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तुम्हारी याद गुनगुनी धूप सी पसरी है
By फ़ुरसतिया on January 21, 2012
घर से बाहर निकलकर अपन जबलपुर आ गये।
पिछले इतवार को बैठ गये चित्रकूट एक्सप्रेस में और सोमवार सबेरे पहुंच गये जबलपुर! नयी फ़ैक्ट्री में ज्वाइन भी कर लिया उसई दिन! कानपुर की हथियार बनाने वाली फ़ैक्ट्री से निकल जबलपुर की वाहन बनाने वाली फ़ैक्ट्री में एक हफ़्ता बिता भी दिया- देखते-दाखते। घूमते-फ़िरते।
इस बीच सब जगह मौसम बहुत सर्दीला हो गया। पता चला उत्तर भारत में कड़क जाड़ा पड़ रहा है। यहां घूप खिली है वहां कोहरा छाया हुआ है। खबर पता लगते ही मन किया कि दो-चार क्षणिकायें निकाल दें। जाड़ा, धूप, कोहरा, हवा, ठिठुरन की रेसिपी बनाकर। लेकिन फ़िर मटिया दिये। वैसे भी जाड़े में कवितायें शायद कम लिखी जाती हैं। ठिठुरता हुआ आदमी पहले गर्मी खोजता है। गर्मी पाते ही वह फ़िर उसी के सुख में डूब जाता है। कविता दायें-बाय़ें हो जाती है।
जिन लोगों ने भी जाड़े में कवितायें लिखीं होंगी उनमें से अधिकतर ने गुनगुनी धूप और कोहरा जरूर इस्तेमाल किया होगा। दुखी लोग अपनी कविता में कोहरा भर देते हैं और कम दुखी लोग गुनगुनी धूप। कुछ पालिटिकली करेक्ट टाइप के लोग दोनों चीजें मिला देते हैं। लेकिन कभी-कभी अनुपात गड़बड़ा जाता है। मुझे तो जाड़े की गुनगुनी धूप वाली कविता ज्यादा जमती है।
आपको सच्ची बतायें कि इस बीच हमने दो-चार कवितायें सोची भी। लेकिन नोट नहीं किया। लेकिन दिमाग में तो अटकी ही होंगी। देखिये खोजते हैं जितनी बरामद हो जायें:
१. तुम्हारी याद
गुनगुनी धूप सी पसरी है
मेरे चारो तरफ़।
कोहरा तुम्हारी अनुपस्थिति की तरह
उदासी सा फ़ैला है।
धीरे-धीरे
धूप फ़ैलती जा रही है
कोहरा छंटता जा रहा है।
२. जाड़े ने कोहरे के साथ मिलकर
सुबह की धूप को जकड़ लिया!
धूप ने सूरज को मदद को पुकारा
उसने रोशनी और गर्मी की कुमुक् भेजी
मार भगाया कोहरे और जाड़े को
धूप मुस्कराती रही दिन भर खुशी से।
इसई तरह की तमाम कवितायें फ़ुदकती रहती हैं लेकिन हम उनको समझा देते हैं। मन में ही रहो। बाहर बहुत जाड़ा है। सर्दी लग जायेगी। ठिठुर जाओगी। कुछ कवितायें संस्कारी होती हैं। चुप लगाकर बैठ जाती हैं। कुछ मनाकरने के बावजूद फ़ुदककर बाहर आ जाती हैं। जैसे ये दो आ गयीं। मैंने छोटी कविताओं को समझा कर रखा है कि कभी अकेली बाहर मत निकलना। जमाना बड़ा खराब है। जब निकलना किसी दूसरी कविता के साथ निकलना। कम से कम इन कविताओं ने मेरा कहना तो माना।
