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…चींटी चढ़ी पहाड़ पर
By फ़ुरसतिया on April 24, 2010
चीटी चढ़ी पहाड़ पर, सर पर लादे नौ मन तेल,
मिली छ्छूंदर एक वहां, उसके सर पर दिया उड़ेल।
अब बताइये चीटीजी की इस हरकत को आप क्या कहेंगे? छछूंदरजी के प्रति बहनापा, परदुखकातरता जैसे उद्दात मानवीय गुणों का विज्ञापन या चींटीजी द्वारा आउटसोर्सिंग के बहाने अपनी बला दूसरे पर टालने की कातिलाना अदा।
चीटी को पता है कि छछूदर को तेल बहुत पसंद है। जैसे ही मौका मिलता है वह अपने सर पर तेल मल लेती है। उसके सामाजिक सौंन्दर्य अनुपात के हिसाब से लोग उसकी इस प्रवृत्ति की खिल्ली उड़ाते रहते हैं। इसी लिये लोगों ने छ्छूंदर के सर पर चमेली का तेल का मुहावरा गढ़ा होगा। छछूंदर लोगों के इस तरह तंज करने पर मन से दुखी तो होती होगी लेकिन मन की ललक के चलते जहां मौका मिलता होता अपने सर पर तेल चुपड़ लेती होती होगी। वैसे ही जैसे गांव-घरों में चाचियां, ताइयां अंधेरे कमरे में अपनी पोटली से निकाल-निकाल कर गुड़ चाट लेती होंगी। चाटना इसलिये कि देर तक चले।
आखिर कल्पनालोक के स्टेडियम में मैच देखने/खेलने में कोई टिकट तो लगता नहीं।
चींटी खुद स्त्रीलिंग होने के चलते छ्छूंदर के इस दर्द को समझती होगी और उसकी तेल-ललक को भी। इसलिये जैसे ही वो उसको दिखी उसने अपने सर पर लदा तेल उसको थमा दिया- ले बहनिया। जा ऐश कर। अपनी मन की कर। तेल चुपड़। चोटी कर। एक या दो तू अपनी मर्जी से कर। कोई टोंके तो बतईयो। देख लेंगे।
चींटी के इस गुण को उसका बहनापा कहा जायेगा। परदुखकातरता भी। उसको छछूंदर के बारे में जितनी जानकारी है उसके अनुसार वह मानती है कि तेल उसकी सबसे बड़ी कमजोरी है। इसई लिये वो जब गयी ऊपर तो साथ में तेल लेती गयी कि जैसे ही छछूंदर दिखेगी उसको थमा देगी। जैसे कि विदेशी जैसे ही भारत आते हैं वैसे ही आते ही वे बयान जारी कर देते हैं- महात्मा गांधी संसार के महानतम व्यक्ति थे। भारत बहुत सुन्दर देश है। इसकी सांस्कृतिक विरासत महान है।
ये सब और इसी तरह की तमाम और फ़ुटकर चीजें थोक के भाव निर्बाध होती रहती हैं। सामान्य सी बाते हैं ये। इनके घट जाने पर कोई बुरा नहीं मानता।
यह तो एक बात हुई की चींटीजी ने बहनापे और परदुखकातरता के प्वाइंट लेने के लिये छ्छूंदरजी को तेल सौंप दिया। लेकिन यह तो पुराने चलन के हिसाब से बात हुई न! नये चलन के हिसाब से तो इसे आउटसोर्सिंग कहा जायेगा न! चींटी पहाड़ पर तेल लादे-लादे हलकान हो गयी होगी। सांस फ़ूल गयी होगी। जैसे ही छछूंदरजी दिखी उसको थमा दिया अपना बोझ और कहा ये आउटसोर्सिंग है। तेरे को तेल चाहिये मुझे अपने बोझ से मुक्ति। तू इसे लेकर मौज कर, मैं इसे देकर ऐश करती हूं। इसके बाद शायद चींटीजी ने अपनी जुल्फ़ों को झटका देकर कोई गाना-ऊना भी गाया हो। या शायद वीकेन्ड पर निकल गयी होंगी!
