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अथ बारात कथा
By फ़ुरसतिया on January 13, 2009
[कल दफ़्तर जाते-जाते जबलपुर के किस्से
शुरू किये। कुछ साथियों ने ये दिल मांगे मोर की तर्ज पर और किस्से सुनाने
के लिये कहा है। जनता-जनार्दन की बेहद मांग पर जबलपुर की आगे की दास्तान
पेश है। लेकिन इसके पहिले अगर मन करे तो एक और बारात के किस्से बांच लिये जायें जिसमें हमने लिखा था:
इससे हमारे इस सिद्धांत की पुष्टि हुई कि चीजे चाहे जितनी मार्डन हो जायें लेकिन ठीक ठोकने-पीटने पर ही होती हैं। फ़िर वो चाहे किसी आधुनिक होटल आटोलाक हो या तेल कंपनियों की हड़ताल।
हां त बता रहे थे तिवारीजी के बारे में। हम लोग शाम को टहलते हुये होटल के सामने ही बने तिवारी टी स्टाल गये। वहां हाफ़-कट चाय पिये। बताया गया कि तीन रुपये की यही चाय होटल में पच्चीस रुपये की मिलती है। बैठे-बैठे कई बाइस रुपये बचाये। मन तो किया कि कुछ दिन जबलपुर में ही रहें और हज्जारों रुपये की बचत कर डालें। मंदी के दौर से गुजरते अमेरिका के लिये यही मुफ़ीद है कि वो तिवारी टी स्टाल में चाय पिये और पैसे बचाये।
जिनके नाम पर दुकान थी वे तिवारी जी साल भर पहले चले गये दुनिया से। फ़ोटो लगा था दुकान में। नीचे तारीखें लिखीं थीं आने-जाने की। दुकान बेटा चलाता है। अगले दिन सुबह गये श्रीमती तिवारी दुकान संभाले थीं। घर-दुकान साथ है। बेटा-बहू सुबह थोड़ा आराम से उठते हैं इसलिये वे सुबह देख लेती हैं दुकान। हमने तिवारीजी के बारे में बात करना शुरू किया। कैसे गये? बीमार थे क्या? वे बताती रहीं कि कैसे दिल के दौरे के बाद चले गये तिवारीजी। फ़िर उन्होंने पूछा- आप तिवारीजी को कैसे जानते हैं? हमने बताया कि हम जानते नहीं लेकिन उनकी फोटॊ से उनके बारे में पता चला। फ़िर वे और यादें बांटती रहीं। हम वाय पीते हुये रुपये बचाते रहे।
एक बार हमें फ़िर लगा कि हर व्यक्ति के पास सुनाने-बताने को बहुत कुछ रहता है। सुनने वाले कम होते जाते हैं। यही मांग और आपूर्ति का संकट ससुर अकेलेपन, अवसाद के संकट कें बदल जाता है।
वहीं लोग दूल्हे को आसन्न जिंदगी के ह्सीनतम संकट से मुकाबला करने के लिये आशीष दे रहे थे। महिलायें मंगलटीका लगा रहीं थीं। बुजुर्ग लोग आपस में ताश के पत्तों की तरह अपनी खुशनुमा यादें फ़ेंट रहे थे। तमाम बच्चियां च लड़कियां खिलखिलाते हुये बारात के लिये तैयार होते हुये सारा माहौल उल्लासमय कर रहीं थीं।
और देखते ही देखते वहां ,बारातियों की भीड़ को काई की तरह फ़ाड़ती हुई सी, एक बग्घी आकर खड़ी हो गयी। । ऊंचा रूआबदार घोड़ा, चांदी की तरह चमकती बग्घी। रिवाज के मुताबिक उस पर दूल्हे के बाबा और साथ में दूल्हेराजा बैठे। और बारात चल पड़ी। हम भी चल पड़े। साथ देने के लिये ही तो आये थे। थोड़ी देर में आज मेरे यार की शादी ने अपना कार्यभार यह देश है वीर जवानों का, अलबेलों का मस्तानों का को थमा दिया और बारात खरामा-खरामा चलती रही। डांस करते हुये। समीरलाल जी भी डांस करते हुये पकड़े गये लेकिन इस बार उनके हाथ में कोई झंडा नहीं था।
बारात के दोनों तरफ़ बिजली के हंडो की डांससीमा खिंची हुई थी। बिजली के हंडों को अपने सर पर लादे महिलायें और लड़कियां, शायद अभ्यास न होने के कारण, एक दूसरे को खींच रही थीं और आंखों ही आंखों में एक-दूसरे को हुड़क-घुड़क रहीं थीं। जैसे ब्लागर लोग आपस में टिपिया के मामले को इधर-उधर खींचते हैं और मामला वहीं का वहीं बना रहता है वैसे ही हंडे को कोई कभी आगे खींच लेता तो कोई पीछे लेकिन संतुलन बना रहता। बारात के आगे पटाखे और आतिशबाजी छुडाई जा रही थी। जमकर डांस होता रहा। हम किनारे खड़े देखते रहे।
