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…आंख के अन्धे नाम नयनसुख
By फ़ुरसतिया on April 26, 2010
पिछली पोस्ट में कुछ साथियों ने बताया कि उनको उसके पीछे की बात पता नहीं है। आराधनाजी ने तो लिखा भी:
लेकिन हां, यह अलग बात है कि किसी बात से कोई अपने काम / अनुभव की बात सोच ले। तो उसमें हमरा कौनौ दोष नहीं जी। आई प्लीड नाट गिल्टी।
असल में मैंने सोचा कि बहुत दिन से मौज-मजे वाली कविता-उविता पर हाथ साफ़ नहीं किया गया। सो ऐसे ही सोचा गया और लिख मारा गया:
ऐसा मेरे साथ अक्सर होता है। पहले से कुछ सोचकर नहीं लिखता। बस एकाध लाइन लिखकर शुरु करते हैं। शुरुआत करते ही मन कल्पना की फ़टफ़टिया पर सवार होकर दौड़ने लगता है। फ़ट-फ़ट,फ़ट-फ़ट, धक-धक,धक-धक ! एवरेज एक लीटर में मनचाहे किलोमीटर!
छ्छूंदर और चींटी के बारे में सोचते हुये मैंने यह भी विचार कर डाला कि छ्छूंदर के सर पर चमेली का तेल मुहावरा कैसे बना होगा? किसी से मैंने कभी सुना था-
शायद यह प्रभुवर्ग की मनोवृत्ति की अदाये हैं। यह प्रभुवर्ग सबके लिये समान अवसर हैं का कीर्तन भले करे लेकिन वह नजर रखता है कि कहीं उसके लिये परंपरागत रूप में तय चीजें कोई वंचितवर्ग वाला न इस्तेमाल करने लगे। इसीलिये जब छछूंदर ने बड़े लोगों की देखादेखी अपने सर पर चमेली का तेल लगाकर अपनी बदबू से छुटकारा पाने की कोशिश की होगी तो मुहावरची ने उसकी खिल्ली उड़ाकर उसको टोक दिया होगा और बेचारी छछूंदर अपना सा सर लेकर रह गई होगी।
पता नहीं मुकदमों का क्या होता लेकिन अगर ये मुकदमे दायर होते तो भारतीय अदालतों में करोड़ों की संख्या में लम्बित मुकदमों की संख्या में दो का तो इजाफ़ा तो हो ही जाता जिनके निपटारे में लगने वाला अनुमानित समय भी तदनुरूप बढ़ जाता।
छछूंदर और चमेली किस्से में तन पर नहीं लत्ता पान खायें अलबत्ता और मखमल में टाट का पैबंद वाली जैसी बात आती है। इसमें छछूंदर को हीन और चमेली के तेल को ऊंचा भाव दिया गया है। इससे साफ़ पता चलता है कि मुहावरा बनाने वाले के लिये छछूंदर के धड़कते हुये सर के मुकाबले चमेली का तेल ज्यादा तरजीहात्मक लगा होगा। यह मुंह और मसूर की दाल का सहारा लेकर उसने छ्छूंदर की खिल्ली उड़ा दी होगी।
कभी-कभी मुझे लगता है कि ये सब मुहावरा बनाने वाले झल्लाये हुये लोग रहे होंगे। उनकी पगार कम रही होगी। जिस तरह कम तन्खवाह पाने वाला अध्यापक अपना सारा गुस्सा बच्चों को पीटने और मुर्गा बनाने में उतारता रहता है ऐसे ही मुहावरा बनाने वाले अपनी झल्लाहट मुहावरों को लंगड़ा-लूला और ऐंचा-ताना बनाकर उतारते रहे।
ओह! कहां से शुरू किये थे। कहां पहुंच गये।
आप भी कहेंगे- कहां-कहां की लन्तरानी हांकते रहते हैं। कह लीजिये। आप गलत भी तो नहीं कह रहे हैं!
