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…मगर अब साजन कैसी होली
By फ़ुरसतिया on March 2, 2010
होली आवत देखकर ,ब्लागरन करी पुकार,
भूला बिसरा लिख दिया,अब आगे को तैयार।
पिचकारी ने उचक के, रंग से कहा पुकार,
पानी संग मिल जाओ तुम, बनकर उड़ो फुहार।
कीचड़ में गुन बहुत हैं, सदा राखिये साथ,
बिन पानी बिन रंग के ,साफ कीजिये हाथ।
रंग सफेदा भी सुनो ,धांसू है औजार,
पोत सको यदि गाल पर,बाकी रंग बेकार।
वस्त्र नये सब भागकर , भये अलमारी की ओट,
चलो अनुभवी वस्त्रजी ,झेलिये रंगों की चोट।
पिछली पोस्ट से आगे:
ब्लागाश्रम में खाने की घंटी बजते ही लोग अपनी-अपनी प्लेटे,पत्तल,दोने
लिये खाने पर टूट पड़े। लोग दबा-दबाकर खाने लगे। खाने की मेज के पास भीड़ लगी
थी। लोग अपनी प्लेटें भरकर आरती की थालियों की तरह घुमाते हुये ऊपर उठाकर
ले जा रहे थे और अगल-बगल वालों पर थोड़ा-थोड़ा खाना गिराते जा रहे थे। जिनके
ऊपर गिर रहा था वे कुछ कहें इसके पहले ही वे सॉरी और बुरा न मानो होली है फ़ेंककर आगे निकल ले रहे थे। लोगों की भरी हुई खचाखच भरी प्लेटें देखकर लग रहा था कि शायद वे अपने बच्चों को सिखाने जा रहे हैं–देखो बेटा पहाड़ ऐसे बनते हैं! जो बच्चे पहाड़ बनने की तकनीक सीख चुके और जिनको कुछ समझ में नहीं आया वे अपने दोस्तों पर धौल-धप्पा जमाते हुये कह रहे हैं- देख बे, खाना ऐसे बरबाद होता है।
खाने के दौरान ही लोग आपस में सवाल-जबाब जारी रखे थे। एक ने अपने चेहरे पर उत्सुकता का बल्ब जलाते हुये और चेहरे पर मासूमियत कम बेवकूफ़ी ज्यादा दिखाते हुये संगीता पुरी जी से सवाल किया:
सवाल:: संगीताजी ये बताइये कि ज्योतिष के हिसाब से ब्लॉग जगत में अगली जूतम-पैजार होगी?
जबाब: संगीताजी ने मुस्कराते हुये जबाब दिया कि भाई इस बारे में तो मैं जूतों और चांद की कुंडली का अध्ययन करना होगा। जिस चांद को अपने पर जूते चलने की आशंका हो और जिस जूते को चलने की मंशा हो उसकी कुंडली लाइये तब कुछ बता सकती हूं। आप अगर अपने बारे में जानना चाहते हैं तो या तो अपनी चांद लाइये या प्रहारोद्धत पादुकायें तब ही कुछ गणना करके बताया जा सकता है।
पूछने वाले भाईसाहब मैं अपने लिये नहीं आम जनता के लिये पूछ रहा था कहकर इधर-उधर हो लिये। चलते-चलते वे यह भी बता गये कि आम जनता आम तौर पर अपनी खोपड़ी और अपनी पादुकायें अपने उपयोग के लिये अपने ही पास रखती हैं! न जाने कब उपयोग करना पड़ जाये!
इसके बाद भी तमाम सवाल-जबाब किये गये। कुछ के जबाब वहां मिल गये कुछ अभी तक अनुत्तरित हैं। जिन लोगों ने सवाल किये और जिन लोगों ने जबाब दिये वे भी कहीं भीड़ में तितर-बितर हो गये हैं। फ़िलहाल तो आप सवाल-जबाब बांचिये किसने किया किसने दिया यह सब सांसारिक लोगों के चोंचले हैं।
सवाल: भाई साहब, अविनाश वाचस्पतिजी इत्ती सारी और इत्ती प्यारी आशु कवितायें लिखते हैं! लेकिन उनका कविता लिखना कब रुकेगा? क्या कविता का नोबेल प्राइज दिलाने से कुछ काम बनेगा?
जबाब: न भाई नोबेल प्राइज से काम नहीं बनेगा। उसके बाद वे जो वक्तव्य भी आशु कविता में झाड़ देंगे। उनके लिये तो एक ठो लाइफ़ टाइम अचीवमेंट पुरस्कार ही देना पड़ेगा। इससे कम पर बात नहीं बनेगी।
सवाल: ये मठाधीशी किस चिड़िया का नाम होता है। ये कैसे काम करती है? इसका क्या इलाज है?
जबाब: ये मठाधीशी कामदेव की तरह अनंग होती है। जहां मन आता है अवैध कब्जे की तरह झोपड़ा डाल लेती है। हर एक व्यक्ति दूसरे के लिये मठाधीश का काम कर सकता है। अद्भुत भावना है यह। भांति-भांति के मठाधीश पाये जाते हैं इस दुनिया में। कविता के मठाधीश, गीत के मठाधीश, चर्चा के मठाधीश, चिरकुटई के मठाधीश, दबंगई के मठाधीश, लफ़ंगई के मठाधीश, पॉडकास्टिंग के मठाधीश, अच्छाई के मठाधीश, सच्चाई के मठाधीश, भलाई के मठाधीश। अब तो दीन,दुखी,पीड़ित,वंचित,भावुक,भूलुंठित भी अपनी मठाधीशी दिखाते हैं और मुशायरा लूट ले जाते हैं।
सवाल:आपने ई त बताया ही नहीं कि यह भावना काम कैसे करती है? और इसका इलाज क्या है?
