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….बगीचे के फ़ूल और पक्षियों की आवाजें
By फ़ुरसतिया on March 25, 2010
कुछ दिन पहले हमारी श्रीमतीजी ने अपने बगीचे की कुछ फ़ोटुयें खींची। आइये
आपको भी दिखाते हैं! नीचे लगाई हैं! देखिये एक-एक कर करके। आराम से।
हड़बड़ाइये नहीं! फ़ोटुयें भाग नहीं रही हैं। सिर्फ़ सरक रही हैं आगे की तरफ़
लेकिन आप जिसको चाहेंगे वह रुक भी जायेंगी। बड़ी अनुशासित च आज्ञाकारी
फोटूयें हैं!
लेकिन देखने के पहले फ़ोटुओं के ऊपर लगे बायीं तरफ़ के माइक को बंद कर दें। हमको अभी पता नहीं है कि स्लाइड शो में इसे कैसे बंद किया जाता है।
जब हम सन 2001 में इस घर में आये थे तो जिसे अभी बगीचा कहते हैं वहां कंक्रीट का मलवा था। घर नया जीर्णोद्धारित हुआ था और अपने यहां की मकान बनाने की परम्परा के अनुसार ठेकेदार पुराने मकान का मलवा तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा की मासूम भावना से ओतप्रोत होकर यहीं दफ़न कर गया था। मलवा बेचारा अकेलापन न महसूस करे इसलिये उसका साथ देने के लिये गाजर घास उग आई थी। कुछ दिन बाद नीचे की मेन पाईप लाइन भी भावुक होकर फ़ट गयी और एक बच्चा तालाब का सा सीन बन गया जिसे देखते हुये हमारे घरवाले महीनों हमें धिक्कारते रहे कि कौन बात के अफ़सर जब एक पाइपलाइन न ठीक करवा सके। काबिल कविगण तालाब को गूगल अर्थ पर देखकर अहा ग्राम्य जीवन भी क्या घराने की दस-पन्द्रह कवितायें खैंच सकते थे।
पाइप लाइन ठीक होने के दौरान हमने देखा कि ये कैसे रिपेयर होती हैं। आदमी अपनी ऊंचाई से भी ड्योढ़े के गढ्ढे में घुसा पाइप कमर तक पानी में घुसा लाइन ठीक कर रहा है। जिस अंदाज में आपरेशन करने वाला डॉक्टर औजार मांगता है वैसे ही मिस्त्री द्वारा ऊपर के साथी से छेनी, रिंच, हथौड़ी मांगी जाती देखी। ये अनुभव बाद में बहुत बार हुये। एकाध बार तो देखा कि कमर तक धंसे पानी में अपने साथी को वहीं छोड़कर लोग गोडाउन सामान लेने के लिये भागते। वहां गोडाउन कीपर चाय पीने के निकल गया होता। चाय की दुकान से पता चलता कि अब्भी-अब्भी गये हैं भैया उधर की तरफ़। वहां से फ़नफ़नाते हुये वापस लौटने पर देखा जाता कि भैया सहित बाकी सब लोग साथी हाथ बढ़ाना वाले अंदाज में जुटे हैं।
खैर ऊ अब छोड़िये। त हम आपको सुना रहे थे बगीचा कथा। तो भैया इस घर में आने के बाद फ़िर हमें लगाया गया बगीचा संवारने में। बहुत दिन तक कोई माली न मिला। लगातार उलाहने के चलते एकाध बार खुदै घास उखाड़ने लगे। घास तो जो उखड़ी सो उखड़ी एक दिन हमारा कन्धा ही उखड़ गया। उखड़ने से जरा कुछ गड़बड़ सा लगता है सो बाद में उसे डिस्लोकेट हो गया कहने लगे।
