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…मेरी पोस्ट के अर्थ अनेकों हैं
By फ़ुरसतिया on December 2, 2009
सुबह-सुबह बच्चे को स्कूल के लिये बस तक छोड़ने गया था। देखा तो सूरज भाई
साहब गोल-गोल लाल टिकिया से खुले में खिले थे। सोचा कि मोबाइल लाये होते तो
एक तो फ़ोटॊ खैंच लेते और सटा देते यहां ब्लाग में। फ़ोटो और साथ में कविता
भी सटा देते एक ठो कोई जिसमें सूरजजी का जिक्र होता। सूरज के जिक्र वाली
हमें एक कविता अभी एकदम जो याद आ रही है वो हमने प्राइमरी स्कूल के दिन में
पढ़ी थी—
सूरज निकला चिड़ियां बोलीं
कलियों ने भी आंखे खोली।
भोर हुआ सूरज उग आया
जल में पड़ी सुनहरी छाया।
कविता की आखिरी पंक्तियां हैं—
ऐसा सुन्दर समय न खोओ
मेरे प्यारे अब मत सोओ।
अब आप देखिये इत्ते साल बाद जब हम इस कविता को देख रहे हैं दुबारा तो सोच रहे हैं कि जब पहली लाइन में सूरज को निकाल दिया गया है तो बाद में फ़िर उगाया क्यों गया? क्या निकला हुआ सूरज अलग काम करेगा और उगा हुआ अलग काम देगा। क्या यहां एक व्यक्ति एक पद का नियम नहीं लागू होगा? लेकिन कवि हैं भैया कुछ भी कह सकते हैं। लेकिन हम भी तो पाठक हैं। सर हिला कर तीस साल दोहराते रहे और अब पूछ रहे हैं कि इदम किम!
ऐसे ही हमारे समीरलाल जी एक दिन हमारे चैट बाक्स पर उदित हुये। प्रमुदित च किलकित लग रहे थे। मुदित मन चैटियाते हुये बोले–देखिये बच्चनजी हमारे लिये एक ठो कविता लिख कर छोड़ गये हैं।
हम सोचे—कायस्थ थे शायद छोड़ गये होंगे अपने कुलोद्भवों के लिये। कविता में भी तो बहुत कुलवाद/जातिवाद/फ़ातिवाद ये वाद,वो वाद न जाने कौन-कौन वाद चलता है। लेकिन हम कुछ कहे नहीं काहे से कि पता था कि समीर बाबू बतायें बिना तो मानेंगे नहीं! उनकी आदत है कि बैठे रहेंगे सुबह-सुबह चिलमन के पीछे बुरकें में आफ़लाइन। मौका पाते ही नमस्ते,कैसे हैं, नयी पोस्ट क्यों नहीं लिखी, अपनी पोस्ट का लिंक, अपने कमेंट का लिंक ढेले की तरह फ़ेंककर फ़ूट लेंगे। अब अगला बुरके में रहता है। पता भी नहीं चलता कि चला गया कि खंभे की आड़ में खड़ा ताड़ रहा है इसलिये झल्लाते हुये भी मुस्कराना पड़ता है।
अगले ही पल उन्होंने दिखाया वो कविता अंश जिसको उनके लिये छोड़ गये थे बच्चनजी। ये दिखाये वो–
मैं छुपाना जानता तो जग मुझे साधू समझता
शत्रु मेरा बन गया है छलरहित व्यवहार मेरा।
देखते ही हम माजरा समझ गये। हमने कहा –बच्चनजी से टाइपो हुई! वे दूसरी लाइन में कहना चाहते होंगे—छल सहित। टंकण की गलती के चलते छलरहित हो गया और इसलिये इसे आप अपने लिये समझ लिये। कविता का अंश इस तरह रहा होगा–
मैं छुपाना जानता तो जग मुझे साधू समझता
शत्रु मेरा बन गया है छलसहित व्यवहार मेरा।
बोले नहीं भाई साहब उनसे गलती हो ही नहीं सकती। हमने बहुत समझाया कि भाई गलती किसी से भी हो सकती है। हमसे तक हो सकती है। लेकिन ये कविता अपने लिये माने की गलती मत करो! इत्ते बुरे आदमी नहीं हो कि कोई साधु बनने के लिये कहे और मान जाओ। पहले कभी साधु भले आदमी के लिये आदर्श होता होगा लेकिन आजकल तो कोई कुछ साल तक साधु बना रहता है तो लगता है बहुत ऊंचा खिलाड़ी है। कुछ दिन पहले ही सुना है बापू आशाराम के यहां छापा पड़ा है।
लेकिन समीरलाल माने नहीं। साधु कहलाने के लिये मचलते रहे। बाद में मैंने देखा कि उनकी हरकतें भी साधु टाइप होती जा रही हैं। प्रवचनात्मक/आध्यात्मिक/दार्शनिक। हमें तो शक है कि जो विल्स कार्ड उन्होंने लिखे हैं वे सिगरेट के पन्ने पर नहीं किसी और गहरे नशे की पुड़िया में लिखे गयें हैं। बहरहाल आप चिन्ता न करें हम समीरलाल को आसानी से साधु बनने नहीं देंगे। जान लड़ा देंगे यह साबित करने के लिये कि उनमें आदमियत के भी कुछ अंश मौजूद हैं। उनको केवल साधु न समझा जाये। इत्ते बुरे नहीं हैं वे।