जबाब:जैसा बताया न कि यह भावना कामदेव की तरह अनंग होती है। किसी के भी दिमाग में कभी भी आ सकती है, छा सकती है। आपको घर में नाश्ता नहीं मिला क्योंकि आप समय पर दूध नहीं लाये तो आप इसे अपनी पत्नी की मठाधीशी बता सकते हैं। आपको आपने बॉस ने हड़का दिया क्योंकि आप कामचोरी नहीं कामडकैती करते हैं तो इसे आप बॉस की मठाधीशी कह सकते हैं। आप बहुत अच्छा लिखते हैं और उसके पाठक नहीं हैं तो इसे आप पाठकों की मठाधीशी कह सकते हैं। आप खराब लिखते हैं लेकिन आपकी कोई चर्चा नहीं करते तो इसे आप चर्चाकार की मठाधीशी कह सकते हैं। इसका इलाज क्या बतायें भाई! कामदेव का कोई इलाज नहीं है तो मठाधीशी का कौन इलाज हो सकता है! बस यही कहा जा सकता है सच्चरित्र बनिये। अच्छे विचार लाइये। सदाचार का ताबीज पहनिये और मस्त रहिये।
सवाल: ये जाकिर भाई ने इत्ते इनाम बांट दिये! जित्ते बांटे उससे कई गुना ज्यादा बांटने हैं। कब तक बंट जायेंगे? इस इनामों का समाज के लिये क्या उपयोगिता है?
जबाब: ये तो जाकिर भाई को भी न पता होगा। लेकिन लगता है वे किसी कछुआ गुरु के सच्चे चेले हैं। जीत ही उनका लक्ष्य है। शायद अगले इनामों की घोषणा से पहले ये वाले बंट जायेंगे। आराम से इनाम की घोषणा करने का कारण शायद उनके ब्लॉग का लखनऊ में होना है। हर इनाम दूसरे से कहता है- पहले आप, पहले आप! इसीलिये इनाम आगे आने में सकुचा रहे हैं। लजा रहे हैं और देरी हो रही है।
जहां तक सामाजिक उपयोगिता की बात है तो जिस तरह का काम जाकिर भाई ने किया उस तरह के काम करके देश के भूले-भटके लोगों को मुख्यधारा में लाया जा सकता है। उनसे सीख लेकर भारत सरकार को एक हृदय परिवर्तन मंत्रालय खोलना चाहिये। भूले-भटके युवाओं से अच्छे आचरण की कसम खिलवानी चाहिये और उनको इनाम दे देना चाहिये। झक मारकर लोग सुधर जायेंगे। जैसे सलीम खान सुधर गये। समाज सुधार के इस तरीके का पेटेंट कराना चाहिये वर्ना कोई इस तरीके का पेटेंट कराकर नीलाम कर देगा और सब देखते रह जायेंगे।
सवाल: ये अदाजी के तकिया-कलाम -हां नहीं तो ! का पूरा मतलब क्या है आपको पता है?
जबाब: इस तकिया-कलाम की व्याख्या के लिये बहुत पसीना बहाना पड़ेगा भाई! बस ये समझ लीजिये कि ये अदाजी की अदा है। किसी बात में अगर वे हां हां नहीं तो लिखती हैं तो इसका तीन मतलब होते हैं-हां मतलब सहमत, नहीं मतलब असहमत और तो मतलब बूझते रह जाओगे! लेकिन बताइयेंगे नहीं!यह एक सवाल भी है और बबाल भी। कभी इस बारे में लिखा जायेगा।
सवाल: यार ये बताओ अपने अनिल भाई रायपुर वाले की शादी में देर काहे हो रही है इत्ती!
जबाब: असल में पहले तो कुछ पारिवारिक कारण रहे होंगे। घरेलू जिम्मेदारियों के चलते देर हुई। अब जहां बात चलती है तो लोग कुछ लोग संग-साथ देखकर कट लेते हैं और कुछ आगे की सोचकर। आजकल किसी के भी बारे में पता करना मुश्किल नहीं है न! लोग देखते हैं इसका साथ ब्लॉगरों का है, उनसे रोज का उठना-बैठना है! दूर राजस्थान के वकीलों तक से इनके संबंध हैं। फ़ुरसतिया जैसे लोगों से नियमित फ़ोनालाप होता है। सूबे के मुख्यमंत्री तक इनको इनके नाम से जानते/बुलाते हैं। इसके अलावा लोग देखते हैं बात-बात पर तो लड़के का खून खौलता है। ऐसे में तो लड़का कमजोर हो जायेगा। अब छत्तीसगढ़ में कुछ वैज्ञानिक चेतना फ़ैले तब कुछ बात बने। अब गुरू के चक्कर में चेला संजीत त्रिपाठी भी -कोई तो मेरी शादी करईदो वाले मोड में बैठा है।
सवाल: ये शिवकुमार मिश्र दुर्योधन की डायरी ही क्यों लिखते हैं?
जबाब: जिस तरह अरविन्द मिश्र जी वैज्ञानिक चेतना से संपन्न विभूति हैं उसी तरह शिवकुमार मिश्र जी आर्थिक चेतना से लबालब संपन्न हैं। उनको इस बात का अंदाजा है कि आजकल की दुनिया माफ़िया लोग चला रहे हैं। इस चक्कर में माफ़िया लोगों को तमाम पराक्रम करने पड़ते हैं। लेकिन उन पराक्रमों को साहित्यिक/सांसारिक दुनिया में जगह नहीं मिल पाती। सांसारिक/साहित्यिक दुनिया के इन हाशिये के लोगों को मुख्य धारा में लाने का काम शिवकुमार जी करने में लगे हैं। जबर बरक्कत है इसमें। नमूने के लिये दुर्योधन की डायरी उन्होंने छाप दी। अब उनके पास दुनिया भर के माफ़िया लोगों के कारनामे जमा हो गये हैं। एक-एक करके उनको वे डायरी की शक्ल देने में लगे हैं। इसी चक्कर में अक्सर चिट्ठाचर्चा छोड़ देते हैं। इसी बात पर दुर्योधन उनसे खफ़ा है कि उनकी डायरी के सहारे शिवबाबू यहां पैसा पीट रहे हैं और उनका हिस्सा पहुंचा नहीं रहे हैं। संजय बेंगाणी ने इसका किस्सा बयान किया है।
सवाल:ब्लॉगजगत की कविताओं की सामाजिक उपयोगिता क्या हो सकती है?
