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हिन्दी के प्रथम चिट्ठाकार आलोक कुमार से बातचीत
By फ़ुरसतिया on June 10, 2012
पिछले हफ़्ते हिन्दी के प्रथम चिट्ठाकार आलोक कुमार
से आनलाइन मुलाकात हुई। अचानक मन किया कि उनसे ब्लॉगिंग के शुरुआती दौर के
बारे में कुछ बातचीत की। वे आजकल लंदन में हैं। हमसे साढ़े पांच घंटे के
समयान्तराल पर। इस चैटालाप में मेरे सवाल ब्लॉगिंग के आसपास टहल रहे थे
लेकिन आलोक के जबाब अंतर्जाल और दुनिया में हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के
मद्देनजर थे। अन्तर्जाल पर हिन्दी के बढ़ावे को लेकर लगाव का एहसास उनके एक
जबाब से मिलता है जिसमें वे कहते हैं- अगर लोग देवनागरी में और हिंदी में कोस रहे हैं तो खुशी। क्योंकि अंततः लक्ष्य तो हिंदी की सामग्री बढ़ाना था।
आलोक हिंदी चिट्ठाकारी के शुरुआती दिनों में हुई तमाम घटनाओं से जुड़े रहे
हैं। नीचे बांयी तरफ़ दिया हुआ आलोक का परिचय मार्च,2005 के चिट्ठाविश्व से
लिया गया है। मनीला के बाद वे कई जगह रहे। संप्रति वे लंदन में हैं। उनसे
हुयी अनौपाचारिक बातचीत के कुछ अंश:
काहे का इंटरव्यू?
आप आदि चिट्ठाकार हैं। आपसे बात होगी तो तमाम शुरुआती बातें पता चलेंगी ब्लागिंग के बारे में।
अच्छा! ले सकते हैं अभी ही ! मैं रुक सकता हूँ।
इसके पहले कहीं और छपा है इंटरव्यू?
नहीं सिर्फ़ कुछ उद्धरण!
अरे वाह! आदि चिट्ठाकार इंटरव्यू विहीन! हिंदी सबसे पहले कैसी लिखी?
स्कूल में।
मेरा मतलब हिंदी की सबसे पहली पोस्ट से था ?उसमें हिन्दी कैसे लिखी थी?
पहले तख्ती से लिखा था! फिर इंस्क्रिप्ट।
जय हनुमान वाली साइट से?
हाँ
सबसे पहले हिंदी नेट पर किधर दिखी थी? कुछ याद है?
हाँ – मुक्त निर्देशिका परियोजना में
तख्ती का पता कैसा लगा ?
तख्ती का पता यूज़्नेट से चला।
अपने अलावा फ़िर दूसरा चिट्ठा कौन सा दिखा ?
दूसरा चिट्ठा -विनय का दिखा। उन्हें भाषा में काफ़ी दिलचस्पी है-मुझसे ज़्यादा!
तीसरे की भी याद है?
हाँ यहाँ देखें -शुरुआती दौर के चिट्ठों के लिंक दिये हैं।
अरे वाह! लेकिन मेरी समझ में पद्मजा का ब्लाग मेरे से पहले आ गया था! उसका जिक्र नहीं इसमें!
हाँ वह भी था! हो सकता है न हो जिक्र!
शुरुआती दौर की ब्लागिंग की खास यादें? क्या खास बातें याद हैं शुरुआती दिनों की?
एक तो आज़ादी की भावना! कि हम भी लिख सकते हैं हिंदी में!बल्कि, कोई भी लिख सकता है! फिर यह कि मैं हमेशा के संपादक के रूप में देखता था कि कितनी सारी भाषाओं के जालस्थल मेरी आँखों के सामने कैसे बढ़े! पर हिंदी के नहीं। ऐसा क्यों, यह सोचा फिर लगा कि बढ़ने का इंतज़ार क्यों करना यह तो खुद ही किया जा सकता है। कोई रोक या बंदिश नहीं है, सरकारी कोटा नहीं है राशन की दुकान की तरह! जितना चाहे लिखो।
सही है।
तो लिखने का जोश और बढ़ा! पर मैं कोई बहुत अच्छा लेखक तो नहीं हूँ! पर लोगों ने लिखना शुरू किया यह अच्छी बात थी!
हाँ क्योंकि मकसद यह था कि इससे जुड़ा रहूँ, तो रोज कुछ न कुछ लिखना! यह बात ज़रूर सीखी कि कुछ चीज़ जारी रखनी हो तो रोज़ थोड़ा थोड़ा करते रहो!तो चलती रहेगी- शौकिया ही सही! तीसरी बात थी हिंदी में लिखने से जो आत्मीयता आती है वह और किसी भाषा में नहीं- कम से कम मेरे लिए, यह सबके लिए सच नहीं होगा!मगर शुरुआत में बहुत सी तकनीकी बाधाएँ थी जिनसे लोग इसे अपना नहीं पाए ऊपर से इंटर्नेट, बिजली, कंप्यूटर का तामझाम। और अंततः खाली समय होना! आज की तारीख में मोबाइल, आईपैड और बेतार इंटर्नेट है!तो उतनी मुश्किल नहीं होनी चाहिए! लेकिन ज़्यादातर लोग पढ़ते हैं, लिखते नहीं है!यह बात नहीं समझी। और पढ़ने वालों को चाहिए अच्छी सामग्री ,या तो जानकारी, या मनोरंजन या आर्थिक लाभ वाली।
जब और लोग आये देबू, रवि रतलामी, पंकज नरूला, जीतेंद्र चौधरी, ईस्वामी , रमन कौल! तब कैसा लगा ?
जब भी कोई और लेखक आए खुशी हुई! मुझे यह था कि कोई कुछ भी लिखे । देवनागरी में हिंदी लिख रहा है तो इसका मतलब है कि हिंदी की सामग्री अंतर्जाल पर बढ़ रही है। हाँ मेरे भी पसंदीदा और नापसंदीदा लेखक थे, हैं वह अलग बात है।
पंकज नरुला ने बनाया अच्छा था!
वो पहले से परिचित थे आपसे?
नहीं ! जाल पर मिले! वह काफ़ी प्रयोग करते रहते हैं। यह भी उनका एक प्रयोग था।
एक ही कालेज के थे दोनों।
पर अलग अलग साल से लेकिन उसकी वजह से जुड़ाव तो है ही। कुछ बात है कि शायद चंडीगढ़ के मेरे कॉलेज में लोगों को है कि हिंदी में क्यों नहीं बात करते या पंजाबी में क्यों नहीं बात करते। वहाँ पर जब मैं था तो सभी आपस में हिंदी में ही बात करते थे, या पंजाबी में। अंग्रेज़ी में बात करने वालों को ‘यैंकी’ कह के गाली दी जाती थी।
अच्छा!
दरअसल चंडीगढ़ है तो शहर पर बहुत छोटा है।दस लाख लोग भी नहीं है और लोग आसपास के हरियाणा, पंजाब, जम्मू, हिमाचल के शहरों से पढ़ने आते थे।
हिंदी से इतना तगड़ा लगाव होने का कोई खास कारण?
