http://web.archive.org/web/20140420082602/http://hindini.com/fursatiya/archives/3079
rowse: Home / पुरालेख / रेल,सड़क और हवाई सफ़र के दौरान इधर-उधर की
रवि रतलामी ने हमें भोपाल स्टेशन पर छोड़ दिया। शताब्दी एक्सप्रेस प्लेटफ़ार्म पर खड़ी थी। हमारे बैठने के कुछ देर बाद ट्रेन चल दी। ट्रेन चल दी के बाद लिखना चाहते थे -छुक,छुक। लेकिन याद आ गया कि अब भाप के इंजन तो रहे नहीं। ट्रेनें छुक-छुक नहीं करती हैं अब! आलोक धन्वा जी की यह कविता भी याद आ गयी:
दिल्ली में जो ड्राइवर हमें लेने आये थे वे कई बड़ी हस्तियों के सारथी रह चुके हैं। कलाम साहब, मुलायम सिंह, जार्ज फ़र्नांडीस, प्रणव मुखर्जी और न जाने किनके-किनके नाम गिना डाले उन्होंने। सबके बारे में संक्षिप्त टिप्पणी भी कि ये ऐसे थे, वे वैसे थे। कलाम साहब के बारे में बताया कि वे भले आदमी थे लेकिन किसी का कोई काम नहीं करा सकते थे। गाड़ी में बैठे हुये भी काम में लगे रहते थे। जार्ज फ़र्नांडीस साहब की तारीफ़ करते हुये ड्राइवर साहब ने बताया कि उन्होंने ऋषिकेश के डी.एम. को फ़ोन करके उसकी जमीन दबंगों के कब्जे से छुड़वाई और कुछ मुआवजा दिलवाया जिससे कि वो अपना मकान बनवा सका।
फ़िर एक सेक्रेटरी के किस्से सुनाते हुये बताया- वे जरा-जरा सी बात की सफ़ाई मांगते थे। उनकी हरकतों से लगता ही नहीं था वे कि बड़ी पोस्ट पर हैं। इसलिये मैंने रक्षा मंत्रालय में गाड़ी चलाना छोड़ दिया।
महीने में 6000 रुपये पाने वाले ड्राइवर साहब अपने परिवार से दूर रहने को मजबूर हैं। महानगरों में हर अगले आदमी के इसी तरह के किस्से हैं।
अगले दिन रक्षा मंत्रालय में एक बैठक में भाग लेना था। भरी दोपहर में देखा कि नार्थ ब्लॉक और साउथ ब्लॉग के बीच की सड़क के बीचो-बीच भद्दर दोपहरी में एक अधिकारीनुमा आदमी किसी कैमरे के सामने खड़े होकर कुछ वक्तव्य टाइप दे रहा था।
स्टैंडनुमा कैमरे के सामने खड़ा अकेला आदमी मुझे किसी तोप के मुहाने पर खड़ा आदमी सा लगता है। कैमरे से सवालों के गोले निकलेंगे और आदमी घायल टाइप हो जायेगा।
मीटिंग के बाद सतीश सक्सेनाजी को फ़ोन किया। शाम हो गयी थी। वे नोयडा में थे। हम दिल्ली में। बोले आने में ड़ेढ़ घण्टा लगेगा। किसी बीच की जगह पर आ जाओ। मिलने का मन है। हमने कहा फ़िर मुलाकात होगी। जब वे आश्वस्त हो गये कि मिलने से बच गये तो तसल्ली से बतियाये और एकाध बार और कस के जाहिर किया- अनूप भाई, मिलने की बहुत इच्छा थी।
महानगरों की दूरियां लोगों की मिलने-जुलने की सहज इच्छाओं का गला घोंट देती हैं। भ्रूण हत्या कर देतीं हैं। बहुत मेहनत करनी पड़ती है मिलने-जुलने के लिये। कोई इसके खिलाफ़ आवाज तक नहीं उठाता। लोग सिर्फ़ कविता लिखकर रह जाते हैं।
इस बीच सक्सेनाजी के कविता संग्रह मेरे गीत का विमोचन भी हो गया कल। ब्लॉग जगत की यह देन है कि लोग रचनायें लिखते रहते हैं। पाठकों की प्रतिक्रियाओं के चलते यह जारी भी रहता है। लिखते-लिखते जब इकट्टा हो जाती हैं तो छप भी जाती हैं। बहुत भला एहसास है यह।