जबाब: ब्लॉगजगत की कविताओं की घणी सामाजिक उप्योगिता हो सकती है। यूं तो दुनिया में ऐसी कोई चीज नहीं है जिसका उपयोग न किया जा सके। अरे देखिये श्लोक भी मिल गया पेश खिदमत है :
आमंत्रण अक्षरं नास्ति
नास्ति मूलं अनौषधम्
अयोग्य पुरुषो नास्ति
योजका तत्र दुर्लभः।
अर्थात् वर्णमाला में ऐसा कोई अक्षर नहीं, जिसका उपयोग मंत्रोच्चारण में न हो पाए, न ही कोई ऐसी जड़ी है, जिसमें औषध के गुण न हों। इसी तरह कोई मनुष्य भी ऐसा नहीं हो सकता, जो अक्षम हो—सिर्फ एक आयोजक मिलना मुश्किल होता है, जो अक्षर को मंत्र में प्रयुक्त कर ले, जड़ी को औषधि के रूप में इस्तेमाल कर ले और व्यक्ति विशेष को उसकी क्षमताओं से परिचित करा दे।
सवाल: अरे श्लोक पटककर विद्वता मत दिखाइये। उदाहरण सहित अपने कहे का मतलब बताइये।
जबाब: अब जैसे देखिये समीरलाल की ही कविताओं को देखिये। उनकी कुछ कवितायें इत्ती भावुक कर देने वाली होती हैं कि पढ़ते ही पाठक के आंसू निकल आते हैं। समीरलाल को बुंदेलखंड/बस्तर जैसे इलाकों में ले जाकर उनका कविता पाठ करवाया जा सकता है। कुछ तो उनकी कविता की ताकत और कुछ उनकी आवाज की मार के दर्द से श्रोताओं के इत्ते आंसू निकलेंगे कि सूखे इलाकों में बाढ़ आ सकती है। जिनकी ऊंगलियां चलने-फ़िरने से लाचार हो गयी हैं (ऊंगलियों में हरकत बंद हो गयी हो) उनको ब्लाग जगत की बोर कवितायें एक-एक कर पढ़ाई जायें। कविताओं को पढ़ते ही उनसे बचने के लिये माउस स्क्राल करते-करते उनकी उंगलियां विलियम्स बहनों की तरह चपल हो जायेंगी। जिनके बच्चे पढ़ने से जी चुराते हों और पढ़ने से बचने के लिये बहाने बनाते हों उनको अपने बच्चों को -अच्छा, बेटे आओ तुमको अच्छी कवितायें पढ़वाते हैं कहकर इन कविताओं को पढ़वाना चाहिये। बच्चे सपने में भी पढ़ने से मना नहीं करेंगे। इसके अलावा कविताओं का दुश्मन और मंहगाई से मुकाबला करने जैसे वीरता पूर्ण कामों में भी किया जा सकता है।
सवाल:कविता से दुश्मन और मंहगाई से कैसे मुकाबला हो सकता है भाई?
जबाब: अरे आपने वीर रस की कवितायें नहीं सुनी। एक-एक लड़ाई तक में हज्जारों कवितायें निकाल लेते थे लोग। अगर आप यह समझते हैं कि लड़ाइयों में सैनिक जीतते हैं तो आप भ्रम में हैं। पाकिस्तान के खिलाफ़ लड़ाइयों में धुंआधार कवितायें सुनकर ही दुश्मन ने पहले कान दिखाये फ़िर पीठ। अमेरिका वियतनाम और ईराक और लादेन के खिलाफ़ सफ़ल नहीं हो सका इसीलिये क्योंकि उनके पास उनसे निपटने के लिये मुफ़ीद कविताओं का अकाल रहा। बिना सच्ची वीररस की कविताओं के युद्ध नहीं जीते जा सकते। इसी तरह मंहगाई से निपटने के लिये भी आशु कविताओं का उपयोग किया जा सकता है!
सवाल: आशु कविता क्यों वीर रस की कविताओं का क्यों नहीं?
जबाब:असल में वीर रस की कविताओं में जोर बहुत लगता है। उनको पढ़ने के लिये मजबूत फ़ेफ़ड़े वाला कवि चाहिये। अब लोगों के फ़ेफ़ड़े उत्ते मजबूत नहीं। इसीलिये आशु कविता का चलन हुआ है। इसमें कम मेहनत में बहुत फ़ल निकल आता है। आशु कविताओं की उत्पादकता( प्रोडक्टिविटी) वीर रस की कविताओं के मुकाबले बहुत अधिक होती है। मंहगाई आजकल हर जगह पसरी दिखती है। हर कोने अतरे में दिखती है। भ्रष्टाचार भले एक बार मुंह छिपाता दिखे लेकिन मंहगाई बेशर्मी से मुस्कराती/खिलखिलाती रहती है। ऐसे में आशु कविता का अद्धे-गुम्मे की तरह उपयोग किया जा सकता है। जहां दिखे मंहगाई मार दिया एक आशु कविता का ढेला। मंहगाई कुतिया की तरह कुलबुलाती हुई पूंछ हिलाती हुई उस जगह से गो वेन्ट गॉन हो जायेगी। फ़ूट लेगी।
सवाल:और ब्लॉग जगत की टिप्पणियों का क्या सामाजिक उपयोग किया जा सकता है?
जबाब: बहुत कुछ! ब्लॉगजगत की टिप्पणियों से सामाजिकता की सीख दी सकती है। ब्लॉगजगत की टिप्पणियां सामाजिक भाईचारे की जीगता-जागता, उबलता-खौलता उदाहरण हैं। जिस पोस्ट को पढ़ते-पढ़ते दो-तीन काम्बीफ़्लेम खा जाते हैं उसके आखिर में वाह,सुन्दर,अद्भुत सरीखी सामाजिक सद्व्यवहार वाली टिप्पणियां कर जाते हैं। सुमन जी टिप्पणी nice बार-बार इस उक्ति को सार्थक करती है -सुन्दरता देखने वाली की निगाह में होती है। इसके अलावा भी टिप्पणियों के माध्यम से ही सामाजिक जीवन के तमाम कार्य-कलाप प्रेम,दोस्ती, लड़ाई-झगड़ा, आरोप-प्रत्यारोप, धींगा-मुस्ती, ये वो न जाने क्या-क्या निपटाये जा सकते हैं। सामाजिक जीवन का ऐसा कोई काम नहीं जो टिप्पणियों के द्वारा न किया जा सकता हो।
सवाल: आलोक पुराणिक के ब्लाग लेखन के कम होने के क्या मायने हैं?