हमारे कन्धे के साथ काफ़ी दिन से यह समस्या है। जब मन आता है उखड़ जाता है। कन्धे का जो बाल और साकेट ज्वाइंट होता है उनमें आपस में जब मन आये तब कुट्टी हो जाती है। बाल जब मन आये साकेट का बहिष्कार करके बाहर निकल आता है और कन्धा बाकी शरीर से समर्थन वापस लेकर झोला जैसा लटक जाता है। फ़िर कन्धे को मनुहार करके वापस अपने आसन पर बैठाया जाता है। कन्धे के उखड़ने पर दर्द जो होता है सो होता है लेकिन वापस बैठने पर जो आनन्द का अनुभव होता है शायद उसी को बड़े-बड़े विद्वानों ने अनिर्वचनीय आनन्द कहा होगा।
एक बार अपने बच्चे को पिता के अधिकार का उपयोग करने की सात्विक भावना के वशीभूत होकर चपतियाने के लिये मैंने हाथ आगे किया तो पता अंतिम परिणति अनिर्वचनीय आनन्द की प्राप्ति में हुई। तबसे मैंने पुत्र-प्रताड़ना की भावना को अपने और बालक के स्वास्थ्य के हित में मानकर सदा के लिये तिलांजलि दे दी। बाद में फ़िर बच्चों की प्रताड़ना के लिये हमने हिंसा का सहारा लेना छोड़ दिया। पिता-पुत्र प्रेम संबंध की आवश्यक कड़ी, मार-पिटाई , की कमी को समय-समय पर डांट-फ़टकार कर पूरा किया जाता।
बहरहाल बात बगीचे की हो रही थी। तो धीरे-धीरे करते-करते इसका विकास हुआ। न जाने कितने माली आये इसके परिष्कार करने के लिये। मिटटी और पौधे को एक आंख से देखने वाले मेहनती लोग पसीना चुआ-चुआकर और पैसे लेकर आये और चले गये। हरेक का बागवानी का ज्ञान दूसरे से एकदम अलहदा। जुदा। हरेक के साथ सब कुछ बदल जाता- पौधा, बीज, खाद, मिट्टी और तरकीब तक। बगीचा बेचारा अचल संपत्ति होने के चलते जैसा का तैसा बना रहा। लोग एक दिन से लेकर महीने भर तक में माली है से माली था में बदलते गये। कई बार तो जो माली था वही माली है बने और उकता फ़िर से माली था बन गये। एकाध बार तो मन किया कि बाजार जाकर बागवानी कैसे करें किताब ले आये जाकर और घास छीलने लगें। लेकिन … अब छोड़िये लेकिन के बारे में क्या बतायें- लम्बी कहानी है।
फ़िलहाल हमारे बगीचे की देखभाल दिलीप करते हैं। वे भी कई बार जहाज के पंछी की तरह थे, हैं, थे, हैं का झूला झूल चुके हैं। कुछ दिन करते हैं फ़िर बेहतर काम की तलाश में कहीं चले जाते हैं। जहां जाते हैं वहां से फ़िर बेहतर काम की तलाश में फ़िर दूसरी जगह चले जाते हैं फ़िर और बेहतर काम की तलाश में लौट आते हैं। अब यह अलग बात है कि इस बीच बेहतर कुछ नहीं होता सिवाय दो सौ, तीन सौ बढ़ने के अलावा।
कभी-कभी मन की उड़ान इनको भी कुछ नया करने को उकसाती है। ये सोचते हैं नर्सरी खोलेंगे, फ़ूल बेचेंगे , बीज बनायेंगे। लेकिन कुछ ऐसा हो जाता है कि जगह बदल-बदलकर वही काम करते रहते हैं। हालत कहीं से बेहतर नहीं होते। हमारे यहां तो ये लोग एकाध घंटा ही शाम को या सुबह काम करते हैं लेकिन जहां काम करते हैं वहां माली के लिये जो पैसे न्यूनतम वेतन सरकार द्वारा घोषित है वो कभी नहीं पाते। जिनकी मेहनत से खिले फ़ूल देखकर लोगों के मन खिल जाते हैं उनके चेहरे अक्सर मुर्झाये ही रहते हैं।