इतना तगड़ा। इतना तगड़ा तो है नहीं।
तमिल कैसे जानते हैं?
मैं भारत के लगभग हर कोने में रहा हूँ। तो आती है।
मुझे याद है चिट्ठाचर्चा में तमिल के चिट्ठों की चर्चा का जिम्मा लिया था आपने। तमिल पढ़-लिख लेते हैं?
हाँ लिया था पर मुझे बोलचाल वाली तमिल आती है बहुत क्लिष्ट औपचारिक तमिल नहीं- हाँ पढ़ना आसान है तमिल। शायद सभी ब्राह्मी-शैली की लिपियों में सबसे आसान तमिल पढ़ना है।
नहीं। बात करना और अच्छी तरह लिख पाने में काफ़ी फ़र्क है। तमिल में काफ़ी समर्पण से काम करने वाले लोग हैं। हिंदी से ज़्यादा। शायद किसी भी भारतीय भाषा से ज़्यादा।
चिट्ठाचर्चा की शुरुआत कैसी लगी थी?
चिट्ठा चर्चा की शुरूआत – लोगों को रोचित रखने के लिए अच्छी थी। बहुत समय माँगती है लेकिन कुछ दिन किया लेकिन चल नहीं पाया।
हिन्दी ब्लागिंग में अब तक के सफ़र की सबसे उल्लेखनीय घटना क्या लगती है?
यह कहना मुश्किल है। पर यह ज़रूर है कि आपको कोई नामी लेखक होने की ज़रूरत नहीं है। अगर अच्छा लिखते हैं तो लोग पढ़ेंगे। और वर्तनी, व्याकरण में जो विविधता है-आश्चर्यजनक है। क्योंकि मैं हमेशा शहरों में रहा पर फिर भी कानपुर, लखनऊ, दिल्ली, चंडीगढ़ की अपनी अपनी भाषा, बोली है।उसे लेखकों ने अपनी कलम से प्रस्तुत किया जो कि शायद छपे लेखों में कभी न होता क्योंकि हर प्रकाशन के अपने कायदे कानून होते हैं। वह एक अच्छी चीज़ है।जैसे कुछ लेखक, जो उर्दू भी जानते हैं, नुक्ते, बिना नुक्ते का पूरा ध्यान रखते हैं। आप असली दूनिया में ऐसे लोग खोजते रह जाएँगे लेकिन जाल पर ऐसा एक भी इंसान क्यों न हो उससे संपर्क करना बहुत आसान है। हाँ शुरू में लोग आपस में ज़्यादा संपर्क रखते थे सो उसका भी अपना लाभ है।
बहुत ज़्यादा लोग मुझे ऐसे संबोधित करते भी नहीं है। पर करते हैं तो एक बात ज़रूर लगती है कि चिट्ठे तो केवल एक सतह है। इसके अलावा विकिपीडिया है, तरह तरह के उपयोगी जालस्थल हैं। ऑनलाइन खरीदारी है।इन सब चीज़ों में उतना काम नहीं हुआ ।
क्या कारण है कि बाकी चीजों में उतना काम नहीं हो पाया?
किसी ने कहा था कि अगर खरीदारी करनी हो तो अंग्रेज़ी में लिखी सामग्री वाली स्थल ज़्यादा भरोसेमंद लगती है। यह चीज़ अभी भी बदली नहीं है।क्योंकि यह सब शौकिया है। और अंग्रेज़ी में यह सब करना ज़्यादा आसान है।अंग्रेज़ी के दस पन्ने बनाना हिंदी के सौ पन्ने बनाने से अधिक फ़ायदेमंद है।तो व्यापारी बुद्धि का इंसान क्या करेगा
लेकिन मौके हर जगह हैं।
जैसे कि फ़िल्मी चर्चाएँ, कहानियाँ, मनोरंजन, गीतों में लोग पसंद करेंगे हिंदी में पढ़ना। हिंदी में चीज़ें कम हैं तो इसका मतलब यह भी है कि उन्हें बना के लाभ पाने के मौके अधिक हैं। या न भी हों यह प्रयोग करना होगा। हर बार दाँव लगाने पर जीत नहीं होती!
ब्लागिंग से जुड़े तमाम पुराने लेख, पोस्टें नेट में मिलते नहीं
मिलते नहीं – जैसे कौन से?
जैसे अक्षरग्राम और तमाम अन्य और सबसे ब्लॉगिंग के शुरुआती दिनों की हलचलें वहां हैं।
अक्षरग्राम बंद है। लेकिन शुरुआती सामग्री यहां पर मिलेगी। बात यह है कि इंसान पीछे तब देखता है जब वह मान लेता है कि जो करना चाहिए था वह हो चुका ।
आज लोग ब्लागिंग में पी एच डी कर रहे हैं उनको ब्लागिंग के शुरुआती दिनों की उनको जानकारी मिलती नहीं!
तो पीएचडी करें। उस को करने या न करने से अंतर्जाल को क्या लाभ मिल रहा है, यानी उस पीएचडी की क्या उपयोगिता है। यानी उस पीएचडी का लक्ष्य क्या है? बुद्धिमान लोग अपने रास्ते चलते हैं न कि यह सोचते हैं कि गधे के ऊपर बैठूँ या गधे को गोदी ले कि चलूँ।
ब्लागिंग अभिव्यक्ति की विधा के रूप में स्थापित हुई तो स्कूलों में पीएचडी होने लगी। हिंदी ब्लागिंग का इतिहास लिखा गया। छपा।
हाँ, पर क्रिकेट देखने और विश्लेषण करने और क्रिकेट खेलने में फ़र्क करना ज़रूरी है या नहीं?
विश्लेषण के लिए बहुत जल्दी है। अभी जब कुछ हुआ ही नहीं तो विश्लेषण किस बात का।
भाषा/शैली/लेखन/सामग्री के लिहाज से।
तो यह बताएँ कि जाल पर लेखन, कुल हिंदी लेखन का कितना प्रतिशत होगा? इससे पता चलेगा कि अभी विश्लेषण का समय है या नहीं।
प्रतिशत तो बहुत कम होगा
1 से कम या अधिक। 10 से कम या अधिक । और अगर कम , वास्तव में कम है तो उसको बढ़ाना लक्ष्य होना चाहिए न कि तथाकथित ऐतिहासिक विवादों में पड़ना।
आपका ब्लाग लेखन कम हो गया।
आलोक: हाँ अफ़सोस है इस बात का।
समय की कमी?
हाँ। इसलिए आपको दाद देता हूँ। आपने कायम रखा।और मैं कोई अच्छा लेखक हूँ भी नहीं आपकी तरह।
फ़िलीपीन्स और तमाम दूसरी जगह रहे आप। वहां के बारे में संस्मरण नहीं लिखे। लिखते तो अच्छा रहता।
मैं हमेशा सोचता था कि हर रोज कुछ लिखूँगा। कुछ भी। पर किसी खास विषय के बारे में लिखने के लिए काफ़ी अनुशासन चाहिए। और फिर किसी दिन लिखने को कुछ न हो तो क्या करें। इसलिए पेशेवर लेखकों का लोहा मानता हूँ।
बहुत कम। अपनी डाक ही पढ़ पाऊँ तो बहुत है ।
शुरुआती दिनों के मुकाबले आज की ब्लागिंग की स्थिति कैसी लगती है?
