम भी अब आईपी एड्रेस वगैरह को पढ़ना सीखेंगे, अमित से। अब देखो न हम हिदी के मास्‍टर ठहरे….
  2. sujata
    जीवन साथी से डरना उतना जरूरी नहीं है जितना डरने का सटीक नाटक करना। (जो लोग डरने की जगह प्रेम करते हों वो डर की जगह प्रेम पढ़ सकते हैं ,जब तक बरकरार होने का भ्रम है
    *****
    सही फर्मूला दिया है ।ऎसे और भी फार्मूले बताइये ।
    संस्मरण बहुत बेहतरीन लगा । ठीक फुरसतिया अन्दाज़ मे लिखा गया ।वैसे हमारे यहां आयेन्गे तो खाने को हमतो पूछेन्गे ।लेकिन पूछेन्गे यह कि हमारे लिए भी खाना लाए हो ।
    :)
    खैर , मज़ाक रहा अलग । आप दिल्ली तशरीफ तो लाएं ।
  3. Sanjeet Tripathi
    बहुत बढ़िया विवरण दिया है आपने!!धन्यवाद!!
    ब्लॉगिंग के इस धनात्मक पहलू से मैं भी सहमत हूं, यहां पढ़ने को इतना कुछ और इतना अच्छा मिल जाता है कि सारा समय पढ़ने मे ही गुजर जाता है, लिखने जैसी किसी गलती करने को फ़िर मन ही नही होता ना समय बच पाता है!!
    प्रियंकर जी का व्यक्तित्व उनकी कविताओं से तो झलकता ही है पर जिस तरीके से आपने उनसे मिलवाया उस तरीके से मिलना भी अच्छा लगा!!
  4. maithily
    बहुत रोचक प्रस्तुति है. प्रियंकर जी मेरे भी प्रिय ब्लागर्स में शामिल हैं.
    आप दिल्ली भी तो आईये!
  5. ज्ञानदत्त पाण्डेय
    सुकुल उवाच > ….हमें न चाहते हुये भी, प्रियंकरजी की दी हुयी किताबें समेटते हुये अपने को वापस जाने के लिये समेटना पड़ा।
    अच्छा. प्रियंकर जी किताबें भी देते हैं. तब तो मुझे वहां जरूर जाना है. कलकत्ता में वैसे भी शिवकुमार मिश्र से मिलना है, ऊपर से प्रियंकर जी अगर हमें भी एक-आध किताब देने का प्रॉमिस करें तो जल्दी प्रोग्राम बनाया जाये.
    आपने बहुत अच्छा लिखा प्रियंकर जी के बारे में. हमेशा याद रहेगा.
  6. प्रत्यक्षा
    फोटो वोटो कहाँ है ?
  7. neelima
    नए नए थे तभी प्रियंकर जी से जबरजस्त डांट खा लिए थे प्रतितटिप्पणी के लिए भी सामने नहीं आए ! अब आप बता रहें हैं कि प्रियंकर जी स्वभाव ही ऎसा है पल में डांट पल में दुलार -तो कभी प्रूव करें वे इस तथ्य को हमारे चिट्ठे पर ;)चौपट धंधा कभी तो पडता होगा मंदा ;)
  8. सृजन शिल्पी
    इस मुलाकात के संस्मरण पढ़कर बहुत अच्छा लगा। प्रियंकर जी से इस मुलाकात की ख़बर पहले ही मिल चुकी थी और उसके विवरण का इंतजार कर रहा था। प्रियंकरजी भी अपनी जुबानी छूटी दास्तान सुनाएं तो आनन्द दोगुना हो जाए।
  9. संजय बेंगाणी
    आशा है अब प्रियंकर जी स्वस्थता पूर्वक है. आपकी जो आव-भगत हुई उसे देख लगता है अपना कलकत्ता न जाने का प्रण जल्दी ही तोड़ना पड़ेगा :)
  10. Amit
    इस बीच खाना भी लग गया। हमें इस बात पर अफ़सोस भी हुआ कि हमसे एक बार भी खाने के बारे में पूछा नहीं गया और मुझे मेरे, अरे खाने की क्या जरूरत है, इतना तो खिला दिया आपने, पेट में जगह नहीं है ,आप कहां परेशान होंगी, अगली बार आयेंगे तब खायेंगे, अच्छा थोड़ा सा लगा दीजिये, जो बना हो उसी में ले लेंगे, कोई अतिरिक्त मेहनत मत करियेगा, घराने की स्वाभाविक स्वाभाविक संवाद अदायगी से वंचित किया गया।