कहां-कहां टहल गये एक ठो चींटी-छ्छूंदर की जोड़ी के चलते। फ़िलिम आधी से अधिक निकल गयी लेकिन तक कोई हीरो आया ही नहीं।
लेकिन लो जी आपने चाहा और हमने एक ठो हीरो ठेल दिया रंगमंच पर। आप पहले बताये होते हम पहले एन्ट्री करा देते हीरो की!
इस स्नेहिल लेन-देन को सूंघकर कोई चींटा नेपस्थ से भागता हुआ आया और माइक के पास जाकर चींटी को धिक्कारते हुये बोला- अरी बावली गर्मी के मौसम में यहां हिल स्टेशन पर छुट्टियों में तफ़रीह करने आयी है कि कुलीगिरी करने। क्या जरूरत थी इत्ता सारा तेल लाने की?
कोई विज्ञान, गणित और हिन्दी की साधारण सी जानकारी रखने वाला इस सारी गतिविधि पर आब्जेक्शन मी लार्ड कहे बिना एतराज ठोंक देगा कहेगा- और त सब बात ठीक है भाई साहब लेकिन बात आपकी शुरुऐ से गलत है। कोई चींटी नौ मन तेल लेकर पहाड़ पर कैसे चढ़ सकती है भला? वजन-अनुपात से हिसाब से यह बात सिरे से ही गड़बड़ है। इस गड़बड़ अनुपात से चींटी का सौंदर्य-अनुपात गड़बड़ा जायेगा। बिना स्पांडलाइटिस के उसकी गरदन अकड़ आयेगी। टूट भी सकती है!
आप जित्ती देर लेखक की बात समझने के लिये पलकें झपकायें तब तक वह कह जायेगा-
तो लेखक अपनी बचाव-रिपोर्ट में यह कहकर फ़ूट लेगा कि यहां पूरे दोहे जैसी लाइनों में अतिशयोक्ति अलंकार है। मन में श्लेष अलंकार है। एक मन का मतलब वजन वाला मन है और दूसरे मन का मतलब सच्ची वाला मन है जिसकी कल्पना उधौ मन न भये दस बीस से की गयी है। सूरदास जी के पद और छछूंदर के सर पर चमेली का तेल मुहावरा दोनों पर आधारित इस काव्यात्मक जौहर पर कोई कापी राइट के उल्लंघन का आरोप भी नहीं सकता। तेरे हाथों में नौ-नौ चूंड़ियां को इसई नजरिये से खतरनाक मानते हुये छोड़ दिया गया। उसकी कोई सहायता नहीं ली गयी। इससे पता चलता है कि यह जौहर कानूनी पहलुओं को मद्देनजर रखते हुये दिखाया गया है।
इस पर आप उस लेखक से क्या कह सकते हैं। आप जो कहें वो आप बताइयेगा लेकिन जब लेखक ने यह बात सबसे पहले पेश की तो कोई बोला- बतबने कहीं के।
लेखक तब से उस आवाज का पीछा करने का नाटक कर रहा है- बांगडूं कहीं का।
मिली छ्छूंदर एक वहां, उसके सर पर दिया उड़ेल।
अब बताइये चीटीजी की इस हरकत को आप क्या कहेंगे? छछूंदरजी के प्रति बहनापा, परदुखकातरता जैसे उद्दात मानवीय गुणों का विज्ञापन या चींटीजी द्वारा आउटसोर्सिंग के बहाने अपनी बला दूसरे पर टालने की कातिलाना अदा।
चीटी को पता है कि छछूदर को तेल बहुत पसंद है। जैसे ही मौका मिलता है वह अपने सर पर तेल मल लेती है। उसके सामाजिक सौंन्दर्य अनुपात के हिसाब से लोग उसकी इस प्रवृत्ति की खिल्ली उड़ाते रहते हैं। इसी लिये लोगों ने छ्छूंदर के सर पर चमेली का तेल का मुहावरा गढ़ा होगा। छछूंदर लोगों के इस तरह तंज करने पर मन से दुखी तो होती होगी लेकिन मन की ललक के चलते जहां मौका मिलता होता अपने सर पर तेल चुपड़ लेती होती होगी। वैसे ही जैसे गांव-घरों में चाचियां, ताइयां अंधेरे कमरे में अपनी पोटली से निकाल-निकाल कर गुड़ चाट लेती होंगी। चाटना इसलिये कि देर तक चले।
चीटी
को पता है कि छछूदर को तेल बहुत पसंद है। जैसे ही मौका मिलता है वह अपने
सर पर तेल मल लेती है। उसके सामाजिक सौंन्दर्य अनुपात के हिसाब से लोग उसकी