बात कविता की हो रही थी। हमने देखा है कि हम लोग बात-बात पर कविता के अंश प्रयोग करते रहते है। हथियार की तरह। कोई मौका मिला नहीं कि कविता का लाकर खोला और एक ठो कवितास्त्र चला दिया। अगला घायल हुआ तो ठीक वर्ना दूसरा चला दिया। कुछ लोग तो कविताओं की कार्पेट बांबिंग कर देते हैं।
अक्सर कविताओं के अंश भी प्रयोग में लाये जाते हैं।कभी-कभी क्या अक्सर जिन संदर्भों में कविता लिखी जाती है उससे एकदम अलग संदर्भ में प्रयोग की जाती है और धड़ल्ले से चल जाती है। जैसे पेपरवेट मारपीट के काम आ जाता है, कलम कोंचने के काम आ जाती है, नियम/कानून बरगलाने के काम आ सकता है, सेवा का काम आय से अधिक संपत्ति बनाने के काम आ सकता है, कविता डराने के काम आ सकती है उसी तरह एक संदर्भ में लिखी कविता दूसरे संदर्भों में धड़ल्ले से काम आ जाती है और सालों-साल आती है। इतनी की कभी सही संन्दर्भ पता चला है तो आश्चर्य होता है- इज इट सो टाइप का।
एक उदाहरण देखिये। मैंने अपने मामाजी से कभी सुना था–इसी सुर्खी की कमी थी तेरे अफ़साने में! इसको इस संदर्भ में प्रयोग करता था कि सब कुछ हो गया था अब बस यही होना बाकी था सो ये हो गया तो वो कमी भी पूरी हो गयी। एक दिन जब प्रयोग करना था तो उनसे फोन करके पूरा शेर और उसका संदर्भ पूछा। पता चला सन 1948 में जब गांधी के साथ गोलीगिरी हुई थी तो एक कनपुरिया शायर ने इसे लिखा था और इसका लब्बोलुआब यह था कि और सब दुनिया भर की उपलब्धियां तो आपको हासिल ही थीं। हरेक मोर्चे पर आप अव्वल थे बस एक खून खच्चर बचा था तो गोली खा गये और लाल कर दी जमीन। बस इसी सुर्खी की कमी थी तेरे अफ़साने में।
बताओ भला! किसी की शहादत और कुर्बानी का जिक्र करते हुये लिखे गये शेर का इस्तेमाल हम कोरम पूरा होने टाइप उपलब्धियों के साथ धड़ल्ले से करते रहे। अनजाने में। इसीलिये कहते हैं– अज्ञानी का आत्मविश्वास तगड़ा होता है।
कविता अंशों का प्रयोग स्मृति मंडूक लोग यह जताने के लिये भी करते हैं कि वे बहुत बड़े कविता बाज हैं।
कुछ तो इत्ते बड़े कविताबाज होते हैं कि बात-बेबात कविता की लाइनें चमकाते रहते हैं। कोई बात कहनी हुई उसके पहले एक कविता , बात खतम करने पर एक कविता बीच में कविता,किनारे कविता, दायें कविता, बायें कविता।उनकी बातचीत में कविताओं का परचम अपने देश की कल्याणकारी योजनाओं में भ्रष्टाचार सा लहराता है। इत्ती कवितायें होती हैं किसी किसी की बात-चीत/ व्याख्यान में कि अगर उनके आख्यान से कविता का समर्थन वापस ले लो तो उनके आख्यान की सरकार लड़खड़ा कर गिर जायेगी। लगेगा कोई गूंगा व्यक्ति बोलने का अभ्यास कर रहा है।
कुछ लोगों को अपने बोली-बानी की कविता भी पसंद नहीं आती। जैसे जवाहरलाल नेहरू की अमीरी का हवा-पानी जताने के लिये कहा जाता है न कि उनके कपड़े पेरिस से धुलकर आते थे वैसे ही कुछ लोग अपने देश की कविता को लिफ़्ट नहीं देते। ग्रीक,लेटिन, अफ़्रीकी, युगोस्लवियायी, जर्जियाई! अरे न जाने कहां-कहां के भाई, कवियों उद्धरण देते हैं। कभी-कभी तो आतंकित करने की मंशा से ऐसे लोग दोहरी-तिहरी चोट करते हैं। इसके तहत वे पहले विदेशी कविता उसी की भाषा में सुनाते हैं फ़िर उसका जटिल सा और कत्तई न समझ में आने वाला अनुवाद झेलाते हैं इसके बाद एकदम अपनी बोली-बानी में उसका सहज भाव बताते हैं जिससे आपको उनकी बात समझ में आ ही जाये। अब यह अलग बात है कि आप मूल कविता और उसके अनुवाद को सुनकर इत्ता आतंकित हो चुके होते हैं कि अपनी भाषा में कही बात भी उतनी ही समझ में आ पाती है जितना कि मूल कविता और उसका अनुवाद! मजबूरी में आप अनजाने ही यह निष्कर्ष निकाल लेते हैं –कविता बड़ी जालिम चीज होती है, अपनी भाषा तक में नहीं समझ आती। इसी के चलते आम आदमी कविता से उसी तरह बिदकने लगता है कालेजों के बच्चे अनुशासन से।