हम देखते रहे और सोचते रहे कि बारातियों के भी क्या मजे हैं। बारात के लिये लोग कित्ता तो तैयार होते हैं। सूट-बूट पहिनते हैं। महीनों से साड़ी-ब्लाउज की मैचिंग तय होती है। इत्र-वित्र, सेंट-फ़ेंट, डियो-फ़ियो लगाते हैं और पांच-दस मिनट में सब बराबर हो जाता है। डांस करने में निकला पसीना सारी सुगन्ध की सरकार गिरा देता है। हाथ-पैर इधर-उधर फ़ेंकने कपड़े भी साथ रहते हैं और इधर-उधर, अस्त-व्यस्त हो जाते हैं। लेकिन यह एक डांस-डरे हुये व्यक्ति का बयान है। किनारे खड़े हुये डांस का मजा लेने वाला ऐसेइच बोलेगा जी।
सबने अपने-अपने ब्लाग के नाम से बताये जैसे मिलने पर विजिटिंग कार्ड अदल-बदल किये जाते हैं। हमने भी शरमाते हुये बताया हम फ़ुरसतिया हैं इसीलिये कानपुर से आये हैं शादी में।
फ़िर तो हड़बड़ी में तमाम बातें खिंच गयीं। ज्ञानरंजनजी से हम मिलना चाहते थे तो पता चला कि वे बाहर गये हैं तीन-चार दिन के लिये। युनुस का भी जिक्र आया कि युनुस की आवाज को अपने घर-शहर ने तवज्जो न दी तो अब मुंबई में छा गये। ब्लाग्जगत के तमाम किस्से सुने-सुनाये गये। महेन्द्रजी और डा.विजय तिवारी ने अपने ब्लागिंग के कुछ किस्से सुनाये। कुछ देर में ही साथी लोग चले गये। लोकल होने का यही तो फ़ायदा है। अगले दिन फ़िर मिलने का सोच था लेकिन फ़िर वो हो न सका।
बबाल भाई समीरलाल जी के बड़े फ़ैन टाइप हैं। उनकी भी घणी तारीफ़ करू उन्होंने। हमें बड़ा खराब सा लग रहा था। अब भला बताओ कि किराया खर्चा करके हम वहां समीरलालजी की तारीफ़ सुनने गये थे क्या? उसके लिये तो अपना नेट कनेक्शन बहुत है। मन तो किया कि बबालजी को सब खुलासा करके बता दें कि समीरलालजी की असलियत क्या है और वे उत्ते भले हैं नहीं जित्ते दिखते हैं (कम हैं या ज्यादा है क्या हैं ये हमही जानते हैं) । लेकिन फ़िर लगा कि यह नीतिसंगत न होगा। उनका नमक भी खा चुके थे और होटल में रहकर मेजबान से बैर नहीं लेना नहीं चाहिये। लिहाजा हम भी कान बंद कर उनकी तारीफ़ सुनते रहे और संगत के लिये एकाध झूठी तारीफ़ हमने भी कर दी समीरलालकी।
बबालजी ने सीमा गुप्ताजी की भी काफ़ी तारीफ़ की। उनकी शायरी के भाव की। हमने भी उनकी हां में हां मिलाई। सीमाजी की शायरी में पीड़ा इत्ती है कि अगर ३२००० का सेंसेक्स उसे सुन ले तो बेचारा ३२०० और आकर खड़ा हो जाये। अमेरिकी लोगों के दुख की अभिव्यक्ति के लिये अगर कोई स्टीक चीज सक्षम है तो सीमाजी की शायरी। लेकिन हमें सीमाजी की शायरी से भी अच्छा उनके लोगों के ब्लाग पर कमेंट लगते हैं। बिंदास, बेलौस और केन्द्रीय भाव को समेटते हुये। हर टिप्पणी के अंत में Regards। लगता है यही उनका पासवर्ड है।
वैसे हमें लगता है कि बहर-काफ़िया-वाफ़िया तो चौकस बात है लेकिन जिस तरह की मरघटी गजल शादी-व्याह के मौके पर समीरलाल लिखे हैं उस पर तो उनके खिलाफ़ मीसा तामील हो जाना चाहिये। अब बताओ बारात में ठुमकने के लिये तैयार होते समय ये लिखना कहां से जायज है:
कफ़न है आसुओं का और शहीदों की मज़ारें है
बचे है फूल कितने अब, बागबां ये आंकता है
अच्छा हुआ हम थे नहीं वर्ना वहीं हूट कर देते। बच गये समीरलाल। और शायद समीरलाल इसी हूटिंग के डर से फोटो खिंचाते समय भी डरे-डरे से दिखे। देखिये दोनों समधी कैसे सावधान मुद्रा में खड़े हैं फ़ोटो में।
किस्से जारी हैं….