अगले दिन उड़ान सुबह छह बजे थे। रात को एक घंटा देरी की सूचना आ गयी। फ़िर सुबह तो आधा-आधा घंटा करके लगातार लेट होती रही। पता चला कि जहाज में कुछ तकनीकी खराबी थी। इसके बाद दूसरे जहाज का इंतजाम किया गया। जब जहाज का इंतजाम हो गया तो पता चला पायलट नहीं उसके लिये। फ़िर पता चला कि एक ठो पाइलट है जो कि एक दूसरा जहाज लेकर जम्मू गया है। उसके पास अगर उड़ान के घंटे बचे होंगे तो वो लेकर जायेगा हमारा जहाज। वर्ना उड़ान कैंसल।
पायलट से पूछताछ करने के बीच हमको मुफ़्त के नाश्ते के लिये भेज दिया गया। दो ठो पूरी और सब्जी। किसी चौराहे पर ठेले में दस रुपये में मिलने वाला सामान एयरपोर्ट के अंदर आकर 199 का हो गया। मुफ़्त का नाश्ता टूंगते हुये मन किया कि जहाज कुछ घंटे और देर से चले ताकि मुफ़्तिया लंच भी करने का डौल बने।
मध्यमवर्गीय आदमी में मुफ़्त की चीजों के लिये गजब का आकर्षण होता है। हर चीज मुफ़्त में चाहता है।
उधर जबलपुर से दे फ़ोन पर फ़ोन आये जा रहे थे। कब चलोगे, कब पहुंचोगे, कित्ती देर है, अभी चले कि नहीं? जबलपुर से कुछ लोगों को दिल्ली जाना था। जब ये वहां पहुंचेगा तब उधर से लोग इधर आयेंगे।
इस बीच जम्मू से खबर आ गयी कि पायलट खाली है जबलपुर जहाज ले जाने के लिये। हमने एक ठो तो चैन की सांस ली और दो ठो बेचैनी की। चैन की इसलिये कि जहाज जाना पक्का हो गया। बेचैनी की इसलिये कि मुफ़्तिया लंच की संभावना को विराम लग गया।
यह जरूर है कि पायलट की कमी की बात सोचते हुये तमाम बातें सोच डालीं। सोचा कि जहां-जहां हवाई अड्डे हैं वहां-वहां पायलटों के अड्डे बन जायें। जहां पायलट कम पड़ें फ़ोन करके बुलवा लें हवाई अड्डे वाले- जैसे टैक्सी बुलवाते हैं अभी। कोई पायलट एजेंसी खुल जाये और जगह-जगह इस्तहार छपा दे- पायलट ही पायलट आप फ़ोन तो करें। पिज्जा की तरह पायलट सेवा चालू हो कोई।
इन सब ऊटपटांग की बातें सोचते हुये एयरपोर्ट पर ही बलिया निवासी, लखनऊ, इलाहाबाद में पढे-लिखे और संप्रति बंगलौर निवासी अश्विनी कुमार त्रिपाठी से बतकही होती रही। वे कविता कोश से बहुत प्रभावित हैं। कविता कोश में उनको अपनी पसंद की तमाम कवितायें पढ़ने को मिलीं। वास्तव में ललित कुमार और उनके साथियों का बहुत अच्छा काम है यह।
अश्विनीजी प्रवीण पाण्डेय के ब्लॉग से परिचित हैं। और भी कुछ ब्लॉग से। उन ब्लॉग की चर्चा के दौरान हमने अपने ब्लॉग की चर्चा नहीं की। भलमनसाहत की पोलपट्टी खुल जाने के डर से।
खैर अल्ला-अल्ला खैर सल्ला करते हुये जहाज उड़ा और एक घंटे में ही हम जबलपुर उतर गये। ऊंचाई पर अंदर का तामपान 18 डिग्री था और बाहर का माइनस 25 डिग्री। अंदर और बाहर के तापमान में 43 डिग्री का अंतर। बीच हवा में नीचे बादल देखते हुये याद आया – यात्राओं में बेवकूफ़ियां चंद्रमा की कलाओं की तरह खिलती हैं।
नोट: ऊपर का फोटो दिल्ली हवाई अड्डे के टर्मिनल 3 के अंदर का। लगता है बढ़ती हवाई दुर्घटनाओं के चलते प्रार्थना कक्ष की भी व्यवस्था की गयी कि मन्न्न-वन्नत मांगना है तो मांग के चलो। उसके ऊपर की फोटो फ़्लिकर से साभार।
सहेज कर रखा गया था
हिसाब का ये पन्ना
कितनी बची है मूंग की दाल
और
कितना चाहिये इस महीने
मूंगफली का तेल
सब कुछ इसमें था
गृहिणी की उँगलियों के कोमल बंधन में
चौकन्नी चलती कलम से बनी लिखावट
बहुत सुंदर थी
किसी वाग्दत्ता के प्रेम पत्र की तरह
जिसके गोल गोल अंक और अक्षर
झिलमिलाते थे
पन्ने पर पड़े तेल के धब्बों के बीच.