जबाब:व्यंग्यकार जब लिखना कम करता है तो इसका मतलब है कि समाज खुशहाल हो लिया है और समाज में विसंगतियां कम हुई हैं। लेकिन आलोक पुराणिक का लिखना कम होने का कारण दूसरा है। वे पहले स्कूल के टापरों की कापियां चुराकर उनके निबंध लिख डालते थे। लेकिन अब चोरी के लिये उनको कापियां मिलती ही नहीं। स्कूल वालों को पहले तो छठे वेतन आयोग के बकाया पैसे देने थे मास्टरों को सो वे उनको रद्दी में बेच लेते थे। बाद में जब योजना आयोग के लोगों ने स्कूलों के टापरों की कापियां मंगाकर उनमें लिखे निबंधों के अनुसार देश के लिये नीतियां बनानी शुरू कर दी हैं। दो-दो पन्ने के एक-एक निबंध ने तीन-तीन,चार-चार नीतियां निकाल ले रहे हैं नीतिनिर्धारक। शिक्षा विभाग की तमाम नीतियों में आप इन टापरों के बालपन की छटा देख सकते हैं। इसीलिये जब आलोक जी टापरों की कापियों के लिये टापते रहते हैं और हम उनके लेखन के लिये।
सवाल: सागरसाहब कहते हैं उनकी प्रेमिकायें उनकी ताकत हैं और दूसरे की प्रेमिकायें उनकी कमजोरी! आपका क्या कहना है इस बारे में?
जबाब:सागर सही की कहते हैं लेकिन यह सच नहीं बताते कि दिल्ली का ऐसा कोई हकीम, वैद्य और डाक्टर (जगह-जगह दीवार में जिनका पता लिखा होता )नहीं बचा जिससे उन्होंने अपनी कमजोरी के इलाज की दवा न ली हो। उनको अपनी प्रेमिकाओं से ताकत मिल नहीं रही है और दूसरे की प्रेमिकायें अपने ही प्रेमियों को ताकत की सप्लाई में खुश हैं।
अब सवाल-जबाब के चक्कर में ब्लागजगत के किस्से रह ही गये। उनके बारे में फ़िर कभी। फ़िलहाल तो आप चंद फ़ुटकर सीन देखिये:
तोहरा रंग चढ़ा तो मैंने खेली रंग मिचोली
मगर अब साजन कैसी होली!
तन से सारे रंग भिखारी मन का रंग सोहाया
बाहर-बाहर पूरनमासी अंदर-अंदर आया
अंग-अंग लपटों में लिपटा बोले था एक बोली
तोहरा रंग चढ़ा तो मैंने खेली रंग मिचोली
मगर अब साजन कैसी होली!
रंग बहुत पर मैं कुछ ऐसी भीगी पापी काया
तूने एक-एक रंग में कितनी बार मुझे दोहराया
मौसम आये मौसम बीते मैंने आंख न खोली
मगर अब साजन कैसी होली!
रंग बहाना रंग जमाना रंग बड़ा दीवाना
रंग में ऐसी डूबी साजन रंग को रंग न जाना
रंगों का इतिहास सजाये रंगो-रंगो होली
मगर अब साजन कैसी होली।
तोहरा रंग चढ़ा तो मैंने खेली रंग मिचोली
मगर अब साजन कैसी होली!
वसीम बरेलवी
भूला बिसरा लिख दिया,अब आगे को तैयार।
पिचकारी ने उचक के, रंग से कहा पुकार,
पानी संग मिल जाओ तुम, बनकर उड़ो फुहार।
कीचड़ में गुन बहुत हैं, सदा राखिये साथ,
बिन पानी बिन रंग के ,साफ कीजिये हाथ।
रंग सफेदा भी सुनो ,धांसू है औजार,
पोत सको यदि गाल पर,बाकी रंग बेकार।
वस्त्र नये सब भागकर , भये अलमारी की ओट,
चलो अनुभवी वस्त्रजी ,झेलिये रंगों की चोट।
खाने के दौरान ही लोग आपस में सवाल-जबाब जारी रखे थे। एक ने अपने चेहरे पर उत्सुकता का बल्ब जलाते हुये और चेहरे पर मासूमियत कम बेवकूफ़ी ज्यादा दिखाते हुये संगीता पुरी जी से सवाल किया:
सवाल:: संगीताजी ये बताइये कि ज्योतिष के हिसाब से ब्लॉग जगत में अगली जूतम-पैजार होगी?
जबाब: संगीताजी ने मुस्कराते हुये जबाब दिया कि भाई इस बारे में तो मैं जूतों और चांद की कुंडली का अध्ययन करना होगा। जिस चांद को अपने पर जूते चलने की आशंका हो और जिस जूते को चलने की मंशा हो उसकी कुंडली लाइये तब कुछ बता सकती हूं। आप अगर अपने बारे में जानना चाहते हैं तो या तो अपनी चांद लाइये या प्रहारोद्धत पादुकायें तब ही कुछ गणना करके बताया जा सकता है।
पूछने वाले भाईसाहब मैं अपने लिये नहीं आम जनता के लिये पूछ रहा था कहकर इधर-उधर हो लिये। चलते-चलते वे यह भी बता गये कि आम जनता आम तौर पर अपनी खोपड़ी और अपनी पादुकायें अपने उपयोग के लिये अपने ही पास रखती हैं! न जाने कब उपयोग करना पड़ जाये!
इसके बाद भी तमाम सवाल-जबाब किये गये। कुछ के जबाब वहां मिल गये कुछ अभी तक अनुत्तरित हैं। जिन लोगों ने सवाल किये और जिन लोगों ने जबाब दिये वे भी कहीं भीड़ में तितर-बितर हो गये हैं। फ़िलहाल तो आप सवाल-जबाब बांचिये किसने किया किसने दिया यह सब सांसारिक लोगों के चोंचले हैं।
सवाल: भाई साहब, अविनाश वाचस्पतिजी इत्ती सारी और इत्ती प्यारी आशु कवितायें लिखते हैं! लेकिन उनका कविता लिखना कब रुकेगा? क्या कविता का नोबेल प्राइज दिलाने से कुछ काम बनेगा?
जबाब: न भाई नोबेल प्राइज से काम नहीं बनेगा। उसके बाद वे जो वक्तव्य भी आशु कविता में झाड़ देंगे। उनके लिये तो एक ठो लाइफ़ टाइम अचीवमेंट पुरस्कार ही देना पड़ेगा। इससे कम पर बात नहीं बनेगी।
सवाल: ये मठाधीशी किस चिड़िया का नाम होता है। ये कैसे काम करती है? इसका क्या इलाज है?