बारात का केन्द्रीय तत्व तो दूल्हा होता है। जब मैं किसी दूल्हे को देखता हूं तो लगता है कि आठ-दस शताब्दियां सिमटकर समा गयीं हों दूल्हे में।दिग्विजय के लिये निकले बारहवीं सदी किसी योद्धा की तरह घोड़े पर सवार। कमर में तलवार। किसी मुगलिया राजकुमार की तरह मस्तक पर सुशोभित ताज (मौर)। आंखों के आगे बुरकेनुमा फूलों की लड़ी-जिससे यह पता लगाना मुश्किल कि घोड़े पर सवार शख्स रजिया सुल्तान हैं या वीर शिवाजी ।पैरों में बिच्छू के डंकनुमा नुकीलापन लिये राजपूती जूते। इक्कीसवीं सदी के डिजाइनर सूट के कपड़े की बनी वाजिदअलीशाह नुमा पोशाक। गोद में कंगारूनुमा बच्चा (सहबोला) दबाये दूल्हे की छवि देखकर लगता है कि कोई सजीव बांगड़ू कोलाज चला आ रहा है।]
आप तिवारी जी को जानते हैं
ठहरने का इंतजाम समीरलाल जी ने धांसू च फ़ांसू किया था। मार्डन टाइप होटल। कमरे की बत्ती जलाने के लिये चाबी घुसानी पड़ती। पहली बार देखे ई जलवा। वहीं बाथरूम का दरवाजा ऐसा कि अगर बाहर से बंद कर लिया तो न बाहर से खुलता न अन्दर से। हमसे पहिले दीपक झेल चुके होंगे इसलिये जब हमसे अनजाने में बंद हो गया तो उसमें कूछ घुसा के और थोड़ा ठोंक के खोले।इससे हमारे इस सिद्धांत की पुष्टि हुई कि चीजे चाहे जितनी मार्डन हो जायें लेकिन ठीक ठोकने-पीटने पर ही होती हैं। फ़िर वो चाहे किसी आधुनिक होटल आटोलाक हो या तेल कंपनियों की हड़ताल।
हां त बता रहे थे तिवारीजी के बारे में। हम लोग शाम को टहलते हुये होटल के सामने ही बने तिवारी टी स्टाल गये। वहां हाफ़-कट चाय पिये। बताया गया कि तीन रुपये की यही चाय होटल में पच्चीस रुपये की मिलती है। बैठे-बैठे कई बाइस रुपये बचाये। मन तो किया कि कुछ दिन जबलपुर में ही रहें और हज्जारों रुपये की बचत कर डालें। मंदी के दौर से गुजरते अमेरिका के लिये यही मुफ़ीद है कि वो तिवारी टी स्टाल में चाय पिये और पैसे बचाये।
जिनके नाम पर दुकान थी वे तिवारी जी साल भर पहले चले गये दुनिया से। फ़ोटो लगा था दुकान में। नीचे तारीखें लिखीं थीं आने-जाने की। दुकान बेटा चलाता है। अगले दिन सुबह गये श्रीमती तिवारी दुकान संभाले थीं। घर-दुकान साथ है। बेटा-बहू सुबह थोड़ा आराम से उठते हैं इसलिये वे सुबह देख लेती हैं दुकान। हमने तिवारीजी के बारे में बात करना शुरू किया। कैसे गये? बीमार थे क्या? वे बताती रहीं कि कैसे दिल के दौरे के बाद चले गये तिवारीजी। फ़िर उन्होंने पूछा- आप तिवारीजी को कैसे जानते हैं? हमने बताया कि हम जानते नहीं लेकिन उनकी फोटॊ से उनके बारे में पता चला। फ़िर वे और यादें बांटती रहीं। हम वाय पीते हुये रुपये बचाते रहे।
एक बार हमें फ़िर लगा कि हर व्यक्ति के पास सुनाने-बताने को बहुत कुछ रहता है। सुनने वाले कम होते जाते हैं। यही मांग और आपूर्ति का संकट ससुर अकेलेपन, अवसाद के संकट कें बदल जाता है।
बारात की तैयारी
चाय पीकर लौटने के बाद हम बारात के लिये तैयार होने लगे। कपड़े हमारे पहिले से तय थे। इस मामले में हम मैनीक्वीन हैं। जो पहनाया जाता है पहन लेते हैं। शादी के लिये सूट तो एक ही लाये थे सो उसमें तो कोई डाउट नहीं था। लेकिन टाई दो आ गयीं थीं। उनने थोड़ा लफ़ड़ा करने का प्रयास किया कि कौन गले पड़े। लेकिन हमने अपनी प्रतिभा का उपयोग करके मामला तुरन्त सुलटा लिया। असल में एक में गांठ बंधी थी और दूसरी में बांधनी थी। अब हमें टाई की गांठ बांधनी तो अभी तक नहीं आती सो हमने तड़ से तय किया कि जिसमें गांठ पहिले से बंधी है उसी को बांधना है। दूसरी गांठ के लिये रिस्क नहीं लेना। और हम बाराती बनकर नीचे आ गये।पगड़ियां ही पगड़ियां