    यहाँ दिल्ली आएँगे तो कोशिश की जाएगी कि अरूण जी की सलाह पर अमल न किया जाए, बोले तो जाते टैम नहीं पूछेंगे खाने या पीने के लिए, औपचारिकता मात्र भर के लिए! ;) :)
  11. डा प्रभात टन्डन
    प्रियकंर जी के व्यक्तित्तव से परिचय कराया , बहुत ही अच्छा लगा , हाँ , प्रत्यक्षा जी की बात को मै भी दोहरा रहा हूँ कि यह फ़ोटो कहाँ गयी :)
  12. समीर लाल
    आज सुबह बहुत अच्छी रही. नींद खुलते ही यह बहु प्रतिक्षित लेख दिख गया. प्रिंयकर जी के बारे में आपकी शैली में जानना अति सुखकर रहा. उनकी लेखनी के तो हम हरदम से कायल रहे हैं और जो कवितायें वो चुनचुन कर लाते हैं, उन्हें पढ़ने का आनन्द भी हमेशा से लेते आये हैं. कलकत्ता कभी जाना नहीं हुआ बस तमन्ना है जाने की और अब एक वजह भी हो गई. :)
    समीरलालजी के लेखन की लोकप्रिय लेखन के कायल हैं लेकिन लगता है कि उनमें कुछ और गम्भीरता का पुट हो तो अच्छा है। हमने सुझाया कि भाई समीरजी, का लिखा हुआ हास्य पढ़कर लोग हल्के हो जाते हैं।इसलिये उड़नतश्तरी लोगों के हल्के होने का आदर्श हलका है। लोग वहां जाते ही हल्के होने के लिये हैं। :)
    -अब आप ही हमारी तरफ से बता आये तो हमारे कहने को कुछ रहा नहीं. गंभीरता के आवरण में तो यूँ भी सारी जिन्दगी निकली जा रही है, बस कुछ क्षण को भी तनिक हास्य की वजह बन जाये और साथ ही अपनी बात भी रख कर मन हल्का हो जाये तो अच्छा लगता है.
    -अच्छा लगा संपूर्ण ब्यौरा. प्रियंकर जी से पहले भी भवानी जी की कविता पर निवेदन किया था और पुनः करता हूँ कि वो भी इस मुलाकात पर कुछ अपनी कलम चलायें..अभी तो फुरसतिया जी का एकतरफा बयान आया है.:)
  13. arvind chaturvedi
    पूरा का पूरा शब्दचित्र. सम्पूर्ण वर्णन.
    पढ कर अच्छा लगा.
    कानपुर वालों का एक अलग क्लब बनाना चाहिये.
    पहल करे खातिर हुम आगे आय का तैयार हैं. है कौनो और जो एहमां हाथ बटाये के खातिर ?
    अरविन्द चतुर्वेदी
  14. bhuvneh
    mulakat ke baare mein padhkar accha laga….
  15. mamta
    प्रियंकर जी और अआप्की मुलाकात का विवरण पढ़ कर बहुत अच्छा लगा। और प्रत्यक्षा जी से हम भी सहमत है। इस मुलाकात की फोटो तो होनी ही चाहिऐ ।
  16. Isht Deo Sankrityaayan
    अत्यंत प्रवाहशील और रोचक संस्मरण है. बधाई.
  17. अनुराग श्रीवास्तव
    बहुत खूब. बकरी वाली बात मज़ेदार लगी.
  18. एक चिट्ठी शिवजी के नाम
    [...] की परम्परा नहीं है। प्रमाण के लिये प्रियंकरजी-फ़ुरसतिया मीट का हवाला दे [...]
  19. उन दुआओं का मुझपे असर चाहिए
    [...] कड़ियां: १. प्रियंकर- एक प्रीतिकर मुलाकात २. किलक-किलक उठने वाला सम्पादक और [...]
  20. …अथ कोलकता मिलन कथा
    [...] तो सबंधों का भिंडंतोपरान्त प्रीतिकर स्थाईकरण हो चुका है। आप लोग अपना देख लो। अगर [...]
  21. : फ़ुरसतिया-पुराने लेखhttp//hindini.com/fursatiya/archives/176
    [...] प्रियंकर- एक प्रीतिकर मुलाकात [...]

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