http://web.archive.org/web/20140419215200/http://hindini.com/fursatiya/archives/1277
ब्लागाश्रम
में सुबह से ही ब्लागरगण की भारी भीड़ इकट्ठा है। लोग एक दूसरे को धकियाते
हुये, गिरे हुये को लतियाते हुये, बतिताये हुये ब्लागाश्रम के मुख्य द्वार
से अंदर प्रविष्ठ हो रहे हैं। होली के मौके पर एक विशाल ब्लागर होली मिलन
समारोह का आयोजन किया गया है। मुख्य द्वार पर सूचना पट पर बड़े-बड़े शब्दों
में लिखा है -कृपया अपनी बुद्धि और विवेक बाहर रख कर ही अंदर धंसे।
सभी ब्लॉगर पहले से ही यह अर्हता पूरी कर चुके थे अत: सब अंदर धंसे जा रहे
थे। कुछ ब्लॉगर तो रूपा फ़्रंटलाइन पहने होने की धौंस दिखाकर सबसे आगे होकर
अंदर जाने का प्रयास कर रहे थे।
ललित शर्माजी जैसी मूछों वाले दरबान ने अंदर जाते हुये विवेक सिंह को रोक लिया और कहा आपका प्रवेश वर्जित है। विवेक सिंह ने अंदर घुसते हुये जबाब दिया -अरे भाईजी, ये रोक हमारे लिये नहीं है। यह उन विवेक जी के लिये है जो बुद्धि के साथ आयेंगे। हम तो इकल्ले आये हैं। दरबान मूंछों पर देकर बुद्धि के साथ आने वाले विवेक को रोकने के लिये कमर कस कर खड़ा हो गया।
लोगों ने देखा कि समीरलाल जितनी गति से आ रहे थे उससे दुगुनी गति से वापस जाते दिखे। लोगों ने समझा कोई ब्लॉग टिपियाने से छूट गया होगा वहीं जा रहे होंगे या फ़िर लखनऊ जा रहे हैं इनाम लेने! लेकिन उन्होंने लौटकर बताया- भाईजी , दर असल मैं यह विनम्रता वाली चादर ओढ़ना भूल गया था। मैं एक बार अपना टिप्पणी वाला बक्सा भले कहीं भूल जाऊं लेकिन ये विनम्रता वाली चादर हमेशा ओढे रहता हूं। इससे कोई यह आरोप नहीं लगा सकता कि मैं कठोरता का अंग प्रदर्शन करता हूं।क्यूट, कमनीय, कोमल छवि बनाये रखने में यह विनम्र चादर बहुत मुफ़ीद रहती है।
जो-जो लोग अंदर गये उन्होंने अपने-अपने मन-मर्जी के अनुसार ब्लागाश्रम की छटा देखी। कुछ ने अपनी डायरी में लिख ली। कुछ ने वहीं खड़े-खड़े बयान करने में भलमनसाहत समझी। कुछ नमूने देखिये अंदर जाकर लोगों ने क्या देखा?