बेजबान छत दीवारों को घर कर देता है।
खाली शब्दों में आता है ऐसा अर्थ पिरोना
गीत बन गया सा लगता है घर का कोना-कोना।
एक तुम्हारा होना सपनों को स्वर देता है।
बेजबान छत दीवारों को घर कर देता है।
आरोहों-अवरोहों से समझाने अगती हैं
तुम से जुड़कर चीजें भी बतियाने लगती हैं।
एक तुम्हारा होना अपना पन भर देता है।
बेजबान छत दीवारों को घर कर देता है।
माहेश्वर प्रसाद तिवारी
आज तो हम घूम गये ये लेख पढ़कर…सीधे-सीधे चींटी और छछून्दर की बात तो कर नहीं रहे आप…इत्ते सीधे तो हैं नहीं…और पीछे वाली बात क्या है ये मेरी समझ में आ नहीं रहा…क्योंकि हम इत्ते टेढ़े नहीं हैं…हमें सीधी-सादी बाते समझ में आती है…मामला क्या है????आराधनाजी का कमेंट पढ़कर मजा आया। उनके अनुसार हम इत्ते सीधे नहीं हैं। मतलब उनके मन में हमारी छवि खुरपेंची की है।
घर
आये की बेइज्जती थोड़ी की जाती है। खिलाफ़ संवाद को भी यह सोचकर इज्जत दे
देते हैं – वह व्यक्ति अभागा होता है जिसको टोंकने वाला कोई नहीं होता
लेकिन यह एकदम सच्ची बात है कि उस पोस्ट में पीछे वाली कोई बात नहीं थी।
कम से कम ब्लॉगजगत की तो कोई बात बिल्कुल्लै नहीं। ऐसे ही कुछ-कुछ टाइप
करते चले गये और जब लम्बाई काम भर की हो गयी तो उठा के पोस्ट कर दिये।
इधर-उधर के संवाद अपने आप आ गये तो उनको भी इज्जत के साथ पेश कर दिया गया।
ये नहीं कि किसी वाक्य ने मनमाफ़िक बात नहीं की तो उसको पोस्ट-बदर कर दिया।
अब घर आये की बेइज्जती थोड़ी की जाती है। खिलाफ़ संवाद को भी यह सोचकर इज्जत
दे देते हैं -वह व्यक्ति अभागा होता है जिसको टोंकने वाला कोई नहीं होता। हमें अभागा थोड़ी बनना है।लेकिन हां, यह अलग बात है कि किसी बात से कोई अपने काम / अनुभव की बात सोच ले। तो उसमें हमरा कौनौ दोष नहीं जी। आई प्लीड नाट गिल्टी।
असल में मैंने सोचा कि बहुत दिन से मौज-मजे वाली कविता-उविता पर हाथ साफ़ नहीं किया गया। सो ऐसे ही सोचा गया और लिख मारा गया:
चीटी चढ़ी पहाड़ पर, सर पर लादे नौ मन तेल,इसके बाद एक जोड़ा लाइन और लिखीं गयीं थी। लेकिन फ़िर मन चींटी-छछूंदर वर्णन में रम गया तो इधरै खुट-पुटाते रहे। कविता गो-वेन्ट-गॉन होकर इधर-उधर हो गयी।
मिली छ्छूंदर एक वहां, उसके सर पर दिया उड़ेल।
ऐसा मेरे साथ अक्सर होता है। पहले से कुछ सोचकर नहीं लिखता। बस एकाध लाइन लिखकर शुरु करते हैं। शुरुआत करते ही मन कल्पना की फ़टफ़टिया पर सवार होकर दौड़ने लगता है। फ़ट-फ़ट,फ़ट-फ़ट, धक-धक,धक-धक ! एवरेज एक लीटर में मनचाहे किलोमीटर!