मुझे लगता है कि अब जाल का नयापन खत्म है।अब लोग जाल पर कुछ पाने के लिए जाते हैं। जैसे पहले दूरदर्शन पर कोई भी कार्यक्रम आता था लोग देखते ही थे। पर अब अगर कुछ खरीदना है या कुछ जानकारी लेनी है या दोस्त लोग क्या कर रहे हैं। पता करने के लिए लोग उसका इस्तेमाल करते हैं और लोगों की आदतें जम जाती हैं कुछ समय बाद। यह मैंने अपने साथ देखा है। जैसे, मैं दिन में कुल 5-6 स्थल देखता हूँगा। और अगले दिन फिर वही!
अब चुनाव की आजादी है इस रूप में देखना चाहिये क्या इसे?
चुनाव की आज़ादी तो हमेशा ही थी। अब आदत की मजबूरी है। उदाहरण के लिए अगर डाक पढ़ने में रोज 20 मिनट जाता है और आपके पास कुल 10 मिनट हैं।मतलब कुल 30 मिनट तो बाकी के 10 मिनट में आप कुछ नया तो रोज नहीं खोजेंगे।उन्हीं पुरानी जगहों पर जाएँगे।
क्या आपका मानना है कि हिन्दी ब्लागिंग के दिन पूरे हो गये?
दिन पूरे होने में निराशा की झलक दिखती है।मेरा तो कहना है कि जब जागो तब सवेरा। अभी भी उतनी ही आज़ादी है। और तकनीक और खर्च पहले से भी कम है।
सीमा की बात तो तब आती है जब कहीं पहुँचने के लक्ष्य हो। वह लक्ष्य क्या था? पैसा? ख्याति? वित्तैषणा और लोकैषणा दो चीज़ें हैं। आप यह देखिए कि कोई इंसान डायरी रखता है। दूसरा अखबार में लेख छापता है।ये दो प्रकार के प्राणी हैं और अधिकतर लेखक इनके बीच में कहीं हैं। अब आप अगर हर बार यही लिखेंगे कि मैंने कल आलू के पराँठे खाए और आपने क्या खाए, तो आपके पाठक तो दूर लेखक खुद ही पक जाएगा ।
संकलक के रूप में नारद, चिट्ठाजगत और ब्लागवाणी रहे।अब कोई नहीं है। क्या कारण है इसका।
यह खर्चीला काम है। समय, और पैसे दोनो के लिहाज़ से।
खर्चा लगभग कित्ता महीने में लग जाता होगा आजकल?
मुझे नहीं लगता कि पैसे का उतना अड़ंगा है,समय का ही ज़्यादा है।
चिट्ठाजगत शुरु होने की कोई संभावना लगती है?
संभावना हमेशा है। साक्षात्कार के हिसाब से मैं कुछ बता नहीं सकता हूँ। क्योंकि वह अपने आप पर दबाव डालने वाली बात होगी। पर इतना तय है कि यदि कोई चीज़ आपकी पहली प्राथमिकता नहीं है तो वह हमेशा टलती ही रहेगी
और इसमें भी यही हो रहा है।
पर इस साक्षात्कार ने सोचने पर मजबूर किया है, उसके लिए धन्यवाद! मैं मानता हूँ कि भारत में बहुत से मुद्दे हैं जो जाल पर काफ़ी अच्छी तरह प्रस्तुत किए जा सकते हैं क्योंकि टीवी आदि में बहस केवल सनसनी पैदा करने के लिए होती हैं सामग्री आधारित नहीं।
अगर मेरी जैसी सामान्य तकनीक का जानकार इसे चलाना चाहे तो चला सकता है?
आलोक:चला तो सकता है।लेकिन अगर कोई तकनीकी समस्या आई तो किसी की मदद लेनी पड़ेगी। यानी, कोई रामबाण नहीं है!
ब्लागवाणी और चिट्ठाजगत लगभग एक ही समय में उठान पर थे। कुछ बहस भी हुई उन दिनों ब्लागवाणी के संचालक से आपकी आज उन दिनों को कैसे देखते हैं?
शायद उस समय दोनो ही और अधिक विविधता से कुछ और भी चीज़ें करने की कोशिश करते तो अच्छा रहता।दिमाग में विचार भी काफ़ी थे । लेकिन उन दिनों चिट्ठे काफ़ी तेज़ी से बढ़ रहे थे इसलिए उसमें लगे रहे और मज़ा भी आया। और दूसरे संकलक होने से यह लगा कि संकलक पर काम करना समय का जायज़ इस्तेमाल है। अगर होड़ न होती तो सुधार भी न होता।क्योंकि सुधार काफ़ी हुआ उन दिनों।
अगर लोग देवनागरी में और हिंदी में कोस रहे हैं तो खुशी। क्योंकि अंततः लक्ष्य तो हिंदी की सामग्री बढ़ाना था। हाँ यह बात ज़रूर है कि किस प्रकार की सामग्री।लेकिन गेहूँ के साथ कुछ तो घुन पिसेगा ही। लेकिन काफ़ी चीज़ें सीखने को मिलीं।एक बात और है कि हिंदी का संकलक होने की वजह से भावुकता भी अधिक थी। सभी में, संचालकों, लेखकों और पाठकों में। यह अच्छी बात भी है और खराब भी।
हिन्दी ब्लागिंग के शुरुआती प्रयोग अनुगूंज, बुनोकहानी,निरंतर , चिट्ठाचर्चा में से क्या सबसे उल्लेखनीय लगा आपको?
आलोक: अनुगूँज। क्योंकि यह मेरे जैसे लोगों को लिखने के लिए कुछ विषय देता था! इसे फ़िर से शुरु होना चाहिये। लेकिन सोचने की बात यह है कि जो चीज़ 10-20 लोगों के साथ ठीक चलती है, 100, 1000, 10000 लोगों के साथ भी चल पाएगी या नहीं। लक्ष्य वास्तविकतावादी होना चाहिए।
हास्यास्पद। लेकिन अच्छे लेखकों को लोकप्रिय बनाने के लिहाज़ से काफ़ी अच्छा है।
समय मिलने पर कौन से ब्लाग देखते हैं?
आजकल मैं अधिकतर खबरी स्थल देखता हूँ जैसे कि बीबीसी हिंदी, नवभारत और अपनी ट्विटर से। काफ़ी लोग हिंदी में लिखते हैं अब ट्विटर पर।
आपके जीवन का क्या लक्ष्य है?
अरे बाप रे। लगता है आपके सवाल खत्म हो गए!
