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साइकिल के हैंडल पर सवार फ़ुरसतिया
By फ़ुरसतिया on May 20, 2008
जब आप अपने किसी विचार को बेवकूफी की बात समझकर लिखने से बचते
हैं तो अगली पोस्ट तभी लिख पायेंगे जब आप उससे बड़ी बेवकूफी की बात को
लिखने की हिम्मत जुटा सकेंगे। फ़ुरसतिया
आज सबेरे मैंने झलक दिखला जा की तरह एक सपना देखा।
सपने में देखा कि हम एक साइकिल के हैंडल पर पैर रखे लटकाये चले जा रहे हैं। पैर हैंडल के आगे ऐसे लटके हैं जैसे कुर्सी से नीचे लटके रहते हैं। सपना यहीं पर ‘द एन्ड‘ हो गया। सपने की सरकार समय के समर्थन के अभाव में गिर गयी।
सपना तो अपनी दुकान समेट के चला गया लेकिन साइकिल मेरे सामने नाच रही है। नाच क्या रही है दिख रही है। एक साइकिल , साइकिल के हैंडल पर पैर लटकाये बैठे हम। और हम सोचने में बिजी हो गये।
हैंडल पर पैर रखे साइकिल चला रहे हैं मतलब अव्वल दर्जे के कामचोर। किसी ढ़लान पर खड़े होकर बैठ गये होंगे साइकिल पर और साइकिल नीचे ढलान पर उतरती चली जा रही होगी। स्थितिज ऊर्जा को गतिज ऊर्जा में रूपान्तरण को हम बने निखट्टू देख रहे हैं। मतलब हम साइकिल को नहीं साइकिल हमको चला रही है।
ढलान से मान लीजिये हमको परहेज है। हम समझते हैं ढलान पतन का परिचायक है। तो और कोई दूसरा उदाहरण खोजा जा सकता है।
समझा जा सकता है कि हम साइकिल के हैंडल पर पैर रखे हैं। चले जा रहे हैं। पीछे से धक्का लगाने के लिये लोग लगे हैं। हम जमीन से तीन फ़ुट ऊपर विराजे (फ़ुरसतिये /ठेलुहे हैं तो विराजना ही लिखा जायेगा न!) जमीन से जुड़े लोगों को रोजगार देने में लगे हैं। खुद आराम से ऐंइया रहे हैं, पसीना बहाने का काम मेहनती लोगों को आउटसोर्स कर दिया है।
इसी तरह की तमाम अगड़म-बगड़म बाते सोचते रहे। अभी तक सोच रहे हैं। सोचने में किसका बस है। हर्र लगे न फिटकरी ,रंग फ़र्र से चोखा।
सोचा तो यह भी कि पिछले तमाम दिनों से यायावरी के जो ख्बाब सोचते चले जा रहे हैं उसी की झलक तो नहीं है यह झलक दिखला जा दुई मिन्टिया मैगी सपना! पिछले दिनों नर्मदा पुत्र के नाम से जाने जाने वाले अमृतलाल बेगड़ के बारे में बहुत पढ़ा। वे कई बार नर्मदा परिक्रमा कर चुके हैं। दो दिन पहले रेडियोनामा में यायावरी सत्यनारायणजी के बारे में भी सुना तो इस ख्याल में और चुनमुनाहट आयी।
ज्ञानी और तथाकथित रूप से सभ्य जीवन जीने वाले ज्ञान जी को देशज और जमीन से जुड़े लोग बार-बार आकर्षित करते हैं। वे बारे-बार उनके बारे में ठेल -रिठेल करते हैं। अपनी ब्लागरेल चलाते हैं।
बड़ा लफ़ड़ा है। मन बहुत नठिया है। न जाने कैसे-कैसे सवाल सामने ले आता है। सवाल के जबाब अभी पूरे हुये नहीं और ब्लागिंग का पीरियड खतम हो गया। अब अगला घंटा शुरु। साइकिल के हैंडल से उतर के कुर्सी पर बैठने का समय नजदीक आ गया।
लेकिन जाने के पहले एक और बतिया तो सुनते जाइये। यह भी हो सकता है कि यह सब साइकिल-फ़ाइकिल जो हमें दिखी उसके पीछे अजित जी और डा.बेजी का हाथ हो। आज बेजी ने लिखा फुरसतिया जी की चिट्ठाचर्चा और लंबी पोस्ट्स…पता नहीं क्यों पर फुरसतिया शब्द दिमाग में कौंधते ही वे साईकल पर दिखते हैं…
यह हो सकता है और पूरा हो सकता है कि इधर यह पोस्ट चढी हो और उधर तस्वीर हमारे सपने में आ गयी हो। जैसे घरों में लोग आते हैं तो बच्चों से कहा जाता है -चलो बेटा अंकल को कविता सुनाओ। इसी तरह उधर बेजी ने फ़ुरसतिया को साइकिल पर सवार देखा और इधर सपना-इंचार्ज ने हमें साइकिल के हैंडल पर बैठा दिया।
लेकिन अब तो हम उतर गये। जा रहे हैं कुर्सी पर बैठने।
आज सबेरे मैंने झलक दिखला जा की तरह एक सपना देखा।
सपने में देखा कि हम एक साइकिल के हैंडल पर पैर रखे लटकाये चले जा रहे हैं। पैर हैंडल के आगे ऐसे लटके हैं जैसे कुर्सी से नीचे लटके रहते हैं। सपना यहीं पर ‘द एन्ड‘ हो गया। सपने की सरकार समय के समर्थन के अभाव में गिर गयी।