कभी-कभी कविता के भी न इत्ते आयाम दिखते हैं कि लगता है कविता न होकर कोई भूल-भुलैया है। कभी-कभी तो हमें लगता है कि हर कविता हमारे नये नोकिया E71 मोबाइल की तरह होती है जिसके तमाम फ़ंक्शन ही नहीं पता हमें। ले लिये हैं लेकिन पूरा समझ नही आ रहा। सिद्ध कवियों को पाठकों की यह समस्या पता रहती है इसीलिये रमानाथ अवस्थीजी ने पाठकों को स्पेशल समझ छूट (अंडरस्टैंडिंग डिस्काउंट) दिया था और लिखा था–
मेरी रचना के अर्थ अनेकों हैं
जो भी तुमसे लग जायें लगा लेना।
दुनिया भर में इत्ती कवितायें मौजूद हैं कि लोग अपने-अपने मन-मर्जी-और मिजाज के हिसाब से कवितायें चुनते हैं। कविता माल में हर तरह का माल मिलता है। आप बस इच्छा जाहिर कीजिये और आपके सामने कविता हाजिर है। जैसे अब सत्य को ही ले लीजिये। सत्य की ही जमीन पर न जाने कितनी कविताओं का अतिक्रमण फ़ैला है। न जाने कित्ते सचों का कब्जा है सत्य के प्लाट पर। हर सच कहता है –असली सच यहां मिलता है। अब जैसे साधुवादी टाइप के लोग ये वाला सच पसन्द करेंगे:
सत्यम ब्रुयात , प्रियम ब्रुयात न बुयात सत्यमप्रियम। ( सच बोलो, प्रिय बोलो , अप्रिय सच मत बोलो)
अक्खड़ टाइप के सत्यवीर अपने बैनर पर लिखवाये मिलेंगे–
सचिव, वैद्य, गुरु तीन जो, प्रिय बोलहिं भय आस
राज, धर्म,तन तीन करि, होय बेगहिं नास।
मतलब अप्रिय सत्य बोलने की फ़ुल छूट। न बोले तो गया मामला सुनने वाले का। फ़ुल स्पीड से नाश शुरु।
ये तो केवल दो उदाहरण हैं। आप जरा सा बस खोजिये आपको अपनी औकात के हिसाब से सच बोलने को सही ठहराती कविता मिल जायेगी। आप सच के नाम पर झूठ भी बोलना चाहें तो उसका भी कविता में इंतजाम हो जायेगा।
कविता मूलत: अपनी बात को सहजता से कहने के लिये होती है। आप अपनी बात को प्रभाव पूर्ण तरीके से कहना चाहते हैं और उसको प्रकट करते हुयी कविता मिल जाये तो आपका आधा क्या दुगुना काम पूरा हो जाता है। कविता कभी-कभी इतना प्रभाव डालती है कि लोग कविता सुनकर ही अपने अनुसार बात का भाव ग्रहण कर लेते हैं। आपकी बात सुनते ही नहीं। लेकिन इसका नुकसान भी होता है कि कविता को लोग अपनी समझ के अनुसार ग्रहण करते हैं और उसी तरह भाव भी। पता चला कि आपकी बात के पहले सुनी गयी कविता के चलते दो लोगों द्वारा आपकी समझी बात में हिन्दुस्तान-पाकिस्तान का अंतर हो। दोनों में मराठी माणूस और भद्र व्यक्ति का अंतर हो।
कविता द्वारा अपनी बात को समझाने की जिद से कोई यह भी निष्कर्ष लगा सकता है कि अगले को अपनी बात समझने और समझाने का आत्मविश्वास नहीं है तभी कविताकी बैसाखियां लगाये हुये है। कुछ-कुछ ऐसे ही जैसे लोग अपनी बात कहते समय कहते हैं– मम्मी/पापा ने ऐसा कहा है, साहब ने ऐसा कहा है, मंत्रीजी ऐसा चाहते हैं , ओबामा की दिली ख्वाहिश है यह, आम जनता ऐसा चाहती है। ऐसे में कविता छा जाती है,मुख्य बात नेपथ्य में चली जाती है।
देखिये बात कहां से शुरू हुई थी और कहां तक आ गये। कविता का लफ़ड़ा होता ही ऐसा है। सूरज उगने से शुरू हुये थे भटकते -भटकते चांद डूबने को हो आया। सूरज फ़िर कल निकलेगा।
लेकिन आप परेशान मत होइयेगा। आपको जैसा समझ में आये ग्रहण करके मस्त होइयेगा। स्व:रमानाथ अवस्थी जी ने जो समझ डिस्काउंट केवल कविता पर दिया था हम उसे इस पूरे लेख पर दिये दे रहे हैं:
मेरी पोस्ट के अर्थ अनेकों हैं,
जो भी तुमसे लग जाये लगा लेना।
सूरज निकला चिड़ियां बोलीं
कलियों ने भी आंखे खोली।
भोर हुआ सूरज उग आया
जल में पड़ी सुनहरी छाया।
कविता की आखिरी पंक्तियां हैं—
ऐसा सुन्दर समय न खोओ
मेरे प्यारे अब मत सोओ।
अब आप देखिये इत्ते साल बाद जब हम इस कविता को देख रहे हैं दुबारा तो सोच रहे हैं कि जब पहली लाइन में सूरज को निकाल दिया गया है तो बाद में फ़िर उगाया क्यों गया? क्या निकला हुआ सूरज अलग काम करेगा और उगा हुआ अलग काम देगा। क्या यहां एक व्यक्ति एक पद का नियम नहीं लागू होगा? लेकिन कवि हैं भैया कुछ भी कह सकते हैं। लेकिन हम भी तो पाठक हैं। सर हिला कर तीस साल दोहराते रहे और अब पूछ रहे हैं कि इदम किम!