लोगों ने देखा कि एक कोने में ज्ञानजी बैठे हुये बड़े-बड़े शब्दों के किनारे तोड़कर उनको जोड़े से बांधकर एक किनारे धरते जा रहे हैं। लोगों की उत्सुकता को देखते उन्होंने बताया- इन बड़े शब्ब्दों को छीलछालकर मैं छोटा बनाकर मियां-बीबी की तरह अपने ब्लॉग में एक साथ धर दूंगा। मियां-बीबी संस्था से बिदकने वाले इसे शब्द-युग्म बोले तो वर्ड-कपल समझ ले। एक अंग्रेजी घराने का शब्द एक हिंदी घराने की शब्द मिलकर एक ब्लागर घराने का शब्द बन जायेगा। एक नयी शब्दगृहस्थी बस जायेगी।
मसिजीवी एक अंग्रेजी डिक्शनरी लिये अपने सामने बैठे बच्चों से शब्दों के एक-एक करके अर्थ पूछते जा रहे हैं। पता चला कि वे अपनी क्लास के बच्चों को फ़ुसलाकर ब्लागाश्रम ले आये थे। जिन शब्दों के अर्थ बच्चे नहीं बता पा रहे थे उन शब्दों को मसिजीवी इस इरादे से अलग रखते जा रहे थे ताकि वे ब्लाग में उनका प्रयोग कर सकें। जो सरल शब्द उनको आते हैं उनके टेढ़े-मेढ़े शब्द वे खोज रहे हैं ताकि शब्दों को फ़ैलाकर पोस्ट के रूप में सुखाया जा सके।
उधर से अरविन्द मिश्र आते दिखे। वे अपने कन्धे पर वैज्ञानिक चेतना लादे हुये थे। ऐसा लग रहा था कि बलदाऊ मूसल लादे चले आये हैं। एक नये ब्लागर ने किंचित उत्सुकतावस पूंछा- सरजी, यहां इस वैज्ञानिक चेतना का क्या काम है? इस पर अरविन्दजी ने संस्कृत के श्लोकों और मानस की चौपाइयों के सहारे से समझाया कि अभी तमाम तरह के नायक-नायिका वर्णन बकाया हैं। न जाने कब मन कर आये अधूरा काम पूरा करने का। इसीलिये हम जहां जाते हैं ,अपनी वैज्ञानिक चेतना साथ लेकर चलते हैं।
एक कोने में सतीश सक्सेनाजी लोगों को बडे़ प्यार से जानकारी दे रहे थे कि उन्होंने एक नया चश्मा खरीदा है। इससे उनको ब्लाग जगत की सब हरकतें एक दम साफ़-साफ़ दिखती। खासकर मठाधीश ब्लागरों की पहचान करने के मामले में तो यह चश्मा अद्भुत है। आजकल वे इसके माध्यम से रोज फ़्री-फ़ंड में मठाधीश दर्शन करते हैं।
अजय झा बैठे पचीस-तीस पोस्टों को पोस्ट करने के पहले फ़ायनल कर रहे थे। पोस्ट करने के पहले वे पोस्टों से लिंक हटाते जा रहे थे और उन वाक्यों को सुधारकर उलझाऊ बनाते जा रहे थे जिनसे कोई मतलब निकलने की आशंका हो। खुशदीप से धौल-धप्पा करते हुये सागर ने कहा- यार तुम्हारी मौज है। दो-दो गुरुओं को स्लॉग ओवर सरीखा फ़ेंटते रहते हो।
इधर-उधर की बात करते हुये वहां गिरीश बिल्लौरे भूतपूर्व ब्लॉगर च अभूतपूर्व पाडकास्टर नमूदार हुये। वे सबके सामने माइक सटा-सटाकर सवाल-जबाब करने लगे। अब आप कुछ नमूने देखिये।
बवाल भाई ये बताइये कि आपके ब्लॉग में समीरलाल उर्फ़ पिंटू बराबर के भागीदार हैं। वे आपके ब्लॉग में न लिखकर इधर-उधर कहां भागते रहते हैं? आप इस बारे में उनको हड़काते क्यों नहीं!
गिरीश भाई! दरअसल मैं समीर भाई को हड़काने-फ़ड़काने की सोचता हूं लेकिन ये ससुरी अलसेट के चलते कुछ हो नहीं पाता। फ़िर एक बात यह भी है कि लाल साहब का बचपने का जांधिया हमारे कने धरा है। कहीं उनकी बुद्धि सटक गयी और मांग बैठे तो हम कैसे कह पायेंगे कि ये हमारे लगोंटिया यार हैं! आजकल तो दुनिया प्रूफ़ मांगती है।
अदाजी, सुना है आप चिट्ठाचर्चा से इस बात से खफ़ा थीं कि वे आपके ब्लॉग का जिक्र नहीं करते। इस बारे में क्या कहना है आपका?