नीचे आये तो देखा कि सब तरफ़ पगडियां ही पगड़ियां दिख रहीं थीं। समीरलालजी के परिवार के लोगों ने सूट के ऊपर पगड़ियां धारण कर ली थीं और बारात के लिये तैयार हो गये थे। पगडियों ने गंजो और बाल वालों के बीच का भेद भाव मिटाकर सबके चेहरे पर लड़के वालों का भाव बिखेर दिया था। सब कित्ते तो अच्छे लग रहे थे। बारातोत्सुक। और तो और समीरलाल तक एकदम क्यूट से लग रहे थे।वहीं लोग दूल्हे को आसन्न जिंदगी के ह्सीनतम संकट से मुकाबला करने के लिये आशीष दे रहे थे। महिलायें मंगलटीका लगा रहीं थीं। बुजुर्ग लोग आपस में ताश के पत्तों की तरह अपनी खुशनुमा यादें फ़ेंट रहे थे। तमाम बच्चियां च लड़कियां खिलखिलाते हुये बारात के लिये तैयार होते हुये सारा माहौल उल्लासमय कर रहीं थीं।
और बारात चल पड़ी
आखिर वो घड़ी आ गयी जिसका था हमें इंतजार। होटल के पास ही पिछवाड़े तक पहुंचकर हम लोग बारात बनकर खड़े हो गये। जैसे कोई फ़ास्ट बालर विकेट के पीछे खड़ा होकर गेंद अपने पैंट पर रगड़ते हुये अंपायर के सिग्नल का इंतजार करता है वैसे ही सब बाराती होटल के पास ही करीब सौ मीटर चलकर बारात चलने के लिये सिग्नल आज मेरे यार की शादी है वाले बैंड के बजने का इंतजार करने लगे।और देखते ही देखते वहां ,बारातियों की भीड़ को काई की तरह फ़ाड़ती हुई सी, एक बग्घी आकर खड़ी हो गयी। । ऊंचा रूआबदार घोड़ा, चांदी की तरह चमकती बग्घी। रिवाज के मुताबिक उस पर दूल्हे के बाबा और साथ में दूल्हेराजा बैठे। और बारात चल पड़ी। हम भी चल पड़े। साथ देने के लिये ही तो आये थे। थोड़ी देर में आज मेरे यार की शादी ने अपना कार्यभार यह देश है वीर जवानों का, अलबेलों का मस्तानों का को थमा दिया और बारात खरामा-खरामा चलती रही। डांस करते हुये। समीरलाल जी भी डांस करते हुये पकड़े गये लेकिन इस बार उनके हाथ में कोई झंडा नहीं था।
बारात के दोनों तरफ़ बिजली के हंडो की डांससीमा खिंची हुई थी। बिजली के हंडों को अपने सर पर लादे महिलायें और लड़कियां, शायद अभ्यास न होने के कारण, एक दूसरे को खींच रही थीं और आंखों ही आंखों में एक-दूसरे को हुड़क-घुड़क रहीं थीं। जैसे ब्लागर लोग आपस में टिपिया के मामले को इधर-उधर खींचते हैं और मामला वहीं का वहीं बना रहता है वैसे ही हंडे को कोई कभी आगे खींच लेता तो कोई पीछे लेकिन संतुलन बना रहता। बारात के आगे पटाखे और आतिशबाजी छुडाई जा रही थी। जमकर डांस होता रहा। हम किनारे खड़े देखते रहे।
हम देखते रहे और सोचते रहे कि बारातियों के भी क्या मजे हैं। बारात के लिये लोग कित्ता तो तैयार होते हैं। सूट-बूट पहिनते हैं। महीनों से साड़ी-ब्लाउज की मैचिंग तय होती है। इत्र-वित्र, सेंट-फ़ेंट, डियो-फ़ियो लगाते हैं और पांच-दस मिनट में सब बराबर हो जाता है। डांस करने में निकला पसीना सारी सुगन्ध की सरकार गिरा देता है। हाथ-पैर इधर-उधर फ़ेंकने कपड़े भी साथ रहते हैं और इधर-उधर, अस्त-व्यस्त हो जाते हैं। लेकिन यह एक डांस-डरे हुये व्यक्ति का बयान है। किनारे खड़े हुये डांस का मजा लेने वाला ऐसेइच बोलेगा जी।
और ये हुआ जयमाल
आखिर बारात वापस पहुंची होटल और वहां फ़िर खाने-पीने का दौर शुरु हुआ। खूब खुला हुआ आकाश। आसमान सर्दी के बम गिरा रहा था। मुकाबले के लिये हमारे पास अंगीठी की तोपें और कोट-स्वेटरों के बख्तरबंद थे। क्या तो हसीन मुकाबला हो रहा था। स्टेज पर डीजे डांस करा रहा था। देखते-देखते जयमाल हो गया। दूल्हा-दुल्हन की खूबसूरत जुगल-जोड़ी देखने में इत्ता मशगूल हो गये कि हम ध्यान ही नहीं दिये कि बहारों फ़ूल बरसाओ मेरा महबूब आया है गाना बजा कि नहीं। सब लोग दूल्हा-दुल्हन को बधाई/आशीष देने में लग लिये।आप कौन सा ब्लाग लिखते हैं