सपना तो अपनी दुकान समेट के चला गया लेकिन साइकिल मेरे सामने नाच रही है। नाच क्या रही है दिख रही है। एक साइकिल , साइकिल के हैंडल पर पैर लटकाये बैठे हम। और हम सोचने में बिजी हो गये।
हैंडल पर पैर रखे साइकिल चला रहे हैं मतलब अव्वल दर्जे के कामचोर। किसी ढ़लान पर खड़े होकर बैठ गये होंगे साइकिल पर और साइकिल नीचे ढलान पर उतरती चली जा रही होगी। स्थितिज ऊर्जा को गतिज ऊर्जा में रूपान्तरण को हम बने निखट्टू देख रहे हैं। मतलब हम साइकिल को नहीं साइकिल हमको चला रही है।
ढलान से मान लीजिये हमको परहेज है। हम समझते हैं ढलान पतन का परिचायक है। तो और कोई दूसरा उदाहरण खोजा जा सकता है।
समझा जा सकता है कि हम साइकिल के हैंडल पर पैर रखे हैं। चले जा रहे हैं। पीछे से धक्का लगाने के लिये लोग लगे हैं। हम जमीन से तीन फ़ुट ऊपर विराजे (फ़ुरसतिये /ठेलुहे हैं तो विराजना ही लिखा जायेगा न!) जमीन से जुड़े लोगों को रोजगार देने में लगे हैं। खुद आराम से ऐंइया रहे हैं, पसीना बहाने का काम मेहनती लोगों को आउटसोर्स कर दिया है।
इसी तरह की तमाम अगड़म-बगड़म बाते सोचते रहे। अभी तक सोच रहे हैं। सोचने में किसका बस है। हर्र लगे न फिटकरी ,रंग फ़र्र से चोखा।
सोचा तो यह भी कि पिछले तमाम दिनों से यायावरी के जो ख्बाब सोचते चले जा रहे हैं उसी की झलक तो नहीं है यह झलक दिखला जा दुई मिन्टिया मैगी सपना! पिछले दिनों नर्मदा पुत्र के नाम से जाने जाने वाले अमृतलाल बेगड़ के बारे में बहुत पढ़ा। वे कई बार नर्मदा परिक्रमा कर चुके हैं। दो दिन पहले रेडियोनामा में यायावरी सत्यनारायणजी के बारे में भी सुना तो इस ख्याल में और चुनमुनाहट आयी।
एक स्थायी जीवन जीवन जीने वाला अस्थातित्व के लिये हुड़कता है। बंजारा टाइप
जिंदगी जीते-जीते आदमी खूंटा तलासता है। मतलब जो जिसको उपलब्ध होता है उससे
इतर के लिये हुड़कता है।
एक स्थायी जीवन जीवन जीने वाला अस्थातित्व के लिये हुड़कता है। बंजारा
टाइप जिंदगी जीते-जीते आदमी खूंटा तलासता है। मतलब जो जिसको उपलब्ध होता है
उससे इतर के लिये हुड़कता है। ज्ञानी और तथाकथित रूप से सभ्य जीवन जीने वाले ज्ञान जी को देशज और जमीन से जुड़े लोग बार-बार आकर्षित करते हैं। वे बारे-बार उनके बारे में ठेल -रिठेल करते हैं। अपनी ब्लागरेल चलाते हैं।
बड़ा लफ़ड़ा है। मन बहुत नठिया है। न जाने कैसे-कैसे सवाल सामने ले आता है। सवाल के जबाब अभी पूरे हुये नहीं और ब्लागिंग का पीरियड खतम हो गया। अब अगला घंटा शुरु। साइकिल के हैंडल से उतर के कुर्सी पर बैठने का समय नजदीक आ गया।
लेकिन जाने के पहले एक और बतिया तो सुनते जाइये। यह भी हो सकता है कि यह सब साइकिल-फ़ाइकिल जो हमें दिखी उसके पीछे अजित जी और डा.बेजी का हाथ हो। आज बेजी ने लिखा फुरसतिया जी की चिट्ठाचर्चा और लंबी पोस्ट्स…पता नहीं क्यों पर फुरसतिया शब्द दिमाग में कौंधते ही वे साईकल पर दिखते हैं…
यह हो सकता है और पूरा हो सकता है कि इधर यह पोस्ट चढी हो और उधर तस्वीर हमारे सपने में आ गयी हो। जैसे घरों में लोग आते हैं तो बच्चों से कहा जाता है -चलो बेटा अंकल को कविता सुनाओ। इसी तरह उधर बेजी ने फ़ुरसतिया को साइकिल पर सवार देखा और इधर सपना-इंचार्ज ने हमें साइकिल के हैंडल पर बैठा दिया।
लेकिन अब तो हम उतर गये। जा रहे हैं कुर्सी पर बैठने।
Posted in बस यूं ही | 11 Responses
अभी तो सिर्फ़ यह कहना है कि मेरी सइकिलिया तो लौटा देओ, मुझे पता होता
कि मेरी सइकिलिया के हैंडल पर पैर लटकाने का इतना माहात्म्य है, तो हम
हर्गिज़ न देते यह साइकिल !
लौटा देओ गुरु, तो हमहूँ एक पोस्ट लिख लेई ।
नमस्कार !
log aapke Cycle ko dhakka de kar aapko bhaga rahe honge ye sochkar ki bahut Fursatiya liya.. ab nikalo nikhattu ko..
अच्छा ख्याल है. एक पंक्ति याद आ रही है – पहाड ताकत से नहीं हिम्मत से होते हैं पार.
घंटी वाली और कैरियर वाली ।