असल में गिरीश जी पहले मैं सोचती थी कि चिट्ठाचर्चा में अच्छी पोस्टों का जिक्र होता है इसलिये मैं कुछ बोली नहीं। लेकिन जब देखा कि सिर्फ़ अच्छी पोस्टों का ही नहीं समीरलालजी की भी पोस्टों का जिक्र होता है तो मुझे बड़ा खराब लगा। मुझे लगा कि आपको अच्छी पोस्टों/पसंदीदा पोस्टों का जिक्र करना हो तो करिये मुझे कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन यह क्या कि आप समीरलालजी की पोस्टों का जिक्र करेंगे और हमारी छोड़ देंगे। ऐसे में खराब तो लगता ही है, गुस्सा आता ही है। और मैंने गुस्सा होकर सब कुछ कह भी दिया-हां नहीं तो!
दिनेशराय जी आजकल वकील लोग मानहानि की नोटिस भिजवाने की बड़ी धमकियां देते हैं। क्या वकालत के पेशे में यह आवश्यक होता है?
असल में आवश्यकता अविष्कार की जननी होती है। वकील को अपने पेशे की सफ़लता के लिये एकदम प्रोफ़ेशनल होना चाहिये। इत्ता कि अगर जरूरत पड़े तो बाप पर भी मुकदमा ठोंक देना पड़ता है। इसी प्रोफ़ेशनिल्ज्म के रियाज में लोग उन लोगों को भी नोटिस भेज देते हैं जिनको रात को फोन करके दो दिन पहले जीवन भर के लिये मंगलकामनायें दी होंती हैं। इसका बुरा नहीं मानना चाहिये किसी को। देश की न्याय व्यवस्था में प्रोफ़ेशनिल्ज्म के प्रसार के लिये कानूनी नोटिसों का बहुत योगदान है।
इस बीच एक फ़ोटोग्राफ़र लोगों की फोटो खींच खांचकर दिखाते हुये आर्डर बुक कर रहा था। एक ग्रुप फोटो बहुत नेचुरल आया था,बहुत खराब लग रहा था। लोग उसे यह मेरा नहीं, यह मेरा नहीं कहकर फ़ेंके दे रहे थे। फ़ेंका-फ़ेंकी में फोटो बीच से फ़ट गया। ताऊ ने उसे फोटोग्राफ़र से दुगुने दाम देकर खरीद लिया। यह होते देखकर गिरीश बिल्लौरे ने माइक ताऊजी के मुंह के आगे रामपुरी चाकू की तरह अड़ा दिया और सवाल किया-
ताऊ जिस फोटो को कोई नहीं ले रहा है उसके दो टुकड़े हो जाने पर आपने उसे दोगुने दाम पर खरीद लिया! ऐसा क्यों?
अरे भाई इन दोनों आधी-आधी फोटो को मैं अपनी खुल्ला खेल फ़र्रखाबादी वाली प्रतियोगिता में प्रयोग करूंगा। आधी सटाकर सवाल पूछूंगा फ़िर पूरी लगाकर हल बताऊंगा।
आप इतनी सारी कवितायें कैसे लिख लेते हैं अविनाश वाचस्पतिजी? गिरीश बिल्लौरे ने माइक अविनाश के मुंह पर कट्टे की तरह अड़ाकर पूछा।
असल में लोग मुझे बहुत भला व्यक्ति मानते हैं। अच्छा, समझदार, शान्त स्वभाव का। खुदा झूठ न बुलाये मैं ऐसा हूं भी। दुनिया में ऐसे लोगों की जिन्दगी बड़ी कठिन हो जाती है। जिसको देखो मौज लेकर चल देता है। इसीलिये मैंने अपने बचाव के लिये कविता लिखना सीखा। आशु कविता लिखता हूं। कोई भी बात हुई आशु कविता ठेल देता हूं। कोई बात नहीं हुई तब दो ठेल देता हूं। इससे अब हमें किसी से दबने/बचने की जरूरत नहीं पड़ती। हमारे आशु कवि होने के चलते लोग हमसे बचते फ़िरते हैं।
