http://web.archive.org/web/20140419215625/http://hindini.com/fursatiya/archives/438
मैं उनसे मिला तो अनायास बातें ब्लागिंग की होनी लगीं। अखिलेश जी का मानना था कि ब्लागिंग में अराजकता की सहज सम्भावनायें हैं। किसी को कुछ भी लिखने की छूट होने के कारण वह किसी के भी बारे में कुछ भी लिख देगा और दुनिया इसे चटकारे ले-लेकर पढ़ेगी। उदाहरण देते हुये उन्होंने कहा- मान लीजिये किसी प्रसिद्ध साहित्यकार के बारे में कोई घटिया बात लिख कर मेरी किताब में छापने को देता है तो पहले तो मैं इसका सत्यता जांचने का प्रयास करूंगा और उस साहित्यकार से जानकारी करूंगा तब इस बारे में कोई निर्णय करूंगा। लेकिन ब्लाग अभिव्यक्ति का छुट्टा माध्यम होने के नाते लेखक को बेलगाम छोड़ देता है। यह बिना जिम्मेदारी की मिली आजादी है।
मैंने कहा -आपकी बात सही है। ब्लागिंग अभिव्यक्ति की सहज विधा है। तुरंत अभिव्यक्ति इसकी सामर्थ्य है और यही इसकी सीमा। सोचने, लिखने और पोस्ट करने के बीच समय अंतराल इतना कम होता है कि तमाम ऐसी चीजें सामने आती हैं जो शायद किसी दूसरे अभिव्यक्ति के माध्यम में न आ पाती हैं। लेकिन यह भी है कि ऐसे लोग अल्पसंख्यक हैं। इसके अलावा ऐसा सनसनीपरक लेखन अल्पजीवी होता है। अपनी मौत मर जाता है। लोग इसका विरोध करते हैं।
ब्लागिंग ने आम लोगों को अभिव्यक्ति का मौका मुहैया कराया है। तमाम प्रसिद्ध लेखक, साहित्यकार भी इस विधा का उपयोग कर रहे हैं। आपको भी अपना ब्लाग शुरू करना चाहिये। मैंने उनको सुझाव दिया।
इस पर अखिलेश जी का कहना था- मुझे ब्लागिंग आत्मप्रचार का जरिया सा लगता है। आप अपनी तस्वीर लगा रहे हैं, अपने बारे में लिख रहे हैं, अपनी तारीफ़ कर रहे हैं। ब्लागिंग का यह रूप मुझे खटकता है। मेरा मन:स्थिति ऐसी है आत्मप्रचार मुझे घटिया चीज लगती है।
मेरा कहना था -तब तो आपको और जरूरी है ब्लाग लिखना। आप इस नयी विधा का उपयोग करके लोगों के सामने नजीर पेश कर सकते हैं कि इस तरह लेखन करना चाहिये। देश , दुनिया, समाज के अनेकानेक पहुलुऒं पर अपने विचार व्यक्त करके उदाहरण पेश कर सकते हैं ऐसा भी सोचा जा सकता है। फिर जो तमाम लोग कुछ आत्मपरक लेखन कर रहे हैं वे भी अपने माध्यम से दुनिया को देख-दिखा रहे हैं। आप इस विधा की नकारात्मकता कम करने के उपाय बता सकते हैं।
अपने तद्भव के संपादन के चलते देश के तमाम लेखकों, साहित्यकारों से लगातार संपर्क में रहने के कारण और साल में कुछेक कहानियां लिखकर शायद मेरी अभिव्यक्ति की जरूरत पूरी हो जाती है। शायद इसीलिये और किसी अभिव्यक्ति के माध्यम की ललक उतनी नहीं होती होगी मुझमें। अखिलेश जी ने ऐसा कुछ कहा।
इस पर मेरा कहना था- आप दिन-प्रतिदिन तमाम अनुभवों से गुजरते होंगे। उनमें से कुछ को अपनी कहानियों में ला पाते होंगे कुछ को अपने संपादकीय में । संपादकीय तीन माह में एक बार ही लिख पाते होंगे। आपके और तमाम अनुभव जिनको अभिव्यक्ति नहीं मिल पाती होगी वे समय के साथ बिसर जाते होंगे। आप उनको अपनी अभिव्यक्ति दे सकते हैं। अपने ब्लाग में लिख सकते हैं।