इस प्रवृत्ति की खिल्ली उड़ाते रहते हैं।
चाचियों,ताइयों द्वारा अंधेरे कमरे में गुड़ चाटने की बात तो ऐसे ही लिख
गये। अगर आपको यह बात पुराने जमाने की लगती है और आप गुड़ की बढ़ती कीमतों के
मद्देनजर उनके इस बिम्बकृत्य को विलासिता की श्रेणी में रखने की चाहना
करने लगें तो फ़िर आप यह मान लीजिये कि उनकी जगह आज की कोई वंचित वर्ग की
बालिका किसी कोने-अतरे में किसी चाकलेट का रैपर चाटते हुये कल्पनालोक में
चाकलेट का स्वाद ले रही है। आखिर कल्पनालोक के स्टेडियम में मैच देखने/खेलने में कोई टिकट तो लगता नहीं।
चींटी खुद स्त्रीलिंग होने के चलते छ्छूंदर के इस दर्द को समझती होगी और उसकी तेल-ललक को भी। इसलिये जैसे ही वो उसको दिखी उसने अपने सर पर लदा तेल उसको थमा दिया- ले बहनिया। जा ऐश कर। अपनी मन की कर। तेल चुपड़। चोटी कर। एक या दो तू अपनी मर्जी से कर। कोई टोंके तो बतईयो। देख लेंगे।
चींटी के इस गुण को उसका बहनापा कहा जायेगा। परदुखकातरता भी। उसको छछूंदर के बारे में जितनी जानकारी है उसके अनुसार वह मानती है कि तेल उसकी सबसे बड़ी कमजोरी है। इसई लिये वो जब गयी ऊपर तो साथ में तेल लेती गयी कि जैसे ही छछूंदर दिखेगी उसको थमा देगी। जैसे कि विदेशी जैसे ही भारत आते हैं वैसे ही आते ही वे बयान जारी कर देते हैं- महात्मा गांधी संसार के महानतम व्यक्ति थे। भारत बहुत सुन्दर देश है। इसकी सांस्कृतिक विरासत महान है।
चींटी
के इस गुण को उसका बहनापा कहा जायेगा। परदुखकातरता भी। उसको छछूंदर के
बारे में जितनी जानकारी है उसके अनुसार वह मानती है कि तेल उसकी सबसे बड़ी
कमजोरी है।
यह सब बातें ऐसी हैं जो कि कोई आकर कह जाता है और हम बुरा भी नहीं मान
पाते। हमको पता है कि उनको यह बोलना है और हमको यह सुनना है। जैसे सबको पता
होता है कि अजमेर शरीफ़ पर चादर चढ़ती है, किसी वीआईपी के मरने पर शोक
पुस्तिका में हस्ताक्षर होते हैं, क्रिकेट में जीतने से देश का सर ऊंचा
होता है, विदेशी घुसपैठ पर सरकार के कदम कड़े हो जाते हैं, भ्रष्टाचार की
शिकायत पर फ़ौरन कार्रवाई करने की बात होती है, नाराज व्यक्ति/पार्टी पर आय
से अधिक सम्पत्ति की कार्रवाई होती है, किसी बड़े प्रोजेक्ट में असफ़ल होने
पर हौसला ऊंचा रहता है, दंगों के बाद भाईचारा बहाल हो जाता है और शांति लौट
आती है।ये सब और इसी तरह की तमाम और फ़ुटकर चीजें थोक के भाव निर्बाध होती रहती हैं। सामान्य सी बाते हैं ये। इनके घट जाने पर कोई बुरा नहीं मानता।
यह तो एक बात हुई की चींटीजी ने बहनापे और परदुखकातरता के प्वाइंट लेने के लिये छ्छूंदरजी को तेल सौंप दिया। लेकिन यह तो पुराने चलन के हिसाब से बात हुई न! नये चलन के हिसाब से तो इसे आउटसोर्सिंग कहा जायेगा न! चींटी पहाड़ पर तेल लादे-लादे हलकान हो गयी होगी। सांस फ़ूल गयी होगी। जैसे ही छछूंदरजी दिखी उसको थमा दिया अपना बोझ और कहा ये आउटसोर्सिंग है। तेरे को तेल चाहिये मुझे अपने बोझ से मुक्ति। तू इसे लेकर मौज कर, मैं इसे देकर ऐश करती हूं। इसके बाद शायद चींटीजी ने अपनी जुल्फ़ों को झटका देकर कोई गाना-ऊना भी गाया हो। या शायद वीकेन्ड पर निकल गयी होंगी!