फ़ुरसतियाजी, आपको इतने दिन हो गये ब्लॉग लिखते हुये आपको नहीं लगता कि आपके गैरजिम्मेदाराना रवैये के कारण ब्लॉगजगत में जलजला आ जाता है! हर बात में हें हें हें करते रहना भी कोई बात है! आप अपनी हरकतों में सुधार क्यों नहीं लाते।
दरअसल गिरीश जी,दुनिया संतुलन की मांग करती है। ब्लॉग जगत में इत्ते जिम्मेदार टाइप के लोग मौजूद हैं कि ब्लागिंग बेचारी जिम्मेदारी की बोझ से दोहरी जाती है। जिम्मेदारी के बोझ से ब्लॉगिग को थोड़ा मुक्ति दिलाने के लिये थोड़ी गैरजिम्मेदाराना हरकते करनी पड़ती हैं। हम पहले ही बता भी चुके हैं:
फ़िलहाल इतना ही। ब्लागाश्रम के आगे के समाचार शीघ्र ही सुनाये जायेंगे।
लिखौं हाल मैं ब्लागरगण का, माउस देवता होऊ सहाय
By फ़ुरसतिया on March 1, 2010
सुमिरन करके ब्लागरगण को,औ चिरकुटजी के चरण नवाय,
लिखौं हाल मैं ब्लागरगण का, माउस देवता होऊ सहाय।
बीता साल पिछलका वाला, आवा नवा धरे मूंछ पर ताव,
जनवरी बीती सिकुड़-ठिठुर कर, फ़रवरीजी भी बीती जायें।
उठा-पटक और भड़भड़ के बिच,होलीजी भी पहुंचीं आये,
बंटे टाइटिल ब्लाग-ब्लाग पर,पढ़ि-पढ़ि रहे सबही मुस्काय।
चलो सुनायें ब्लागाश्रम के किस्से,यारों सुनिओ कान लगाय,
सुनवईया सब मौज करेंगे,न सुनने वाला केवल पछिताय॥
ललित शर्माजी जैसी मूछों वाले दरबान ने अंदर जाते हुये विवेक सिंह को रोक लिया और कहा आपका प्रवेश वर्जित है। विवेक सिंह ने अंदर घुसते हुये जबाब दिया -अरे भाईजी, ये रोक हमारे लिये नहीं है। यह उन विवेक जी के लिये है जो बुद्धि के साथ आयेंगे। हम तो इकल्ले आये हैं। दरबान मूंछों पर देकर बुद्धि के साथ आने वाले विवेक को रोकने के लिये कमर कस कर खड़ा हो गया।
लोगों ने देखा कि समीरलाल जितनी गति से आ रहे थे उससे दुगुनी गति से वापस जाते दिखे। लोगों ने समझा कोई ब्लॉग टिपियाने से छूट गया होगा वहीं जा रहे होंगे या फ़िर लखनऊ जा रहे हैं इनाम लेने! लेकिन उन्होंने लौटकर बताया- भाईजी , दर असल मैं यह विनम्रता वाली चादर ओढ़ना भूल गया था। मैं एक बार अपना टिप्पणी वाला बक्सा भले कहीं भूल जाऊं लेकिन ये विनम्रता वाली चादर हमेशा ओढे रहता हूं। इससे कोई यह आरोप नहीं लगा सकता कि मैं कठोरता का अंग प्रदर्शन करता हूं।क्यूट, कमनीय, कोमल छवि बनाये रखने में यह विनम्र चादर बहुत मुफ़ीद रहती है।
जो-जो लोग अंदर गये उन्होंने अपने-अपने मन-मर्जी के अनुसार ब्लागाश्रम की छटा देखी। कुछ ने अपनी डायरी में लिख ली। कुछ ने वहीं खड़े-खड़े बयान करने में भलमनसाहत समझी। कुछ नमूने देखिये अंदर जाकर लोगों ने क्या देखा?