इस पर अखिलेश जी का कहना था- अनुभव कोई बेकार नहीं जाता। वो किसी न किसी रूप में बना रहता है और समय आने पर अभिव्यक्त होता है। मेरे साथ यह भी है जो कि शायद मेरी कमी है कि मैं कोई भी काम कभी अधूरे मन से नहीं करता। मेरा मन करता है कि जो करो उसे सबसे अलग , सबसे अच्छे तरीक से करो या फिर न करो। ब्लागिंग की तात्कालिकता शायद मेरे इस स्वभाव से मेल न खाती हो।
इसी तरह की और तमाम बातें ब्लागिंग के बारे में उससे अलग भी हुयीं। अखिलेश जी ने कई ब्लाग और ब्लाग एग्रीगेटर के पते मुझसे लिये। शायद जल्द ही वे भी इस ब्लाग जगत में अपने लेखन से सामने आयें।
अखिलेश जी जो पत्रिका तद्भव निकालते हैं वह इस समय की सबसे अच्छी पत्रिकाओं में से हैं। इसका हर अंक संग्रहणीय होता है। ताजे अंक में प्रत्यक्षा जी की कहानी आयी है। फ़ूलपुर की फ़ुलवरिया मिसराइन।
इलाहाबाद की बातें हुयीं तो तमाम बातें और हुयीं। बोधिसत्व और तमाम साथियों के कुछ-कई किस्से भी सुने-सुनाये गये। लेखक -प्रकाशक संबंध पर भी बतकही हुयी। वह फिर कभी सही।
अखिलेश जी ने कथादेश में एक लेख लिखा था। मैं और मेरा समय श्रंखला का यह लेख आप यहां पढ सकते हैं । इसके कुछ अंश यहां दिये जा रहे हैं-
१.दुनिया के महान से महान प्रेम के नायक या नायिका के भीतर प्यार के स्फुरण की वजह अति साधारण, तुच्छ और हंसोड़ रही होगी।
२.साहित्य सृजन किसी भी दशा में कम महत्वपूर्ण या घटिया कार्य नहीं है।
३.लेखक बनने को मैं नियामत क्यों न मानूं। उसने मुझको संसार को तीव्रता से मह्सूस करने और समझने की क्षमता दी। लेखक होने की वजह से ही मेरी त्वचा स्पर्श के साथ एक और स्पर्श अनुभव करती है।
४.जब कोई लेखक बनता है तो उसे एक शाप लग जाता है जो कि वरदान भी होता है। उसके भीतर सम्वेदनात्मक ज्ञान की, ज्ञानात्मक सम्वेदना की, अतीन्दियता की अग्नियां जल जाती हैं। इसी प्रकार की तमाम और चीजों की अग्नियां जल जाती हैं। यकीन मानिये- एक सच्चे लेखक के भीतर ढेर सारी अग्नियां जलती रहती हैं जिनमें उसकी बहुत सी प्रसन्नता, आराम, इत्मिनान, उसकी खुदगर्जी, उसका ढेर सारा सुअरपन जलकर राख हो जाता है। इन अग्नियों के कारण उसके अनुभव सामान्य इनसानों की तरह कच्चे नहीं रह पाते, पक जाते हैं।
५.किसको इस अनहोनी की आशंका थी कि माफिया डान, बलात्कारी, हत्यारे, डकैत, लौंडेबाज, मसखरे और मूर्ख भारत की संसद तथा विधानसभाऒं को अपनी चिल्लाहट, गुंडागर्दी, साम्प्रदायिकता के वायुविकार से भर देंगे।
६.कोई शराब मांगेगा, आइसक्रीम मांगेगा, स्त्री का शरीर मांगेगा, घूस मांगेगा, कुछ भी मांगेगा। उसे नहीं मिलेगा तो गोली मार देगा । कोई कहेगा कि उसका धर्म सर्वोच्च है, यदि सामने वाले ने स्वीकार नहीं किया तो उसे खत्म कर दिया जायेगा।
७.हमारे समय की यह त्रासदी ही है कि वह असंख्य विपत्तियों की चपेट में है लेकिन उससे कहीं अधिक भयानक त्रासदी यह है कि विपत्तियों का प्रतिरोध नहीं है। इधर हम अपनी सभी राष्ट्रीय लड़ाइयां बिना लड़े ही हार रहे हैं।