छ्छूंदर और चींटी के बारे में सोचते हुये मैंने यह भी विचार कर डाला कि छ्छूंदर के सर पर चमेली का तेल मुहावरा कैसे बना होगा? किसी से मैंने कभी सुना था-
अजब तेरी किस्मत अजब तेरे खेल,
छछूंदर के सर पर चमेली का तेल।
प्रभुवर्ग
सबके लिये समान अवसर हैं का कीर्तन भले करे लेकिन वह नजर रखता है कि कहीं
उसके लिये परंपरागत रूप में तय चीजें कोई वंचितवर्ग वाला न इस्तेमाल करने
लगे।
इससे लगता है कि मुहावरा बनाने वाला छ्छूंदर विरोधी रहा होगा। उसको यह
भाया नहीं होगा कि छछूंदर को चमेली का तेल एलाट किया जाये। कुछ सुगंध
विशेषज्ञ बताते हैं छ्छूंदर एक बदबूदार जीव होती है। छछूंदर सोचती होगी कि
चमेली का तेल लगाकर बदबू से छुटकारा मिल जायेगा। छ्छूंदर की इसी सहज
प्रवृत्ति की खिल्ली उड़ाते हुये किसी मुहावरा बनाने वाले ने इस मुहावरे को
गढ़ा होगा! उसको लगा होगा कि शायद इस तरह खिल्ली उड़ाने से छ्छूंदर का
आत्मविश्वास हिल जायेगा और छछूंदर चमेली के तेल का इस्तेमाल बन्द कर देगी
इस तरह कीमती तेल की बर्बादी बचेगी। शायद यह प्रभुवर्ग की मनोवृत्ति की अदाये हैं। यह प्रभुवर्ग सबके लिये समान अवसर हैं का कीर्तन भले करे लेकिन वह नजर रखता है कि कहीं उसके लिये परंपरागत रूप में तय चीजें कोई वंचितवर्ग वाला न इस्तेमाल करने लगे। इसीलिये जब छछूंदर ने बड़े लोगों की देखादेखी अपने सर पर चमेली का तेल लगाकर अपनी बदबू से छुटकारा पाने की कोशिश की होगी तो मुहावरची ने उसकी खिल्ली उड़ाकर उसको टोक दिया होगा और बेचारी छछूंदर अपना सा सर लेकर रह गई होगी।
हमको
सदियों से कोसते आ रहे हो आप लोग लेकिन हमारी ही चमेली का तेल लगाकर बदबू
दूर करने की प्रवृत्ति की नकल करके अपने पसीने की बदबू दूर करते हो। शरम
नहीं आती हमारी तकनीक चोरी करके अपना पसीना सुखाते हुये।
पता नहीं क्या हुआ होगा लेकिन अगर कहीं छ्छूंदर पढ़ी-लिखी और
पेटेंट/कापीराइट आदि के कानूनों की जानकारी रखती होती तो मानव प्रजाति को
अदालत में खींच के खड़ा कर देती। कहती कि आप लोगों ने इस मुहावरे के द्वारा
मेरी खिल्ली उड़ाने की कोशिश की है। इससे छछूंदर प्रजाति की मानहानि हुई है।
दूसरी बात शायद वह कहती कि हमको सदियों से कोसते आ रहे हो आप लोग लेकिन
हमारी ही चमेली का तेल लगाकर बदबू दूर करने की प्रवृत्ति की नकल करके अपने
पसीने की बदबू दूर करते हो। शरम नहीं आती हमारी तकनीक चोरी करके अपना पसीना
सुखाते हुये। पेटेंट नियम के तहत वह डियो-फ़ियो-सियो-जियो और तमाम तरह के
सेन्ट बनाने वाली कम्पनियों से शायद उनके मुनाफ़े में हिस्सेदारी भी मांगने
लगती। पता नहीं मुकदमों का क्या होता लेकिन अगर ये मुकदमे दायर होते तो भारतीय अदालतों में करोड़ों की संख्या में लम्बित मुकदमों की संख्या में दो का तो इजाफ़ा तो हो ही जाता जिनके निपटारे में लगने वाला अनुमानित समय भी तदनुरूप बढ़ जाता।
छछूंदर और चमेली किस्से में तन पर नहीं लत्ता पान खायें अलबत्ता और मखमल में टाट का पैबंद वाली जैसी बात आती है। इसमें छछूंदर को हीन और चमेली के तेल को ऊंचा भाव दिया गया है। इससे साफ़ पता चलता है कि मुहावरा बनाने वाले के लिये छछूंदर के धड़कते हुये सर के मुकाबले चमेली का तेल ज्यादा तरजीहात्मक लगा होगा। यह मुंह और मसूर की दाल का सहारा लेकर उसने छ्छूंदर की खिल्ली उड़ा दी होगी।