लोगों ने देखा कि एक कोने में ज्ञानजी बैठे हुये बड़े-बड़े शब्दों के किनारे तोड़कर उनको जोड़े से बांधकर एक किनारे धरते जा रहे हैं। लोगों की उत्सुकता को देखते उन्होंने बताया- इन बड़े शब्ब्दों को छीलछालकर मैं छोटा बनाकर मियां-बीबी की तरह अपने ब्लॉग में एक साथ धर दूंगा। मियां-बीबी संस्था से बिदकने वाले इसे शब्द-युग्म बोले तो वर्ड-कपल समझ ले। एक अंग्रेजी घराने का शब्द एक हिंदी घराने की शब्द मिलकर एक ब्लागर घराने का शब्द बन जायेगा। एक नयी शब्दगृहस्थी बस जायेगी।
मसिजीवी एक अंग्रेजी डिक्शनरी लिये अपने सामने बैठे बच्चों से शब्दों के एक-एक करके अर्थ पूछते जा रहे हैं। पता चला कि वे अपनी क्लास के बच्चों को फ़ुसलाकर ब्लागाश्रम ले आये थे। जिन शब्दों के अर्थ बच्चे नहीं बता पा रहे थे उन शब्दों को मसिजीवी इस इरादे से अलग रखते जा रहे थे ताकि वे ब्लाग में उनका प्रयोग कर सकें। जो सरल शब्द उनको आते हैं उनके टेढ़े-मेढ़े शब्द वे खोज रहे हैं ताकि शब्दों को फ़ैलाकर पोस्ट के रूप में सुखाया जा सके।
उधर से अरविन्द मिश्र आते दिखे। वे अपने कन्धे पर वैज्ञानिक चेतना लादे हुये थे। ऐसा लग रहा था कि बलदाऊ मूसल लादे चले आये हैं। एक नये ब्लागर ने किंचित उत्सुकतावस पूंछा- सरजी, यहां इस वैज्ञानिक चेतना का क्या काम है? इस पर अरविन्दजी ने संस्कृत के श्लोकों और मानस की चौपाइयों के सहारे से समझाया कि अभी तमाम तरह के नायक-नायिका वर्णन बकाया हैं। न जाने कब मन कर आये अधूरा काम पूरा करने का। इसीलिये हम जहां जाते हैं ,अपनी वैज्ञानिक चेतना साथ लेकर चलते हैं।
एक कोने में सतीश सक्सेनाजी लोगों को बडे़ प्यार से जानकारी दे रहे थे कि उन्होंने एक नया चश्मा खरीदा है। इससे उनको ब्लाग जगत की सब हरकतें एक दम साफ़-साफ़ दिखती। खासकर मठाधीश ब्लागरों की पहचान करने के मामले में तो यह चश्मा अद्भुत है। आजकल वे इसके माध्यम से रोज फ़्री-फ़ंड में मठाधीश दर्शन करते हैं।
अजय झा बैठे पचीस-तीस पोस्टों को पोस्ट करने के पहले फ़ायनल कर रहे थे। पोस्ट करने के पहले वे पोस्टों से लिंक हटाते जा रहे थे और उन वाक्यों को सुधारकर उलझाऊ बनाते जा रहे थे जिनसे कोई मतलब निकलने की आशंका हो। खुशदीप से धौल-धप्पा करते हुये सागर ने कहा- यार तुम्हारी मौज है। दो-दो गुरुओं को स्लॉग ओवर सरीखा फ़ेंटते रहते हो।
इधर-उधर की बात करते हुये वहां गिरीश बिल्लौरे भूतपूर्व ब्लॉगर च अभूतपूर्व पाडकास्टर नमूदार हुये। वे सबके सामने माइक सटा-सटाकर सवाल-जबाब करने लगे। अब आप कुछ नमूने देखिये।
बवाल भाई ये बताइये कि आपके ब्लॉग में समीरलाल उर्फ़ पिंटू बराबर के भागीदार हैं। वे आपके ब्लॉग में न लिखकर इधर-उधर कहां भागते रहते हैं? आप इस बारे में उनको हड़काते क्यों नहीं!
गिरीश भाई! दरअसल मैं समीर भाई को हड़काने-फ़ड़काने की सोचता हूं लेकिन ये ससुरी अलसेट के चलते कुछ हो नहीं पाता। फ़िर एक बात यह भी है कि लाल साहब का बचपने का जांधिया हमारे कने धरा है। कहीं उनकी बुद्धि सटक गयी और मांग बैठे तो हम कैसे कह पायेंगे कि ये हमारे लगोंटिया यार हैं! आजकल तो दुनिया प्रूफ़ मांगती है।
अदाजी, सुना है आप चिट्ठाचर्चा से इस बात से खफ़ा थीं कि वे आपके ब्लॉग का जिक्र नहीं करते। इस बारे में क्या कहना है आपका?