इत्ते में समीरलाल ने हमें अचानक जबलपुर के स्थानीय ब्लागरों के हवाले कर दिया। हम अचानक सारा जगत ब्लागमय हो गया। महेन्द्र मिश्र , डा.विजय तिवारी, जबलपुर चौपाल और इसके बाद फ़िर भाई बबाल से मुलाकात हुई।सबने अपने-अपने ब्लाग के नाम से बताये जैसे मिलने पर विजिटिंग कार्ड अदल-बदल किये जाते हैं। हमने भी शरमाते हुये बताया हम फ़ुरसतिया हैं इसीलिये कानपुर से आये हैं शादी में।
फ़िर तो हड़बड़ी में तमाम बातें खिंच गयीं। ज्ञानरंजनजी से हम मिलना चाहते थे तो पता चला कि वे बाहर गये हैं तीन-चार दिन के लिये। युनुस का भी जिक्र आया कि युनुस की आवाज को अपने घर-शहर ने तवज्जो न दी तो अब मुंबई में छा गये। ब्लाग्जगत के तमाम किस्से सुने-सुनाये गये। महेन्द्रजी और डा.विजय तिवारी ने अपने ब्लागिंग के कुछ किस्से सुनाये। कुछ देर में ही साथी लोग चले गये। लोकल होने का यही तो फ़ायदा है। अगले दिन फ़िर मिलने का सोच था लेकिन फ़िर वो हो न सका।
किस्सा-ए-बबाल
: रात को फ़िर खाना वाला खाने के बाद वहीं खुले में फ़िर बबाल भाई से खुलकर बातें हुईं। उन्होंने कव्वाली के बारे में, अपने उस्ताद के बारे में, अपने काम के बारे में और तमाम किस्से सुनाये। बबाल भाई को सुनते रहने का अलग ही मजा है। उस्ताद के बारे में बताते हुये उन्होंने बताया कि कैसे एक ही बात कहने के लिये लखनऊ में एक शब्द चलन है और दिल्ली में दूसरे शब्द का।बबाल भाई समीरलाल जी के बड़े फ़ैन टाइप हैं। उनकी भी घणी तारीफ़ करू उन्होंने। हमें बड़ा खराब सा लग रहा था। अब भला बताओ कि किराया खर्चा करके हम वहां समीरलालजी की तारीफ़ सुनने गये थे क्या? उसके लिये तो अपना नेट कनेक्शन बहुत है। मन तो किया कि बबालजी को सब खुलासा करके बता दें कि समीरलालजी की असलियत क्या है और वे उत्ते भले हैं नहीं जित्ते दिखते हैं (कम हैं या ज्यादा है क्या हैं ये हमही जानते हैं) । लेकिन फ़िर लगा कि यह नीतिसंगत न होगा। उनका नमक भी खा चुके थे और होटल में रहकर मेजबान से बैर नहीं लेना नहीं चाहिये। लिहाजा हम भी कान बंद कर उनकी तारीफ़ सुनते रहे और संगत के लिये एकाध झूठी तारीफ़ हमने भी कर दी समीरलालकी।
बबालजी ने सीमा गुप्ताजी की भी काफ़ी तारीफ़ की। उनकी शायरी के भाव की। हमने भी उनकी हां में हां मिलाई। सीमाजी की शायरी में पीड़ा इत्ती है कि अगर ३२००० का सेंसेक्स उसे सुन ले तो बेचारा ३२०० और आकर खड़ा हो जाये। अमेरिकी लोगों के दुख की अभिव्यक्ति के लिये अगर कोई स्टीक चीज सक्षम है तो सीमाजी की शायरी। लेकिन हमें सीमाजी की शायरी से भी अच्छा उनके लोगों के ब्लाग पर कमेंट लगते हैं। बिंदास, बेलौस और केन्द्रीय भाव को समेटते हुये। हर टिप्पणी के अंत में Regards। लगता है यही उनका पासवर्ड है।
धमाल पहले ही हो चुका था
पता चला कि एक दिन पहले ही धमाल हो चुका है। शादी की पूर्व संध्या पर बबाल-समीरलाल के सौजन्य से कव्वाली कार्यक्रम हो चुका था। रचनाजी ने भी अपनी कविता पढ़ी और जिसे लोगों ने खूब सराहा और तमाम लोगों ने इसकी प्रतिलिपि मांगी। मजबूरन अगले दिन लोगों की मांग पू्री करने के लिये हम लोग जबलपुर में कैफ़े खोज रहे थे। यह भी पता कि बबालजी ने जो गजल गाई थी वो समीरलाल ने लिखी थी लेकिन इसके आगे का पता नहीं चल पाया कि समीरलाल को कहां से मिली थी।वैसे हमें लगता है कि बहर-काफ़िया-वाफ़िया तो चौकस बात है लेकिन जिस तरह की मरघटी गजल शादी-व्याह के मौके पर समीरलाल लिखे हैं उस पर तो उनके खिलाफ़ मीसा तामील हो जाना चाहिये। अब बताओ बारात में ठुमकने के लिये तैयार होते समय ये लिखना कहां से जायज है:
कफ़न है आसुओं का और शहीदों की मज़ारें है
बचे है फूल कितने अब, बागबां ये आंकता है
अच्छा हुआ हम थे नहीं वर्ना वहीं हूट कर देते। बच गये समीरलाल। और शायद समीरलाल इसी हूटिंग के डर से फोटो खिंचाते समय भी डरे-डरे से दिखे। देखिये दोनों समधी कैसे सावधान मुद्रा में खड़े हैं फ़ोटो में।
किस्से जारी हैं….