टाट का सबसे कमजोर भाग वही हो जाता है जहां मखमल जी का गठबंधन होता है। जिस जगह मखमल जुड़ता है वही जगह टाट की सबसे कमजोर रहती है।
क्या पता उसने यह कहते समय मखमल में टाट का पैबंद वाले
मुहावरे को भी ध्यान में रखा हो। इस मुहावरे से पता चलता है कि टाट में
मखमल का पैबंद लगाने की बात से जैसे टाट की खिल्ली उड़ाई गयी है। गोया टाट
में लगकर मखमल की बेइज्जती खराब हो गयी हो। लेकिन अब यह कौन समझाये कि भैया
टाट का सबसे कमजोर भाग वही हो जाता है जहां मखमल जी का गठबंधन होता है।
जिस जगह मखमल जुड़ता है वही जगह टाट की सबसे कमजोर रहती है। टाट पर जहां
मखमल जुड़ता है मीडिया टाइप की नजरे उस जगह को घूर-घूर कर उसकी निजता का
उल्लंघन करती हैं। वे गैर इरादतन तरीके से टाट की कमजोरी और मखमल की चिरकुट
चुनाव का बखान करती हैं। वे टाट की गरीबी की तो खिल्ली तो उड़ाती ही हैं।
मखमल को भी उकसाती हैं कि तेरी अकल में क्या पत्थर पड़े हैं जो अच्छा भला
अपना थान छोड़ कर यहां सट गये आकर।
टाट अपने उद्धार का काम मखमल को आउटसोर्स करके हवा के झूलने लगता है और जिस जगह मखमल ने अवतार लिया उसी जगह से और फ़टता चला जाता है
मखमल में टाट का पैबंद की बात सोचता हूं तो कभी-कभी लगता है कि कोई
देवतुल्य पुरुष, जनसेवक किसी गरीब,दीन-हीन समाज का उद्धार करने की मंशा से
उससे जुड़ गया है। टाट उस जगह को छू-छूकर निहाल हो रहा है जिस जगह मखमल ने
अपने चरण धरे हैं। टाट अपने उद्धार का काम मखमल को आउटसोर्स करके हवा के
झूलने लगता है और जिस जगह मखमल ने अवतार लिया उसी जगह से और फ़टता चला जाता
है -जंह-जंह चरण पड़े सन्तन के, तंह-तंह बंटाधार।कभी-कभी मुझे लगता है कि ये सब मुहावरा बनाने वाले झल्लाये हुये लोग रहे होंगे। उनकी पगार कम रही होगी। जिस तरह कम तन्खवाह पाने वाला अध्यापक अपना सारा गुस्सा बच्चों को पीटने और मुर्गा बनाने में उतारता रहता है ऐसे ही मुहावरा बनाने वाले अपनी झल्लाहट मुहावरों को लंगड़ा-लूला और ऐंचा-ताना बनाकर उतारते रहे।
जिस
तरह कम तन्खवाह पाने वाला अध्यापक अपना सारा गुस्सा बच्चों को पीटने और
मुर्गा बनाने में उतारता रहता है ऐसे ही मुहावरा बनाने वाले अपनी झल्लाहट
मुहावरों को लंगड़ा-लूला और ऐंचा-ताना बनाकर उतारते रहे।
अब देखिये ऐंचा-ताना घराने के ही इस मुहावरे को देखिये। एक मुहावरा है- आंख के अन्धे नाम नयन सुख।
इससे लगता है मुहावरा बनाने वाले ने किसी अंधे की खिल्ली उड़ाई है कि उसको
आंखों से दिखाई नहीं देता और नाम नयनसुख है। झल्लाहट में वह भूल गया कि वह
डबल अपराध की सजा में भी नामजद हो सकता है। एक तो वह किसी दृष्टिहीन की
खिल्ली उड़ा रहा है और दूसरे अपनी अकल का भी मुजाहिरा कर रहा। आप सोचकर
देखिये कि किसी का नयनसुख क्या होता है? किसी की आंखों को कोई चीज अच्छी
दिखी तो वही उसका नयनसुख हुआ न! दृष्टि हीन को भले खुद नजरों से दिखाई न दे
लेकिन उसको देखकर तो किसी दूसरे को सुख उपज सकता है। एक दृष्टिहीन को
देखकर कित्ते लोगों को नयनसुख मिलता होगा। ब्लैक सिनेमा में रानी मुखर्जी की एक्टिंग देखकर कित्ते लोगों की आंखें भर आईं। कित्तों को नयन सुख मिला होगा। वहां यह गलत साबित हो गया न! ओह! कहां से शुरू किये थे। कहां पहुंच गये।
आप भी कहेंगे- कहां-कहां की लन्तरानी हांकते रहते हैं। कह लीजिये। आप गलत भी तो नहीं कह रहे हैं!