ऐसे ही हमारे समीरलाल जी एक दिन हमारे चैट बाक्स पर उदित हुये। प्रमुदित च किलकित लग रहे थे। मुदित मन चैटियाते हुये बोले–देखिये बच्चनजी हमारे लिये एक ठो कविता लिख कर छोड़ गये हैं।
हम सोचे—कायस्थ थे शायद छोड़ गये होंगे अपने कुलोद्भवों के लिये। कविता में भी तो बहुत कुलवाद/जातिवाद/फ़ातिवाद ये वाद,वो वाद न जाने कौन-कौन वाद चलता है। लेकिन हम कुछ कहे नहीं काहे से कि पता था कि समीर बाबू बतायें बिना तो मानेंगे नहीं! उनकी आदत है कि बैठे रहेंगे सुबह-सुबह चिलमन के पीछे बुरकें में आफ़लाइन। मौका पाते ही नमस्ते,कैसे हैं, नयी पोस्ट क्यों नहीं लिखी, अपनी पोस्ट का लिंक, अपने कमेंट का लिंक ढेले की तरह फ़ेंककर फ़ूट लेंगे। अब अगला बुरके में रहता है। पता भी नहीं चलता कि चला गया कि खंभे की आड़ में खड़ा ताड़ रहा है इसलिये झल्लाते हुये भी मुस्कराना पड़ता है।
अगले ही पल उन्होंने दिखाया वो कविता अंश जिसको उनके लिये छोड़ गये थे बच्चनजी। ये दिखाये वो–
मैं छुपाना जानता तो जग मुझे साधू समझता
शत्रु मेरा बन गया है छलरहित व्यवहार मेरा।
देखते ही हम माजरा समझ गये। हमने कहा –बच्चनजी से टाइपो हुई! वे दूसरी लाइन में कहना चाहते होंगे—छल सहित। टंकण की गलती के चलते छलरहित हो गया और इसलिये इसे आप अपने लिये समझ लिये। कविता का अंश इस तरह रहा होगा–
मैं छुपाना जानता तो जग मुझे साधू समझता
शत्रु मेरा बन गया है छलसहित व्यवहार मेरा।
बोले नहीं भाई साहब उनसे गलती हो ही नहीं सकती। हमने बहुत समझाया कि भाई गलती किसी से भी हो सकती है। हमसे तक हो सकती है। लेकिन ये कविता अपने लिये माने की गलती मत करो! इत्ते बुरे आदमी नहीं हो कि कोई साधु बनने के लिये कहे और मान जाओ। पहले कभी साधु भले आदमी के लिये आदर्श होता होगा लेकिन आजकल तो कोई कुछ साल तक साधु बना रहता है तो लगता है बहुत ऊंचा खिलाड़ी है। कुछ दिन पहले ही सुना है बापू आशाराम के यहां छापा पड़ा है।
लेकिन समीरलाल माने नहीं। साधु कहलाने के लिये मचलते रहे। बाद में मैंने देखा कि उनकी हरकतें भी साधु टाइप होती जा रही हैं। प्रवचनात्मक/आध्यात्मिक/दार्शनिक। हमें तो शक है कि जो विल्स कार्ड उन्होंने लिखे हैं वे सिगरेट के पन्ने पर नहीं किसी और गहरे नशे की पुड़िया में लिखे गयें हैं। बहरहाल आप चिन्ता न करें हम समीरलाल को आसानी से साधु बनने नहीं देंगे। जान लड़ा देंगे यह साबित करने के लिये कि उनमें आदमियत के भी कुछ अंश मौजूद हैं। उनको केवल साधु न समझा जाये। इत्ते बुरे नहीं हैं वे।
बात कविता की हो रही थी। हमने देखा है कि हम लोग बात-बात पर कविता के अंश प्रयोग करते रहते है। हथियार की तरह। कोई मौका मिला नहीं कि कविता का लाकर खोला और एक ठो कवितास्त्र चला दिया। अगला घायल हुआ तो ठीक वर्ना दूसरा चला दिया। कुछ लोग तो कविताओं की कार्पेट बांबिंग कर देते हैं।
अक्सर कविताओं के अंश भी प्रयोग में लाये जाते हैं।कभी-कभी क्या अक्सर जिन संदर्भों में कविता लिखी जाती है उससे एकदम अलग संदर्भ में प्रयोग की जाती है और धड़ल्ले से चल जाती है। जैसे पेपरवेट मारपीट के काम आ जाता है, कलम कोंचने के काम आ जाती है, नियम/कानून बरगलाने के काम आ सकता है, सेवा का काम आय से अधिक संपत्ति बनाने के काम आ सकता है, कविता डराने के काम आ सकती है उसी तरह एक संदर्भ में लिखी कविता दूसरे संदर्भों में धड़ल्ले से काम आ जाती है और सालों-साल आती है। इतनी की कभी सही संन्दर्भ पता चला है तो आश्चर्य होता है- इज इट सो टाइप का।
एक उदाहरण देखिये। मैंने अपने मामाजी से कभी सुना था–इसी सुर्खी की कमी थी तेरे अफ़साने में! इसको इस संदर्भ में प्रयोग करता था कि सब कुछ हो गया था अब बस यही होना बाकी था सो ये हो गया तो वो कमी भी पूरी हो गयी। एक दिन जब प्रयोग करना था तो उनसे फोन करके पूरा शेर और उसका संदर्भ पूछा। पता चला सन 1948 में जब गांधी के साथ गोलीगिरी हुई थी तो एक कनपुरिया शायर ने इसे लिखा था और इसका लब्बोलुआब यह था कि और सब दुनिया भर की उपलब्धियां तो आपको हासिल ही थीं। हरेक मोर्चे पर आप अव्वल थे बस एक खून खच्चर बचा था तो गोली खा गये और लाल कर दी जमीन। बस इसी सुर्खी की कमी थी तेरे अफ़साने में।
बताओ भला! किसी की शहादत और कुर्बानी का जिक्र करते हुये लिखे गये शेर का इस्तेमाल हम कोरम पूरा होने टाइप उपलब्धियों के साथ धड़ल्ले से करते रहे। अनजाने में। इसीलिये कहते हैं– अज्ञानी का आत्मविश्वास तगड़ा होता है।