आउटसोर्सिंग
की बात इसी नजरिये से समझी जाये जैसे विकसित देशजी के लोग काम करते-करते
थक जाते होंगे और अपना काम मेहनती च गरीब देशों के लोगों को थमा देते
होंगे। लो बेटा तुम भी ऐश करो तक तक हम भी नींद मार लें।
आउटसोर्सिंग की बात इसी नजरिये से समझी जाये जैसे विकसित देशजी के लोग
काम करते-करते थक जाते होंगे और अपना काम मेहनती च गरीब देशों के लोगों को
थमा देते होंगे। लो बेटा तुम भी ऐश करो तक तक हम भी नींद मार लें। इसी
सहयोग भावना के चलते वे अपना कूड़ा-कचरा भी यहां भेज देते होंगे। ले बेट्टा
हमारे लिये तो कूड़ा है लेकिन तेरे लिये ऐश का सामान। ले, जा ,-ऐश कर। बदले
में हमें चाहिये नहीं लेकिन तुझको हराम का माल न लगे इसलिये अपने हाथ का
सारा मैल (पैसा) हमको भेज दे। तू भी मस्त हम भी चुस्त। पैसे की और जरूरत हो
तो फ़िकर मती करियो। हम हैं न लोन देने के लिये आसान किस्तों पर। बस तू
हमारी कुछ शर्तें मान लीजो।कहां-कहां टहल गये एक ठो चींटी-छ्छूंदर की जोड़ी के चलते। फ़िलिम आधी से अधिक निकल गयी लेकिन तक कोई हीरो आया ही नहीं।
लेकिन लो जी आपने चाहा और हमने एक ठो हीरो ठेल दिया रंगमंच पर। आप पहले बताये होते हम पहले एन्ट्री करा देते हीरो की!
इस स्नेहिल लेन-देन को सूंघकर कोई चींटा नेपस्थ से भागता हुआ आया और माइक के पास जाकर चींटी को धिक्कारते हुये बोला- अरी बावली गर्मी के मौसम में यहां हिल स्टेशन पर छुट्टियों में तफ़रीह करने आयी है कि कुलीगिरी करने। क्या जरूरत थी इत्ता सारा तेल लाने की?
कोई विज्ञान, गणित और हिन्दी की साधारण सी जानकारी रखने वाला इस सारी गतिविधि पर आब्जेक्शन मी लार्ड कहे बिना एतराज ठोंक देगा कहेगा- और त सब बात ठीक है भाई साहब लेकिन बात आपकी शुरुऐ से गलत है। कोई चींटी नौ मन तेल लेकर पहाड़ पर कैसे चढ़ सकती है भला? वजन-अनुपात से हिसाब से यह बात सिरे से ही गड़बड़ है। इस गड़बड़ अनुपात से चींटी का सौंदर्य-अनुपात गड़बड़ा जायेगा। बिना स्पांडलाइटिस के उसकी गरदन अकड़ आयेगी। टूट भी सकती है!
भाई
साहब आपकी वजन चेतना , चींटी की सौंदर्य चेतना सब अपनी जगह एकदम जायज हैं!