खैर, फ़िर लौटा जाये बगीचे की ओर। मैं इस तरफ़ से काम भर का उदासीन हूं। फ़ूल पौधे खिलें तो अच्छा लगता है। न खिलें तो इत्ता बुरा नहीं लगता कि मेहनत करके माली, पेड़,पौधे का इंतजाम मुझे झमेला ही लगता है। लेकिन श्रीमतीजी को इस मामले में बहुत रुचि है और इस मामले में उनकी लगन देखकर बाधा, विविध बहु विघ्न घबराते नहीं घराने की है। इसीलिये हमारे घर में हमेशा कोई न कोई फ़ूल, फ़ल, सब्जी खिलती, उगती, निकलती रहती हैं।
बगीचे में खिले फ़ूल मेरे कई लेखों में बिना पूछे जबरियन घुस आते रहे। गेंदा देखकर लगता है कि किसी मां का लाड़ला, घामड़ बेटा है जिसको उसकी अम्मा कजरौटा लगाकर राजा बेटा बनाकर बगीचे में भेज देती हैं। बाकी फ़ूलों में से बहुत के नाम भी नहीं पता। दो दिन पहले दिलीप ने बताया कि एक डॉग फ़्लॉवर भी होता है जो कुत्ते जैसी कुछ हरकते करता है। उसने दिखाने की कोशिश भी की लेकिन फ़िर बीचै में मामला छोड़ दिया।
ये फ़ोटुयें तो बहुत दिन हुये खैंची गयीं थीं। सोचा आपको भी दिखायें। आज सुबह बाग में टहलते हुये ये नीचे वाला वीडियो भी बना लिया। इसमें फ़ूल तो हैं हीं। साथ में पक्षियों की आवाजें भी हैं। मोर, कौवा, चिड़ियां और हमारी चाय की चुस्की भी। देखिये, सुनिये और बताइये कैसा लगा?
लेकिन देखने के पहले फ़ोटुओं के ऊपर लगे बायीं तरफ़ के माइक को बंद कर दें। हमको अभी पता नहीं है कि स्लाइड शो में इसे कैसे बंद किया जाता है।
जब हम सन 2001 में इस घर में आये थे तो जिसे अभी बगीचा कहते हैं वहां कंक्रीट का मलवा था। घर नया जीर्णोद्धारित हुआ था और अपने यहां की मकान बनाने की परम्परा के अनुसार ठेकेदार पुराने मकान का मलवा तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा की मासूम भावना से ओतप्रोत होकर यहीं दफ़न कर गया था। मलवा बेचारा अकेलापन न महसूस करे इसलिये उसका साथ देने के लिये गाजर घास उग आई थी। कुछ दिन बाद नीचे की मेन पाईप लाइन भी भावुक होकर फ़ट गयी और एक बच्चा तालाब का सा सीन बन गया जिसे देखते हुये हमारे घरवाले महीनों हमें धिक्कारते रहे कि कौन बात के अफ़सर जब एक पाइपलाइन न ठीक करवा सके। काबिल कविगण तालाब को गूगल अर्थ पर देखकर अहा ग्राम्य जीवन भी क्या घराने की दस-पन्द्रह कवितायें खैंच सकते थे।
पाइप लाइन ठीक होने के दौरान हमने देखा कि ये कैसे रिपेयर होती हैं। आदमी अपनी ऊंचाई से भी ड्योढ़े के गढ्ढे में घुसा पाइप कमर तक पानी में घुसा लाइन ठीक कर रहा है। जिस अंदाज में आपरेशन करने वाला डॉक्टर औजार मांगता है वैसे ही मिस्त्री द्वारा ऊपर के साथी से छेनी, रिंच, हथौड़ी मांगी जाती देखी। ये अनुभव बाद में बहुत बार हुये। एकाध बार तो देखा कि कमर तक धंसे पानी में अपने साथी को वहीं छोड़कर लोग गोडाउन सामान लेने के लिये भागते। वहां गोडाउन कीपर चाय पीने के निकल गया होता। चाय की दुकान से पता चलता कि अब्भी-अब्भी गये हैं भैया उधर की तरफ़। वहां से फ़नफ़नाते हुये वापस लौटने पर देखा जाता कि भैया सहित बाकी सब लोग साथी हाथ बढ़ाना वाले अंदाज में जुटे हैं।