कविता अंशों का प्रयोग स्मृति मंडूक लोग यह जताने के लिये भी करते हैं कि वे बहुत बड़े कविता बाज हैं।
कुछ तो इत्ते बड़े कविताबाज होते हैं कि बात-बेबात कविता की लाइनें चमकाते रहते हैं। कोई बात कहनी हुई उसके पहले एक कविता , बात खतम करने पर एक कविता बीच में कविता,किनारे कविता, दायें कविता, बायें कविता।उनकी बातचीत में कविताओं का परचम अपने देश की कल्याणकारी योजनाओं में भ्रष्टाचार सा लहराता है। इत्ती कवितायें होती हैं किसी किसी की बात-चीत/ व्याख्यान में कि अगर उनके आख्यान से कविता का समर्थन वापस ले लो तो उनके आख्यान की सरकार लड़खड़ा कर गिर जायेगी। लगेगा कोई गूंगा व्यक्ति बोलने का अभ्यास कर रहा है।
कुछ लोगों को अपने बोली-बानी की कविता भी पसंद नहीं आती। जैसे जवाहरलाल नेहरू की अमीरी का हवा-पानी जताने के लिये कहा जाता है न कि उनके कपड़े पेरिस से धुलकर आते थे वैसे ही कुछ लोग अपने देश की कविता को लिफ़्ट नहीं देते। ग्रीक,लेटिन, अफ़्रीकी, युगोस्लवियायी, जर्जियाई! अरे न जाने कहां-कहां के भाई, कवियों उद्धरण देते हैं। कभी-कभी तो आतंकित करने की मंशा से ऐसे लोग दोहरी-तिहरी चोट करते हैं। इसके तहत वे पहले विदेशी कविता उसी की भाषा में सुनाते हैं फ़िर उसका जटिल सा और कत्तई न समझ में आने वाला अनुवाद झेलाते हैं इसके बाद एकदम अपनी बोली-बानी में उसका सहज भाव बताते हैं जिससे आपको उनकी बात समझ में आ ही जाये। अब यह अलग बात है कि आप मूल कविता और उसके अनुवाद को सुनकर इत्ता आतंकित हो चुके होते हैं कि अपनी भाषा में कही बात भी उतनी ही समझ में आ पाती है जितना कि मूल कविता और उसका अनुवाद! मजबूरी में आप अनजाने ही यह निष्कर्ष निकाल लेते हैं –कविता बड़ी जालिम चीज होती है, अपनी भाषा तक में नहीं समझ आती। इसी के चलते आम आदमी कविता से उसी तरह बिदकने लगता है कालेजों के बच्चे अनुशासन से।
कभी-कभी कविता के भी न इत्ते आयाम दिखते हैं कि लगता है कविता न होकर कोई भूल-भुलैया है। कभी-कभी तो हमें लगता है कि हर कविता हमारे नये नोकिया E71 मोबाइल की तरह होती है जिसके तमाम फ़ंक्शन ही नहीं पता हमें। ले लिये हैं लेकिन पूरा समझ नही आ रहा। सिद्ध कवियों को पाठकों की यह समस्या पता रहती है इसीलिये रमानाथ अवस्थीजी ने पाठकों को स्पेशल समझ छूट (अंडरस्टैंडिंग डिस्काउंट) दिया था और लिखा था–
मेरी रचना के अर्थ अनेकों हैं
जो भी तुमसे लग जायें लगा लेना।
दुनिया भर में इत्ती कवितायें मौजूद हैं कि लोग अपने-अपने मन-मर्जी-और मिजाज के हिसाब से कवितायें चुनते हैं। कविता माल में हर तरह का माल मिलता है। आप बस इच्छा जाहिर कीजिये और आपके सामने कविता हाजिर है। जैसे अब सत्य को ही ले लीजिये। सत्य की ही जमीन पर न जाने कितनी कविताओं का अतिक्रमण फ़ैला है। न जाने कित्ते सचों का कब्जा है सत्य के प्लाट पर। हर सच कहता है –असली सच यहां मिलता है। अब जैसे साधुवादी टाइप के लोग ये वाला सच पसन्द करेंगे:
सत्यम ब्रुयात , प्रियम ब्रुयात न बुयात सत्यमप्रियम। ( सच बोलो, प्रिय बोलो , अप्रिय सच मत बोलो)
अक्खड़ टाइप के सत्यवीर अपने बैनर पर लिखवाये मिलेंगे–
सचिव, वैद्य, गुरु तीन जो, प्रिय बोलहिं भय आस
राज, धर्म,तन तीन करि, होय बेगहिं नास।
मतलब अप्रिय सत्य बोलने की फ़ुल छूट। न बोले तो गया मामला सुनने वाले का। फ़ुल स्पीड से नाश शुरु।
ये तो केवल दो उदाहरण हैं। आप जरा सा बस खोजिये आपको अपनी औकात के हिसाब से सच बोलने को सही ठहराती कविता मिल जायेगी। आप सच के नाम पर झूठ भी बोलना चाहें तो उसका भी कविता में इंतजाम हो जायेगा।
कविता मूलत: अपनी बात को सहजता से कहने के लिये होती है। आप अपनी बात को प्रभाव पूर्ण तरीके से कहना चाहते हैं और उसको प्रकट करते हुयी कविता मिल जाये तो आपका आधा क्या दुगुना काम पूरा हो जाता है। कविता कभी-कभी इतना प्रभाव डालती है कि लोग कविता सुनकर ही अपने अनुसार बात का भाव ग्रहण कर लेते हैं। आपकी बात सुनते ही नहीं। लेकिन इसका नुकसान भी होता है कि कविता को लोग अपनी समझ के अनुसार ग्रहण करते हैं और उसी तरह भाव भी। पता चला कि आपकी बात के पहले सुनी गयी कविता के चलते दो लोगों द्वारा आपकी समझी बात में हिन्दुस्तान-पाकिस्तान का अंतर हो। दोनों में मराठी माणूस और भद्र व्यक्ति का अंतर हो।