चुटकी से उस दिन
कड़ाही में गिरी हींग
अब भी इस पन्ने पर
बची हुई थी
किसी दूरस्थ गंध के रूप में
पन्ने को न जाने
कितनी जगह और कितने कोणों से
छुआ था उसकी उँगलियों के पोरों ने
कि मसालों का कोई दक्षिण भारतीय बाज़ार
अब भी आबाद था
इसकी चारों भुजाओं की हद में
क्या गृहिणी हिसाब के पन्ने को
रसोई के काम का हिस्सा ही मानती थी
या रसोई से निवृत होकर किया जाने वाला काम?
पता नहीं
पर
ये हिसाब,प्रस्ताव,आकलन आदि के साथ
घर की ज़रूरतों और आकांक्षाओं का संधि पत्र था
इस पन्ने को सहेजने का यत्न
घर को सहेजने का यत्न ही था.
संजय व्यास
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रेल,सड़क और हवाई सफ़र के दौरान इधर-उधर की
By फ़ुरसतिया on June 17, 2012
रवि रतलामी ने हमें भोपाल स्टेशन पर छोड़ दिया। शताब्दी एक्सप्रेस प्लेटफ़ार्म पर खड़ी थी। हमारे बैठने के कुछ देर बाद ट्रेन चल दी। ट्रेन चल दी के बाद लिखना चाहते थे -छुक,छुक। लेकिन याद आ गया कि अब भाप के इंजन तो रहे नहीं। ट्रेनें छुक-छुक नहीं करती हैं अब! आलोक धन्वा जी की यह कविता भी याद आ गयी:
हर भले आदमी की एक रेल होती हैबहरहाल ट्रेन हमें सीधे दिल्ली ले गयी। ट्रेनें भले/सीधे बच्चों की तरह होती हैं। सीधी पटरियों पर चलती हैं। इधर-उधर की ऊटपटांग हरकतों से दूर रहते हुये।
जो माँ के घर की ओर जाती है
सीटी बजाती हुई
धुआँ उड़ाती हुई।
दिल्ली में जो ड्राइवर हमें लेने आये थे वे कई बड़ी हस्तियों के सारथी रह चुके हैं। कलाम साहब, मुलायम सिंह, जार्ज फ़र्नांडीस, प्रणव मुखर्जी और न जाने किनके-किनके नाम गिना डाले उन्होंने। सबके बारे में संक्षिप्त टिप्पणी भी कि ये ऐसे थे, वे वैसे थे। कलाम साहब के बारे में बताया कि वे भले आदमी थे लेकिन किसी का कोई काम नहीं करा सकते थे। गाड़ी में बैठे हुये भी काम में लगे रहते थे। जार्ज फ़र्नांडीस साहब की तारीफ़ करते हुये ड्राइवर साहब ने बताया कि उन्होंने ऋषिकेश के डी.एम. को फ़ोन करके उसकी जमीन दबंगों के कब्जे से छुड़वाई और कुछ मुआवजा दिलवाया जिससे कि वो अपना मकान बनवा सका।
फ़िर एक सेक्रेटरी के किस्से सुनाते हुये बताया- वे जरा-जरा सी बात की सफ़ाई मांगते थे। उनकी हरकतों से लगता ही नहीं था वे कि बड़ी पोस्ट पर हैं। इसलिये मैंने रक्षा मंत्रालय में गाड़ी चलाना छोड़ दिया।
महीने में 6000 रुपये पाने वाले ड्राइवर साहब अपने परिवार से दूर रहने को मजबूर हैं। महानगरों में हर अगले आदमी के इसी तरह के किस्से हैं।
अगले दिन रक्षा मंत्रालय में एक बैठक में भाग लेना था। भरी दोपहर में देखा कि नार्थ ब्लॉक और साउथ ब्लॉग के बीच की सड़क के बीचो-बीच भद्दर दोपहरी में एक अधिकारीनुमा आदमी किसी कैमरे के सामने खड़े होकर कुछ वक्तव्य टाइप दे रहा था।
स्टैंडनुमा कैमरे के सामने खड़ा अकेला आदमी मुझे किसी तोप के मुहाने पर खड़ा आदमी सा लगता है। कैमरे से सवालों के गोले निकलेंगे और आदमी घायल टाइप हो जायेगा।