असल में गिरीश जी पहले मैं सोचती थी कि चिट्ठाचर्चा में अच्छी पोस्टों का जिक्र होता है इसलिये मैं कुछ बोली नहीं। लेकिन जब देखा कि सिर्फ़ अच्छी पोस्टों का ही नहीं समीरलालजी की भी पोस्टों का जिक्र होता है तो मुझे बड़ा खराब लगा। मुझे लगा कि आपको अच्छी पोस्टों/पसंदीदा पोस्टों का जिक्र करना हो तो करिये मुझे कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन यह क्या कि आप समीरलालजी की पोस्टों का जिक्र करेंगे और हमारी छोड़ देंगे। ऐसे में खराब तो लगता ही है, गुस्सा आता ही है। और मैंने गुस्सा होकर सब कुछ कह भी दिया-हां नहीं तो!
दिनेशराय जी आजकल वकील लोग मानहानि की नोटिस भिजवाने की बड़ी धमकियां देते हैं। क्या वकालत के पेशे में यह आवश्यक होता है?
असल में आवश्यकता अविष्कार की जननी होती है। वकील को अपने पेशे की सफ़लता के लिये एकदम प्रोफ़ेशनल होना चाहिये। इत्ता कि अगर जरूरत पड़े तो बाप पर भी मुकदमा ठोंक देना पड़ता है। इसी प्रोफ़ेशनिल्ज्म के रियाज में लोग उन लोगों को भी नोटिस भेज देते हैं जिनको रात को फोन करके दो दिन पहले जीवन भर के लिये मंगलकामनायें दी होंती हैं। इसका बुरा नहीं मानना चाहिये किसी को। देश की न्याय व्यवस्था में प्रोफ़ेशनिल्ज्म के प्रसार के लिये कानूनी नोटिसों का बहुत योगदान है।
इस बीच एक फ़ोटोग्राफ़र लोगों की फोटो खींच खांचकर दिखाते हुये आर्डर बुक कर रहा था। एक ग्रुप फोटो बहुत नेचुरल आया था,बहुत खराब लग रहा था। लोग उसे यह मेरा नहीं, यह मेरा नहीं कहकर फ़ेंके दे रहे थे। फ़ेंका-फ़ेंकी में फोटो बीच से फ़ट गया। ताऊ ने उसे फोटोग्राफ़र से दुगुने दाम देकर खरीद लिया। यह होते देखकर गिरीश बिल्लौरे ने माइक ताऊजी के मुंह के आगे रामपुरी चाकू की तरह अड़ा दिया और सवाल किया-
ताऊ जिस फोटो को कोई नहीं ले रहा है उसके दो टुकड़े हो जाने पर आपने उसे दोगुने दाम पर खरीद लिया! ऐसा क्यों?
अरे भाई इन दोनों आधी-आधी फोटो को मैं अपनी खुल्ला खेल फ़र्रखाबादी वाली प्रतियोगिता में प्रयोग करूंगा। आधी सटाकर सवाल पूछूंगा फ़िर पूरी लगाकर हल बताऊंगा।
आप इतनी सारी कवितायें कैसे लिख लेते हैं अविनाश वाचस्पतिजी? गिरीश बिल्लौरे ने माइक अविनाश के मुंह पर कट्टे की तरह अड़ाकर पूछा।
असल में लोग मुझे बहुत भला व्यक्ति मानते हैं। अच्छा, समझदार, शान्त स्वभाव का। खुदा झूठ न बुलाये मैं ऐसा हूं भी। दुनिया में ऐसे लोगों की जिन्दगी बड़ी कठिन हो जाती है। जिसको देखो मौज लेकर चल देता है। इसीलिये मैंने अपने बचाव के लिये कविता लिखना सीखा। आशु कविता लिखता हूं। कोई भी बात हुई आशु कविता ठेल देता हूं। कोई बात नहीं हुई तब दो ठेल देता हूं। इससे अब हमें किसी से दबने/बचने की जरूरत नहीं पड़ती। हमारे आशु कवि होने के चलते लोग हमसे बचते फ़िरते हैं।