जबाब: ये मठाधीशी कामदेव की तरह अनंग होती है। जहां मन आता है अवैध कब्जे की तरह झोपड़ा डाल लेती है। हर एक व्यक्ति दूसरे के लिये मठाधीश का काम कर सकता है। अद्भुत भावना है यह। भांति-भांति के मठाधीश पाये जाते हैं इस दुनिया में। कविता के मठाधीश, गीत के मठाधीश, चर्चा के मठाधीश, चिरकुटई के मठाधीश, दबंगई के मठाधीश, लफ़ंगई के मठाधीश, पॉडकास्टिंग के मठाधीश, अच्छाई के मठाधीश, सच्चाई के मठाधीश, भलाई के मठाधीश। अब तो दीन,दुखी,पीड़ित,वंचित,भावुक,भूलुंठित भी अपनी मठाधीशी दिखाते हैं और मुशायरा लूट ले जाते हैं।
सवाल:आपने ई त बताया ही नहीं कि यह भावना काम कैसे करती है? और इसका इलाज क्या है?
जबाब:जैसा बताया न कि यह भावना कामदेव की तरह अनंग होती है। किसी के भी दिमाग में कभी भी आ सकती है, छा सकती है। आपको घर में नाश्ता नहीं मिला क्योंकि आप समय पर दूध नहीं लाये तो आप इसे अपनी पत्नी की मठाधीशी बता सकते हैं। आपको आपने बॉस ने हड़का दिया क्योंकि आप कामचोरी नहीं कामडकैती करते हैं तो इसे आप बॉस की मठाधीशी कह सकते हैं। आप बहुत अच्छा लिखते हैं और उसके पाठक नहीं हैं तो इसे आप पाठकों की मठाधीशी कह सकते हैं। आप खराब लिखते हैं लेकिन आपकी कोई चर्चा नहीं करते तो इसे आप चर्चाकार की मठाधीशी कह सकते हैं। इसका इलाज क्या बतायें भाई! कामदेव का कोई इलाज नहीं है तो मठाधीशी का कौन इलाज हो सकता है! बस यही कहा जा सकता है सच्चरित्र बनिये। अच्छे विचार लाइये। सदाचार का ताबीज पहनिये और मस्त रहिये।
सवाल: ये जाकिर भाई ने इत्ते इनाम बांट दिये! जित्ते बांटे उससे कई गुना ज्यादा बांटने हैं। कब तक बंट जायेंगे? इस इनामों का समाज के लिये क्या उपयोगिता है?
जबाब: ये तो जाकिर भाई को भी न पता होगा। लेकिन लगता है वे किसी कछुआ गुरु के सच्चे चेले हैं। जीत ही उनका लक्ष्य है। शायद अगले इनामों की घोषणा से पहले ये वाले बंट जायेंगे। आराम से इनाम की घोषणा करने का कारण शायद उनके ब्लॉग का लखनऊ में होना है। हर इनाम दूसरे से कहता है- पहले आप, पहले आप! इसीलिये इनाम आगे आने में सकुचा रहे हैं। लजा रहे हैं और देरी हो रही है।
जहां तक सामाजिक उपयोगिता की बात है तो जिस तरह का काम जाकिर भाई ने किया उस तरह के काम करके देश के भूले-भटके लोगों को मुख्यधारा में लाया जा सकता है। उनसे सीख लेकर भारत सरकार को एक हृदय परिवर्तन मंत्रालय खोलना चाहिये। भूले-भटके युवाओं से अच्छे आचरण की कसम खिलवानी चाहिये और उनको इनाम दे देना चाहिये। झक मारकर लोग सुधर जायेंगे। जैसे सलीम खान सुधर गये। समाज सुधार के इस तरीके का पेटेंट कराना चाहिये वर्ना कोई इस तरीके का पेटेंट कराकर नीलाम कर देगा और सब देखते रह जायेंगे।
सवाल: ये अदाजी के तकिया-कलाम -हां नहीं तो ! का पूरा मतलब क्या है आपको पता है?
जबाब: इस तकिया-कलाम की व्याख्या के लिये बहुत पसीना बहाना पड़ेगा भाई! बस ये समझ लीजिये कि ये अदाजी की अदा है। किसी बात में अगर वे हां हां नहीं तो लिखती हैं तो इसका तीन मतलब होते हैं-हां मतलब सहमत, नहीं मतलब असहमत और तो मतलब बूझते रह जाओगे! लेकिन बताइयेंगे नहीं!यह एक सवाल भी है और बबाल भी। कभी इस बारे में लिखा जायेगा।
सवाल: यार ये बताओ अपने अनिल भाई रायपुर वाले की शादी में देर काहे हो रही है इत्ती!
जबाब: असल में पहले तो कुछ पारिवारिक कारण रहे होंगे। घरेलू जिम्मेदारियों के चलते देर हुई। अब जहां बात चलती है तो लोग कुछ लोग संग-साथ देखकर कट लेते हैं और कुछ आगे की सोचकर। आजकल किसी के भी बारे में पता करना मुश्किल नहीं है न! लोग देखते हैं इसका साथ ब्लॉगरों का है, उनसे रोज का उठना-बैठना है! दूर राजस्थान के वकीलों तक से इनके संबंध हैं। फ़ुरसतिया जैसे लोगों से नियमित फ़ोनालाप होता है। सूबे के मुख्यमंत्री तक इनको इनके नाम से जानते/बुलाते हैं। इसके अलावा लोग देखते हैं बात-बात पर तो लड़के का खून खौलता है। ऐसे में तो लड़का कमजोर हो जायेगा। अब छत्तीसगढ़ में कुछ वैज्ञानिक चेतना फ़ैले तब कुछ बात बने। अब गुरू के चक्कर में चेला संजीत त्रिपाठी भी -कोई तो मेरी शादी करईदो वाले मोड में बैठा है।
सवाल: ये शिवकुमार मिश्र दुर्योधन की डायरी ही क्यों लिखते हैं?