८.मां का कैरेक्टर अब निरुपा राय नहीं, पैंतीस साल तक की जवान, हसीन और साबुत चमकीले दांतों वाली छम्मकछल्लो करती हैं जिनकी अपनी सेक्स अपील होती है। ढेर सारी पत्र-पत्रिकायें यही काम कर रही हैं। यानि कि घोषित किया जा रहा है कि वैभवपूर्ण एवं भोगमय यह संसार ही असल हकीकत है।
९.शहर से मैं प्यार करता हूं लेकिन शहर के लिये मेरे मन में घृणा भी अपरम्पार है। वे पतनोन्मुख विकास के प्रतीक बन चुके हैं।
१०.अन्धे ड्राइवर विकास का वाहन दौड़ा रहे हैं। सामाजिक दुर्घटनायें, सामाजिक मृत्यु और सामाजिक बीमारियां इसके उत्पाद हैं। जैविक बीमारियां भी इफरात हैं। आने वाले समय में-मौजूदा विकास के भविष्य में-सड़कों के किनारे दुकानें होंगी और सड़कों पर आदमी नहीं केवल वाहन दिखेंगे।
११.विडम्बना यह है कि लोग विज्ञापनों की नकल कर रहे हैं या व्यक्तित्वों की, लेकिन उनमें बोध यह है कि वे सबसे अलग हैं। क्योंकि इसी राजनीति से बाजार विकसित होगा। बाजार यही करता है। वह लोगों को गुलाम बनाता है लेकिन अहसास देता है कि वे परम स्वतंत्र हैं।
१२.बाजार का सन्देश है कि सफलता ही असली मूल्य है, बाकी सारे मूल्य ढकोसले और बूढ़े हैं।उनमें सुन्दरता नहीं, चमक नहीं, शक्ति नहीं। पाना ही मोक्ष है। क्या खोकर पाया जा रहा है, समाज से इस विवेक का बाजार अपहरण कर लेता है।
१३.आत्यंतिक सुन्दरतायें चेतना और हृदय में बसती हैं और आंखों, होंठों और मत्थे पर दिखाई देकर विचारों और भावनाऒं में प्रकट होती हैं। लेकिन बाजार बताता है कि सुन्दरता क्रीम, साबुन, पाउडर, बाडी लोशन, तेल, बाल सफा में बसती है। यह उसी तरह है जैसे बाजार उपदेश देता है कि दुख स्त्री, दलित और गरीबी में नहीं है, वह आपके पास रेफ्रिजरेटर या लक्जरी कार या चाकलेट न होने में है। बाजार की वसीकरण विद्या कमाल दिखाती है और लोग समझने लगते हैं कि ज्ञान चेतना में नहीं इंटरनेट में ही बसता है। कर्म मनुष्य नहीं कम्प्यूटर ही करता है।
ब्लागिंग में अराजकता की सहज सम्भावनायें हैं
By फ़ुरसतिया on May 28, 2008
अखिलेश
लखनऊ में अखिलेश जी से भी मिलना हुआ। अखिलेश जी से मेरी पहली मुलाकात
शाहजहांपुर में हुई थी। हृदयेशजी को पहल सम्मान मिला था। उसी सम्मान समारोह
में शामिल होने वे शाहजहांपुर आये थे। कुछ ही दिन पहले मैंने उनकी कहानी चिट्ठी
पढ़ी थी। इस कहानी के तमाम पात्र मुझे जाने-पहचाने लगे। जिस समय अखिलेश जी
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में थे उसी समय मैं वहां मोतीलाल नेहरू इंजीनियरिंग
कालेज में था। लेकिन वहां मिलन-जुलन न हुआ। इलाहाबाद के पढ़े तमाम जो आजकल
मुंबई में हैं उनमें से अधिकतर अखिलेश जी के बाद के हैं। इस कहानी में
रघुराज का जिक्र भी आया है। अनिल भाई बतायें कि क्या उनसे कुछ लिंक है क्या