नही। आपके समय का ख्याल रखते हुये ये पूछा।
आलोक: यूँ तो मोक्षप्राप्ति है। पर उस दिशा में कुछ खास कर नहीं रहा हूँ।
इसके बाद आलोक से फोन पर काफ़ी देर वार्ता हुयी। रात बारह के करीब हो गये थे उस दिन यहां के समय के हिसाब से।
हिन्दी का पहला चिट्ठा नौ दो ग्यारह
लिखने वाले आलोक कुमार पढ़ाई से सिविल इञ्जीनियर, पेशे से प्रोग्रामर और
शौक से लेखक हैं। जन्म हुआ जोधपुर में, उसके बाद दिल्ली, लिसोथो, गुवाहाटी,
दिल्ली, चण्डीगढ़, पुणे, रायपुर, चेन्नई, जामनगर, मुम्बई, बङ्गलोर और
संप्रति मनीला में हैं। ब्लॉग के लिए “चिट्ठा” शब्द का ईज़ाद करने वाले
आलोक का हिन्दी चिट्ठा गत वर्ष ईंडीब्लॉग अवार्ड्स से भी नवाज़ा जा चुका है। आलोक जाल पर देवनागरी के प्रसार और स्वतन्त्र तन्त्रांश
के कई कार्यों से जुड़े रहे हैं पर नहीं चाहते कि उन पर “हिन्दीवाला” होने
का ठप्पा लगाया जाए। उनका मानना है कि भाषा के साथ, संस्कृति जुड़ी होती
है, और सामाजिक सम्बन्ध भी। आलोक मानते हैं कि जाल पर दो चीज़ें करना
ज़रुरी है, पहला, जाल पर भारतीय भाषाओं के स्थलों के पढ़ने और बनाने का
सरलीकरण, और दूसरा भारतीय भाषाओं में अधिक से अधिक काम की सामग्री को पैदा
करना। उनका मत है कि इन दोनो ही कार्यों कि जिम्मेवारी सरकार की नहीं,
हमारी है।
सोचते हैं आपका इंटरव्यू लिया जाये !ब्लागिंग के बारे में!काहे का इंटरव्यू?
आप आदि चिट्ठाकार हैं। आपसे बात होगी तो तमाम शुरुआती बातें पता चलेंगी ब्लागिंग के बारे में।
अच्छा! ले सकते हैं अभी ही ! मैं रुक सकता हूँ।
इसके पहले कहीं और छपा है इंटरव्यू?
नहीं सिर्फ़ कुछ उद्धरण!
अरे वाह! आदि चिट्ठाकार इंटरव्यू विहीन! हिंदी सबसे पहले कैसी लिखी?
स्कूल में।
मेरा मतलब हिंदी की सबसे पहली पोस्ट से था ?उसमें हिन्दी कैसे लिखी थी?
पहले तख्ती से लिखा था! फिर इंस्क्रिप्ट।
जय हनुमान वाली साइट से?
हाँ
सबसे पहले हिंदी नेट पर किधर दिखी थी? कुछ याद है?
हाँ – मुक्त निर्देशिका परियोजना में
तख्ती का पता कैसा लगा ?
तख्ती का पता यूज़्नेट से चला।
अपने अलावा फ़िर दूसरा चिट्ठा कौन सा दिखा ?
दूसरा चिट्ठा -विनय का दिखा। उन्हें भाषा में काफ़ी दिलचस्पी है-मुझसे ज़्यादा!
तीसरे की भी याद है?
हाँ यहाँ देखें -शुरुआती दौर के चिट्ठों के लिंक दिये हैं।
अरे वाह! लेकिन मेरी समझ में पद्मजा का ब्लाग मेरे से पहले आ गया था! उसका जिक्र नहीं इसमें!
हाँ वह भी था! हो सकता है न हो जिक्र!
शुरुआती दौर की ब्लागिंग की खास यादें? क्या खास बातें याद हैं शुरुआती दिनों की?
एक तो आज़ादी की भावना! कि हम भी लिख सकते हैं हिंदी में!बल्कि, कोई भी लिख सकता है! फिर यह कि मैं हमेशा के संपादक के रूप में देखता था कि कितनी सारी भाषाओं के जालस्थल मेरी आँखों के सामने कैसे बढ़े! पर हिंदी के नहीं। ऐसा क्यों, यह सोचा फिर लगा कि बढ़ने का इंतज़ार क्यों करना यह तो खुद ही किया जा सकता है। कोई रोक या बंदिश नहीं है, सरकारी कोटा नहीं है राशन की दुकान की तरह! जितना चाहे लिखो।
सही है।
तो लिखने का जोश और बढ़ा! पर मैं कोई बहुत अच्छा लेखक तो नहीं हूँ! पर लोगों ने लिखना शुरू किया यह अच्छी बात थी!
यह
बात ज़रूर सीखी कि कुछ चीज़ जारी रखनी हो तो रोज़ थोड़ा थोड़ा करते रहो!तो
चलती रहेगी- शौकिया ही सही! तीसरी बात थी हिंदी में लिखने से जो आत्मीयता
आती है वह और किसी भाषा में नहीं- कम से कम मेरे लिए
हां लेकिन लिखने का अंदाज आपका टेलीग्रामिया रहा!हाँ क्योंकि मकसद यह था कि इससे जुड़ा रहूँ, तो रोज कुछ न कुछ लिखना! यह बात ज़रूर सीखी कि कुछ चीज़ जारी रखनी हो तो रोज़ थोड़ा थोड़ा करते रहो!तो चलती रहेगी- शौकिया ही सही! तीसरी बात थी हिंदी में लिखने से जो आत्मीयता आती है वह और किसी भाषा में नहीं- कम से कम मेरे लिए, यह सबके लिए सच नहीं होगा!मगर शुरुआत में बहुत सी तकनीकी बाधाएँ थी जिनसे लोग इसे अपना नहीं पाए ऊपर से इंटर्नेट, बिजली, कंप्यूटर का तामझाम। और अंततः खाली समय होना! आज की तारीख में मोबाइल, आईपैड और बेतार इंटर्नेट है!तो उतनी मुश्किल नहीं होनी चाहिए! लेकिन ज़्यादातर लोग पढ़ते हैं, लिखते नहीं है!यह बात नहीं समझी। और पढ़ने वालों को चाहिए अच्छी सामग्री ,या तो जानकारी, या मनोरंजन या आर्थिक लाभ वाली।
जब और लोग आये देबू, रवि रतलामी, पंकज नरूला, जीतेंद्र चौधरी, ईस्वामी , रमन कौल! तब कैसा लगा ?
जब भी कोई और लेखक आए खुशी हुई! मुझे यह था कि कोई कुछ भी लिखे । देवनागरी में हिंदी लिख रहा है तो इसका मतलब है कि हिंदी की सामग्री अंतर्जाल पर बढ़ रही है। हाँ मेरे भी पसंदीदा और नापसंदीदा लेखक थे, हैं वह अलग बात है।
आपको
कोई नामी लेखक होने की ज़रूरत नहीं है। अगर अच्छा लिखते हैं तो लोग
पढ़ेंगे। और वर्तनी, व्याकरण में जो विविधता है-आश्चर्यजनक है।
शुरुआती दौर में अक्षरग्राम आयी। इसकी शुरुआत कैसे हुई?पंकज नरुला ने बनाया अच्छा था!
वो पहले से परिचित थे आपसे?