जबाब: जिस तरह अरविन्द मिश्र जी वैज्ञानिक चेतना से संपन्न विभूति हैं उसी तरह शिवकुमार मिश्र जी आर्थिक चेतना से लबालब संपन्न हैं। उनको इस बात का अंदाजा है कि आजकल की दुनिया माफ़िया लोग चला रहे हैं। इस चक्कर में माफ़िया लोगों को तमाम पराक्रम करने पड़ते हैं। लेकिन उन पराक्रमों को साहित्यिक/सांसारिक दुनिया में जगह नहीं मिल पाती। सांसारिक/साहित्यिक दुनिया के इन हाशिये के लोगों को मुख्य धारा में लाने का काम शिवकुमार जी करने में लगे हैं। जबर बरक्कत है इसमें। नमूने के लिये दुर्योधन की डायरी उन्होंने छाप दी। अब उनके पास दुनिया भर के माफ़िया लोगों के कारनामे जमा हो गये हैं। एक-एक करके उनको वे डायरी की शक्ल देने में लगे हैं। इसी चक्कर में अक्सर चिट्ठाचर्चा छोड़ देते हैं। इसी बात पर दुर्योधन उनसे खफ़ा है कि उनकी डायरी के सहारे शिवबाबू यहां पैसा पीट रहे हैं और उनका हिस्सा पहुंचा नहीं रहे हैं। संजय बेंगाणी ने इसका किस्सा बयान किया है।
सवाल:ब्लॉगजगत की कविताओं की सामाजिक उपयोगिता क्या हो सकती है?
जबाब: ब्लॉगजगत की कविताओं की घणी सामाजिक उप्योगिता हो सकती है। यूं तो दुनिया में ऐसी कोई चीज नहीं है जिसका उपयोग न किया जा सके। अरे देखिये श्लोक भी मिल गया पेश खिदमत है :
आमंत्रण अक्षरं नास्ति
नास्ति मूलं अनौषधम्
अयोग्य पुरुषो नास्ति
योजका तत्र दुर्लभः।
अर्थात् वर्णमाला में ऐसा कोई अक्षर नहीं, जिसका उपयोग मंत्रोच्चारण में न हो पाए, न ही कोई ऐसी जड़ी है, जिसमें औषध के गुण न हों। इसी तरह कोई मनुष्य भी ऐसा नहीं हो सकता, जो अक्षम हो—सिर्फ एक आयोजक मिलना मुश्किल होता है, जो अक्षर को मंत्र में प्रयुक्त कर ले, जड़ी को औषधि के रूप में इस्तेमाल कर ले और व्यक्ति विशेष को उसकी क्षमताओं से परिचित करा दे।
सवाल: अरे श्लोक पटककर विद्वता मत दिखाइये। उदाहरण सहित अपने कहे का मतलब बताइये।
जबाब: अब जैसे देखिये समीरलाल की ही कविताओं को देखिये। उनकी कुछ कवितायें इत्ती भावुक कर देने वाली होती हैं कि पढ़ते ही पाठक के आंसू निकल आते हैं। समीरलाल को बुंदेलखंड/बस्तर जैसे इलाकों में ले जाकर उनका कविता पाठ करवाया जा सकता है। कुछ तो उनकी कविता की ताकत और कुछ उनकी आवाज की मार के दर्द से श्रोताओं के इत्ते आंसू निकलेंगे कि सूखे इलाकों में बाढ़ आ सकती है। जिनकी ऊंगलियां चलने-फ़िरने से लाचार हो गयी हैं (ऊंगलियों में हरकत बंद हो गयी हो) उनको ब्लाग जगत की बोर कवितायें एक-एक कर पढ़ाई जायें। कविताओं को पढ़ते ही उनसे बचने के लिये माउस स्क्राल करते-करते उनकी उंगलियां विलियम्स बहनों की तरह चपल हो जायेंगी। जिनके बच्चे पढ़ने से जी चुराते हों और पढ़ने से बचने के लिये बहाने बनाते हों उनको अपने बच्चों को -अच्छा, बेटे आओ तुमको अच्छी कवितायें पढ़वाते हैं कहकर इन कविताओं को पढ़वाना चाहिये। बच्चे सपने में भी पढ़ने से मना नहीं करेंगे। इसके अलावा कविताओं का दुश्मन और मंहगाई से मुकाबला करने जैसे वीरता पूर्ण कामों में भी किया जा सकता है।
सवाल:कविता से दुश्मन और मंहगाई से कैसे मुकाबला हो सकता है भाई?
जबाब: अरे आपने वीर रस की कवितायें नहीं सुनी। एक-एक लड़ाई तक में हज्जारों कवितायें निकाल लेते थे लोग। अगर आप यह समझते हैं कि लड़ाइयों में सैनिक जीतते हैं तो आप भ्रम में हैं। पाकिस्तान के खिलाफ़ लड़ाइयों में धुंआधार कवितायें सुनकर ही दुश्मन ने पहले कान दिखाये फ़िर पीठ। अमेरिका वियतनाम और ईराक और लादेन के खिलाफ़ सफ़ल नहीं हो सका इसीलिये क्योंकि उनके पास उनसे निपटने के लिये मुफ़ीद कविताओं का अकाल रहा। बिना सच्ची वीररस की कविताओं के युद्ध नहीं जीते जा सकते। इसी तरह मंहगाई से निपटने के लिये भी आशु कविताओं का उपयोग किया जा सकता है!
सवाल: आशु कविता क्यों वीर रस की कविताओं का क्यों नहीं?
जबाब:असल में वीर रस की कविताओं में जोर बहुत लगता है। उनको पढ़ने के लिये मजबूत फ़ेफ़ड़े वाला कवि चाहिये। अब लोगों के फ़ेफ़ड़े उत्ते मजबूत नहीं। इसीलिये आशु कविता का चलन हुआ है। इसमें कम मेहनत में बहुत फ़ल निकल आता है। आशु कविताओं की उत्पादकता( प्रोडक्टिविटी) वीर रस की कविताओं के मुकाबले बहुत अधिक होती है। मंहगाई आजकल हर जगह पसरी दिखती है। हर कोने अतरे में दिखती है। भ्रष्टाचार भले एक बार मुंह छिपाता दिखे लेकिन मंहगाई बेशर्मी से मुस्कराती/खिलखिलाती रहती है। ऐसे में आशु कविता का अद्धे-गुम्मे की तरह उपयोग किया जा सकता है। जहां दिखे मंहगाई मार दिया एक आशु कविता का ढेला। मंहगाई कुतिया की तरह कुलबुलाती हुई पूंछ हिलाती हुई उस जगह से गो वेन्ट गॉन हो जायेगी। फ़ूट लेगी।
सवाल:और ब्लॉग जगत की टिप्पणियों का क्या सामाजिक उपयोग किया जा सकता है?