इस कहानी का?मैं उनसे मिला तो अनायास बातें ब्लागिंग की होनी लगीं। अखिलेश जी का मानना था कि ब्लागिंग में अराजकता की सहज सम्भावनायें हैं। किसी को कुछ भी लिखने की छूट होने के कारण वह किसी के भी बारे में कुछ भी लिख देगा और दुनिया इसे चटकारे ले-लेकर पढ़ेगी। उदाहरण देते हुये उन्होंने कहा- मान लीजिये किसी प्रसिद्ध साहित्यकार के बारे में कोई घटिया बात लिख कर मेरी किताब में छापने को देता है तो पहले तो मैं इसका सत्यता जांचने का प्रयास करूंगा और उस साहित्यकार से जानकारी करूंगा तब इस बारे में कोई निर्णय करूंगा। लेकिन ब्लाग अभिव्यक्ति का छुट्टा माध्यम होने के नाते लेखक को बेलगाम छोड़ देता है। यह बिना जिम्मेदारी की मिली आजादी है।
मैंने कहा -आपकी बात सही है। ब्लागिंग अभिव्यक्ति की सहज विधा है। तुरंत अभिव्यक्ति इसकी सामर्थ्य है और यही इसकी सीमा। सोचने, लिखने और पोस्ट करने के बीच समय अंतराल इतना कम होता है कि तमाम ऐसी चीजें सामने आती हैं जो शायद किसी दूसरे अभिव्यक्ति के माध्यम में न आ पाती हैं। लेकिन यह भी है कि ऐसे लोग अल्पसंख्यक हैं। इसके अलावा ऐसा सनसनीपरक लेखन अल्पजीवी होता है। अपनी मौत मर जाता है। लोग इसका विरोध करते हैं।
ब्लागिंग ने आम लोगों को अभिव्यक्ति का मौका मुहैया कराया है। तमाम प्रसिद्ध लेखक, साहित्यकार भी इस विधा का उपयोग कर रहे हैं। आपको भी अपना ब्लाग शुरू करना चाहिये। मैंने उनको सुझाव दिया।
इस पर अखिलेश जी का कहना था- मुझे ब्लागिंग आत्मप्रचार का जरिया सा लगता है। आप अपनी तस्वीर लगा रहे हैं, अपने बारे में लिख रहे हैं, अपनी तारीफ़ कर रहे हैं। ब्लागिंग का यह रूप मुझे खटकता है। मेरा मन:स्थिति ऐसी है आत्मप्रचार मुझे घटिया चीज लगती है।
मेरा कहना था -तब तो आपको और जरूरी है ब्लाग लिखना। आप इस नयी विधा का उपयोग करके लोगों के सामने नजीर पेश कर सकते हैं कि इस तरह लेखन करना चाहिये। देश , दुनिया, समाज के अनेकानेक पहुलुऒं पर अपने विचार व्यक्त करके उदाहरण पेश कर सकते हैं ऐसा भी सोचा जा सकता है। फिर जो तमाम लोग कुछ आत्मपरक लेखन कर रहे हैं वे भी अपने माध्यम से दुनिया को देख-दिखा रहे हैं। आप इस विधा की नकारात्मकता कम करने के उपाय बता सकते हैं।
अपने तद्भव के संपादन के चलते देश के तमाम लेखकों, साहित्यकारों से लगातार संपर्क में रहने के कारण और साल में कुछेक कहानियां लिखकर शायद मेरी अभिव्यक्ति की जरूरत पूरी हो जाती है। शायद इसीलिये और किसी अभिव्यक्ति के माध्यम की ललक उतनी नहीं होती होगी मुझमें। अखिलेश जी ने ऐसा कुछ कहा।
इस पर मेरा कहना था- आप दिन-प्रतिदिन तमाम अनुभवों से गुजरते होंगे। उनमें से कुछ को अपनी कहानियों में ला पाते होंगे कुछ को अपने संपादकीय में । संपादकीय तीन माह में एक बार ही लिख पाते होंगे। आपके और तमाम अनुभव जिनको अभिव्यक्ति नहीं मिल पाती होगी वे समय के साथ बिसर जाते होंगे। आप उनको अपनी अभिव्यक्ति दे सकते हैं। अपने ब्लाग में लिख सकते हैं।
इस पर अखिलेश जी का कहना था- अनुभव कोई बेकार नहीं जाता। वो किसी न किसी रूप में बना रहता है और समय आने पर अभिव्यक्त होता है। मेरे साथ यह भी है जो कि शायद मेरी कमी है कि मैं कोई भी काम कभी अधूरे मन से नहीं करता। मेरा मन करता है कि जो करो उसे सबसे अलग , सबसे अच्छे तरीक से करो या फिर न करो। ब्लागिंग की तात्कालिकता शायद मेरे इस स्वभाव से मेल न खाती हो।