फ़ुरसतियाजी, आपको इतने दिन हो गये ब्लॉग लिखते हुये आपको नहीं लगता कि आपके गैरजिम्मेदाराना रवैये के कारण ब्लॉगजगत में जलजला आ जाता है! हर बात में हें हें हें करते रहना भी कोई बात है! आप अपनी हरकतों में सुधार क्यों नहीं लाते।
दरअसल गिरीश जी,दुनिया संतुलन की मांग करती है। ब्लॉग जगत में इत्ते जिम्मेदार टाइप के लोग मौजूद हैं कि ब्लागिंग बेचारी जिम्मेदारी की बोझ से दोहरी जाती है। जिम्मेदारी के बोझ से ब्लॉगिग को थोड़ा मुक्ति दिलाने के लिये थोड़ी गैरजिम्मेदाराना हरकते करनी पड़ती हैं। हम पहले ही बता भी चुके हैं:
भये छियालिस के फ़ुरसतियाफ़ुरसतिया की कविता पूरी होती इसके पहले ही ब्लागाश्रम में खाने की घंटी बज गयी। लोग अपनी-अपनी प्लेटे,पत्तल,दोने लिये खाने पर टूट पड़े।
ठेलत अपना ब्लाग जबरिया।
मौज मजे की बाते करते
अकल-फ़कल से दूरी रखते।
लम्बी-लम्बी पोस्ट ठेलते
टोंकों तो भी कभी न सुनते॥
कभी सीरियस ही न दिखते,
हर दम हाहा ठीठी करते।
पांच साल से पिले पड़े हैं
ब्लाग बना लफ़्फ़ाजी करते॥
फ़िलहाल इतना ही। ब्लागाश्रम के आगे के समाचार शीघ्र ही सुनाये जायेंगे।
Posted in बस यूं ही | 37 Responses
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हो गई यहाँ भी वकालत की खिंचाई!
कुछ बहुत काम की बातें पता चलीं, इस होली पोस्ट के बहाने !
कुछ विशिष्ट ब्लॉगरों की ब्लॉगरी-विधि भी बता दी आपने !
आभार ।
होली की हार्दिक शुभकामनाएं ।
वैसे अदा जी गुस्सा एकदम जायज रहा कि जब समीर लाल को चिट्ठाचर्चा कवर कर सकती है तो उनको क्यूँ नहीं, चाहो तो दोनों को गवा कर देख लो, हा हा!!
शानदार!! सन्नाट!! बेहतरीन!!
आगे इन्तजार है!!
आनंदम ही आनंदम….आज दिखाया है होली पर आपने असली रंग…
इस ब्लॉगाश्रम की एक-एक शाखा हर उस शहर में स्थापित कर दीजिए जहां लोगों को घेटो बनाने का शौक चढ़ा है…
मुझे आज पता चला कि आप डॉर्विन की नेचुरल सेलेक्शन थ्योरी के कितने बड़े प्रवर्तक हैं…प्रकृति का नियम है धरती पर जब भी किसी प्राणी की संख्या असामान्य तौर पर बढ़ने लगती है, कुछ न कुछ ऐसी दैवीय आपदा आती है कि उन प्राणियों की संख्या खुद-ब-खुद घट जाती है…जैसे कि डॉयनासोर धरती से विलुप्त हो गए,,,,अब आप प्रकृति की सहायता के लिए जलजले लाते रहते हैं…और नासमझ लोग उसमें न जाने क्या क्या निहितार्थ ढूंढते रहते हैं…
खैर छोड़िए अभी तो सब भूल कर ब्लॉगाश्रम में अबीर-गुलाल के साथ भांग के मज़े लिए जाएं…
आप और परिवार को रंगोत्सव की बहुत बहुत बधाई…
जय हिंद…
प्रस्तुतिकरण का अंदाज़ पसंद आया,बहुत बढ़िया और शुभ होली.
होली की आरती के बाद आपको दिली दंडवत प्रणाम !