लेकिन आप किसी लेखक के अतिशयोक्ति श्लेष अलंकार को प्रयोग करने के मौलिक
अधिकार से वंचित कैसे कर सकते हैं।
अब यहां लेखक बेचारा क्या कर सकता है सिवाय साहित्य की शरण में जाने के!
वह कहेगा- भाई साहब आपकी वजन चेतना , चींटी की सौंदर्य चेतना सब अपनी जगह
एकदम जायज हैं! लेकिन आप किसी लेखक के अतिशयोक्ति च श्लेष अलंकार को प्रयोग
करने के मौलिक अधिकार से वंचित कैसे कर सकते हैं। इसके अलावा यहां चीटींजी
और छछूंदरजी के मानवीकरण की छटा दर्शनीय तो है ही! आप जित्ती देर लेखक की बात समझने के लिये पलकें झपकायें तब तक वह कह जायेगा-
चीटी चढ़ी पहाड़ पर, सर पर लादे नौ मन तेल,में लेखक यह कहना चाहता है कि चींटी जब पहाड़ पर चढी तो खुशी के मारे उसके कल्पनायें उछलने-कूदने लगीं। वह थोक में कल्पनायें करने लगीं। इत्ती स्पीड से कल्पना लोक में विचरण करने लगी जैसे कि देखने वाले को लगे कि उसके एक नहीं नौ-नौ मन हो गये हैं। एक कल्पना में वह अपनी छछूंदर के बारे में भी सोचती है और उसका मन उसके प्रति स्नेह( तेल) से भर जाता है। कल्पनाओं में ही वह अपने मन का सारा स्नेह छछूंदर को सौंप देती है।
मिली छ्छूंदर एक वहां, उसके सर पर दिया उड़ेल।
तो लेखक अपनी बचाव-रिपोर्ट में यह कहकर फ़ूट लेगा कि यहां पूरे दोहे जैसी लाइनों में अतिशयोक्ति अलंकार है। मन में श्लेष अलंकार है। एक मन का मतलब वजन वाला मन है और दूसरे मन का मतलब सच्ची वाला मन है जिसकी कल्पना उधौ मन न भये दस बीस से की गयी है। सूरदास जी के पद और छछूंदर के सर पर चमेली का तेल मुहावरा दोनों पर आधारित इस काव्यात्मक जौहर पर कोई कापी राइट के उल्लंघन का आरोप भी नहीं सकता। तेरे हाथों में नौ-नौ चूंड़ियां को इसई नजरिये से खतरनाक मानते हुये छोड़ दिया गया। उसकी कोई सहायता नहीं ली गयी। इससे पता चलता है कि यह जौहर कानूनी पहलुओं को मद्देनजर रखते हुये दिखाया गया है।
इस पर आप उस लेखक से क्या कह सकते हैं। आप जो कहें वो आप बताइयेगा लेकिन जब लेखक ने यह बात सबसे पहले पेश की तो कोई बोला- बतबने कहीं के।
लेखक तब से उस आवाज का पीछा करने का नाटक कर रहा है- बांगडूं कहीं का।
बहुत मज़ा आया पढ़कर. अद्भुत कम्बीनेशन है ये लेखन और इंजीनियरिंग का.
ले बेट्टा हमारे लिये तो कूड़ा है लेकिन तेरे लिये ऐश का सामान। यह सही कहा जी.
मजा आया…
वैसे जो भी है…मज़ा तो बहुत आया पढ़कर हमेशा की तरह…पता नहीं मैं इतनी लम्बी पोस्ट एक साँस में कैसे पढ़ जाती हूँ?
मिली छ्छूंदर एक वहां, उसके सर पर दिया उड़ेल।”
क्या कमाल का दोहा (?) है. अभी तक आप प्रकृति का मानवीकरण करते रहे हैं अब जीव-जन्तुओं का भी?