नहीं ! जाल पर मिले! वह काफ़ी प्रयोग करते रहते हैं। यह भी उनका एक प्रयोग था।
एक ही कालेज के थे दोनों।
पर अलग अलग साल से लेकिन उसकी वजह से जुड़ाव तो है ही। कुछ बात है कि शायद चंडीगढ़ के मेरे कॉलेज में लोगों को है कि हिंदी में क्यों नहीं बात करते या पंजाबी में क्यों नहीं बात करते। वहाँ पर जब मैं था तो सभी आपस में हिंदी में ही बात करते थे, या पंजाबी में। अंग्रेज़ी में बात करने वालों को ‘यैंकी’ कह के गाली दी जाती थी।
अच्छा!
दरअसल चंडीगढ़ है तो शहर पर बहुत छोटा है।दस लाख लोग भी नहीं है और लोग आसपास के हरियाणा, पंजाब, जम्मू, हिमाचल के शहरों से पढ़ने आते थे।
हिंदी से इतना तगड़ा लगाव होने का कोई खास कारण?
इतना तगड़ा। इतना तगड़ा तो है नहीं।
तमिल कैसे जानते हैं?
मैं भारत के लगभग हर कोने में रहा हूँ। तो आती है।
मुझे याद है चिट्ठाचर्चा में तमिल के चिट्ठों की चर्चा का जिम्मा लिया था आपने। तमिल पढ़-लिख लेते हैं?
हाँ लिया था पर मुझे बोलचाल वाली तमिल आती है बहुत क्लिष्ट औपचारिक तमिल नहीं- हाँ पढ़ना आसान है तमिल। शायद सभी ब्राह्मी-शैली की लिपियों में सबसे आसान तमिल पढ़ना है।
चिट्ठा चर्चा की शुरूआत – लोगों को रोचित रखने के लिए अच्छी थी। बहुत समय माँगती है लेकिन कुछ दिन किया लेकिन चल नहीं पाया।
चर्चा की नहीं कभी तमिल में?नहीं। बात करना और अच्छी तरह लिख पाने में काफ़ी फ़र्क है। तमिल में काफ़ी समर्पण से काम करने वाले लोग हैं। हिंदी से ज़्यादा। शायद किसी भी भारतीय भाषा से ज़्यादा।
चिट्ठाचर्चा की शुरुआत कैसी लगी थी?
चिट्ठा चर्चा की शुरूआत – लोगों को रोचित रखने के लिए अच्छी थी। बहुत समय माँगती है लेकिन कुछ दिन किया लेकिन चल नहीं पाया।
हिन्दी ब्लागिंग में अब तक के सफ़र की सबसे उल्लेखनीय घटना क्या लगती है?
यह कहना मुश्किल है। पर यह ज़रूर है कि आपको कोई नामी लेखक होने की ज़रूरत नहीं है। अगर अच्छा लिखते हैं तो लोग पढ़ेंगे। और वर्तनी, व्याकरण में जो विविधता है-आश्चर्यजनक है। क्योंकि मैं हमेशा शहरों में रहा पर फिर भी कानपुर, लखनऊ, दिल्ली, चंडीगढ़ की अपनी अपनी भाषा, बोली है।उसे लेखकों ने अपनी कलम से प्रस्तुत किया जो कि शायद छपे लेखों में कभी न होता क्योंकि हर प्रकाशन के अपने कायदे कानून होते हैं। वह एक अच्छी चीज़ है।जैसे कुछ लेखक, जो उर्दू भी जानते हैं, नुक्ते, बिना नुक्ते का पूरा ध्यान रखते हैं। आप असली दूनिया में ऐसे लोग खोजते रह जाएँगे लेकिन जाल पर ऐसा एक भी इंसान क्यों न हो उससे संपर्क करना बहुत आसान है। हाँ शुरू में लोग आपस में ज़्यादा संपर्क रखते थे सो उसका भी अपना लाभ है।
एक
बात ज़रूर लगती है कि चिट्ठे तो केवल एक सतह है। इसके अलावा विकिपीडिया
है, तरह तरह के उपयोगी जालस्थल हैं। ऑनलाइन खरीदारी है।इन सब चीज़ों में
उतना काम नहीं हुआ ।
कैसा लगता है जब लोग आपको आदि चिट्ठाकार, ब्लागजगत के पितामह जैसे संबोधन देते हैं?बहुत ज़्यादा लोग मुझे ऐसे संबोधित करते भी नहीं है। पर करते हैं तो एक बात ज़रूर लगती है कि चिट्ठे तो केवल एक सतह है। इसके अलावा विकिपीडिया है, तरह तरह के उपयोगी जालस्थल हैं। ऑनलाइन खरीदारी है।इन सब चीज़ों में उतना काम नहीं हुआ ।
क्या कारण है कि बाकी चीजों में उतना काम नहीं हो पाया?
किसी ने कहा था कि अगर खरीदारी करनी हो तो अंग्रेज़ी में लिखी सामग्री वाली स्थल ज़्यादा भरोसेमंद लगती है। यह चीज़ अभी भी बदली नहीं है।क्योंकि यह सब शौकिया है। और अंग्रेज़ी में यह सब करना ज़्यादा आसान है।अंग्रेज़ी के दस पन्ने बनाना हिंदी के सौ पन्ने बनाने से अधिक फ़ायदेमंद है।तो व्यापारी बुद्धि का इंसान क्या करेगा
लेकिन मौके हर जगह हैं।
हिंदी
में चीज़ें कम हैं तो इसका मतलब यह भी है कि उन्हें बना के लाभ पाने के
मौके अधिक हैं। या न भी हों यह प्रयोग करना होगा। हर बार दाँव लगाने पर जीत
नहीं होती!
हां है तो।जैसे कि फ़िल्मी चर्चाएँ, कहानियाँ, मनोरंजन, गीतों में लोग पसंद करेंगे हिंदी में पढ़ना। हिंदी में चीज़ें कम हैं तो इसका मतलब यह भी है कि उन्हें बना के लाभ पाने के मौके अधिक हैं। या न भी हों यह प्रयोग करना होगा। हर बार दाँव लगाने पर जीत नहीं होती!
ब्लागिंग से जुड़े तमाम पुराने लेख, पोस्टें नेट में मिलते नहीं
मिलते नहीं – जैसे कौन से?
जैसे अक्षरग्राम और तमाम अन्य और सबसे ब्लॉगिंग के शुरुआती दिनों की हलचलें वहां हैं।
अक्षरग्राम बंद है। लेकिन शुरुआती सामग्री यहां पर मिलेगी। बात यह है कि इंसान पीछे तब देखता है जब वह मान लेता है कि जो करना चाहिए था वह हो चुका ।
आज लोग ब्लागिंग में पी एच डी कर रहे हैं उनको ब्लागिंग के शुरुआती दिनों की उनको जानकारी मिलती नहीं!
तो पीएचडी करें। उस को करने या न करने से अंतर्जाल को क्या लाभ मिल रहा है, यानी उस पीएचडी की क्या उपयोगिता है। यानी उस पीएचडी का लक्ष्य क्या है? बुद्धिमान लोग अपने रास्ते चलते हैं न कि यह सोचते हैं कि गधे के ऊपर बैठूँ या गधे को गोदी ले कि चलूँ।
ब्लागिंग अभिव्यक्ति की विधा के रूप में स्थापित हुई तो स्कूलों में पीएचडी होने लगी। हिंदी ब्लागिंग का इतिहास लिखा गया। छपा।
हाँ, पर क्रिकेट देखने और विश्लेषण करने और क्रिकेट खेलने में फ़र्क करना ज़रूरी है या नहीं?