गुरुवर आपको आदर्श मानकर शुरू किया था ब्लाग लेखन और आपकी नाराजी के बाद भी आपके भक्त हैं और रहेगे मगर इस चेले के साथ दिक्कत यह है कि सेवा भाव के बावजूद अगर गुरु ने कुछ बेईमानी की तो दुःख अवश्य जाहिर करेंगे और गुरु को पलटियां नहीं खाने देंगे ! हाँ अंगूठा छोड़ कर गुरु दक्षिणा में कुछ भी मांग लो !
मगर हम अपने सरदार नहीं बदलते चाहे सरदार कुछ भी क्यों न करे …..
मंजिल पर वो क्या पंहुचेंगे हर गाम पर धोखा खायेंगे
वे काफिले वाले जो अपने सरदार बदलते रहते हैं !
दिली आशीर्वाद की चाह में….
सादर
गैरजिम्मेदाराना हरकते करनी पड़ती हैं ———- जारी रखें ये हरकतें ,
नहीं तो यह दुनिया मनहूसों – सी हो जायेगी !
.
सिंहावलोकन सुन्दर रहा .. आगे भी मजा आएगा … इंतिजार है …
.
और हाँ , इच्छा हो तो हमारा अंगुठवा भी ले लीजिये ; अंगूठा-छाप थोड़े हैं हम !
कुछ नये आइडियाज की मार्केटिंग करनी थी। मार्केटिंग का कखग भी नहीं जानता इसलिए कोई गुरू तलाश रहा हूँ।
होली की आप को सपरिवार शु्भकामनाएं
एक्दमै बेहतरीन !
वैसे मौज उत्ते लीजिएगा ….जित्ता पच जाए ?
काहे से मौज लेने वालों का …… होता है |
प्रस्तुति भाई…
भये छियालिस के फ़ुरसतिया
ठेलत अपना ब्लाग जबरिया।
शुभकामनाएं…
उडन जी तो पता नहीं का सन्नाट टाईप कह दिए हैं …हमको तो झन्नाट टाईप लगा है …आप जईसन पिजायल हैं ..एकदम से पोस्टवा ओतने जुआयल टाईप आया है ..हम जान रहे है ई पढके बहुते लोग भकुआयल टाईप लग रहे हैं ….मुदा आफ़ मस्तायल हैं न शुकुल जी …??? देखिए न नहीं कहिएगा ..हम जान गए हैं न कि आप हैं ….ढेर देर तकले हरियरका लाईट देखे न ,,,,,समझ गए थे कि ..फ़ुरसतिया जी खुरफ़तिया मोड में चल रिए हैं ..हैप्पी होली जी
अजय कुमार झा
anita ji ne ekdam sahi tippani ki hai, apan unse 100% sehmat hain
aage ka intejar rahega
नहीं नहीं नहीं
आप पहले
आज तक देखिए
उसमें इस पोस्ट का प्रसारण
कानपुर की संवाददाता
लिंक सहित
कर रही हैं।
कविता से जरूरी
प्रसारण देखना सुनना है।
इधर ब्लोगर बाबाओं के बारे में जो जनकारियाँ मिल रहीं है,इस बात से और भय लगने
लगा है।किसी दिन सही में भाई लोग ब्लोगिन्ग में उतर आये तो क्या होगा।
लाल जी की लंगोट ना उनको फिट हो रही है और ना हमको। दोनों ही मुटाए पड़े हैं। वो विल्स कार्ड पी पी कर रोज़ फ़र्रुखाबाद हो आते हैं और हम बिना पिए गुल झड़ाते रह जाते हैं।
आदमी और इंसान में, होली के दिन इस तरह का फ़र्क़ अक्सर पाया जाता है। हा हा।
मुझे भी ऐसे लिखना सिखा दो आपकी भाषा पर मुझे जलन होती है.
एतना देरी बाद आपको समझ में आया …
और हम बुड़बक आपको समझदार समझे हुए थे….हाँ नहीं तो…!!!
हा हा हा। अरे मज़ा आ गया फ़ुरसतिया जी…
होली के अवसर पर मज़ाक में की गयी मेरी टिप्पणी को आपने गंभीरता से लिया , अतः उसे भी हटा दें ! और अगर ऐसा नहीं है तो कृपया संशोधन बापिस लें !
सादर