मेरी पसंद
एक तुम्हारा होना क्या से क्या कर देता है।बेजबान छत दीवारों को घर कर देता है।
खाली शब्दों में आता है ऐसा अर्थ पिरोना
गीत बन गया सा लगता है घर का कोना-कोना।
एक तुम्हारा होना सपनों को स्वर देता है।
बेजबान छत दीवारों को घर कर देता है।
आरोहों-अवरोहों से समझाने अगती हैं
तुम से जुड़कर चीजें भी बतियाने लगती हैं।
एक तुम्हारा होना अपना पन भर देता है।
बेजबान छत दीवारों को घर कर देता है।
माहेश्वर प्रसाद तिवारी
“……तो मुहावरची ने उसकी खिल्ली उड़ाकर उसको टोक दिया होगा और बेचारी छछूंदर अपना सा सर लेकर रह गई होगी….”
गजब हास्य की सृष्टि करते हैं आप. उतना ही मजबूत व्यंग्य-
“…… टाट पर जहां मखमल जुड़ता है मीडिया टाइप की नजरे उस जगह को घूर-घूर कर उसकी निजता का उल्लंघन करती हैं। वे गैर इरादतन तरीके से टाट की कमजोरी और मखमल की चिरकुट चुनाव का बखान करती हैं।”
और ऐंचा-ताना घराना…… वाह …
अरे हां…एक बात तो पूछना भूल ही गई………. ” कुछ सुगंध विशेषज्ञ बताते हैं छ्छूंदर एक बदबूदार जीव होती है।”
ये सुगंध विशेषज्ञ कौन हैं?
बुड्ढी घोड़ी लाल लगाम !
बेचारे घोड़े को क्या ऍलाट किया है, जी ?
जरा उधरौ लाइट मार देते, तो तेरा क्या बिगड़ जाता, फ़ुरसतिया ?
‘धड़कता हुआ सर’ समझ में नहीं आया। छछुन्दर का दिल उसके सिर में होता है क्या?
हो भी सकता है – वो कहावत है न ” दिमाग घुटने में” …[किसी के उपर छींटाकसी की कोई मंसा नहीं है ]
एवरेज तो देखिए इस गाड़ी का। भटकेंगे नहीं तो और क्या होगा?
@ विवेक सिंह, भले आदमी आजकल मिलते कहां हैं भाई! सब लोग टिपियाने-कमेंटियाने में बिजी हैं।
@डा.अमर कुमार, सब तरफ़ लाइट मारी जायेगी। अब हर आइडिया तो रूपा फ़्रंट लाइन बनियाइन पहने नहीं है कि उसको सबसे आगे कर दिया जाये। बुढऊ घोड़े का भी नम्बर आये कभी।
@ गिरिजेश राव, हमको भी कहां समझ में आया मतलब। अब मामला अटक गया न! जब तक कोई और सुरक्षित मतलब निकले तब तक घुटने /दिमाग वाली बात से ही काम चलाया जाये। वैसे यह कित्ती विकट त्रासदी वाली बात है कि हम लोगों को मजाक भी साइनबोर्ड लगाकर करना पड़े कि -[किसी के उपर छींटाकसी की कोई मंसा नहीं है ] मजाक करने वालों की मरन है भैया!