कविता द्वारा अपनी बात को समझाने की जिद से कोई यह भी निष्कर्ष लगा सकता है कि अगले को अपनी बात समझने और समझाने का आत्मविश्वास नहीं है तभी कविताकी बैसाखियां लगाये हुये है। कुछ-कुछ ऐसे ही जैसे लोग अपनी बात कहते समय कहते हैं– मम्मी/पापा ने ऐसा कहा है, साहब ने ऐसा कहा है, मंत्रीजी ऐसा चाहते हैं , ओबामा की दिली ख्वाहिश है यह, आम जनता ऐसा चाहती है। ऐसे में कविता छा जाती है,मुख्य बात नेपथ्य में चली जाती है।
देखिये बात कहां से शुरू हुई थी और कहां तक आ गये। कविता का लफ़ड़ा होता ही ऐसा है। सूरज उगने से शुरू हुये थे भटकते -भटकते चांद डूबने को हो आया। सूरज फ़िर कल निकलेगा।
लेकिन आप परेशान मत होइयेगा। आपको जैसा समझ में आये ग्रहण करके मस्त होइयेगा। स्व:रमानाथ अवस्थी जी ने जो समझ डिस्काउंट केवल कविता पर दिया था हम उसे इस पूरे लेख पर दिये दे रहे हैं:
मेरी पोस्ट के अर्थ अनेकों हैं,
जो भी तुमसे लग जाये लगा लेना।
मेरी पसंद
मेरी रचना के अर्थ बहुत से हैं जो भी तुमसे लग जाए लगा लेना। मैं गीत लुटाता हूँ उन लोगों पर दुनिया में जिनका कोई आधार नहीं मैं आंख मिलाता हूँ उन आंखों से जिनका कोई भी पहरेदार नहीं । आंखों की भाषाएं तो अनगिन हैं जो भी सुंदर हो समझा देना। पूजा करता हूं उस कमजोरी की जो जीने को मजबूर कर रही है मन ऊब रहा है अब उस दुनिया से जो मुझको तुमसे दूर कर रही है। दूरी का दुख बढ़ता ही जाता है जो भी तुमसे घट जाए घटा लेना। कहता है मुझसे उड़ता हुआ धुआँ रुकने का नाम न ले तू उड़ता जा संकेत कर रहा नभ वाला घन प्यासे प्राणों पर मुझ सा गलता जा। पर मैं खुद ही प्यासा हूं मरुथल सा यह बात समंदर को समझा देना। चांदनी चढ़ाता हूं उन चरणों पर जो अपनी राहें आप बनाते हैं आवाज लगाता हूं उन गीतों को जिनको मधुवन में भौंरे गाते हैं। मधुवन में सोये गीत हजारों हैं जो भी तुमसे जग जाएँ जगा लेना। स्व: रमानाथ अवस्थी |
Posted in बस यूं ही | 45 Responses
आपके रहते वैसे भी सब निश्चिंत ही हैं कि हम साधु न बन पायेंगे.
रमानाथ अवस्थी जी की यह रचना बहुत पसंद आई और उसी आधार पर इस आलेख के भी ढेर मतलब में से एक ठो लगा कर खंभे के पीछे छिपे खड़े हैं, कभी तो आओगे ऑन लाईन…
बेहतरीन लेख!!
लाख छुपाओ, छुप न सकेगा,
राज़ ये इतना गहरा,
दिल की बात बता देता है,
ये असली-नकली चेहरा…
जय हिंद…
साधुओं के चेले श्राप दे देंगे…
अब इस संदेश का मतलब सहित की बजाय रहित होने से उल्टा ही हो गया है। लेकिन गलती से जो भी लिखा गया था वह एक प्रकार से सच ही है कि मुंबई की हरियाली सही में कहीं बिला गई है।
अब तो कई दिन हुए उन नगरपालिका के गाडियों को देखे हुए, अब इस ‘रहित’ और ‘सहित’ के तत्वज्ञान के कारण फिर जब कोई इस तरह का संदेश दिखेगा तो यह पोस्ट तो याद आएगी ही
विस्मय ,मगर अगर इसे यूं लिखा जाय -”मात्र कविता से प्रेम करने वाले ” तो …बात हल्की ही होगी न ?
“बडे सबेरे मुर्गा बोला, चिडियो. ने अपना मुंह खोला.
आसमान पर लगा चमकने लाल लाल सोने का गोला!
ठंडी हवा बही सुखदाई,
सब बोले दिन निकला भाई! ”
बाकी आपकी पोस्ट मे सारे ’punch’ मजेदार हैं. :).. including the master punch which is in the title!
सरल सीधे भाव अभिव्यक्त और सम्प्रेषित हों इसलिए कविता रचता है।
जिन्दगी की अबूझ जटिलता जुदा लोग जुदा जुदा से समझते हैं और शब्दों की अपनी सीमाएँ हैं, इसके बावजूद भी अभिव्यक्ति हो इसलिए कविता रचता है।
कविता लेखनी से निकलते ही स्वतंत्र हो जाती है – अनेकों अर्थ निकल आते हैं। वह इसलिए कि कविता जीवन को अभिव्यक्त करती है और जीवित लोगों द्वारा पढ़ी समझी गुनी जाती है। जीवन प्रवाह है और प्रवाह में अर्थ स्वतंत्रता।
बाकी आप की यह पोस्ट भी कविता ही हो गई है। आप ने खुद कहा है – मेरी पोस्ट के अर्थ अनेको हैं।
हाँ,’ मात्र कविता से प्रेम करने वाले’ लिखना हल्का हो जाता, और भी अभिव्यक्ति की विधाएँ हैं जिन्हें आदमी पसन्द करता है – नाटक, गीत, फिल्म, नृत्य , , , , वैसे अर्कजेश जी की टिप्पणियाँ छोटी लेकिन बहुत गहरे भाव लिए होती हैं।
बहुत दिनों के बाद बहुत अच्छा पढ़ा, धन्यवाद
रामराम.
@मीनू खरेजी, शुक्रिया।
@अनीता कुमारजी, शुक्रिया। समीरलाल को कौन निशाना बना सकता है। खाली उनको साधु बनने से बचाने का प्रयास कर रहे हैं। वे साधु बन गये तो यहां टिपियायेगा कौन?