“चीटी को पता है कि छछूदर को तेल बहुत पसंद है। जैसे ही मौका मिलता है वह अपने सर पर तेल मल लेती है।”
ऐसा वर्णन है न कि मुझे तो सामने ही छछूंदर तेल मलती दिखाई दे रही है
“यह सब बातें ऐसी हैं जो कि कोई आकर कह जाता है और हम बुरा भी नहीं मान पाते। हमको पता है कि उनको यह बोलना है और हमको यह सुनना है।”
कहां-कहां कटाक्ष करते हैं, किस-किस के बहाने…..
“ले बेट्टा हमारे लिये तो कूड़ा है लेकिन तेरे लिये ऐश का सामान। ले जा ऐश कर। बदले में हमें चाहिये नहीं लेकिन तुझको हराम का माल न लगे इसलिये अपने हाथ का सारा मैल (पैसा) हमको भेज दे।”
शानदार पोस्ट!
भार न उसको ढोना था ।
चींटी-छछूँदर वृतान्त,
सबके लिये सुखान्त ।
three dots means continued
चींटी बड़ी तेलवाही है , छछूदर की तेलुवाई करा रही है ..
.
@ जैसे कि विदेशी जैसे ही भारत आते हैं वैसे ही आते ही वे बयान जारी कर देते हैं…
सही कह रहे हैं , बुश से लेकर अदने तक सब यही कहते हैं … सोचता हूँ कि कभी ओसामा
अगर किसी देश का राष्ट्राध्यक्ष बन गया तो वह भी रवायतन यही करेगा न !
.
@ ले बेट्टा हमारे लिये तो कूड़ा है लेकिन तेरे लिये ऐश का सामान।
यही होता है , सच्चाई भी है , विदेशों में जो ( विकसित देश में ) कुछ सामान एक बार बिगड़ने
के बाद ”थर्ड वर्ड कंट्रीज” लायक मानकर फेंक दिए जाते हैं .. और हम उपकृत से
”योर मैजेस्त्री’ का घोष करने लगते है .. यह बात वास्तु ही नहीं विचार राशि के लिए भी सच है
जब वहाँ ”प्रतीकवाद” बासी पड़ गया तब यहाँ के लोगों से उसे हांथो-हाँथ ले लिया ..
.
नौ मन तेल जुहाने पर राधा – नाच न हो पाने की चर्चा होती है
तो भला चींटी काहे न इतराए इतना पाकर ..
छींटे का आगमन और देर तक गुल खिलाता तो और मजा आता ..
हाँ, अतिश्योक्ति साहित्य का सच है , इसे कौन झूंठ कहेगा —
” जा दिन जनम भयो ऊदल कै , धरती धंसी अढ़ाई हाँथ ! ”
.
हर बार की तरह इसबार का मौजियाना अच्छा लगा .. आभार ..
करें व्याखान,चढ़ कर मचान[ले कर के बाण],
‘सुनने- पढने ‘ का सामान ,
आईये फुरसतिया श्रीमान!
-एक बेतुकी चार लाईना नज़र की है!
–चींटी जी और छछूंदरजी के मानवीकरण की छटा दर्शनीय तो है ही!
अद्भुत दर्शन हुए…चमेली के तेल की दुर्गन्ध यहाँ तक आ रही है!मुहावरे बदल देने चाहिये.
डीयो/ perfume की बात होनी चाहिये..तेल तो सब गायब हो गए,सर में अब कौन लगता है ?
छुछुंदर भी नहीं लगाते होंगे..पूछ कर देखीये!
–गुड चाट कर खाने की बात भी बड़ी सामयिक है .मंहगाई है भाई!
वैसे …चीनी के दाने को चाटने की बात कही होती तो कहानी में थ्रिल बढ़ जाता !
आभार!
चींटीं, तेल, छछूँदर इत्यादि की जानकारियों पर इतना अतुलनीय अधिकार रखने वाले देवाधिदेव फ़ुरसतिया !
तेल के माप का मानक नौ-मन पर जाकर क्यों ठहरता है ? एहिका भी विवेचित करैं, एहि मूढ़ को यह दिव्य ज्ञान प्राप्त करवै की इच्छा है ।
हम सबके मानक धरे रह जाते हैं, आप लिख कर किनारे खड़े मुसकाते, मौज लिए जाते हैं ! प्रणम्य !
मस्त!