खैर ऊ अब छोड़िये। त हम आपको सुना रहे थे बगीचा कथा। तो भैया इस घर में आने के बाद फ़िर हमें लगाया गया बगीचा संवारने में। बहुत दिन तक कोई माली न मिला। लगातार उलाहने के चलते एकाध बार खुदै घास उखाड़ने लगे। घास तो जो उखड़ी सो उखड़ी एक दिन हमारा कन्धा ही उखड़ गया। उखड़ने से जरा कुछ गड़बड़ सा लगता है सो बाद में उसे डिस्लोकेट हो गया कहने लगे।
हमारे कन्धे के साथ काफ़ी दिन से यह समस्या है। जब मन आता है उखड़ जाता है। कन्धे का जो बाल और साकेट ज्वाइंट होता है उनमें आपस में जब मन आये तब कुट्टी हो जाती है। बाल जब मन आये साकेट का बहिष्कार करके बाहर निकल आता है और कन्धा बाकी शरीर से समर्थन वापस लेकर झोला जैसा लटक जाता है। फ़िर कन्धे को मनुहार करके वापस अपने आसन पर बैठाया जाता है। कन्धे के उखड़ने पर दर्द जो होता है सो होता है लेकिन वापस बैठने पर जो आनन्द का अनुभव होता है शायद उसी को बड़े-बड़े विद्वानों ने अनिर्वचनीय आनन्द कहा होगा।
एक बार अपने बच्चे को पिता के अधिकार का उपयोग करने की सात्विक भावना के वशीभूत होकर चपतियाने के लिये मैंने हाथ आगे किया तो पता अंतिम परिणति अनिर्वचनीय आनन्द की प्राप्ति में हुई। तबसे मैंने पुत्र-प्रताड़ना की भावना को अपने और बालक के स्वास्थ्य के हित में मानकर सदा के लिये तिलांजलि दे दी। बाद में फ़िर बच्चों की प्रताड़ना के लिये हमने हिंसा का सहारा लेना छोड़ दिया। पिता-पुत्र प्रेम संबंध की आवश्यक कड़ी, मार-पिटाई , की कमी को समय-समय पर डांट-फ़टकार कर पूरा किया जाता।
बहरहाल बात बगीचे की हो रही थी। तो धीरे-धीरे करते-करते इसका विकास हुआ। न जाने कितने माली आये इसके परिष्कार करने के लिये। मिटटी और पौधे को एक आंख से देखने वाले मेहनती लोग पसीना चुआ-चुआकर और पैसे लेकर आये और चले गये। हरेक का बागवानी का ज्ञान दूसरे से एकदम अलहदा। जुदा। हरेक के साथ सब कुछ बदल जाता- पौधा, बीज, खाद, मिट्टी और तरकीब तक। बगीचा बेचारा अचल संपत्ति होने के चलते जैसा का तैसा बना रहा। लोग एक दिन से लेकर महीने भर तक में माली है से माली था में बदलते गये। कई बार तो जो माली था वही माली है बने और उकता फ़िर से माली था बन गये। एकाध बार तो मन किया कि बाजार जाकर बागवानी कैसे करें किताब ले आये जाकर और घास छीलने लगें। लेकिन … अब छोड़िये लेकिन के बारे में क्या बतायें- लम्बी कहानी है।