मैं
हमेशा सोचता था कि हर रोज कुछ लिखूँगा। कुछ भी। पर किसी खास विषय के बारे
में लिखने के लिए काफ़ी अनुशासन चाहिए। और फिर किसी दिन लिखने को कुछ न हो
तो क्या करें। इसलिए पेशेवर लेखकों का लोहा मानता हूँ।
हां ब्लाग का विश्लेषण करने के लिये भी पुरानी पोस्टों के लिंक जरूरी होते हैं न!विश्लेषण के लिए बहुत जल्दी है। अभी जब कुछ हुआ ही नहीं तो विश्लेषण किस बात का।
भाषा/शैली/लेखन/सामग्री के लिहाज से।
तो यह बताएँ कि जाल पर लेखन, कुल हिंदी लेखन का कितना प्रतिशत होगा? इससे पता चलेगा कि अभी विश्लेषण का समय है या नहीं।
प्रतिशत तो बहुत कम होगा
1 से कम या अधिक। 10 से कम या अधिक । और अगर कम , वास्तव में कम है तो उसको बढ़ाना लक्ष्य होना चाहिए न कि तथाकथित ऐतिहासिक विवादों में पड़ना।
आपका ब्लाग लेखन कम हो गया।
आलोक: हाँ अफ़सोस है इस बात का।
समय की कमी?
हाँ। इसलिए आपको दाद देता हूँ। आपने कायम रखा।और मैं कोई अच्छा लेखक हूँ भी नहीं आपकी तरह।
फ़िलीपीन्स और तमाम दूसरी जगह रहे आप। वहां के बारे में संस्मरण नहीं लिखे। लिखते तो अच्छा रहता।
मैं हमेशा सोचता था कि हर रोज कुछ लिखूँगा। कुछ भी। पर किसी खास विषय के बारे में लिखने के लिए काफ़ी अनुशासन चाहिए। और फिर किसी दिन लिखने को कुछ न हो तो क्या करें। इसलिए पेशेवर लेखकों का लोहा मानता हूँ।
मुझे
लगता है कि अब जाल का नयापन खत्म है।अब लोग जाल पर कुछ पाने के लिए जाते
हैं। जैसे पहले दूरदर्शन पर कोई भी कार्यक्रम आता था लोग देखते ही थे।
आज कल ब्लाग देख पाते हैं?बहुत कम। अपनी डाक ही पढ़ पाऊँ तो बहुत है ।
शुरुआती दिनों के मुकाबले आज की ब्लागिंग की स्थिति कैसी लगती है?
मुझे लगता है कि अब जाल का नयापन खत्म है।अब लोग जाल पर कुछ पाने के लिए जाते हैं। जैसे पहले दूरदर्शन पर कोई भी कार्यक्रम आता था लोग देखते ही थे। पर अब अगर कुछ खरीदना है या कुछ जानकारी लेनी है या दोस्त लोग क्या कर रहे हैं। पता करने के लिए लोग उसका इस्तेमाल करते हैं और लोगों की आदतें जम जाती हैं कुछ समय बाद। यह मैंने अपने साथ देखा है। जैसे, मैं दिन में कुल 5-6 स्थल देखता हूँगा। और अगले दिन फिर वही!
अब चुनाव की आजादी है इस रूप में देखना चाहिये क्या इसे?
चुनाव की आज़ादी तो हमेशा ही थी। अब आदत की मजबूरी है। उदाहरण के लिए अगर डाक पढ़ने में रोज 20 मिनट जाता है और आपके पास कुल 10 मिनट हैं।मतलब कुल 30 मिनट तो बाकी के 10 मिनट में आप कुछ नया तो रोज नहीं खोजेंगे।उन्हीं पुरानी जगहों पर जाएँगे।
क्या आपका मानना है कि हिन्दी ब्लागिंग के दिन पूरे हो गये?
दिन पूरे होने में निराशा की झलक दिखती है।मेरा तो कहना है कि जब जागो तब सवेरा। अभी भी उतनी ही आज़ादी है। और तकनीक और खर्च पहले से भी कम है।
अब आप अगर हर बार यही लिखेंगे कि मैंने कल आलू के पराँठे खाए और आपने क्या खाए, तो आपके पाठक तो दूर लेखक खुद ही पक जाएगा ।
क्या इसे इस तरह दख सकते हैं कि ब्लागिंग की एक सीमा होती है-दो-तीन-चार-पांच साल में ऊब जाता है लेखक/ब्लागर ?सीमा की बात तो तब आती है जब कहीं पहुँचने के लक्ष्य हो। वह लक्ष्य क्या था? पैसा? ख्याति? वित्तैषणा और लोकैषणा दो चीज़ें हैं। आप यह देखिए कि कोई इंसान डायरी रखता है। दूसरा अखबार में लेख छापता है।ये दो प्रकार के प्राणी हैं और अधिकतर लेखक इनके बीच में कहीं हैं। अब आप अगर हर बार यही लिखेंगे कि मैंने कल आलू के पराँठे खाए और आपने क्या खाए, तो आपके पाठक तो दूर लेखक खुद ही पक जाएगा ।
संकलक के रूप में नारद, चिट्ठाजगत और ब्लागवाणी रहे।अब कोई नहीं है। क्या कारण है इसका।
यह खर्चीला काम है। समय, और पैसे दोनो के लिहाज़ से।
खर्चा लगभग कित्ता महीने में लग जाता होगा आजकल?
मुझे नहीं लगता कि पैसे का उतना अड़ंगा है,समय का ही ज़्यादा है।
चिट्ठाजगत शुरु होने की कोई संभावना लगती है?
संभावना हमेशा है। साक्षात्कार के हिसाब से मैं कुछ बता नहीं सकता हूँ। क्योंकि वह अपने आप पर दबाव डालने वाली बात होगी। पर इतना तय है कि यदि कोई चीज़ आपकी पहली प्राथमिकता नहीं है तो वह हमेशा टलती ही रहेगी
और इसमें भी यही हो रहा है।
भारत
में बहुत से मुद्दे हैं जो जाल पर काफ़ी अच्छी तरह प्रस्तुत किए जा सकते
हैं क्योंकि टीवी आदि में बहस केवल सनसनी पैदा करने के लिए होती हैं
सामग्री आधारित नहीं।
सही है।पर इस साक्षात्कार ने सोचने पर मजबूर किया है, उसके लिए धन्यवाद! मैं मानता हूँ कि भारत में बहुत से मुद्दे हैं जो जाल पर काफ़ी अच्छी तरह प्रस्तुत किए जा सकते हैं क्योंकि टीवी आदि में बहस केवल सनसनी पैदा करने के लिए होती हैं सामग्री आधारित नहीं।
अगर मेरी जैसी सामान्य तकनीक का जानकार इसे चलाना चाहे तो चला सकता है?
आलोक:चला तो सकता है।लेकिन अगर कोई तकनीकी समस्या आई तो किसी की मदद लेनी पड़ेगी। यानी, कोई रामबाण नहीं है!