इसी तरह की और तमाम बातें ब्लागिंग के बारे में उससे अलग भी हुयीं। अखिलेश जी ने कई ब्लाग और ब्लाग एग्रीगेटर के पते मुझसे लिये। शायद जल्द ही वे भी इस ब्लाग जगत में अपने लेखन से सामने आयें।
अखिलेश जी जो पत्रिका तद्भव निकालते हैं वह इस समय की सबसे अच्छी पत्रिकाओं में से हैं। इसका हर अंक संग्रहणीय होता है। ताजे अंक में प्रत्यक्षा जी की कहानी आयी है। फ़ूलपुर की फ़ुलवरिया मिसराइन।
इलाहाबाद की बातें हुयीं तो तमाम बातें और हुयीं। बोधिसत्व और तमाम साथियों के कुछ-कई किस्से भी सुने-सुनाये गये। लेखक -प्रकाशक संबंध पर भी बतकही हुयी। वह फिर कभी सही।
अखिलेश जी ने कथादेश में एक लेख लिखा था। मैं और मेरा समय श्रंखला का यह लेख आप यहां पढ सकते हैं । इसके कुछ अंश यहां दिये जा रहे हैं-
१.दुनिया के महान से महान प्रेम के नायक या नायिका के भीतर प्यार के स्फुरण की वजह अति साधारण, तुच्छ और हंसोड़ रही होगी।
२.साहित्य सृजन किसी भी दशा में कम महत्वपूर्ण या घटिया कार्य नहीं है।
३.लेखक बनने को मैं नियामत क्यों न मानूं। उसने मुझको संसार को तीव्रता से मह्सूस करने और समझने की क्षमता दी। लेखक होने की वजह से ही मेरी त्वचा स्पर्श के साथ एक और स्पर्श अनुभव करती है।
४.जब कोई लेखक बनता है तो उसे एक शाप लग जाता है जो कि वरदान भी होता है। उसके भीतर सम्वेदनात्मक ज्ञान की, ज्ञानात्मक सम्वेदना की, अतीन्दियता की अग्नियां जल जाती हैं। इसी प्रकार की तमाम और चीजों की अग्नियां जल जाती हैं। यकीन मानिये- एक सच्चे लेखक के भीतर ढेर सारी अग्नियां जलती रहती हैं जिनमें उसकी बहुत सी प्रसन्नता, आराम, इत्मिनान, उसकी खुदगर्जी, उसका ढेर सारा सुअरपन जलकर राख हो जाता है। इन अग्नियों के कारण उसके अनुभव सामान्य इनसानों की तरह कच्चे नहीं रह पाते, पक जाते हैं।
५.किसको इस अनहोनी की आशंका थी कि माफिया डान, बलात्कारी, हत्यारे, डकैत, लौंडेबाज, मसखरे और मूर्ख भारत की संसद तथा विधानसभाऒं को अपनी चिल्लाहट, गुंडागर्दी, साम्प्रदायिकता के वायुविकार से भर देंगे।
६.कोई शराब मांगेगा, आइसक्रीम मांगेगा, स्त्री का शरीर मांगेगा, घूस मांगेगा, कुछ भी मांगेगा। उसे नहीं मिलेगा तो गोली मार देगा । कोई कहेगा कि उसका धर्म सर्वोच्च है, यदि सामने वाले ने स्वीकार नहीं किया तो उसे खत्म कर दिया जायेगा।
७.हमारे समय की यह त्रासदी ही है कि वह असंख्य विपत्तियों की चपेट में है लेकिन उससे कहीं अधिक भयानक त्रासदी यह है कि विपत्तियों का प्रतिरोध नहीं है। इधर हम अपनी सभी राष्ट्रीय लड़ाइयां बिना लड़े ही हार रहे हैं।
८.मां का कैरेक्टर अब निरुपा राय नहीं, पैंतीस साल तक की जवान, हसीन और साबुत चमकीले दांतों वाली छम्मकछल्लो करती हैं जिनकी अपनी सेक्स अपील होती है। ढेर सारी पत्र-पत्रिकायें यही काम कर रही हैं। यानि कि घोषित किया जा रहा है कि वैभवपूर्ण एवं भोगमय यह संसार ही असल हकीकत है।