@ गिरीश बिल्लौर, शुक्रिया।
@ खुशदीप सहगलजी, शुक्रिया। हमारे यहां कुछ दबा-छुपा नहीं है जी। सब खुला खेल फ़र्रुखाबादी है।
क्योंकि निकलने वाले शब्द
मात्र शब्द नहीं होते
बल्कि
पूरा ब्लूप्रिंट लिए होते हैं
वक्ता की भावनाओं का!
@ काजल कुमार, शुक्रिया! हमने अपना काम किया अब साधुओं के चेले अपना काम करेंगे।
@ सतीश पंचमजी, शुक्रिया !
@ अरविन्द मिश्रजी, जैसा मैंने आपको मेल में लिखा –व्यक्ति जैसा होता है वैसा ही सोचता है और लिखता है। आप दिन पर दिन अपने मुखौटे स्वयं नोचते जा रहे हैं। अफ़सोस इस बात का भी कि अपनी बात खुद कहने की बजाय आप अर्कजेश का कन्धा इस्तेमाल कर रहे हैं। आपकी बात कत्तई हल्की नहीं है। हल्केपन और लम्पटता में अंतर होता है। आपकी प्रतिक्रिया लम्पट घराने की है।
@ गिरिजेश राव, शुक्रिया! अर्कजेश के लेखन और उनकी टिप्पणियों का मतलब मुझे समझ आ जाता है। वैसे आपकी टिप्पणी पढ़कर बहुत अच्छा लगा।
@ ताऊ जी, आपकी जय हो!
आपका खेल खुला फ़र्रूखाबादी है…जानता हूं…लेकिन आपने इस पोस्ट का शीर्षक ही दिया है…मेरी पोस्ट के अर्थ अनेकों हैं…
वैसे गुरुदेव और महागुरुदेव के सुखद शास्त्रार्थ से चेलों को सीखने को बहुत मिल रहा है…
जय हिंद…
——–
अदभुत है हमारा शरीर।
अंधविश्वास से जूझे बिना नारीवाद कैसे सफल होगा?
आपने लिखा है तो अच्छा ही होगा
रामराम.
रामराम.
इस वाक्य की सुन्दरता और सत्यता ने तो बस अपने पास अटका ही लिया था…बड़ी मुश्किल से आगे पीछे हो पायी….
हर एक वाक्य एकदम आनंद रस की बौछार में भिंगो गयी….बहुत बहुत बहुतै उत्तम पोस्ट…
आप सचमुच बहुत बड़े काव्य और कला प्रेमी हैं….
@ Arshia, आपकी टिप्पणी के लिये शुक्रिया।
@ संजय बेंगाणी, शुक्रिया। खूब मौज ले ली इशारे से।
@ ताऊजी, किस-किस पर कापी राइट का भ्रम पालेंगे? न जाने कब से हम इसे सुनते,बोलते आ रहे हैं। ब्लाग पर भी खोजिये तो आपकी पोस्टों के टाइटिल के पहले हम इसे न जाने कित्ते बार लिख चुके हैं। आप खाली एक लिंक पर इक्कीस कमेंट की सजा पर कापी राइट के लिये अप्लाई करिये। कमेंट फ़ालोअप सुविधा के लिये ईस्वामी को बोलते हैं।
@ रंजनाजी, आपका बहुत, बहुत, बहुतै शुक्रिया।
@ वन्दनाजी, शुक्रिया। जैसा आप बताईं हैं कि सबसे पहले प्रयोग की गयी कवितायें अलग-अलग हैं वो हम जांच कर संसोधन लिख देंगे। शुक्रिया बताने के लिये।
इधर हमने अपने सारे एंटीने ऊपर नीचे कर लिए दाए -बाए…. झुक गये …इत्ते सारे अर्थ निकले ….है अलग अलग डाइरेक्शन में ….अब कनफुजिया गये के साइकिल के पीछे गठरी में समेटे के साईकिल संभाले …..इसलिए कभी अपना पुराना लिखा चिपका रहे है .ठो से …
ये शायर ओर कवि बड़े खतरनाक होते है … साले ….सलीके से गाली देते है ..ओर हम शेर समझ कर ताली बजा देते है… (फ्लाईट में …एक पतले कम गंधाये नॉन कवि किस्म के इन्सान का बिन मांगे दिया फलसफा.)
सच कहूं देव तो आजकल की ये नई कविता और छंद से मुक्त हो जाने के नाम परोसे जाने वाले गद्य को कविता का नाम दे देना हमारे पल्ले नहीं पड़ता–कुछेक नामों को छोड़ कर।
अवस्थी जी की इस अद्भुत रचना को पढ़वाने के लिये मेहरबानी!
आज कविता और पाठक के बीच दूरी बढ़ गई है। संवादहीनता के इस माहौल में आपकी यह कविता इस दूरी को पाटने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम माना जा सकता है। एकांत श्रीवास्तव जी की पंक्तियां स्मरण हो रही है –
कविता का काम जुड़ना और जोड़ना है
वे जहां भी हो
अपना काम कर रही हो
संभव है, किसी दिन के पुल की तरह
दिखाई दे किसी उद्दभ नदी के ऊपर
दो गांवो को जोड़ती हुई
ये भी संभव हो कि वे अदृश्य हों
और दो दिलों को जोड़ रही हो।
@ डा.अनुराग, क्या तो फ़ंडा दिया है। शुक्रिया।
@ गौतम राजरिशी, आपको शुक्रिया पर शुक्रिया दे रहे हैं। धन्यवाद गिफ़्ट आइटम के रूप में मुफ़्त में।
@ मनोज कुमार, एकांत श्रीवास्तव की कविता के लिये शुक्रिया।
@ अर्कजेश, दुबारा टिप्पणी का शुक्रिया।
@ अरविन्द मिश्रजी, दुबारा टिप्पणी का शुक्रिया। पहले की गयी टिप्पणी के आगे कुछ कहने को है नहीं मेरे पास!