मीटिंग के बाद सतीश सक्सेनाजी को फ़ोन किया। शाम हो गयी थी। वे नोयडा में थे। हम दिल्ली में। बोले आने में ड़ेढ़ घण्टा लगेगा। किसी बीच की जगह पर आ जाओ। मिलने का मन है। हमने कहा फ़िर मुलाकात होगी। जब वे आश्वस्त हो गये कि मिलने से बच गये तो तसल्ली से बतियाये और एकाध बार और कस के जाहिर किया- अनूप भाई, मिलने की बहुत इच्छा थी।
महानगरों की दूरियां लोगों की मिलने-जुलने की सहज इच्छाओं का गला घोंट देती हैं। भ्रूण हत्या कर देतीं हैं। बहुत मेहनत करनी पड़ती है मिलने-जुलने के लिये। कोई इसके खिलाफ़ आवाज तक नहीं उठाता। लोग सिर्फ़ कविता लिखकर रह जाते हैं।
इस बीच सक्सेनाजी के कविता संग्रह मेरे गीत का विमोचन भी हो गया कल। ब्लॉग जगत की यह देन है कि लोग रचनायें लिखते रहते हैं। पाठकों की प्रतिक्रियाओं के चलते यह जारी भी रहता है। लिखते-लिखते जब इकट्टा हो जाती हैं तो छप भी जाती हैं। बहुत भला एहसास है यह।
अगले दिन उड़ान सुबह छह बजे थे। रात को एक घंटा देरी की सूचना आ गयी। फ़िर सुबह तो आधा-आधा घंटा करके लगातार लेट होती रही। पता चला कि जहाज में कुछ तकनीकी खराबी थी। इसके बाद दूसरे जहाज का इंतजाम किया गया। जब जहाज का इंतजाम हो गया तो पता चला पायलट नहीं उसके लिये। फ़िर पता चला कि एक ठो पाइलट है जो कि एक दूसरा जहाज लेकर जम्मू गया है। उसके पास अगर उड़ान के घंटे बचे होंगे तो वो लेकर जायेगा हमारा जहाज। वर्ना उड़ान कैंसल।
पायलट से पूछताछ करने के बीच हमको मुफ़्त के नाश्ते के लिये भेज दिया गया। दो ठो पूरी और सब्जी। किसी चौराहे पर ठेले में दस रुपये में मिलने वाला सामान एयरपोर्ट के अंदर आकर 199 का हो गया। मुफ़्त का नाश्ता टूंगते हुये मन किया कि जहाज कुछ घंटे और देर से चले ताकि मुफ़्तिया लंच भी करने का डौल बने।
मध्यमवर्गीय आदमी में मुफ़्त की चीजों के लिये गजब का आकर्षण होता है। हर चीज मुफ़्त में चाहता है।
उधर जबलपुर से दे फ़ोन पर फ़ोन आये जा रहे थे। कब चलोगे, कब पहुंचोगे, कित्ती देर है, अभी चले कि नहीं? जबलपुर से कुछ लोगों को दिल्ली जाना था। जब ये वहां पहुंचेगा तब उधर से लोग इधर आयेंगे।
इस बीच जम्मू से खबर आ गयी कि पायलट खाली है जबलपुर जहाज ले जाने के लिये। हमने एक ठो तो चैन की सांस ली और दो ठो बेचैनी की। चैन की इसलिये कि जहाज जाना पक्का हो गया। बेचैनी की इसलिये कि मुफ़्तिया लंच की संभावना को विराम लग गया।
यह जरूर है कि पायलट की कमी की बात सोचते हुये तमाम बातें सोच डालीं। सोचा कि जहां-जहां हवाई अड्डे हैं वहां-वहां पायलटों के अड्डे बन जायें। जहां पायलट कम पड़ें फ़ोन करके बुलवा लें हवाई अड्डे वाले- जैसे टैक्सी बुलवाते हैं अभी। कोई पायलट एजेंसी खुल जाये और जगह-जगह इस्तहार छपा दे- पायलट ही पायलट आप फ़ोन तो करें। पिज्जा की तरह पायलट सेवा चालू हो कोई।
इन सब ऊटपटांग की बातें सोचते हुये एयरपोर्ट पर ही बलिया निवासी, लखनऊ, इलाहाबाद में पढे-लिखे और संप्रति बंगलौर निवासी अश्विनी कुमार त्रिपाठी से बतकही होती रही। वे कविता कोश से बहुत प्रभावित हैं। कविता कोश में उनको अपनी पसंद की तमाम कवितायें पढ़ने को मिलीं। वास्तव में ललित कुमार और उनके साथियों का बहुत अच्छा काम है यह।