आज दूसरे भाग से पढना शुरु किया और हम भी बाराती से बन गए जी
बहुत प्रवाह लिये लिखा है
और ऐसे शब्द बस ..आप “पेटन्ट ” करवा लो !
सच !
-लावण्या
सेंत ख़राब होने का डर था क्या?
कहीं किसी को इम्प्रेस करने का इरादा तो नहीं बना रहे थे?
इसे पढ़कर डिलीट कर दीजियेगा, कहीं आपकी मैडम ने यह पढ़ लिया तो इन सवालों से ही आपका सर फोड़ देंगी..
….
Regards
हमेशा की तरह कमाल का लेखन. पर पिछली पोस्ट पर हमारा कमेन्ट काहे नहीं दिख रहा है? भई, तारीफ़ ही करे थे.
मंदी के दौर से गुजरते अमेरिका के लिये यही मुफ़ीद है कि वो तिवारी टी स्टाल में चाय पिये और पैसे बचाये।
तिवारी जी साल भर पहले चले गये दुनिया से। फ़ोटो लगा था दुकान में। नीचे तारीखें लिखीं थीं आने-जाने की।
एक बात बिल्कुल साफ है कि समीरजी के राज खोलने में सभी ब्लॉगरों को मजा आता है। मैं तो ये मजा (2008
समीर लाल (उड़नतशतरी) ब्लॉग जगत के डेविड धवन है
) पहले ही उठा चुका हूं। वैसे आपने बारात की आंखों देखा हाल सुना दिया। और को आर्थिक मंदी से बचने के कारगर उपाय भी। बेहतरीन लेखन के लिए फिर से बधाई।
प्रियंकर जी से कलम मांग रहा था मैं लेखन के लिये, पर आपसे झटकना हो तो यह ऑब्जर्वेशन की दृष्टि झटकनी होगी!
कमाल का लेखन!
अभी तो फ़ेरे-वेरे तक पोस्ट के पहुँचने में विलम्ब है..
मैं ज़रा पूछ कर आता हूँ कि, एन०आर०आई० दूल्हे की बारात में..
‘ यह देश है वीर ज़वानों का…’ बजता है, तो समधी जी क्या महसूस करते होंगे ?
और, एक एतराज़ भी आपकी पंचायत में दर्ज़ की जाये..
यहाँ चित्र तो कट-पेस्टीय तकनीक से टाँचें गयें हैं..
ओरिज़िनलवा कहाँ छोड़ आये हाय मेरे गुईंयाँ ?
पूरा का पूरा बयान भी ओरिज़िनल नहीं है, यह तो ठहरा..
बयान-ए- अभिनव की शादी में फ़ुरसतिया दीवाना
शादी किसी की.. बयान आपका.. ओरिज़िनल ?
वाकई फोटो में यही मुद्रा है.चलिए हम बारात में नही गए तो क्या हुआ आँखों देखा हाल तो सुन लिया …वैसे कार्ड से लाईट जालने वाले होटल तो बहुतेरे है…ये चाभी वाले होटल कौन से है ??? आपने अपनी फोटो नही दिखाई…..हम सुनिश्चित करना चाहते है की आपने वो लाल स्वेटर तो नही पहना….हमने समीर जी को खास हिदायत दी थी की आपके लाल स्वेटर की….जरा फोटो तो दिख्वाये .
‘ये देश है वीर जवानों का’ हर शादी में क्यों बजता है?