जबलपुर मेरा जाना-पहचाना शहर है। परसाईजी के चलते इस शहर से भावनात्मक लगाव भी है। मेरे साथ के तमाम सारे लोग यहां हैं। पता नहीं कितने दिन का दाना-पानी इस शहर का बदा है। लिखना-पढ़ना अभी तो ऐं-वैं ही है। देखिये आगे कैसा होता है।
मेरी पोस्ट पर रचना जी की टिप्पणी थी:
इक गीत तुम्हारे मिलने का
इक गीत तुम्हारे खोने का
सड़कों-सड़कों, शहरों-शहरों
नदियों-नदियों, लहरों-लहरों
विश्वास किये जो टूट गये
कितने ही साथी छूट गये
पर्वत रोये-सागर रोये
नयनों ने भी मोती खोये
सौगन्ध गुंथी-सी अलकों में
गंगा-जमुना सी पलकों में
केवल दो स्वप्न बुने मैंने
इक स्वप्न तुम्हारे जगने का
इक स्वप्न तुम्हारे सोने का
बचपन-बचपन, यौवन-यौवन
बन्धन-बन्धन, क्रन्दन-क्रन्दन
नीला अम्बर,श्यामल मेघा
किसने धरती का मन देखा
सबकी अपनी मजबूरी है
चाहत के भाग्य लिखी दूरी
मरुथल-मरुथल,जीवन-जीवन
पतझर-पतझर, सावन-सावन
केवल दो रंग चुने मैंने
इक रंग तुम्हारे हंसने का
एक रंग तुम्हारे रोने का
केवल दो गीत लिखे मैंने
इक गीत तुम्हारे मिलने का
इक गीत तुम्हारे खोने का।
राजेन्द्र राजन
सहारनपुर
पिछले इतवार को बैठ गये चित्रकूट एक्सप्रेस में और सोमवार सबेरे पहुंच गये जबलपुर! नयी फ़ैक्ट्री में ज्वाइन भी कर लिया उसई दिन! कानपुर की हथियार बनाने वाली फ़ैक्ट्री से निकल जबलपुर की वाहन बनाने वाली फ़ैक्ट्री में एक हफ़्ता बिता भी दिया- देखते-दाखते। घूमते-फ़िरते।
इस बीच सब जगह मौसम बहुत सर्दीला हो गया। पता चला उत्तर भारत में कड़क जाड़ा पड़ रहा है। यहां घूप खिली है वहां कोहरा छाया हुआ है। खबर पता लगते ही मन किया कि दो-चार क्षणिकायें निकाल दें। जाड़ा, धूप, कोहरा, हवा, ठिठुरन की रेसिपी बनाकर। लेकिन फ़िर मटिया दिये। वैसे भी जाड़े में कवितायें शायद कम लिखी जाती हैं। ठिठुरता हुआ आदमी पहले गर्मी खोजता है। गर्मी पाते ही वह फ़िर उसी के सुख में डूब जाता है। कविता दायें-बाय़ें हो जाती है।
जिन लोगों ने भी जाड़े में कवितायें लिखीं होंगी उनमें से अधिकतर ने गुनगुनी धूप और कोहरा जरूर इस्तेमाल किया होगा। दुखी लोग अपनी कविता में कोहरा भर देते हैं और कम दुखी लोग गुनगुनी धूप। कुछ पालिटिकली करेक्ट टाइप के लोग दोनों चीजें मिला देते हैं। लेकिन कभी-कभी अनुपात गड़बड़ा जाता है। मुझे तो जाड़े की गुनगुनी धूप वाली कविता ज्यादा जमती है।
आपको सच्ची बतायें कि इस बीच हमने दो-चार कवितायें सोची भी। लेकिन नोट नहीं किया। लेकिन दिमाग में तो अटकी ही होंगी। देखिये खोजते हैं जितनी बरामद हो जायें:
१. तुम्हारी याद
गुनगुनी धूप सी पसरी है
मेरे चारो तरफ़।
कोहरा तुम्हारी अनुपस्थिति की तरह
उदासी सा फ़ैला है।
धीरे-धीरे
धूप फ़ैलती जा रही है
कोहरा छंटता जा रहा है।
२. जाड़े ने कोहरे के साथ मिलकर
सुबह की धूप को जकड़ लिया!