जबाब: बहुत कुछ! ब्लॉगजगत की टिप्पणियों से सामाजिकता की सीख दी सकती है। ब्लॉगजगत की टिप्पणियां सामाजिक भाईचारे की जीगता-जागता, उबलता-खौलता उदाहरण हैं। जिस पोस्ट को पढ़ते-पढ़ते दो-तीन काम्बीफ़्लेम खा जाते हैं उसके आखिर में वाह,सुन्दर,अद्भुत सरीखी सामाजिक सद्व्यवहार वाली टिप्पणियां कर जाते हैं। सुमन जी टिप्पणी nice बार-बार इस उक्ति को सार्थक करती है -सुन्दरता देखने वाली की निगाह में होती है। इसके अलावा भी टिप्पणियों के माध्यम से ही सामाजिक जीवन के तमाम कार्य-कलाप प्रेम,दोस्ती, लड़ाई-झगड़ा, आरोप-प्रत्यारोप, धींगा-मुस्ती, ये वो न जाने क्या-क्या निपटाये जा सकते हैं। सामाजिक जीवन का ऐसा कोई काम नहीं जो टिप्पणियों के द्वारा न किया जा सकता हो।
सवाल: आलोक पुराणिक के ब्लाग लेखन के कम होने के क्या मायने हैं?
जबाब:व्यंग्यकार जब लिखना कम करता है तो इसका मतलब है कि समाज खुशहाल हो लिया है और समाज में विसंगतियां कम हुई हैं। लेकिन आलोक पुराणिक का लिखना कम होने का कारण दूसरा है। वे पहले स्कूल के टापरों की कापियां चुराकर उनके निबंध लिख डालते थे। लेकिन अब चोरी के लिये उनको कापियां मिलती ही नहीं। स्कूल वालों को पहले तो छठे वेतन आयोग के बकाया पैसे देने थे मास्टरों को सो वे उनको रद्दी में बेच लेते थे। बाद में जब योजना आयोग के लोगों ने स्कूलों के टापरों की कापियां मंगाकर उनमें लिखे निबंधों के अनुसार देश के लिये नीतियां बनानी शुरू कर दी हैं। दो-दो पन्ने के एक-एक निबंध ने तीन-तीन,चार-चार नीतियां निकाल ले रहे हैं नीतिनिर्धारक। शिक्षा विभाग की तमाम नीतियों में आप इन टापरों के बालपन की छटा देख सकते हैं। इसीलिये जब आलोक जी टापरों की कापियों के लिये टापते रहते हैं और हम उनके लेखन के लिये।
सवाल: सागरसाहब कहते हैं उनकी प्रेमिकायें उनकी ताकत हैं और दूसरे की प्रेमिकायें उनकी कमजोरी! आपका क्या कहना है इस बारे में?
जबाब:सागर सही की कहते हैं लेकिन यह सच नहीं बताते कि दिल्ली का ऐसा कोई हकीम, वैद्य और डाक्टर (जगह-जगह दीवार में जिनका पता लिखा होता )नहीं बचा जिससे उन्होंने अपनी कमजोरी के इलाज की दवा न ली हो। उनको अपनी प्रेमिकाओं से ताकत मिल नहीं रही है और दूसरे की प्रेमिकायें अपने ही प्रेमियों को ताकत की सप्लाई में खुश हैं।
अब सवाल-जबाब के चक्कर में ब्लागजगत के किस्से रह ही गये। उनके बारे में फ़िर कभी। फ़िलहाल तो आप चंद फ़ुटकर सीन देखिये:
- रचना जी सीधे-सीधे अनूप शुक्ल से कह रही हैं- ब्लॉग जगत की सारी नहीं तो बहुत सारी गड़बड़ियों के पीछे आपकी मौज लेने की और हें हें हें करने की आदत का हाथ है। अनूप शुक्ल इस बात पर कोई मौज तो नहीं ले पा रहे हैं लेकिन हें हें हें करने से बाज नहीं आ रहे हैं।
- अरविन्द मिश्र जी भी आश्चर्यजनक किंतु सत्य रूप में इस मामले में रचना जी से सहमत हैं और कह रहे हैं ब्लॉगजगत में जित्ते जलजले आये सबके पीछे फ़ुरसतिया की इसी मौज लेने का आदत का हाथ है।
- रश्मि रवीजा अपनी हेयर ड्रेसर के यहां अपने तेजी से कम होते बालों का कारण बताते हुये कहती हैं कि यह सब अपने ब्लॉग पर अनूप शुक्ला की एक टिप्पणी को समझने में लगी मेहनत के कारण हुआ। वे उन ज्ञानी जनॊं के हाल सोचकर अभी तक परेशान हैं जिनसे उन्होंने उस टिप्पणी का मतलब समझा लेकिन वे भी कुछ बता न पाये।
- इस समारोह की लाइव पाडकास्टिंग करते हुये गिरीश बिल्लौरे बार-बार कह रहे हैं- लगता है ब्लागाश्रम से संपर्क टूट गया है।
- समारोह की रपट-रिपोर्ट की प्रूफ़रीडिंग करते हुये गिरिजेश राव वर्तनी की कमियां निकाल के धरे दे रहे हैं लेकिन हर बार कोई नयी वर्तनी नखरे कर देती है।
- व्याकरण सुधार कार्यक्रम की जिम्मा अमरेन्द्र त्रिपाठी के पल्ले है। वे जित्ती गलतियां सही कर रहे हैं उससे अधिक दिख रही हैं। व्याकरण की गलतियां गाजर घास सरीखी हो रही हैं जित्ती उखाड़ो उससे अधिक जमती जा रही हैं।
मेरी पसंद
उर्दू के प्रख्यात शायर वसीम बरेलवी ने सालों पहले शाहजहांपुर के एक मुशायरे में होली पर एक नज्म पढ़ी थी-मगर अब साजन कैसी होली!उस कैसेट को मैं उस दिन से याद कर रहा था जिस दिन मैंने नीरज गोस्वामी जी के ब्लॉग पर वसीम साहब की गजलों की किताब के बारे में पढ़ा। अब जब कैसेट मिला तो पता चला बेचारा खड़खड़ाने लगा है। लेकिन आवाज साफ़ समझ में आ रही है। होली के मौके पर आनन्दित होइये आप भी!मगर अब साजन कैसी होली!