फ़िलहाल हमारे बगीचे की देखभाल दिलीप करते हैं। वे भी कई बार जहाज के पंछी की तरह थे, हैं, थे, हैं का झूला झूल चुके हैं। कुछ दिन करते हैं फ़िर बेहतर काम की तलाश में कहीं चले जाते हैं। जहां जाते हैं वहां से फ़िर बेहतर काम की तलाश में फ़िर दूसरी जगह चले जाते हैं फ़िर और बेहतर काम की तलाश में लौट आते हैं। अब यह अलग बात है कि इस बीच बेहतर कुछ नहीं होता सिवाय दो सौ, तीन सौ बढ़ने के अलावा।
कभी-कभी मन की उड़ान इनको भी कुछ नया करने को उकसाती है। ये सोचते हैं नर्सरी खोलेंगे, फ़ूल बेचेंगे , बीज बनायेंगे। लेकिन कुछ ऐसा हो जाता है कि जगह बदल-बदलकर वही काम करते रहते हैं। हालत कहीं से बेहतर नहीं होते। हमारे यहां तो ये लोग एकाध घंटा ही शाम को या सुबह काम करते हैं लेकिन जहां काम करते हैं वहां माली के लिये जो पैसे न्यूनतम वेतन सरकार द्वारा घोषित है वो कभी नहीं पाते। जिनकी मेहनत से खिले फ़ूल देखकर लोगों के मन खिल जाते हैं उनके चेहरे अक्सर मुर्झाये ही रहते हैं।
खैर, फ़िर लौटा जाये बगीचे की ओर। मैं इस तरफ़ से काम भर का उदासीन हूं। फ़ूल पौधे खिलें तो अच्छा लगता है। न खिलें तो इत्ता बुरा नहीं लगता कि मेहनत करके माली, पेड़,पौधे का इंतजाम मुझे झमेला ही लगता है। लेकिन श्रीमतीजी को इस मामले में बहुत रुचि है और इस मामले में उनकी लगन देखकर बाधा, विविध बहु विघ्न घबराते नहीं घराने की है। इसीलिये हमारे घर में हमेशा कोई न कोई फ़ूल, फ़ल, सब्जी खिलती, उगती, निकलती रहती हैं।
बगीचे में खिले फ़ूल मेरे कई लेखों में बिना पूछे जबरियन घुस आते रहे। गेंदा देखकर लगता है कि किसी मां का लाड़ला, घामड़ बेटा है जिसको उसकी अम्मा कजरौटा लगाकर राजा बेटा बनाकर बगीचे में भेज देती हैं। बाकी फ़ूलों में से बहुत के नाम भी नहीं पता। दो दिन पहले दिलीप ने बताया कि एक डॉग फ़्लॉवर भी होता है जो कुत्ते जैसी कुछ हरकते करता है। उसने दिखाने की कोशिश भी की लेकिन फ़िर बीचै में मामला छोड़ दिया।
ये फ़ोटुयें तो बहुत दिन हुये खैंची गयीं थीं। सोचा आपको भी दिखायें। आज सुबह बाग में टहलते हुये ये नीचे वाला वीडियो भी बना लिया। इसमें फ़ूल तो हैं हीं। साथ में पक्षियों की आवाजें भी हैं। मोर, कौवा, चिड़ियां और हमारी चाय की चुस्की भी। देखिये, सुनिये और बताइये कैसा लगा?
Posted in पाडकास्टिंग, बस यूं ही | 36 Responses
दम्बूक पकडने वाले हाँथ में खुरपी
सोच में जो फोटो बन रही है उ इन सब से जियादा मजेदार है
एक हाँथ में दम्बूक अऊर एक हाँथ में खुरपी :):):)
बढ़िया है …हे हे हे
–
आपके लिए विशेष संदेश:
हिन्दी में विशिष्ट लेखन का आपका योगदान सराहनीय है. आपको साधुवाद!!
लेखन के साथ साथ प्रतिभा प्रोत्साहन हेतु टिप्पणी करना आपका कर्तव्य है एवं भाषा के प्रचार प्रसार हेतु अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें. यह एक निवेदन मात्र है.
अनेक शुभकामनाएँ.