धूप ने सूरज को मदद को पुकारा
उसने रोशनी और गर्मी की कुमुक् भेजी
मार भगाया कोहरे और जाड़े को
धूप मुस्कराती रही दिन भर खुशी से।
इसई तरह की तमाम कवितायें फ़ुदकती रहती हैं लेकिन हम उनको समझा देते हैं। मन में ही रहो। बाहर बहुत जाड़ा है। सर्दी लग जायेगी। ठिठुर जाओगी। कुछ कवितायें संस्कारी होती हैं। चुप लगाकर बैठ जाती हैं। कुछ मनाकरने के बावजूद फ़ुदककर बाहर आ जाती हैं। जैसे ये दो आ गयीं। मैंने छोटी कविताओं को समझा कर रखा है कि कभी अकेली बाहर मत निकलना। जमाना बड़ा खराब है। जब निकलना किसी दूसरी कविता के साथ निकलना। कम से कम इन कविताओं ने मेरा कहना तो माना।
जबलपुर मेरा जाना-पहचाना शहर है। परसाईजी के चलते इस शहर से भावनात्मक लगाव भी है। मेरे साथ के तमाम सारे लोग यहां हैं। पता नहीं कितने दिन का दाना-पानी इस शहर का बदा है। लिखना-पढ़ना अभी तो ऐं-वैं ही है। देखिये आगे कैसा होता है।
मेरी पोस्ट पर रचना जी की टिप्पणी थी:
सर्दी गर्मी हो या बरसातरचनाजी की अपनी सोच है। इसके पहले भी उन्होंने कई बार मुझे महिलाओं के चित्र लगाने पर एतराज जताया है। मुझे इसमें कुछ गलत नहीं लगता कि सार्वजनिक रूप से उपलब्ध चित्रों में से छांटकर कोई एक चित्र पोस्ट पर लगाया जाये। संयोग से जिस पोस्ट पर उन्होंने अफ़सोस जताया उसमें एक बच्चे और एक बुजुर्ग का भी चित्र था। महिला का चित्र भी मुझे अच्छा लगा इसलिये मैंने उसे भी लगा दिया। फ़ोटो भी ऐसे ही नहीं मिल जाते हैं। उनको खोजने के लिये मेहनत करनी पड़ती है। चित्र चुनते समय यह ध्यान मैं हमेशा रखता हूं कि वे ऐसे न हों जो देखने में खराब लगें। बाकी तो हर एक की अपनी-अपनी नजर है। अपनी-अपनी सोच है।
अनूप शुक्ल को लड़कियों के फोटो मिल ही जाते हैं चेंपने के लिये
अफ़सोस
मेरी पसंद
केवल दो गीत लिखे मैंनेइक गीत तुम्हारे मिलने का
इक गीत तुम्हारे खोने का
नदियों-नदियों, लहरों-लहरों
विश्वास किये जो टूट गये
कितने ही साथी छूट गये
पर्वत रोये-सागर रोये
नयनों ने भी मोती खोये
गंगा-जमुना सी पलकों में
केवल दो स्वप्न बुने मैंने
इक स्वप्न तुम्हारे जगने का
इक स्वप्न तुम्हारे सोने का
बन्धन-बन्धन, क्रन्दन-क्रन्दन
नीला अम्बर,श्यामल मेघा
किसने धरती का मन देखा
सबकी अपनी मजबूरी है
चाहत के भाग्य लिखी दूरी
पतझर-पतझर, सावन-सावन
केवल दो रंग चुने मैंने
इक रंग तुम्हारे हंसने का
एक रंग तुम्हारे रोने का
इक गीत तुम्हारे मिलने का
इक गीत तुम्हारे खोने का।
राजेन्द्र राजन
सहारनपुर
Posted in बस यूं ही | 31 Responses
Shikha Varshney की हालिया प्रविष्टी..यूँ ही …..कभी कभी…
तब तक कुछ और कविताओं को फुदकायिये… का यी ट्रांसफर पर गए हैं ?
arvind mishra की हालिया प्रविष्टी..ब्लॉग जगत में एक अदद उद्धव की तलाश!
संतोष त्रिवेदी की हालिया प्रविष्टी..मौसमी हैं बादल !
नई जगह की कई कवितायेँ और पुरानी रचना रही !
घर से बाहर जाता आदमी लौटता भी है,ऐसी उम्मीद बराबर रखना.कविता को ठण्ड से बचा के रखोगे तो रचना -धर्म कैसे निभाओगे ? मैंने तो ठंडी-ठंडी में कुछ ज्यादा ही कबिताई कर ली !
बकिया,रचना-धर्म भले भूल जाओ,पर रचनाजी का ध्यान रखना.स्त्री वैसे तो बराबर है पर पुरुष के ब्लॉग पर बिना किसी उद्देश्य के उसका चित्र होना मुझे भी खटकता है.मुझे लगता है,ब्लॉग पर ट्रेफिक बढाने का यह शॉर्ट-कट अब छोड़ दो.अधिकतर पाठक आपकी पोस्ट के बजाय चित्र को देखने लगते हैं,बिना और कुछ पढ़े !