९.शहर से मैं प्यार करता हूं लेकिन शहर के लिये मेरे मन में घृणा भी अपरम्पार है। वे पतनोन्मुख विकास के प्रतीक बन चुके हैं।
१०.अन्धे ड्राइवर विकास का वाहन दौड़ा रहे हैं। सामाजिक दुर्घटनायें, सामाजिक मृत्यु और सामाजिक बीमारियां इसके उत्पाद हैं। जैविक बीमारियां भी इफरात हैं। आने वाले समय में-मौजूदा विकास के भविष्य में-सड़कों के किनारे दुकानें होंगी और सड़कों पर आदमी नहीं केवल वाहन दिखेंगे।
११.विडम्बना यह है कि लोग विज्ञापनों की नकल कर रहे हैं या व्यक्तित्वों की, लेकिन उनमें बोध यह है कि वे सबसे अलग हैं। क्योंकि इसी राजनीति से बाजार विकसित होगा। बाजार यही करता है। वह लोगों को गुलाम बनाता है लेकिन अहसास देता है कि वे परम स्वतंत्र हैं।
१२.बाजार का सन्देश है कि सफलता ही असली मूल्य है, बाकी सारे मूल्य ढकोसले और बूढ़े हैं।उनमें सुन्दरता नहीं, चमक नहीं, शक्ति नहीं। पाना ही मोक्ष है। क्या खोकर पाया जा रहा है, समाज से इस विवेक का बाजार अपहरण कर लेता है।
१३.आत्यंतिक सुन्दरतायें चेतना और हृदय में बसती हैं और आंखों, होंठों और मत्थे पर दिखाई देकर विचारों और भावनाऒं में प्रकट होती हैं। लेकिन बाजार बताता है कि सुन्दरता क्रीम, साबुन, पाउडर, बाडी लोशन, तेल, बाल सफा में बसती है। यह उसी तरह है जैसे बाजार उपदेश देता है कि दुख स्त्री, दलित और गरीबी में नहीं है, वह आपके पास रेफ्रिजरेटर या लक्जरी कार या चाकलेट न होने में है। बाजार की वसीकरण विद्या कमाल दिखाती है और लोग समझने लगते हैं कि ज्ञान चेतना में नहीं इंटरनेट में ही बसता है। कर्म मनुष्य नहीं कम्प्यूटर ही करता है।
Posted in संस्मरण | 21 Responses
खैर लिखने को लिख दिया। पर बहस की भी बहुत गुंजाइश है।
लेकिन उससे कहीं अधिक भयानक त्रासदी यह है कि विपत्तियों का प्रतिरोध नहीं है।
इधर हम अपनी सभी राष्ट्रीय लड़ाइयां बिना लड़े ही हार रहे हैं।
पर लड़ने से रोक कौन रहा है, गुरुवर ?
ज़रूरी तो नहीं कि तलवार ही भाँजी जाये ?
दुत्तकारा तो जा सकता है, और क्षमा करें
बिना लड़े कोई हार नहीं बल्कि आत्मसमर्पण होता है ।
जिसको कह सकते हैं घूटना टेकना !
is post ke liye hriday se dhanyavaad
अखिलेश जी का इंतजार है.
तद्भव पर यदा-कदा नज़र पड़ते रहती है।
शुक्रिया।
बिना जिम्मेदारी की मिली आजादी?? यही बात शायद ज्यादा जिम्मेदारी का अहसास कराती है यदि व्यक्ति विवेक एवं संवेदनायें जिन्दा हों तो अन्यथा तो बेवजह सड़क पर खड़े होकर गाली गलोच करते लोग भी दिख ही जाते हैं. उन पर ध्यान थोड़ी न दिया जाता है. विवेक एवं स्व-अनुशासन ही समाज को सही दिशा देता है.
कहानी के अंश बढ़िया प्रस्तुत किये हैं आपने. आभार.
आपकी दी हुई लिंक्स पर कुछ नहीं मिला…..
अखिलेश जी मना करते रहे पर आप डटे रहे।
उम्मीद है कि आपकी मेहनत सफल होगी।
बढ़िया है।
आत्मप्रचार से घृणा क्यों? अच्छे लोग आत्मप्रचार नहीं करेंगे तो बुरे लोग सफल हो जाएँगे।