मजा आ गया।
. वैसे आप कोई रुपया नहीं बचा पाये. अब होटल की चाय २५ रुपये की हो या ५० की. आपको तो फ्री ही मिलती, फिर काहे ३ रुपये का खून किये.
अगर बारात में आप भी नाच देते तो जबलपुरिये तो ठिठक ही जाते कनपुरिया नाच देख कर
. ठीक ही किये कि नहीं नाचे. बवाल हमारा सत्य का पुजारी है, जो सच है वही बोलता है. हम तो शुरु से आजमाये हैं उसे, जब वह छात्र था.
कव्वाली जो आप समझे वो गलत
. ये वाली तो नवम्बर में बम धमाको पर लिखी गई थी. प्रोग्राम में नहीं गाई गई अतः आप होते तो भी हूट न कर पाते बल्कि हमारे साथ ठुमका लगाते नजर आते.
जो गज़ल बवाल ने गाई
( अन्य अनेक गज़लों के साथ) वो थी:
कब से उधार बाकी है, इक तेरी नजर का
अब तक खुमार बाकी है, इक तेरी नजर का.
जिंदा हूँ अब तलक मेरी सांसे भी चल रहीं,
उन्हें इन्तजार बाकी है, इक तेरी नजर का.
उम्दा कलाम मेरा सब शेर सज चुके हैं
केवल शुमार बाकी है, इक तेरी नजर का.
महफिल सजाऊँ किस तरह, अबकी बहार में,
पल खुशगवार बाकी है, इक तेरी नजर का.
दम अटका है जिगर का, कमबख्त नहीं निकले
तिरछा सा वार बाकी है, इक तेरी नजर का.
बिछड़े हैं हम सफर में, कुछ दूर साथ चल ले
दिल तलबगार बाकी है, इक तेरी नजर का.
अब के समीर कह गया बिन गाये ही गज़ल
साजों पे वार बाकी है, इक तेरी नजर का.
-समीर लाल ‘समीर’
बाकी सब चकाचक
. आप थे तो बहार थी. क्रमशः का इन्तजार है.
आजकल मॉडर्न होटलों में ऐसा ही होता है, चाबी की जगह कार्ड होता है जिसको द्वार में लगाओ तो ताला खुलता है और फिर कमरे की दीवार में एक खाँचा होता है जिसमें उस कार्ड को डालो तो कमरे में बिजली प्रवाह आरंभ होता है! एकदम विलायती ईश्टाईल!
ओवेरनाईट नहीं काफीनाईट फ़ुरसतिया
बड़ा ही चकाचक सीधा प्रसारण!!
दुई थो ठुमका लगा देतेव महाराज तो का बेगार जात?
अब आप वहां थे तो यह “किस्सा-ए-जबलपुर” पढकर भी वो कमी पूरी हो जायेगी. आप तो फ़ुरसतिया दृष्टि ने जो देखा वो लिखते रहिये फ़िर किसी को मलाल नही रहेगा.
आज ताऊ-एक्सप्रेस जरा लेट चल रही है सो सबसे आखिर मे भागते दौडते पहुंच पाये हैं.
रामराम.
अच्छा ही हुआ इस बीच समीर जी का संशोधन आ गया। बारात वैसी ही रही जैसी आम तौर पर रहा करती है। फर्क था तो ये कि और बारातों में फुरसतिया नहीं होते, इस में वह भी थे।
अच्छा ये किये कि समीर लाल जी की आप ने भी तारीफ कर दी। वरना बाकी बातें कहने के लिए आप ने बबाल भाई का चुनाव बिलकुल गलत कर लिया था। वाकई बबाल खड़क जाता तो बरात का क्या होता?
टिपियाना अगली किस्त में बाकी रहा, दुबारा मेहनत नहीं हो रही है।
नीरज
वैसे तो मेरी पुरज़ोर पैरवी, मेरे आदरणीय समीरलाल जी और गुरुजी द्विवेदी जी ने कर ही दी है तो अब कुछ कहने सुनने की क्रमश: के अलावा बनती नहीं । मगर एक वक़ील होने के नाते मुझे अपनी थोड़ी पैरवी तो करनी ही चाहिए ना । और वो ये के सबसे पहले मुझे इतनी बड़ी तवज्जो देने के लिए आपको सादर धन्यवाद और साधुवाद । मैं जो लगातार समीर भाई के साथ बना रहा वो भी इतने सुन्दर ढ़ंग से शायद जबलपुर की कथा बयाँ न कर पाता, जो आपने की । रही बात “मन तो किया कि बबालजी को सब खुलासा करके बता दें कि समीरलालजी की असलियत क्या है और वे उत्ते भले हैं नहीं जित्ते दिखते हैं (कम हैं या ज्यादा है क्या हैं ये हमही जानते हैं)” की, तो बड्डे यहाँ भी पिंटू के ज़माने के टुन्नू हैं, अत: ख़ुलासे वुलासे का शौक़ न फ़रमाना ही बजा है आपके लिए । और बात सीमाजी की, तो उनके इस regards का पासवर्ड, लगता है आप भी नहीं तोड़ सके हैं, और आपकी बात से ही ऐसा लग रहा है के आप भी शुरुआती दौर में रघुनाथ हो चुके हैं उनसे. सड़कें तो लगभग बिरहाना रोड जैसी ही हैं सब यहाँ भी, हाँ ये अलहदा बात हुई के “तेरे गाँव की गंगा और मेरे गाँव नरब..दा की, बोल भैया बोल, तुलना होगी क्या कहीं ?”