अश्विनीजी प्रवीण पाण्डेय के ब्लॉग से परिचित हैं। और भी कुछ ब्लॉग से। उन ब्लॉग की चर्चा के दौरान हमने अपने ब्लॉग की चर्चा नहीं की। भलमनसाहत की पोलपट्टी खुल जाने के डर से।
खैर अल्ला-अल्ला खैर सल्ला करते हुये जहाज उड़ा और एक घंटे में ही हम जबलपुर उतर गये। ऊंचाई पर अंदर का तामपान 18 डिग्री था और बाहर का माइनस 25 डिग्री। अंदर और बाहर के तापमान में 43 डिग्री का अंतर। बीच हवा में नीचे बादल देखते हुये याद आया – यात्राओं में बेवकूफ़ियां चंद्रमा की कलाओं की तरह खिलती हैं।
नोट: ऊपर का फोटो दिल्ली हवाई अड्डे के टर्मिनल 3 के अंदर का। लगता है बढ़ती हवाई दुर्घटनाओं के चलते प्रार्थना कक्ष की भी व्यवस्था की गयी कि मन्न्न-वन्नत मांगना है तो मांग के चलो। उसके ऊपर की फोटो फ़्लिकर से साभार।
मेरी पसंद
किसी पवित्र पांडुलिपि की तरहसहेज कर रखा गया था
हिसाब का ये पन्ना
कितनी बची है मूंग की दाल
और
कितना चाहिये इस महीने
मूंगफली का तेल
सब कुछ इसमें था
गृहिणी की उँगलियों के कोमल बंधन में
चौकन्नी चलती कलम से बनी लिखावट
बहुत सुंदर थी
किसी वाग्दत्ता के प्रेम पत्र की तरह
जिसके गोल गोल अंक और अक्षर
झिलमिलाते थे
पन्ने पर पड़े तेल के धब्बों के बीच.
चुटकी से उस दिन
कड़ाही में गिरी हींग
अब भी इस पन्ने पर
बची हुई थी
किसी दूरस्थ गंध के रूप में
पन्ने को न जाने
कितनी जगह और कितने कोणों से
छुआ था उसकी उँगलियों के पोरों ने
कि मसालों का कोई दक्षिण भारतीय बाज़ार
अब भी आबाद था
इसकी चारों भुजाओं की हद में
क्या गृहिणी हिसाब के पन्ने को
रसोई के काम का हिस्सा ही मानती थी
या रसोई से निवृत होकर किया जाने वाला काम?
पता नहीं
पर
ये हिसाब,प्रस्ताव,आकलन आदि के साथ
घर की ज़रूरतों और आकांक्षाओं का संधि पत्र था
इस पन्ने को सहेजने का यत्न
घर को सहेजने का यत्न ही था.
संजय व्यास
Posted in बस यूं ही | 15 Responses
प्रवीण पाण्डेय की हालिया प्रविष्टी..स्वतन्त्र देवता
सही है गुरु …
अपने जैसा ही मानते हो ..
सतीश सक्सेना की हालिया प्रविष्टी..ब्लोगर साथियों का स्नेह आवाहन -सतीश सक्सेना
arvind mishra की हालिया प्रविष्टी..ग़ज़ल के बादशाह को आख़िरी सलाम
संजय अनेजा की हालिया प्रविष्टी..आकाश में पत्थर
आदमी सा लगता है। कैमरे से सवालों के गोले निकलेंगे और आदमी घायल टाइप हो
जायेगा ?????
जय हो
प्रणाम.
सतीश पंचम की हालिया प्रविष्टी..धइलें रही हमके भर अंकवरीया…..बमचक – 8
संतोष त्रिवेदी की हालिया प्रविष्टी..मेरा हासिल हो तुम !
shikha varshney की हालिया प्रविष्टी..लॉफिंग …..बुद्धा नहीं…पुलिस ..
Abhishek की हालिया प्रविष्टी..सदालाल सिंह (पटना १३)
चलिए, इसी बहाने आप का नाम भी बड़ी बड़ी हस्तियों के साथ जुड़ गया …..
आशीष श्रीवास्तव
Rekha Srivastava की हालिया प्रविष्टी..करत करत अभ्यास ते ……..!