अनेक तो अपने आप में बहुवचन है तो इसका अनेकों कैसे??? इसे अनेक ही रहने दें, प्रियवर.
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आदरणीय अनूप शुक्ला जी,
आपकी यह पोस्ट चमत्कृत भी करती है और आतंकित भी,
चमत्कृत इसलिये कि जितनी बार भी पढ़ रहा हूँ…हर बार एक नया अर्थ निकल रहा है…वाकई !!!… इस पोस्ट के अर्थ अनेक हैं।
आतंकित इसलिये कि मेरे जैसा शख्स तो जीवन भर भी प्रयत्न कर ले… नहीं लिख पायेगा ऐसा…
शानदार पोस्ट, आभार!
वैसे आपकी पोस्ट को जितने लोग पढ़ेंगे उतने अर्थ लगाएंगे ही क्योंकि आप के ही अनुसार जिसकी जितनी बुद्धि होती है वह उतना ही समझता भी है। ‘कविता मात्र’ और ‘मात्र कविता’ में अन्तर तो इतना बड़ा है कि अब हम क्या बोलें…? आप सभी बहुत ज्ञानी हैं… नमस्कार करता हूँ।
@ प्रवीण शाहजी, आपकी टिप्पणी का शुक्रिया। मैंने काफ़ी पहले जिन कुछ चीजों में सुधार की बात सोची थी उनमें एक थी –अपने लेखन से लोगों को चमत्कृत (और आतंकित भी)कर देने की मासूम भावना से मुक्ति का प्रयास ( http://hindini.com/fursatiya/archives/691)। लगता है मैं अभी भी इससे मुक्ति नहीं पा पाया हूं। आशा है आगे सफ़ल हो सकूं।
@ कुश, शुक्रिया! चाय के साथ।
@ सिद्धार्थ जी, इसमें किसी वैय्याकरण की आवश्यकता नहीं है। अनेकों गलत शब्द है। टिप्पणी के लिये शुक्रिया। नमस्कार के लिये प्रति नमस्कार!
मैं लोगों से कहता हूँ कि; “कविताओं का अद्भुत कलेक्शन है अनूप जी के पास. हर मुद्दे पर उनके पास कवितायें हैं.” ऐसे में अगर किसी को यह लगे कि आपको कविताओं की समझ नहीं है तो ऐसे व्यक्ति की सोच पर हंसी ज़रूर आएगी. ऐसे व्यक्ति को मैं परम चिरकुट कहूँगा.
भैया, हमारा आत्मविश्वास कमज़ोर है……. तो क्या यह समझ ले कि हम ज्ञानी है
@ चंद्रमौलेश्वरजी, आप इतने तगड़े आत्मविश्वास से कह रहे हैं कि आपका आत्मविश्वास कमजोर है। फ़िर कैसे ज्ञानी कहलाये जा सकते हैं। एक व्यक्ति एक पद के लोचे में आपकी ज्ञानकुर्सी गयी।
@ ज्योतिजी, आइयेगा। आपका इंतजार रहेगा।
आनंद की ऐसी झड़ी बरस रही है आपकी पोस्ट पढ़ कर की ससुरी थमने का नाम ही नहीं ले रही…अब इतना भी रोचक मत लिखा करो मियां की इंसान फेविकोल की तरह एक ही पोस्ट के चिपक कर रह जाये…और भी पोस्ट्स हैं ब्लॉग पर फुरसतिया के सिवा…(बतर्ज़ “और भी ग़म हैं ज़माने में..”.)
नीरज
फुर्सतिया को पढ़ने के लिये फुर्सत चाहिये, आज वो हम लेकर आये है
पिछले एक डेढ़ महीने से बस आपको पढ़ ही रहे हैं, साथ ही साथ मुग्ध भी हो रहे हैं , आपके व्यक्तित्व की तरह आपकी पोस्ट भी बहुआयामी है, इसमें संदेह की लेशमात्र गुंजाईश नहीं है. इस पोस्ट के माध्यम से विदेशी कविताओं के बेवजह उद्धरण का जो प्रसंग आपने प्रस्तुत किया है वो एक तरह से दिल की बात है, ऐसी कविताओं को देखते है दिमाग का चक्का जाम हो जाता है, नज़रें अगले पैराग्राफ पे कूद पड़ती हैं. इसके अतिरिक्त “उनकी बातचीत में कविताओं का परचम अपने देश की कल्याणकारी योजनाओं में भ्रष्टाचार सा लहराता है। इत्ती कवितायें होती हैं किसी किसी की बात-चीत/ व्याख्यान में कि अगर उनके आख्यान से कविता का समर्थन वापस ले लो तो उनके आख्यान की सरकार लड़खड़ा कर गिर जायेगी। लगेगा कोई गूंगा व्यक्ति बोलने का अभ्यास कर रहा है। ” ने दिल जीत लिया, आदरणीय श्रीलाल शुक्ल रचित ‘राग दरबारी’ की याद आ गयी.
अवस्थी जी की फोटो समेत कविता पसंद आई.
एकदम खतरू पोस्ट!!
दुनिया में जिनका कोई आधार नहीं
मैं आंख मिलाता हूँ उन आंखों से
जिनका कोई भी पहरेदार नहीं ।
dono hi rachna shaandaar ,ye panktiyaan man ko bha gayi .
Kuch lekh padhe jate hain aur kuch lekh apne ko padha kar hi mante hain. Aaj ka lekh ek uchh koti ki kriti hi nahi vyvharikta ka ahasas karate hue sahaj bhav se vykt ki gai rachna hai. Badhai ho. Keep it up. Wish you all the best. (Vinay) 21-01-2010 DDN.