ब्लागवाणी और चिट्ठाजगत लगभग एक ही समय में उठान पर थे। कुछ बहस भी हुई उन दिनों ब्लागवाणी के संचालक से आपकी आज उन दिनों को कैसे देखते हैं?
शायद उस समय दोनो ही और अधिक विविधता से कुछ और भी चीज़ें करने की कोशिश करते तो अच्छा रहता।दिमाग में विचार भी काफ़ी थे । लेकिन उन दिनों चिट्ठे काफ़ी तेज़ी से बढ़ रहे थे इसलिए उसमें लगे रहे और मज़ा भी आया। और दूसरे संकलक होने से यह लगा कि संकलक पर काम करना समय का जायज़ इस्तेमाल है। अगर होड़ न होती तो सुधार भी न होता।क्योंकि सुधार काफ़ी हुआ उन दिनों।
हिंदी का संकलक होने की वजह से भावुकता भी अधिक थी। सभी में, संचालकों, लेखकों और पाठकों में। यह अच्छी बात भी है और खराब भी।
लोग अनामी नामों से संकलक संचालकों को कोसते भी रहे। कैसा लगता था उन दिनों लोगों के आरोप सुनकर?अगर लोग देवनागरी में और हिंदी में कोस रहे हैं तो खुशी। क्योंकि अंततः लक्ष्य तो हिंदी की सामग्री बढ़ाना था। हाँ यह बात ज़रूर है कि किस प्रकार की सामग्री।लेकिन गेहूँ के साथ कुछ तो घुन पिसेगा ही। लेकिन काफ़ी चीज़ें सीखने को मिलीं।एक बात और है कि हिंदी का संकलक होने की वजह से भावुकता भी अधिक थी। सभी में, संचालकों, लेखकों और पाठकों में। यह अच्छी बात भी है और खराब भी।
हिन्दी ब्लागिंग के शुरुआती प्रयोग अनुगूंज, बुनोकहानी,निरंतर , चिट्ठाचर्चा में से क्या सबसे उल्लेखनीय लगा आपको?
आलोक: अनुगूँज। क्योंकि यह मेरे जैसे लोगों को लिखने के लिए कुछ विषय देता था! इसे फ़िर से शुरु होना चाहिये। लेकिन सोचने की बात यह है कि जो चीज़ 10-20 लोगों के साथ ठीक चलती है, 100, 1000, 10000 लोगों के साथ भी चल पाएगी या नहीं। लक्ष्य वास्तविकतावादी होना चाहिए।
हिन्दी ब्लागिंग में ब्लागर मीट, भाईचारा ,वाद विवाद मठाधीशी जैसे किस्से कैसे लगते हैं ? बेस्ट ब्लागर अवार्ड आदि आयोजन?
हास्यास्पद। लेकिन अच्छे लेखकों को लोकप्रिय बनाने के लिहाज़ से काफ़ी अच्छा है।
हिन्दी ब्लागिंग में ब्लागर मीट, भाईचारा ,वाद विवाद मठाधीशी जैसे किस्से कैसे लगते हैं ? बेस्ट ब्लागर अवार्ड आदि आयोजन?हास्यास्पद। लेकिन अच्छे लेखकों को लोकप्रिय बनाने के लिहाज़ से काफ़ी अच्छा है।
हास्यास्पद। लेकिन अच्छे लेखकों को लोकप्रिय बनाने के लिहाज़ से काफ़ी अच्छा है।
समय मिलने पर कौन से ब्लाग देखते हैं?
आजकल मैं अधिकतर खबरी स्थल देखता हूँ जैसे कि बीबीसी हिंदी, नवभारत और अपनी ट्विटर से। काफ़ी लोग हिंदी में लिखते हैं अब ट्विटर पर।
आपके जीवन का क्या लक्ष्य है?
अरे बाप रे। लगता है आपके सवाल खत्म हो गए!
नही। आपके समय का ख्याल रखते हुये ये पूछा।
आलोक: यूँ तो मोक्षप्राप्ति है। पर उस दिशा में कुछ खास कर नहीं रहा हूँ।
इसके बाद आलोक से फोन पर काफ़ी देर वार्ता हुयी। रात बारह के करीब हो गये थे उस दिन यहां के समय के हिसाब से।
Posted in संस्मरण, साक्षात्कार | 72 Responses
आदि कहने पर आपत्ति -आदि मानव की बदबू आती है …
आरंभिक /पहले ज्यादा उपयुक्त लगता है
arvind mishra की हालिया प्रविष्टी..ग्रीषम दुसह राम वन गमनू ….
Gyandutt Pandey की हालिया प्रविष्टी..गंगा दशहरा
हिंदी में लिखना कितना मुश्किल रहा होगा उस वक़्त, आलोक जी का ब्लॉग ९-२-११ देख के समझ में आया | आजकल तो मामला काफी आसान हो गया है !!!
देवांशु निगम की हालिया प्रविष्टी..इश्क और फेसबुक
देवांशु निगम की हालिया प्रविष्टी..इश्क और फेसबुक
सुरेश चिपलूनकर की हालिया प्रविष्टी..अनुवाद कार्य के लिए “अवकाश” की सूचना एवं पाठकों हेतु शुभकामना संदेश…
Rekha Srivastava की हालिया प्रविष्टी..जनप्रतिनिधियों की पोल !
यह काम आप ही कर सकते हैं।
मनोज कुमार की हालिया प्रविष्टी..गंगावतरण (भाग-१)
यह बात आप ही कह सकते हैं- कह भी दी।
सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी की हालिया प्रविष्टी..पारा चढ़ता जाये रे…
और आभार भी ..अरे दो शब्द हो गए …कोई बात नहीं .पर सच में आभार आलोक जी से मिलाने का.
shikha varshney की हालिया प्रविष्टी..करवट लेते सपने…
अरे ये दो शब्द अतिरिक्त हो गये। कोई नहीं शुक्रिया पढ़ने के लिये।
आशीष श्रीवास्तव की हालिया प्रविष्टी..समय : समय कैसे उत्पन्न होता है ?
Abhishek की हालिया प्रविष्टी..पुराने बैग से…
“सीमा की बात तो तब आती है जब कहीं पहुँचने के लक्ष्य हो। वह लक्ष्य क्या था? पैसा? ख्याति? वित्तैषणा और लोकैषणा दो चीज़ें हैं। आप यह देखिए कि कोई इंसान डायरी रखता है। दूसरा अखबार में लेख छापता है।ये दो प्रकार के प्राणी हैं और अधिकतर लेखक इनके बीच में कहीं हैं।”
और फिर यह शोध और विश्लेषण वाली बात -
“तो पीएचडी करें। उस को करने या न करने से अंतर्जाल को क्या लाभ मिल रहा है, यानी उस पीएचडी की क्या उपयोगिता है। यानी उस पीएचडी का लक्ष्य क्या है?”..