@ अजित वडनेरकर, जब तक आप जैसा शब्द-मिस्त्री मौजूद है हमारे कने तब तक हमें कौनौ चिन्ता नहीं है जी। मामला कित्ता भी गड़बड़ा जाये हमें तसल्ली है कि आप सुधार दोगे।
@
इस सबके बाद भी हम एक बिन्दु पकड़ के बैठ गये हैं और आराधना जी का प्रश्न पुनः उठा रहे हैं ।
जब कुछ नहीं था तो उत्तर इतना लम्बा और पहाड़ी रास्तों की तरह घुमावदार क्यों दिये ?
करते हैं !
टाट और मखमल का विश्लेषण बढियां रहा !
कहावतों की मौजिया-उत्पत्ति-प्रक्रिया भी अच्छी लग रही है .. नयनसुख के साथ तो यही
हुआ होगा ! नयनसुख के भी अपने तर्क निकाल दिए आपने !
आपको पढ़ते हुए भारतेन्दुयुगीन प्रताप नारायण मिश्र की याद आती है , मौजियाने का
कुछ वैसा ही तरीका .. यह सिर्फ संयोग नहीं है कि आप दोनों लोग कानपुर से ताल्लुक रखते हैं !
.
कहावतों की आपूर्ति ( चाहें तो आउट-सोर्सिंग कह लें ) मेज पर रखे कागज़ पर हो गयी ! आभार !
कई नई बातें जानने को मिलीं इस पोस्ट से-
-पहली बात तो आप सहिष्णु हैं…अपने ऊपर हुये कटाक्ष पर भी पोस्ट लिख डालते हैं.
-दूसरी बात आप कभी छछून्दर से नहीं मिले, वो बदबूदार होती है, ये आपको किसी विशेषज्ञ ने बताया है.
-छछून्दर को आपने नहीं देखा पर आपको ये मालूम है कि उसका सिर धड़कता है. वैसे ये बात नई पता चली हमें.
-बहुत से मुहावरे एक जगह पर मिले और उनकी नयी-नयी व्याख्याएँ भी.
-हमारा मीडिया किस प्रकार का व्यवहार करता है ये भी पता चला, वन्दना जी को तो मज़ा आ गया इस बात पर.
-ये भी पता लगा कि डियो-टेल्कम आदि का कान्सेप्ट इन्सान नाम के प्राणी ने छछून्दर से लिया है, पर छछून्दर पढ़ी-लिखी न होने के कारण मुकदमा नहीं कर सकी.
और भी बहुत सी बातें पता चलीं…सबसे बढ़कर कि आपकी पिछली पोस्ट अभिधा में थी…और ये वाली भी शायद…ही ही ही ही
@ amrendra nath tripathi और एक बात अमरेन्द्र से, प्रताप नारायण मिश्र शायद उन्नाव के थे…उनका गाँव उन्नाव जिले के बैजे गाँव में था शायद.
” प्रताप नारायण मिश्र जी उन्नाव जिले के अंतर्गत बैजे गाँव निवासी, कात्यायन गोत्रीय, कान्यकुब्ज ब्राहृमण पं. संकटादीन
के पुत्र थे। बड़े होने पर वह पिता के साथ कानपुर में रहने लगे और अक्षरारंभ के पश्चात् उनसे ही ज्योतिष पढ़ने लगे। ” [ विकि-स्रोत ]
……….. आपने सही गाँव बताया हुजूर का .. पर ”ताल्लुक” शब्द तो व्यापक स्फीति में है .. जैसा आप भी जानती हैं कि मिश्र जी ने
”ब्राह्मण” कानपुर से ही निकाली थी जिसके लिए ये बहुचर्चित हुए .. कर्मभूमि तो कानपुर थी न ! ताल्लुक से मेरा अभिप्राय इतना भर
ही था .. आपके ध्यानाकर्षण कराने का सुफल यह रहा कि इसी बहाने मैं प्रताप जी पर कुछ ठहरा .. आभार ..
गजब्बे का कमाल है..
आपका लिखा पसन्द, आपका कहा पसन्द, आपकी मौज पसन्द, फुरसतिया स्टाइल पसन्द, आपकी मौजूँ स्माइल पसन्द !
आपकी पसन्द भी पसन्द !
माहेश्वर जी का गीत लिखकर तो रिझा गये आप !
आभार !
इससे तो आप फुरसतिया नहीं, फटफटिया और धकधकिया साबित हुए न