कहाँ सेहरा और कहाँ मर्सिया पढ़ना है, ये इल्म न होता तो बवाल क़व्वाल न होता महज़ वबाल होता ।
आपने इतना वक्त निकाल कर इतना बेहतरीन भेड़ाघाट और शादी दर्शन कराया, फ़ुरसतिया साहब आपका बहुत बहुत आभार और सादर चरण स्पर्श ।
आज से आपका भी शागिर्द-ओ-मुरीद ।
—बवाल
…जब मैं किसी दूल्हे को देखता हूं तो लगता है कि आठ-दस शताब्दियां सिमटकर समा गयीं हों दूल्हे में।
…गोद में कंगारूनुमा बच्चा (सहबोला) दबाये दूल्हे की छवि देखकर लगता है कि कोई सजीव बांगड़ू कोलाज चला आ रहा है।]
…इससे हमारे इस सिद्धांत की पुष्टि हुई कि चीजे चाहे जितनी मार्डन हो जायें लेकिन ठीक ठोकने-पीटने पर ही होती हैं। फ़िर वो चाहे किसी आधुनिक होटल का आटोलाक हो या तेल कंपनियों की हड़ताल।
…पगडियों ने गंजो और बाल वालों के बीच का भेद भाव मिटाकर सबके चेहरे पर लड़के वालों का भाव बिखेर दिया था।
…लोग दूल्हे को आसन्न जिंदगी के ह्सीनतम संकट से मुकाबला करने के लिये आशीष दे रहे थे।
…हम लोग बारात बनकर खड़े हो गये।
…थोड़ी देर में आज मेरे यार की शादी ने अपना कार्यभार यह देश है वीर जवानों का, अलबेलों का मस्तानों का को थमा दिया
…डांस करने में निकला पसीना सारी सुगन्ध की सरकार गिरा देता है।
…आसमान सर्दी के बम गिरा रहा था। मुकाबले के लिये हमारे पास अंगीठी की तोपें और कोट-स्वेटरों के बख्तरबंद थे।
…दूल्हा-दुल्हन की खूबसूरत जुगल-जोड़ी देखने में इत्ता मशगूल हो गये कि हम ध्यान ही नहीं दिये कि बहारों फ़ूल बरसाओ मेरा महबूब आया है गाना बजा कि नहीं।
…हमने भी शरमाते हुये बताया हम फ़ुरसतिया हैं इसीलिये कानपुर से आये हैं शादी में।
…युनुस की आवाज को अपने घर-शहर ने तवज्जो न दी तो अब मुंबई में छा गये।
…अब भला बताओ कि किराया खर्चा करके हम वहां समीरलालजी की तारीफ़ सुनने गये थे क्या?
…समीरलालजी की असलियत क्या है और वे उत्ते भले हैं नहीं जित्ते दिखते हैं (कम हैं या ज्यादा है क्या हैं ये हमही जानते हैं) ।
…सीमाजी की शायरी में पीड़ा इत्ती है कि अगर ३२००० का सेंसेक्स उसे सुन ले तो बेचारा ३२०० और आकर खड़ा हो जाये।
…बबालजी ने जो गजल गाई थी वो समीरलाल ने लिखी थी लेकिन इसके आगे का पता नहीं चल पाया कि समीरलाल को कहां से मिली थी।
जय हो फुरसतिया महराज की। अगली किश्त जल्दी जारी हो… :)D
घुघूती बासूती
सुना है आपकी तबीयत बिगड़ गयी थी.. कहे तो इसी सिद्धांत को आजमाया जाए..
बारात के दोनों तरफ़ बिजली के हंडो की डांससीमा खिंची हुई थी।
कमाल है ऐसा तो कभी सोचा ही नहीं था!!
बहुत आनंद आया पढ़कर।
हम भी सूट-टाई पहन कर पढ रहे हैं ई पोस्टवा को . अरे भाई ! हम आपको पढ-पढ कर हियां बैठे-बैठे बराती होने का लुत्फ़ ले रहे हैं . धांसू ऑब्जर्वेशन और झकास विवरण .
देश का वीर जवान होकर नाचे काहे नहीं ? तब आपके नम्बर कट . बिना नाचे कौनो भकुआ आदर्श बाराती नहीं हो सकता .