बगीचे और फूलों की फोटो देखकर किसी का भी मन खुश हो जाए. ईर्ष्या करने वाले का भी…..:-)
लेकिन पूरी पोस्ट से गुजरते समय बड़ी असुविधा भी हुई,कि खाली पढ़े कि खाली देखें…
दोनों में से किसीका भी रस ऐसा नहीं कि छोड़ा जा सके…
लाजवाब पोस्ट…आनंद रस पान कराने हेतु बहुत बहुत आभार…
“काबिल कविगण तालाब को गूगल अर्थ पर देखकर अहा ग्राम्य जीवन भी क्या घराने की दस-पन्द्रह कवितायें खैंच सकते थे”
“गेंदा देखकर लगता है कि किसी मां का लाड़ला, घामड़ बेटा है जिसको उसकी अम्मा कजरौटा लगाकर राजा बेटा बनाकर बगीचे में भेज देती हैं। ”
बहुत शानदार. प्रकृति का मानवीकरण तो आपकी विशेषता है. वीडियो और तस्वीरें बहुत अच्छी हैं. दिलीप जी की फोटो लगा के अच्छा किया.
वैसे चाय थोड़ा और ज्यादा सुडुक कर पिया ना करिए !
हॉं, गाना बड़ा खतरनाक था,
स्लाइड शो उतना ही मोहक।
आपका बगीचा बहुत सुन्दर लगा और लेखन हमेशा की तरह लाजवाब है। बधाई।
-”घर नया जीर्णोद्धारित हुआ था और अपने यहां की मकान बनाने की परम्परा के अनुसार ठेकेदार पुराने मकान का मलवा तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा की मासूम भावना से ओतप्रोत होकर यहीं दफ़न कर गया था। मलवा बेचारा अकेलापन न महसूस करे इसलिये उसका साथ देने के लिये गाजर घास उग आई थी। कुछ दिन बाद नीचे की मेन पाईप लाइन भी भावुक होकर फ़ट गयी और एक बच्चा तालाब का सा सीन बन गया”
-कन्धे के उखड़ने पर दर्द जो होता है सो होता है लेकिन वापस बैठने पर जो आनन्द का अनुभव होता है शायद उसी को बड़े-बड़े विद्वानों ने अनिर्वचनीय आनन्द कहा होगा।
…तो कहीं रुला देते हैं–
-जिनकी मेहनत से खिले फ़ूल देखकर लोगों के मन खिल जाते हैं उनके चेहरे अक्सर मुर्झाये ही रहते हैं।
…फिर हँसा देते हैं–
-गेंदा देखकर लगता है कि किसी मां का लाड़ला, घामड़ बेटा है जिसको उसकी अम्मा कजरौटा लगाकर राजा बेटा बनाकर बगीचे में भेज देती हैं।
(पूरा कजरौटा ही लगा देती है मां-हमारे यहाँ कजरौटा काजल रखने वाले बरतन को कहते हैं)
और सुनिये—ये आपके स्लाइड शो का पों पों बन्द नहीं हुआ. हमें अपने लैप्पी की जबान बन्द करनी पड़ी और जब आपके बगीचे की चिड़िया, कौए आदि की आवाज़ सुनने के लालच में लैप्पी की आवाज़ फिर ऑन की तो फिर स्लाइड शो का पोंपों…ओफ़्फ़ोह बड़ी मसक्कत करके तो पोस्ट पढ़ी और वीडियो भी देखा, पर अफ़सोस वीडियो की आवाज़ नहीं सुन सके. किसी एक्सपर्ट से पूछकर स्लाइड शो का मुँह बन्द करना सीख लीजिये…
सच में बड़े खूबसूरत फूल हैं आपके बगीचे में ।
http://koideewanakahatahai.blogspot.com/
Aapke blog par kabhi ‘dum bani rahe’ post padhi thi kai din se talash kar raha hu lekin mil nahin rahi hai. Agar uska link de sake to badi meharbani.
Dhanyawad.
चाय हमारे लिए सोमरस है और फूल भगवान की मुस्कान. दोनो के लिए आपका धन्यवाद.
बहुत ही बढिया पोस्ट और मास्साब से सहमत… इसे ही ब्लागिग कहते है साहब..
आजकल हमारे हाथ को भी उखड़ने का मन हो गया है
phoolon ke chitr bhi behad akarshak hain.
namskar sirji, bahut yaad aaati hai par kya karen 7 baje lautne ke baad ghar se pair bahar hi nahi nikalte.
bagiche ki kahani pad kar bahut maja aaya