..आपकी जुड़वां कवितायेँ अच्छी लगीं,राजेंद्र राजन खूब प्रभावित करते हैं !
परदेस में अपना ख्याल रखना,ठण्ड महसूस हो तो कबिताई करना !
संतोष त्रिवेदी की हालिया प्रविष्टी..मौसमी हैं बादल !
हर बार की तरह, व्यंग्य और पसंद दोनो लाज़वाब है।
–
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी लगाई है!
सूचनार्थ!
तो अब आप जबलपुर चले गए? कानपूर का क्या होगा ?
देवांशु निगम की हालिया प्रविष्टी..अथ श्री "कार" महात्म्य!!!
आपकी कवितायें बड़ी ही जीवंत लगीं. बधाई
aradhana की हालिया प्रविष्टी..दिए के जलने से पीछे का अँधेरा और गहरा हो जाता है…
amit srivastava की हालिया प्रविष्टी.." वो महकते रहें,हम बहकते रहें …."
amit srivastava की हालिया प्रविष्टी.." वो महकते रहें,हम बहकते रहें …."
तभी आपने वो भावुक कविता लिखी थी – घर से बाहर जाता आदमी।
सतीश पंचम की हालिया प्रविष्टी..चुनावी आचार संहिता से पनप सकता है ‘बूतक साहित्य’
सरकार की जी-हज़ूरी में यूं आए दिन टंडीरा उठाए घूमना नियति है क्योंकि सरकार मानकर चलती है कि, केवल उसके ही, नौकर एक जगह रह गए तो ढेरों नोट छाप मारेंगे…
संतोष त्रिवेदी की हालिया प्रविष्टी..मौसमी हैं बादल !
ठग्गू के लड्डू तो खा नहीं पाए थे, पर अब तो भेड़ाघाट के दर्शन करने आना ही होगा.
रवि की हालिया प्रविष्टी..आसपास बिखरी हुई शानदार कहानियाँ – Stories from here and there – 63
पर ये ख्याल आ रहा है…….अपने ही देश के एक क्षेत्र के लोगों का कोहरा..गुनगुनी धूप…ठिठुराती हवा से कोई परिचय नहीं होता…उनकी कविताओं में तो इन शब्दों को जगह नहीं मिल पाती होगी.
rashmi ravija की हालिया प्रविष्टी..बंद दरवाजों का सच (समापन किस्त )
प्रवीण पाण्डेय की हालिया प्रविष्टी..भ्रष्ट है, पर अपना है
जाड़ा, धूप, कोहरा, हवा, ठिठुरन की मिक्स वेज तो वाकई जायकेदार है…
शुभकामनायें उस्ताद !
सतीश सक्सेना की हालिया प्रविष्टी..पापा को भी प्यार चाहिए -सतीश सक्सेना
अब जल्द ही मुलाकात होगी …
VFJ और खमरिया का तापमान , बाकी जबलपुर से और कम होता है ..बच के रहिएगा .
आशीष श्रीवास्तव
rachna की हालिया प्रविष्टी..संरक्षण से मुक्ति यानी नारी पुरुष समानता
वैसे भी, क्या हर बार चित्र लगाने से पहले किसी को यह सोचना पड़ेगा कि इसमें कोई स्त्री तो नहीं है ? या आपके अनुसार स्त्रियों को जाड़ा नहीं लगता ?
आपकी आपत्ति सिर्फ आपत्ति करने के लिए है तो कोई बात नहीं, दर्ज कराती रहें, कोई उसका मकसद है तो बताएं
रचना जी – रही बात चित्र से पोस्ट के सम्बन्ध की – तो महिला पूरे तौर पर गरम कपड़ों में है – इसमें आपत्ति का कारण?
पिछली पोस्ट की बात हो रही थी – जिसमे रजाई का ज़िक्र था
हल्ला बोल !
शायद कभी बांदा में मिल लें …..हम भी ?
(इंटरसेक्शन पॉइंट जी )
प्राइमरी के मास्साब की हालिया प्रविष्टी..जो गुरु बसै बनारसी, सीष समुन्दर तीर