“विश्लेषण के लिए बहुत जल्दी है। अभी जब कुछ हुआ ही नहीं तो विश्लेषण किस बात का।”
आपका और पितामह -दोनों का आभार।
हिमांशु की हालिया प्रविष्टी..राजकुमार सदृश बालक जो वसन सुसज्जित (गीतांजलि का भावानुवाद)
आलोक का व्यक्तित्व हमें विलक्षण लगता है। आदि चिट्ठाकार, बेहतरीन अनुवादक, तकनीक के महारथी, जाने कितने पहलू हैं उनके व्यक्तित्व के। निश्चय ही वे हमारे पसंदीदा चिट्ठाकारों में से हैं।
रही बात इतिहास की तो हम कह सकते हैं कि – “हम नारद के जमाने के ब्लॉगर हैं”
ePandit की हालिया प्रविष्टी..अल्ट्राबुक — नये जमाने के स्लिम-ट्रिम लैपटॉप
इस लेख के लिए आपका आभार अनूप भाई !
सतीश सक्सेना की हालिया प्रविष्टी..गोपाल विनायक गोडसे( Gopal Vinayak Godse ) की कुछ यादें -सतीश सक्सेना
Smart Indian – अनुराग शर्मा की हालिया प्रविष्टी..ब्राह्मण कौन?
प्रणाम.
२००९ में जब आपने हमें बताया के ‘आलोकजी’ सुन्दर नगरी चंडीगढ़ से ताल्लुकात रखते हैं, तब हमने उनसे
२/३ बार दूर-भास पे बात किया था. बात-चीत से वे हमें बहुत कूल और अनुशासित लगे और हम मिलते-मिलते
डर के मरे न मिल पाए :
@ अनुराग चाचू : हम आपके प्रस्ताव को समर्थन देते हैं……
प्रणाम.
आलोक ने कहा कि
” बात यह है कि इंसान पीछे तब देखता है जब वह मान लेता है कि जो करना चाहिए था वह हो चुका ” –
जो करना था वह तो नहीँ हुआ लेकिन उस समय का हिन्दी में लिखने का नयापन व टुल्स के न होने की चुनौती खत्म हो चुकी है। अपने लिखे हुए का अंतर्जाल पर छपना फिर दुनिया भर से टिप्पणी आने का अपना ही मजा था। समय के साथ नयापन व हिन्दी में लिखने की महत्व कम हुआ। अक्षरग्राम का बंद होना मेरी निजी नाकामियों में से एक है। कभी तो लौटेंगे।
तब तक झाडे रहो कलट्टर गंज
पंकज नरुला की हालिया प्रविष्टी..हिन्दी रशियन भाई भाई
झाड़े रहो कलट्टरगंज होता रहेगा तब तक आप आइये लौटकर।
सारगर्भित पोस्ट के लिए साधुवाद.
हिंदी के पुराने ब्लॉग लेखको को जब जब बात चलेगी, आलोक भाई को अवश्य याद किया जाएगा. उनके वो ट्विट्टर टाइप के लेख, आज भी याद हैं.
आशा करता हूँ कि आलोक भाई सहित हिंदी के सभी पुराने ब्लॉग लेखक वापस लौटें, और कम से कम, महीने में एक बार, अनुगूंज टाइप के लेख जरूर लिखें.
लिखने का काम शुरु करो! इसके बाद बाकी के लोगों को जमा करा जायेगा। वर्मा जी के घरवालों के किस्से अधूरे पड़े हैं। मिर्जा याद करते हैं। छुट्टन परेशान है।
Amit की हालिया प्रविष्टी..समीक्षा: ज़ोमैटो रेस्तरां गाइड २०१२
आलोक जी की ब्लॉगिंग को लेकर अधिकतर निष्पत्तियों से इत्तेफाक रखता हूँ |
………….आपका आभार
संतोष त्रिवेदी की हालिया प्रविष्टी..चिरकुट-चूहों से बचाओ !
आभार
eswami की हालिया प्रविष्टी..कटी-छँटी सी लिखा-ई
आलोक जी के विचार जानकर उनके प्रति आदर बढ़ गया।
आखिरी सवाल के उत्तर के संबंध में उनसे कुछ कहना चाहूंगा, पर उनसे ही कहूंगा, जब वह फुरसत निकालें। और टालना उचित नहीं।
सृजन शिल्पी की हालिया प्रविष्टी..मनुष्य, रोबोट और क्लोन
आप के प्रश्न भी बहुत अच्छे रहे.सच कहूँ तो हिंदी प्रथम चिट्ठाकार अलोक जी हैं यह आप की पोस्ट से ही मालूम हुआ.
यह बात तो सभी हिंदी चिट्ठाकारों को मालूम होनी चाहिए.
जहाँ सदी के ब्लोगर के तमगे के लिए प्रतियोगिता चल रही है वहाँ इस बातचीत के ज़रिए काफी अच्छी और सामायिक जानकारी सब को मिलेगी .
शुरूआती हिंदी चिट्ठाकारों के बारे में जानकारी अंतर्जाल पर होना आवश्यक है.
हिंदी को अंतर्जाल पर बढ़ावा देने के लिए आलोक जी के विचार जानने के बाद अब ब्लॉग पर निरंतरता रखने का मन हो आया है देखें कितने दिन आलस का असर नहीं होगा!
सार्थक प्रस्तुति.
Alpana की हालिया प्रविष्टी..जंजीरा दुर्ग ,मुरुड -महाराष्ट्र
मुझे याद है की अनुगूँज में एक बार कुछ बात हो गयी और आलोक नहीं जी ने बड़ी ही नम्रता से मुझे अपना कायल बना लिया था..
आपका धन्यवाद इस उम्दा पोस्ट क लिए…
प्रमेन्द्र की हालिया प्रविष्टी..सद्विचार
आलोक जी का उद्देश्य देवनागरी को अंतर्जाल पर प्रयोग में लाना था, फिर चाहे वह समर्थन हो या विरोध। अब उनके उत्तरवर्ती चिट्ठाकार इस उद्देश्य के प्रति इतने समर्पित प्रतीत नहीं होते, यह चिंता का विषय है। चिट्ठों पर आने वाली टिप्पणियों के सन्दर्भ में मैं यह बात कह रहा हूँ। टिप्पणीकारों ने एक नवीन भाषा विकसित कर ली है जो बोली तो हिन्दी में जाती है पर लिखी रोमन में। रोमन भी ऐसी कि उसके हिज्जे बड़े मनमौजी होते हैं। बिना किसी विधान के संविधान बनाते हुये से। मुझे लगता है कि हिन्दी चिट्ठाकारों को इस मामले में गम्भीर होना चाहिये। चेहरे की किताब (फेसबुक) ने तो इस नवीन भाषा में महारत हासिल कर ली है। मैं इसका विरोध करता रहा हूँ, आगे भी करता रहूँगा। मुझे डर है कि कहीं सिन्धी की तरह हिन्दी भी अपनी लिपि को खो न दे । भाषा के साथ-साथ लिपि की मौलिकता और पवित्रता बनाये रखना भी चिट्ठाकारों का नैतिक दायित्व है। और अब तो वह समय आ चुका है कि जब हम सबको लिपि की मौलिकता, शुद्धता और्र पवित्रता के लिये एक अभियान छेड़ना ही चाहिये।
mukesh sinha की हालिया प्रविष्टी..लेंड-क्रूजर का पहिया