तन से सारे रंग भिखारी मन का रंग सोहाया
बाहर-बाहर पूरनमासी अंदर-अंदर आया
अंग-अंग लपटों में लिपटा बोले था एक बोली
तोहरा रंग चढ़ा तो मैंने खेली रंग मिचोली
मगर अब साजन कैसी होली!
रंग बहुत पर मैं कुछ ऐसी भीगी पापी काया
तूने एक-एक रंग में कितनी बार मुझे दोहराया
मौसम आये मौसम बीते मैंने आंख न खोली
मगर अब साजन कैसी होली!
रंग बहाना रंग जमाना रंग बड़ा दीवाना
रंग में ऐसी डूबी साजन रंग को रंग न जाना
रंगों का इतिहास सजाये रंगो-रंगो होली
मगर अब साजन कैसी होली।
तोहरा रंग चढ़ा तो मैंने खेली रंग मिचोली
मगर अब साजन कैसी होली!
वसीम बरेलवी
Posted in पाडकास्टिंग, बस यूं ही | 39 Responses
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एक से बढ़कर एक सवाल-जवाब. दुर्योधन से मामला सलटाने का प्रयास करता हूँ. मेरा ऐसा मानना है कि अपनी आशु कविताओं के लिए अविनाश जी नोबेल डिजर्व करते हैं. एक नहीं, कम से कम ४-५. ब्लॉग जगत की कविताओं के असली उपयोग के बारे में आज पता चला. सच कोट किया आपने कि;
आमंत्रण अक्षरं नास्ति
नास्ति मूलं अनौषधम्
अयोग्य पुरुषो नास्ति
योजका तत्र दुर्लभः।
लगता है रात भर सोये ही नहीं जो इतनी लम्बी पोस्ट लिख डाली , पढने में पूरा दिन चाहिए और समझने में ४ दिन , और समझना पढने से ज्यादा जरूरी है और आपको समझना ……
प्रणाम स्वीकारें !
बेमिसाल, पहली बार अद्भुत व्यंग व्यंगकारों पर सर जी, अपने आप में एक दिशा देती लाइन.
एक बात और
सागर सच नहीं बताते कि दिल्ली का ऐसा कोई हकीम, वैद्य और डाक्टर (जगह-जगह दीवार में जिनका पता लिखा होता )नहीं बचा जिससे उन्होंने अपनी कमजोरी के इलाज की दवा न ली हो।
यह जगह तो अकेले जाने वाली हैं…
तो सवाल दस लाख का – आपको कैसे पता ?????
तस्वीर देख कर भंगियाये हुए आदमी से एक बार फिर अनुरोध, {ऐसा हाल तो हमारे दोस्तों का किसी girls हॉस्टल से मार खा कर निकलने पर होता था :)}
मुझे भी ऐसा लिखना सिखा दीजिये सर जी.
होली मुबारक हम फ़ोन का इंतज़ार करते रहे
7 din ki holi, to fir to 7 aisi hi post honi chahiye
जा सकता है सच्चरित्र बनिये। अच्छे विचार लाइये। सदाचार का ताबीज पहनिये और
मस्त रहिये।”
————–का भैया ! कामदेव के जवाब में सच्चरित्र बना जाय ?/! या फिर ” जस का तस ” !
ले ठकाठक , दे ठकाठक !
गजब व्यंग्य की धार रही आज की ..
कई लपेट उठे ..
वसीम साहब की गौनई सुन के बड़ा मजा आवा …
.
रचना जी की बात मान भी लें बस उतना ही जितना दाल में हींग !
.
@ सागर – उवाच —
1.
@ तो सवाल दस लाख का – आपको कैसे पता ?????
———–” खैर खून खांसी खुसी , बैर प्रीत मदपान |/ रहिमन दाबे न दबै जानै सकल जहान || ”
हुजूर पहचान के संकट से मत गुजरियेगा !!!!!!! मेरी (अ)नेक सलाह है
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Vaseem barelvi saab ki gazal sunane ke liye aabhar.. kavita mazedaar rahi aur sawal-jawab sunkar to laga ki jaise bhaang ki pudia kha ke baithe hon.. par sabse jordaar rahe painting ki tarah paint kiye gaye aap..
Jai Hind.. Jai Bundelkhand…
लाजवाब्!
इतना फुरसतिया गये हैं का
मैं तो हूं हक्का बक्का
किधर हैं नोबेल अक्का
वो लाइफ टाइम अचीवमेंट
इतनी जल्दी देकर
लाइफ खतम करने की फिराक में हैं क्या
नोबेल भी नहीं देना पड़ेगा
और आशु कविता से भी छुट्टी मिल जाएगी
पर फिर महंगाई को भगाने के लिए
आशु कविता कहां से सप्लाई करवाई जाएगी
फिर एक नया आशु कवि उभर आएगा
उससे तो इसे ही झेलते रहो
पढ़ना मत कविता और टिप्पणियां
यूं ही पेलते रहो
आप पोस्टों से ब्लॉग से
टिप्पणियों रूपी आग से खेलते रहो।
वैसे फ़ोटो बडा कसके हिंचवायें हैं? किससे हिंचवाया?
रामराम
चित भी मेरी…पट भी मेरी …और अंटा हमरे बाबूजी का ..
हा हा हा हा हा….हाँ नहीं तो ..!
बढ़िया चटखारे लिए जा रहे हैं ब्लॉगाश्रम में..अभी तो आपको ५ दिन और हें हें करना ही है..तो आते जाते रहेंगे…
वसीम बरेलवी साहब को सुनने में आनन्द आया और आपको पढ़ने में.
“व्यंग्यकार जब लिखना कम करता है तो इसका मतलब है कि समाज खुशहाल हो लिया है और समाज में विसंगतियां कम हुई हैं।” कितनी सशक्त चोट की है आपने……
और सूखाग्रस्त इलाको में बाढ लाने की अच्छी तरकीब बताई है….:) बधाइयां..बधाइयां.
बहुत उम्दा पंक्ति।
रचनाजी के लिखे से लगता है कि आप मठाधीश हो गए हैं। क्या सचमुच? और चेले भी पाल लिए हैं?
एक ठो पोस्ट इस मठाधीशी और चेला पालन पर भी लिख डालिए।
अंदाजें बयां के क्या कहने ! बस पढो और मजे लो ।
आप राग दरबारी या बारहमासी जैसा कुछ लिखने की सोचिए ….
अद्वितीय….